________________
२२६
आप्तवाणी-९
दादाश्री : लालच, वह राग कषाय है। राग और कपट, इन दोनों के इकट्ठे होने से लालच उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : उसका समावेश मोह में भी होता है, दादा? दादाश्री : उसे जो मानो वह, लेकिन लालच शब्द अलग है। प्रश्नकर्ता : कपट जैसा होता है, लालच?
दादाश्री : कपट भी नहीं है यह तो। यह तो लालचवाला ही होता है सारा। कपट तो आपको भी आता है। यह तो लालची! लालच में मुख्यतः लोभ होता है।
प्रश्नकर्ता : वह लोभ धीरे-धीरे लालची बना देता है ?
दादाश्री : नहीं। लालच होने के बाद ही लोभ उत्पन्न होता है।-? लोभी होना इतना बुरा नहीं है। लोभी तो फिर भी कभी न कभी जीत जाएगा, लेकिन लालची नहीं जीत सकता।
लोभी से भी ज्यादा खराब लालची होता है। लोभी अच्छा होता है कि धूर्त को भूखा नहीं मरने देता। धूर्त को भूखा कौन रखता है? बाकी सभी मरने देते हैं, लेकिन यह लोभी नहीं मरने देता।
प्रश्नकर्ता : तो लोभी में और लालची में क्या फर्क है?
दादाश्री : लालची तो सभी चीज़ों में लालची! लोभी को तो, उसे सिर्फ एक ही बात में लोभ। सिर्फ पैसों का ही लोभ! और पैसों के बारे में, जिससे पैसा प्राप्त हो उन चीज़ों का लोभ! जबकि लालची को तो जो आया वह! ज़रा भांग आ जाए न, तो भी लालच, गांजा आ जाए, तो भी लालच! हर एक चीज़ में से सुख लेता है, भोग लेने का लालच ! लालची इंसान बिफर जाए तो त्रागा (अपनी मनमानी, बात मनवाने के लिए किया जानेवाला नाटक) करता है। 'मैं मर जाऊँगा, ऐसा करूँगा या आत्महत्या करूँगा' यों डराकर भोगना चाहता है, और ऊपर से बिफरता
है।