________________
१४८
आप्तवाणी-९
कलह वाला माल है, उसे फेंक दो न! इसीलिए हम कहते हैं आपको कि 'मैं कुछ भी नहीं जानता' इतना भाव करो न! यह सारा जाना हुआ तो रुलाता है। इससे कषाय गए ही नहीं हैं न! अतः यह तो कुछ भी नहीं जाना है। यदि जाना हुआ होता तब तो कषाय उपशम हुए दिखाई देते और तब भी उससे कुछ इतना फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह उपशम हो चुके कषाय कब चढ़ बठेंगे उसका कोई ठिकाना नहीं। यह तो खुद की अक्ल अंदर डालता रहता है। उसने खुद की अक्ल से ही तो मार खाई है, अनंत जन्मों से यही मार खाई है इसलिए 'मैं कुछ भी नहीं जानता' वह भाव किया हुआ हो न, तो हल आएगा।
अपने एक महात्मा ने बहुत शास्त्र पढ़े थे। वे जब यह ज्ञान लेने आए तब मैंने कहा कि, 'यह जो आपका कटोरा है न, आपकी खीर है न, वह मुझे दिखाइए तो ज़रा।' तब उन्होंने दिखाया। तब मैंने कहा, 'यह खीर लेकर अगर आप जाकर मिर्ची वाले से पूछो कि 'साहब, क्या इसे अंदर डाल सकते हैं ?' तब मिर्ची वाले को तो बेचना है, इसलिए ऐसा कहेगा कि 'हाँ, साहब थोड़ा डाल सकते हैं।' फिर नमक वाले से आप पूछो कि 'साहब, यह इसमें डाल सकते हैं?' तब वह कहेगा, 'हाँ, यह भी डाल सकते हैं।' क्योंकि अगर इन लोगों से पूछने जाते हैं न, तब वे तो फिर डलवाते हैं। इस तरह आपकी खीर मुँह का स्वाद बिगाड़ देती है।'
इसलिए हम इस खीर को फिंकवा देते हैं, कटोरेसहित फिंकवा देते हैं। उसकी सुगंध तक नहीं चाहिए। यानी अभी तक जो भी जाना हुआ था, वह सारा गलत था। जिस जानकारी ने अपनी हेल्प नहीं की, क्रोध-मान-माया-लोभ गए नहीं, जिसे जानने से आत्मा प्राप्त नहीं हुआ, तब फिर उस जाने हुए का अर्थ ही क्या? और जिसे जानने से
आत्मा प्राप्त हुआ है तब फिर और कुछ जानने की ज़रूरत नहीं है। किसी को यदि ऐसा लगता हो कि उन्होंने जो जाना है उससे उन्हें आत्मा प्राप्त हो गया है, तब फिर यह जानने की ज़रूरत ही नहीं है। यह अक्रम विज्ञान है। वह क्रमिक है। अतः यदि किसी को ऐसा लगता