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आप्तवाणी - ९
ममता नाम मात्र को भी नहीं
जगत् के लोग अपेक्षा रहित हैं ही नहीं, कुछ न कुछ अपेक्षा रहती है जबकि ये ज्ञानीपुरुष तो निरपेक्ष हैं! यानी किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं है उनमें कि 'देह मेरी है, मन मेरा है, चित्त मेरा है, यह मेरा है, या वह मेरा है।' ऐसा किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं, उसी वजह से यह ग़ज़ब का विज्ञान है।
हम सूरत गए थे। वहाँ सूरत के एक त्यागी पुरुष थे, बहुत ज़बरदस्त त्यागी इंसान, बहुत तपस्वी इंसान । आसपास के बहुत से लोग उनके दर्शन करते थे, ऐसे थे वे व्यक्ति । वहाँ उन्होंने सब से कहा कि, "देखो, देखो, ये 'दादा' कौन है ? ममत्व रहित पुरुष कोई देखा हो तो सिर्फ इन्हीं को देखा है। लगभग दो सौ लोगों से मैं मिला हूँ, बड़े-बड़े लोगों से, संतों से, लेकिन मैंने ऐसा एक भी संत नहीं देखा जो बिल्कुल ममता रहित हो । थोड़ी बहुत ममता हो ऐसे मिले हैं सभी । जबकि सिर्फ यही एक पुरुष, सिर्फ ये 'दादा' ही एक ऐसे देखे हैं जो ममता रहित हैं । मेरी जिंदगी में एक ही ममता रहित पुरुष देखे हैं ।" मैं भी समझ गया कि ये धन्य हैं, इन्हें इतनी परीक्षा करना आया क्योंकि मैं अपने आपको जानता हूँ कि ममत्व तो है ही नहीं। बचपन से ही ममत्व नहीं! यानी कि ममता रहित पुरुष दुनिया में होते ही नहीं । ममता रहित पुरुष यानी अहंकार रहित पुरुष । जहाँ ममता नहीं होती वहाँ अहंकार तो ढूँढने को रहा ही नहीं ।
अतः 'ज्ञानीपुरुष' तो कैसे होते हैं ? ममता रहित होते हैं, अहंकार और ममता रहित होते हैं ! जिस तरह कुदरत रखे, वे उसी तरह रहते हैं। उनमें पोतापणुं (मैं हूँ और मेरा है ऐसा आरोपण, मेरापन) नहीं होता।
संपूर्ण निर्ममत्व वहाँ परमात्मपन
जहाँ खुद का स्वार्थ है, जहाँ पर कुछ न कुछ ममता है, वहाँ कुछ भी कल्याण नहीं हो पाता । थोड़ी सी भी ममता हो वहाँ कल्याण नहीं हो पाता और जहाँ ममता नहीं हो, वहाँ भगवान प्रकट हो जाते हैं । ममता के कारण ही अहंकार है ।