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आप्तवाणी-९
ही जोर! और अभिमान का ज़ोर नहीं। अभिमान तो, जब ममता हो तब अभिमान होता है। जबकि यह तो ममता रहित मान !
प्रश्नकर्ता : ममता रहित मान कैसा होता है? । दादाश्री : मैं ही, मैं ही कुछ हूँ, मैं ही कुछ हूँ, ऐसा। प्रश्नकर्ता : वह तो ममता कहलाती है।
दादाश्री : नहीं। ममता तो दूसरी चीज़ है। 'यह मेरा है,' उसे अभिमान कहते हैं। 'यह मेरा है, यह कितना अच्छा है, यह मेरा है,' इसे अभिमान कहते हैं और मान क्या है 'मैं' का ही बहुवचन, उसे मान कहते हैं। मान तो रहता है। उसमें हर्ज नहीं है। अभिमान, ममता को प्रदर्शित करता है। जब ममता हो तभी अभिमान होता है। ममता का लक्षण शुरू से मुझ में कम ही था, बिल्कुल ही कम! इस मान का ही था कि "मैं कुछ हूँ,' सभी लोगों से बढ़कर 'मैं कुछ हूँ," वह सब गलत था। कोई बरकत नहीं थी। बस, इतना ही कि मान बैठे थे।
मैं 'ज्ञान' से पहले के जीवन की बात कर रहा हूँ, कि क्रोधमान-माया-लोभ, सब इसके, मान के 'अन्डरहैन्ड' बनकर रहते थे और ममता का गुण शुरू से था ही नहीं।
__ मन में माना हुआ मान यानी मन में ऐसा समझता था कि 'मैं ही हूँ। इस दुनिया में और कोई है ही नहीं।' देखिए, खुद को न जाने क्या समझ बैठे थे! जायदाद में कुछ नहीं था। दस बीघा जमीन और एक मकान, उसके अलावा और कुछ नहीं था। फिर भी चरोतर का राजा हो ऐसा रोब रहता था। क्योंकि आसपास के छ: गाँव के लोगों ने हमारा दिमाग़ चढ़ा दिया था। दहेजिया दूल्हा, जितना माँगे उतना दहेज मिलता, तभी दूल्हा विवाह करने जाता था। उससे दिमाग़ में यह मद रहा करता था। वह पूर्वजन्म से लाया था, इसलिए ऐसी खुमारी थी सारी!
उसमें भी मेरे बड़े भाई ज़बरदस्त खुमारी वाले थे। अपने बड़े भाई