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आप्तवाणी-९
दादाश्री : हाँ, और फिर घर के प्रत्येक व्यक्ति के साथ 'एडजस्ट' हो सके। समभाव से निकाल करने की यह आज्ञा मुख्य है न! और घर के सभी लोगों में शुद्धात्मा देखने चाहिए न? लेकिन यह तो कुछ भी याद नहीं, भान ही नहीं न, उस तरह का!
रास्ता यह है कि 'दादा' की आज्ञा में रहना है ऐसा निश्चय करके अगले दिन से शुरू कर दे और जितना आज्ञा में नहीं रह पाए, उतने के लिए प्रतिक्रमण करने चाहिए और घर के प्रत्येक व्यक्ति को संतोष देना चाहिए, समभाव से निकाल करके। फिर भी यदि घर वाले परेशान करें तो हमें देखते रहना है। अपना पिछला हिसाब है इसलिए परेशान करते हैं। अभी तो आपने आज ही तय किया है। अतः घर के सभी लोगों को प्रेम से जीतो। वह तो फिर आपको खुद को भी पता चलेगा कि अब रास्ते पर आने लगा है। फिर भी जब घर के लोग अभिप्राय दें, तभी मानने जैसा है। अंत में तो उसी के पक्ष में होते हैं घर के लोग।
फिर वाइफ पर पतिपना (स्वामित्व) नहीं करना चाहिए। पति हो नहीं, और पतिपना करते हो! नाम मात्र के कहे जाने वाले पति है। उसमें फिर पतिपना करते हो! सच्चे पति होते तो हर्ज नहीं था। अब जहाँ पति नहीं है, वहाँ पर हम पतिपना करने जाएँ तो बल्कि मुसीबत खड़ी हो जाएगी न? यानी आपको पतिपना नहीं करना चाहिए। अब यदि पत्नी
आप पर रौब जमाए तो आप हँसना कि 'ओहोहो! आपने भी उधार किया हुआ जमा तो करवा ही दिया' ऐसा कहना। यह तो अच्छा ही है न, यह जो जमा करवाते हैं, वह ?
निरंतर 'दादा' की आज्ञा में रहा जा सके तो परेशानी नहीं है। आज्ञा में नहीं रहा जा सके तो फिर से प्रतिक्रमण करना।
पूजे जाने का लालच यह तो कैसा है कि यह लालच कब बाहर आ जाए, वह कह नहीं सकते। पाँच-सात लोग ही यदि मिल जाएँ तो भी बहुत हो गया न! पूरे मुंबई शहर में खबर पहुँचा देंगे कि ये ज्ञानी आए हैं। टोली खड़ी