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आप्तवाणी - ९
आप अलग ही हो और फिर भी 'मैं तन्मयाकार हो गया हूँ या क्या ?' ऐसी शंका हुई तब भी भगवान 'लेट गो' करते हैं लेकिन 'अंत में धीरे-धीरे अभ्यास से, वह शंका भी नहीं होनी चाहिए, भगवान ऐसा कहते हैं ।
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निज शुद्धत्व में निःशंकता
दरअसल आत्मा तो ‘आकाश' जैसा है, और यह शुद्धात्मा, यह तो एक संज्ञा है । कैसी संज्ञा है ?
प्रश्नकर्ता: पहचानने के लिए ।
दादाश्री : नहीं। इस देह द्वारा तुझसे चाहे कैसे भी काम हो जाएँ, अच्छे हों या बुरे हों, तू तो शुद्ध ही है । तब कोई कहे कि, 'हे भगवान, मैं शुद्ध ही हूँ? लेकिन इस देह से जो उल्टे काम होते हैं, वे ?' तब भी भगवान कहेंगे, ‘वे कार्य तेरे नहीं हैं । तू तो शुद्ध ही है लेकिन यदि तू माने कि ये कार्य मेरे हैं, तो तुझे चिपकेंगे।' इसलिए शुद्धात्मा शब्द, उसके लिए 'संज्ञा' लिखा गया है।
और 'शुद्धात्मा' किसलिए कहा गया है 'इसे ' ? कि संपूर्ण संसार काल पूर्ण होने के बावजूद 'उसे' अशुद्धता छूती ही नहीं, इसलिए शुद्ध ही है। लेकिन 'खुद को ' ' शुद्धात्मा' की 'बिलीफ' नहीं बैठती न ? 'मैं' शुद्ध किस तरह से हूँ ? 'मुझसे इतने पाप होते हैं, मुझसे ऐसा होता है, वैसा होता है।' इसलिए मैं शुद्ध हूँ, वह 'बिलीफ' 'उसे' बैठती ही नहीं और शंका रहा करती है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ किस तरह से कह सकते हैं ? मुझे शंका है।'
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अतः इस ‘ज्ञान' के बाद अब तुझे 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का लक्ष्य बैठा है, इसलिए अब तुझसे चाहे कैसा भी कार्य हो जाए, अच्छा या बुरा, उन दोनों का मालिक 'तू' नहीं है । 'तू' शुद्ध ही है । तुझे पुण्य का दाग़ नहीं लगेगा और पाप का भी दाग़ नहीं लगेगा इसलिए 'तू' शुद्ध ही है । तुझ पर शुभ का भी दाग़ नहीं लगेगा और अशुभ का भी दाग़ नहीं लगेगा । हम ‘ज्ञान' देने के साथ ही कहते हैं न, कि 'अब तुझे ये सब स्पर्श नहीं करेगा ।' वह निःशंक हो जाए, उसके बाद उसकी गाड़ी चलती है । तुझे
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