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आप्तवाणी - ९
लोग! देखो तो सही, जहाँ-तहाँ ' क्यू' में खड़े रहते हैं बेचारे, इतने अधिक दीन हो गए हैं। वर्ना यह प्रजा तो कैसी थी ? थोड़ा सा बात करने में, बुलाने में या 'इन्विटेशन' देने में ज़रा अपमान जैसा लगे तो भोजन के लिए नहीं जाते थे, ऐसी यह प्रजा ! लेकिन अभी तो देखो न धक्के खाते हैं, ‘क्यू' में खड़े रहकर ! हम कहे, 'क्यों साहब, क्यू में खड़े हैं?' तब कहेगा, 'बस में जाना है।' 'अरे, रोज़-रोज़ बस में क्यों जाना है ? स्वतंत्र रास्ता निकालना नहीं आता तुझे ?' तब कहेगा, 'क्या रास्ता निकालूँ ? नौकरी करता हूँ न !' यानी यह तो जीवन सारा 'फ्रेक्चर' हो गया है। वर्ना थोड़ा भी अपमान जैसा लगे न, तो भोजन के लिए नहीं जाते थे I वे लोग तो अपमान की बहुत बड़ी कीमत लगाते थे ।
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अतः इन लोगों को हम ऐसा ज्ञान देना चाहते हैं कि पूरे वर्ल्ड में सभी देशों में घूमे, लेकिन किसी से 'डिप्रेस' न हो सके । 'डिप्रेस' नहीं हों, ऐसा होना चाहिए और जो व्यक्ति किसी को 'डिप्रेशन' देता है, वह खुद 'डिप्रेस' हुए बगैर नहीं रहता । चाहे कितना भी बड़ा व्यक्ति हो, पूरा 'वर्ल्ड' हो, लेकिन वह हमें कैसे डिगा सकता है ?
अब अपमान का भय चला जाए तो लोग व्यवहार में ढीठ हो जाएँगे । अपमान का भय है इसलिए ये शर्म में रहते हैं। वर्ना शर्म में रहेंगे क्या ये लोग ? और अगर निश्चय में अपमान का भय चला जाए तो मनुष्य स्वतंत्र हो जाए। अपने यहाँ अपमान का भय चला जाता है, तो स्वतंत्र हो जाते हैं।
लिपटी है वंशावली, कषायों की
मान और अपमान की ही पड़ी है न सभी तरफ ?
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, क्या पहले से ही ऐसा चलता आया होगा ?
दादाश्री : अनादिकाल से सारा यही का यही माल । मनुष्य योनि में आया तभी से मान और अपमान । वर्ना दूसरी वंशावली में कुछ भी नहीं है। दूसरी योनियों में नहीं है, यहाँ पर बहुत है और देवलोक में बहुत है।