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आप्तवाणी-९
दादाश्री : वही लालच है न, इस विषय को भोगने का! फिर जब वहाँ नर्कगति का दुःख भोगता है, तब पता चलता है कि क्या स्वाद आता है इसमें! और विषय का लालच, उसे तो जानवर ही कह दो न! विषय में घृणा उत्पन्न हो, तभी विषय बंद होता है। वर्ना विषय किस तरह से बंद हो? इसीलिए कृपालुदेव ने कहा है कि, 'वहाँ थूकना भी अच्छा न लगे।'
प्रश्नकर्ता : इन सब चीज़ों में जो दोष उत्पन्न होता है, वह जागृति नहीं होने की वजह से ही उत्पन्न होता है न?
दादाश्री : लालच हो तो जागृति नहीं रहती। इसकी जड़ में लालच ही है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर लालच निकालने के लिए क्या पुरुषार्थ करना चाहिए? मुझे विषय नहीं चाहिए, ऐसा?
दादाश्री : वह तो यदि बात को समझ ले एक बार, विषय को यदि अच्छी तरह से समझ ले तो! विषय तो आँख को भी पसंद न आए ऐसा है, कान को सुनना अच्छा नहीं लगे ऐसा है, नाक को सूंघना अच्छा नहीं लगे ऐसा है, जीभ को चाटना अच्छा नहीं लगे ऐसा है, पाँचों इन्द्रियाँ नाखुश हो जाती हैं, पाँचों इन्द्रियों को अच्छा नहीं लगता, ऐसे सभी प्रकार से विवरण करके समझना पड़ेगा। मन को भी पसंद नहीं, बुद्धि को भी पसंद नहीं, अहंकार को भी पसंद नहीं, इसके बावजूद भी कैसे चिपक गया है, वही समझ में नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : उसमें क्षणिक सुख दिखाई देता होगा न!
दादाश्री : नहीं। क्षणिक सुख का सवाल नहीं है, लेकिन ये सभी लौकिक रूप से ही चिपके हुए हैं न!
जिसे कोई भी इन्द्रियाँ कबूल नहीं करती। जलेबी में हर्ज नहीं है। जलेबी विषय है लेकिन उसमें हर्ज नहीं है। उसे देखना आँख को अच्छा लगता है। उसे यों तोड़ें तो सुनाई देता है तब कान को अच्छा लगता है।