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आप्तवाणी-९
का स्थान है, जिस मोहल्ले में रहता है, उसे भी भूल जाता है और न जाने कहाँ जाकर खड़ा रहता है। लालच के कारण पूँछ पटपटाता है, एक पूड़ी के लिए! लालच, जिसका मैं स्ट्रोंग विरोधी हूँ। लोगों में जब मैं लालच देखता हूँ तब मुझे होता है, यह 'ऐसा सब लालच?' ओपन पोइजन है ! जो मिले, वह खाना लेकिन लालच नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : लालच रहित रहने से मिल भी जाता है।
दादाश्री : यानी इस लालची को ही यह परेशानी है। नहीं तो सबकुछ मिल जाता है, घर बैठे ही मिल जाता है। हम ये कोई भी इच्छा नहीं करते फिर भी सभी चीजें मिल जाती है न! लालच तो नहीं, लेकिन इच्छा भी नहीं करते!
प्रश्नकर्ता : लालच और इच्छा, इन दोनों में क्या फर्क है?
दादाश्री : इच्छा रखने की छूट है सभी को, सभी प्रकार की। इच्छा में हर्ज नहीं है। लालची तो, कुत्ते को एक पूड़ी दी जाए तो कहीं से कहीं पहुँच जाता है। उसे उसमें लालच घुस गया है न!
प्रश्नकर्ता : यानी लालच में अच्छे-बुरे का विवेक नहीं रहता?
दादाश्री : लालच तो, जानवर ही कह दो न उसे! मनुष्य के रूप में जानवर ही घूमता रहता है।
प्रश्नकर्ता : तो अगर हमारी धर्म क्रियाएँ लालच, प्रतिष्ठा, और कीर्ति के कारण हों, तो उसका फल क्या है?
दादाश्री : उसे लालच नहीं कहते। कीर्ति के लिए, वह तो स्वाभाविक रहता है इंसान को। संसार में है, इसलिए नाम कमाने की इच्छा रहती है, दूसरी इच्छा रहती है। वह लालच नहीं कहलाता। लालच तो, इस कुत्ते जैसा रहता है। एक पूड़ी दिखी न, तो उसके पीछे ही घूमता रहता है। उसे भान भी नहीं रहता कि 'मैंने अपने बीवी-बच्चे छोड़ दिए और यह मोहल्ला भी छोड़ दिया।' कुछ भी भान नहीं।
थोड़ा बहुत लालच तो सभी में होता है, लेकिन उस लालच को