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आप्तवाणी-९
अलग से अपने पास क्यों नहीं रखते?' मैंने कहा, मैं किसलिए रखू चाबियाँ? मुझे गुरु की तरह रहना हो और वैसा रौब जमाना हो तो चाबियाँ रहने दूं लेकिन मुझे रौब भी नहीं जमाना और गुरु की तरह रहना भी नहीं है। मेरे लिए तो तू ही गुरु है अब। जिसे गुरु की तरह रहना हो न, वह अपना खुद का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं देगा क्योंकि अगर शिष्य को थोड़ा-थोड़ा देता रहे तो शिष्य चला नहीं जाएगा, और उसकी गाड़ी चलती रहेगी।
__ और यहाँ पर तो सभी को छूट है। यहाँ तो जो मेरे पास रहते हैं न, उनसे कह देता हूँ कि आपको जब भाग जाना हो तब भाग जाना। मैं मना नहीं करूँगा। आप मुझे परेशानी में डालोगे, तब भी मैं आपको मना नहीं करूँगा। आपको जब भागना हो तब भाग जाना। क्या परेशानी है फिर? अरे, मैं कहाँ उन्हें सिर पर बिठाऊँ? वैसा तो ये गुरु करते हैं कि जिन्हें दूसरा कोई लालच होता है।
जिसे कोई लालच नहीं है, उसे भगवान भी नहीं पूछते क्योंकि अगर भगवान पूछे कि, 'तुम कहाँ गए थे?' तो भगवान फँस जाएँ! "किससे पूछा साहब, आपने यह ? भूल कर दी यह!' जिसे किसी भी प्रकार का लालच नहीं है, उनसे किसी को कुछ भी पूछने का अधिकार नहीं है। भगवान को भी अधिकार नहीं है पूछने का। लालच छोड़ो। लालच में सबकुछ आ जाता है।
हेतु, पूर्णकाम का होना चाहिए आपने देखा है लालच? प्रश्नकर्ता : अरे, मैं ही लालची था न ! दादाश्री : ऐसा? किस बारे में?
प्रश्नकर्ता : अरे, किसी भी बारे में, सत्संग के बारे में लालची ही था न!
दादाश्री : यह मेरे साथ रहने का लालची, वह लालची नहीं