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आप्तवाणी - ९
मूर्ति में प्रतिष्ठा करते हैं तो जैसी प्रतिष्ठा करते हैं, वह वैसा ही फल देती है। उसी तरह यह भी मूर्ति में प्रतिष्ठा की है । उन मूर्तियों में और इसमें फर्क ही नहीं है। इसमें जैसी प्रतिष्ठा की है, यह सिर्फ वैसा ही फल देगी। यदि प्रतिष्ठा अच्छी की है, तो अच्छा फल देगी।
प्रश्नकर्ता : यानी प्रतिष्ठित आत्मा शुद्धात्मा की शंका करता है !
दादाश्री : हाँ। प्रतिष्ठित आत्मा । मैंने प्रतिष्ठित आत्मा नाम दिया है। बाकी, यों इन लोगों ने व्यवहार आत्मा कहा है। जिसे तू अभी आत्मा मान रहा है वह व्यवहारिक आत्मा है, ऐसा कहा है लेकिन व्यवहारिक आत्मा कहने से क्या होता है ? कि लोगों को वह समझ में नहीं आता लेकिन इसे फिर से उत्पन्न करने वाले 'आप' ही हो । प्रतिष्ठा करते हो इसलिए यह उत्पन्न हो जाता है । 'मैं चंदूभाई हूँ, मैं चंदूभाई ही हूँ' करते रहोगे तो फिर से आत्मा तैयार हो रहा है आपका, दूसरी प्रतिष्ठा हो रही है। मूर्ति स्वरूप मानते हो इसलिए मूर्ति में प्रतिष्ठा हुई, इसलिए मूर्ति का जन्म होगा। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ' तो खत्म हो जाएगा ।
प्रज्ञा है आत्मापक्षी ही
प्रश्नकर्ता : मैं शुद्धात्मा हूँ और देह नहीं, वह भी बुद्धि ही कहती है न ?
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दादाश्री : यह बुद्धि नहीं कहती है इसमें । बुद्धि तो 'मैं शुद्धात्मा' कहने ही नहीं देती। बुद्धि, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा कहे तो उसका बहुत अधिक नाश होगा, उसका खुद का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। इसलिए वह खुद इस शुद्धात्मा के पक्ष में बैठती ही नहीं कभी भी वर्ना खुद का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। यदि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' बोले, तो मन- - बुद्धिचित्त और अहंकार का अस्तित्व खत्म हो जाएगा इसलिए यह मन भी ऐसा 'एक्सेप्ट' नहीं करता । समझते ज़रूर हैं, लेकिन 'एक्सेप्ट' नहीं करते। यह बुद्धि तो हमेशा संसारपक्ष में ही रहती है, शुद्धात्मापक्ष में नहीं रहती कभी भी, विरोध रहता है। अब वह प्रज्ञा नाम की शक्ति है, वह आत्मा में से ही बाहर निकलती है, कि जब तक संसार में हैं, तब तक