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[४] ममता : लालच
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह सब उल्टा था कि 'मैं आज्ञा पालन करता हूँ, मैंने सारी प्राप्ति कर ली है ? '
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दादाश्री : उल्टा ही है न ! नहीं तो और क्या ? बुद्धि का ही खेल है सारा। सभी से जो कुछ कहता है, सब के साथ जो बातें करता है वह भी बुद्धि की ही बातें हैं ! वे स्पर्श नहीं करतीं, और सामनेवाला न जाने क्या समझता है कि 'ओहो, ये क्या बन गए !' इसलिए मुझे सामने वाले से कहना पड़ता है कि, 'भाई, वहाँ पर कुछ भी नहीं है ! '
वर्ना परिणाम तो सभी पता चलते हैं, सुगंध ही आने लगती है ।
प्रश्नकर्ता : यानी बाहर परिणाम नहीं आ रहा हो तो तब तक बुद्धि से ही पालन कर रहा है, ऐसा माना जाएगा? दूसरे 'महात्माओं' के लिए पूछ रहा हूँ।
दादाश्री : नहीं, दूसरों के लिए नहीं । दूसरों को तो कुछ छूता ही नहीं, बेचारों को ! वह तो लालच वाले के लिए, लालची को मूल ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ।
अपना यह ‘ज्ञान' लालची को पूरा हाज़िर रहता है, लेकिन बुद्धि का ज्ञान ही रहता है, इसलिए ज़रूरत के समय गायब हो जाता है । बुद्धि का ज्ञान यानी ज़रूरत के समय हाज़िर नहीं रहता, ज़रूरत के समय वह गायब हो जाता है। यों 'इसी के' जैसा दिखाई देता है सारा, उसमें कुछ अलग नहीं दिखता लेकिन ज़रूरत के समय गायब हो जाता है और बाकी लोगों का ज़रूरत के समय गायब नहीं होता ।
प्रश्नकर्ता: बुद्धि का ज्ञान यानी उसने इस ज्ञान को बुद्धि से समझा होगा ?
दादाश्री : उसमें बुद्धिज्ञान प्रकट हुआ होता है, क्योंकि लालच की जो खराबी रह गई है न, इसलिए ज्ञान उत्पन्न नहीं होता न ! बड़ी परेशानी है बेचारे को ! बहुत पछताता है, लेकिन क्या हो सकता है ? एक मिनट भी सुख नहीं मिलता ।