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आप्तवाणी-९
हालांकि यहाँ पर किसी चीज़ का विषय नहीं है, लेकिन आकर्षण है। इसके बजाय तो अपवित्र नहीं हो, वही अच्छा।
यही पुरुषार्थ बाकी, लालच क्या सिर्फ विषय का होता है ? सभी प्रकार का लालच! खाने-पीने के भी सारे लालच ही हैं न! कुछ भी खाने में आपत्ति नहीं है, लेकिन लालच नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : लालच अर्थात् देखते ही लार टपकने लगे?
दादाश्री : लार तो बहुत टपकती है, लेकिन अगर ऐसा पहचान ले कि यह लालच है तो भी अच्छा!
किसी को देखे, तो तुरंत ही लालची के मन में ऐसा होता है कि 'चलो, आज इनके साथ जाकर भोजन करूँगा।' ऐसा लालच हो, तब उस घड़ी हमें क्या करना चाहिए? 'मैंने तो अभी ही खाया है, अब नहीं चलेगा।' स्वमान जैसा होना चाहिए न? लोग तो हमें खिलाएँगे, लेकिन मन में रहता है न! मन की किताबों में थोड़े ही मिट जाता है? अतः जब वह मिले तो विचार तो आता है न, कि 'ये खिला दें तो अच्छा?' लेकिन उस विचार को पलटाना, वह अपना काम है! विचारों को बदलना, वह अपना पुरुषार्थ है। उन्हें नहीं पलटने के जोखिमदार आप खुद हो। जिन विचारों को पलट दिया, उन विचारों के आप जोखिमदार नहीं हो और जिन विचारों को नहीं पलटा, तो उस विचार के आप जोखिमदार हुए!
प्रश्नकर्ता : अब, अगर खाने के लिए एकदम मना कर दिया, तो उससे उस व्यक्ति के भाव का तिरस्कार किया नहीं कहा जाएगा?
दादाश्री : कैसा तिरस्कार? वह तो अगर कोई कहे कि 'चलो, बाहर दारू पीने।' तो? उसमें कैसा तिरस्कार? ऐसे खोखले बहाने किसलिए ढूँढते हो? वह कहे तो हम जाएँ और नहीं खाना हो तो ऐसे लेकर फिर इधर से उधर डाल दें। सब करना आता है। ऐसे बटन दबाकर चला लेना है। कुछ नहीं आए, ऐसा थोड़े ही है?