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[५] मान : गर्व : गारवता
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को मैं मानी कहता था, जबकि वे मुझे मानी कहते थे। तब एक दिन मुझसे क्या कहा? 'तेरे जैसा मानी मैंने नहीं देखा।' मैंने पूछा, 'किसमें मेरा मान देख रहे हैं ?' तब कहा, 'हर एक बात में तेरा मान रहता है।'
और उसके बाद मैंने जाँच की तो सभी बातों में मेरा मान दिखाई दिया और वही मुझे काटता था। और मान के लिए क्या किया? हर कोई बुलाता कि 'अंबालाल भाई, अंबालाल भाई!' अब 'अंबालाल' तो कोई कहता ही नहीं था न! छः अक्षरों से बोलता और फिर आदत पड़ गई, 'हेबिच्युएटेड' हो गए उससे। अब मान बहुत भारी था इसलिए मान का रक्षण करते थे न! तब फिर 'अंबालाल भाई' के छः अक्षर नहीं बोले
और जल्दबाजी में कोई 'अंबालाल' बोल उठे, तो वह क्या कोई गुनाह है उसका? छः अक्षर एक साथ एकदम जल्दबाजी में कैसे बोले जा सकते हैं?
प्रश्नकर्ता : लेकिन आप ऐसी आशा रखते थे न?
दादाश्री : अरे, मैं तो फिर तोल करता था कि "इसने वापस मुझे 'अंबालाल' कहा? क्या समझता है? क्या 'अंबलाल भाई' नहीं बोला जा सकता था उससे?" गाँव में दस-बारह बीघा जमीन हो और दूसरा कोई भी रौब नहीं हो तब भी न जाने मन में क्या मान बैठा था? हम छ: गाँव के 'अमीन, वांकडावाले'! इधर आपके यहाँ 'देसाई वांकडावाले' होते हैं न? और वे भी रौबीले होते हैं।
__ अब सामनेवाला 'अंबालाल भाई' नहीं कहे तो मुझे पूरी रात नींद नहीं आती थी, बेचैनी होती रहती थी। लो! उससे क्या मिल जाता? इससे क्या मुँह मीठा हो जाता? इंसान को कैसा स्वार्थ रहता है! वह स्वार्थ, उसमें कोई स्वाद ही नहीं होता है। फिर भी मान बैठा है, वह भी लोकसंज्ञा से। लोगों ने बड़ा बनाया और लोगों ने बड़ा माना भी सही! अरे, इन लोगों के माने हुए का क्या करना है?
ये गाय-भैंस अपने सामने देखती रहती हैं, सभी गाय अपने सामने देखती रहती हैं, और फिर कान हिलाएँ तो हमें ऐसा समझ जाना है कि