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आप्तवाणी-९
गया था। बल्कि पाव सेर था न, वह सवा सेर हुआ था। जन्म हुआ तब पाव सेर था, फिर जैसे-जैसे बड़ा हुआ वैसे-वैसे सवा सेर होता गया। पाव सेर था, वह भी काटता था तो क्या सवा सेर नहीं काटता होगा?! अब अभिमान उसे कहते हैं जो काटता रहे। अहंकार वह है जिसमें अंतरदाह होता रहे। सिर्फ अंतरदाह ही होता रहे तो वह अहंकार कहलाता है जबकि यह अभिमान तो काटता रहता है।
तो हम अहंकार में नहीं लेकिन अभिमान में आ गए थे। अरे, तुंडमिज़ाजी भी हो गए थे। फिर कुछ लोग ऐसा भी कहते थे कि 'बहुत घेमराजी है' क्योंकि हमें ज्ञान नहीं हुआ था तब भी पूर्व (जन्मों) का सामान सारा इतना ऊँचा मिला था, इसलिए मुझे ऐसा ज़रूर था कि 'अपने पास कुछ है।' इतना ज़रूर पता था और उसकी ज़रा घेमराजी रहा करती थी।
यानी अहंकार कहाँ होना चाहिए, अभिमान कहाँ होना चाहिए, यह सब कहाँ होना चाहिए, वह सब मेरे लक्ष्य में है। अब आज अहंकारी पुरुष तो एक भी नहीं मिलता है। विकृत तो हो ही चुका है, अभिमान तक तो पहुँच ही चुका होता है।
__ अहंकारी पुरुष, वह तो साहजिक कहलाता है। वह सहज अहंकार है और वैसे अहंकारी होते ही नहीं हैं न इस काल में! कहाँ से लाएँ अहंकारी? आजकल तो अभिमानी होते हैं। अहंकार तो क्या है? कि 'मैं चंदूभाई हूँ' वही अहंकार है। लेकिन वह तो साहजिक चीज़ है। उसमें उसका गुनाह नहीं है और अभिमान क्या है ? कि 'यह जो कारखाना है, वह हमारा है। यह अस्पताल भी अपना है,' यों अगर दिखाता ही रहता है तो हमें समझ जाना चाहिए कि यह कौन बोल रहा है? उनका अभिमान बोल रहा है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उसमें आपने जो कहा कि देहाभिमान, पाव सेर से सवा सेर हो गया, तो फिर उसमें से शून्य किस तरह से हुआ?
दादाश्री : अचानक ही! मैंने तो इसमें कुछ भी नहीं किया। 'दिज़