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आप्तवाणी-९
बंगला कितना सुंदर है,' ऐसा बोले तो कोई कहेगा कि 'अहंकार बोल रहा है। कोई कहेगा, 'यह अहंकारी है।' नहीं, वह अभिमानी कहलाएगा। चीजें तो उसके पास हैं, लेकिन उनका आरोपण करके, गर्वरस चखने के लिए खुद प्रदर्शन करना, वह अभिमान कहलाता है। अभिमान में तो. वह रस भी बहुत मीठा होता है। 'ये मेरे बंगले' ऐसा कहते ही तुरंत मिठास बरतती है। तब फिर उसे 'हेवमोर' (आइसक्रीम की ब्रान्ड) की जैसी आदत पड़ जाती है।
प्रश्नकर्ता : आपने एक बार कहा था कि पूरा जगत् ‘हेवमोर' में फँसा हुआ है।
दादाश्री : 'हेवमोर' में! मुझे 'हेवमोर' की ज़रूरत नहीं है, इसलिए मैं नहीं फँसा न! फिर भी, अगर आइसक्रीम आए तो मैं खाता हूँ। लोगों का वह ध्येय है, और मेरे लिए वह ध्येय रहित बात है। मेरा ध्येय अलग है।
लोगों को फिर 'हेवमोर' की आदत पड़ जाती है। उसका कारण यह है कि अजागृति है। यह तो हिताहित का भान ही नहीं है, इसलिए वैसी आदत पड़ जाती है। 'हेबिच्युएटेड' कब होता है? हिताहित का भान नहीं हो तब ‘हेबिच्युएटेड' हो जाता है। हमें रोज़ 'हेवमोर' की आइसक्रीम खिलाए तो फिर हमें अगले दिन वह याद नहीं आएगी। एक-एक महीने तक रोज़ खिलाए और फिर बंद कर दे, तब भी हमें याद नहीं आएगी। यों तारीफ ज़रूर करते हैं कि 'बहुत अच्छी है आइसक्रीम!' यों सब बातें करता हूँ, लेकिन सब 'सुपरफ्लुअस'! खाने के बाद फिर स्वाद दे तब तो हम समझें कि अच्छी चीज़ है। खा लेने के बाद, फिर हम कितना भी कहें कि 'स्वाद वापस निकालो' तब भी वापस स्वाद नहीं देती। नहीं? तो फिर ऐसे स्वाद का क्या करना है? अर्थात् कुछ लोग तो स्वाद के लिए अंदर घुस जाते हैं। अब और ज़्यादा तो है नहीं इसलिए मैं उसे मुँह में घुमाता रहता हूँ। अंतिम निवाला हो तब क्या करता हूँ ? हाँ, लेकिन गले में उतर जाने के बाद फिर स्वाद नहीं आता।