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[५] मान : गर्व : गारवता
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समाधि का कारण सत् पुरुष ही हैं। इतना सामर्थ्य होने पर भी जिन्हें कोई भी स्पृहा नहीं है, उन्मत्तता नहीं है, पोतापणुं (मैं हूँ और मेरा है ऐसा आरोपण, मेरापन, खुदपना) नहीं है, गर्व नहीं है, गारवता नहीं है, ऐसे आश्चर्य की प्रतिमा रूप सत् पुरुष को हम बार-बार नाम रूप से स्मरण करते हैं।'
...स्पृहा नहीं प्रश्नकर्ता : वह जो 'स्पृहा नहीं है' कहा, तो किस प्रकार की?
दादाश्री : श्रीमद् राजचंद्र ने 'स्पृहा नहीं है' कहा है तो ऐसे निस्पृही तो बहुत हैं अपने हिन्दुस्तान में तो क्या वैसे लोग काम आएँगे? नहीं। निस्पृही काम के नहीं हैं। जिनमें स्पृहा नहीं है, ऐसे लोग यहाँ पर बहुत सारे हैं, निस्पृही।
ये जो साधु बाबा हैं, वे सभी निस्पृह हैं, बिल्कुल भी स्पृहा नहीं। 'हमकु क्या? हमकु क्या? कुछ नहीं चाहिए।' तो कोई दूध ले आए न, तब वह क्या मानता है कि, 'बाप जी राजी हो जाएँगे, चलो न। कभी काम आएँगे। मेरे बेटे के यहाँ बेटा नहीं है।' तब बाप जी क्या कहेंगे, 'हमको कुछ नहीं चाहिए, चले जाओ इधर से। क्यों आया?' और इतनी-इतनी गालियाँ भी देता है। लेकिन लोग लालची हैं, इसलिए इन लोगों की गाड़ी चलती रहती है और 'व्यवस्थित' का नियम है। किसी भी तरह से उसे खाने-पीने का, वह गालियाँ दे, फिर भी भक्त उसे दे जाते हैं। वह जीवित तो रहता है न! 'व्यवस्थित' का नियम है, खाने का पहुँचाए बगैर नहीं रहता। अरे, अंत में ऐसा भी कहता है, 'बाबा जी का दिमाग़ ऐसा है, लेकिन दो उसे।' गालियाँ खाकर भी दे आता है। अब यह जो कहते हैं, 'हमकु कुछ नहीं चाहिए।' यह भी स्पृहा ही कहलाती है। यह भी एक तरह का अहंकार है, निस्पृही! ऐसे निस्पृही देखे हैं कोई? मैंने देखे हैं ऐसे भी।
एक निस्पृही आया था, वह ताला दिखा रहा था। छेद करके ताला लगाया था! और फिर कपड़े निकालकर मुझसे कहने लगा, 'देखिए।'