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[५] मान : गर्व : गारवता
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है कि 'अब मुझमें मान नहीं रहा।' क्योंकि जब दूसरे लोग मान दें तो उस पर बहुत असर नहीं होता, अंदर खुद उसे स्वीकार नहीं करता और वह वर्तन ऐसा रखता है कि दूसरे लोगों को बुरा नहीं लगता। मन ही मन में वह जानता है कि मेरा पारा नहीं चढ़ता, इसलिए अब मान नहीं रहा। नहीं तो पारा चढ़ ही जाता है न? लोगों ने 'ऐसा किया और खुद ने स्वीकार किया, तो फिर पारा चढ़ ही गया न!
अब वह स्वीकार नहीं करता इसलिए पारा नहीं चढ़ता। लेकिन फिर मैंने कहा, 'आपमें मान नहीं रहा न? तो अब थर्मामीटर रखो कि भई, बुखार चढ़ा या उतरा?' तब वह कहता है, 'वह थर्मामीटर क्या?' मैंने कहा, "अभी पंद्रह-बीस रिश्तेदार बैठे हों और कोई आपसे कहे कि 'आपमें बिल्कुल भी अक्ल नहीं है,' तो असर हो जाएगा न!" अरे, कहाँ गया? तेरा मान नहीं था न? अपमान जैसा कोई मान नहीं है। उस मान की तो कीमत ही नहीं है। लेकिन अपमान जैसा कोई मान नहीं है। जिससे अपमान सहन नहीं होता, वही बड़ा मानी है। लोगों का दिया हुआ मान तो सहन हो सकता है, जबकि अपमान सहन नहीं होता। वह सब से बड़ा मान है। वह बड़ा मानी कहलाता है। मेरे पास सभी तरह के थर्मामीटर हैं। कोई भी आया न, तो मैं थर्मामीटर रख देता हूँ। थर्मामीटर ऐसी चीज़ है कि तुरंत पता चल जाता है।
यानी इतना ही है कि यों ही मन में मान बैठा है, शेखचिल्ली की तरह है कि ऐसे शादी करूँगा वगैरह, वगैरह। एक घड़े की वजह से इतना संसार खड़ा किया न?! कि 'ऐसे बकरी लाऊँगा, और फलाना लाऊँगा और शादी करूँगा और बच्चा होगा और फिर कहने आएगा कि, 'चलो पापा खाने के लिए।" तो मैं उसका घड़ा ही गिरा देता हूँ ताकि उसका सब खत्म हो जाए! घड़ा गिर गया तो फिर कुछ भी नहीं रहा। तो मैं घड़ा गिरा देता हूँ एकदम से इसलिए फिर शादी करना रह गया, बच्चे रह गए और बकरी भी रह गई, सभी कुछ रह गया! लेकिन क्या करे वह ?! उसमें उसका दोष नहीं है।
सभी ऐसा मान बैठे हैं। संत भी बिना बात के मान बैठे हैं। कहीं