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आप्तवाणी - ९
अब यह शंका यानी, ज्ञान की शुरुआत से, ज्ञान पर शंका, यहाँ पर अध्यात्म में उसे शंका कहा जाता है। ज्ञान और ज्ञान के साधनों पर शंका होना, वही है शंका ! उसे कब तक शंका माना जाता है ? कि जब तक ठेठ आत्मा से संबंधित निःशंक न हो जाए कि यही आत्मा है और यह नहीं है, तब तक निःशंकता उत्पन्न नहीं होती । आत्मा से संबंधित निःशंकता उत्पन्न हुई, तो 'वर्ल्ड' में कोई शक्ति उसके लिए भयावह नहीं बन सकती। निर्भयता ! और निर्भयता उत्पन्न हो जाए तो संग में रहने के बावजूद नि:संग रह पाता है । अतिशय संग में रहने के बावजूद भी निःसंगता रहती है। कृपालुदेव ऐसा कहना चाहते हैं ।
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'वर्ल्ड' में कोई भी व्यक्ति आत्मा से संबंधित निःशंक यानी शंका रहित नहीं हुआ है। यदि निःशंक हुआ होता तो उसका निबेड़ा आ जाता और दूसरे पाँच लोगों का भी निबेड़ा ले आता । यह तो लोग भी भटक गए और वह भी भटक रहा है
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तब आती है निःशंकता
बाकी, किसी जन्म में निःशंक हुआ ही नहीं और आत्मा से संबंधित तो कोई नि:शंक हुआ ही नहीं है । आत्मा से संबंधित नि:शंक होना कोई आसान बात नहीं है ।
जबकि यह 'ज्ञान' निःशंक बनाने वाला है । निःशंक कैसे हो सकेगा? कि इस शरीर में मन-बुद्धि-चित्त- अहंकार, दूसरी इन्द्रियाँ, सभी कर्मेन्द्रियों, सब एकमत हो जाएँगे तब नि:शंक हो जाएगा। पूरे शरीर में सभी एकमत हो जाएँ, 'दादा' ने जो बताया है वह ज्ञान, एक आवाज़ हो जाए, सब ‘एक्सेप्ट' करें, तब निःशंक हो जाएगा।
अब अंदर शंका नहीं करता न ? वर्ना एक घंटे के लिए भी शंका किए बगैर नहीं रहते। यह इतनी सारी जमात है अंदर । ऐसा कोई ज्ञान नहीं है, जिसे अंदर सभी 'एक्सेप्ट' करें। या तो मन विरोध करता है, या फिर चित्त विरोध करता है लेकिन कोई न कोई टेढ़ा चले बगैर रहता ही नहीं। अतः अंदर सब एकमत हो जाएँ, ऐसा नहीं है। अंदर बहुत