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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
जमात है। उनमें से एकाध भी टेढ़ा बोले कि 'ऐसा होगा तो ?' कि शंका पड़ी! और आपके अंदर तो कोई बोलता ही नहीं है न ?! सभी एकमत ही हैं न?! यानी अंदर सभी एकमत हो जाएँ, तब निःशंक हो सकते हैं।
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इस शरीर में कभी भी सब एकमत होते ही नहीं हैं। मूर्च्छित हो जाए, तब ठीक है। मूर्च्छा यानी मदिरा पिया हुआ! अंदर उन्हें मदिरा पिलाओ तो फिर सब मस्ती में रहते हैं। जबकि यह तो 'विदाउट' मूर्च्छा! और, यह 'ज्ञान' तो, थोड़ी बहुत मूर्च्छा चढ़ गई हो न, तो भी उतार देता है।
यानी आत्मा से संबंधित सभी शंका में ही रहते हैं, चाहे कहीं भी जाओ। सभी को आत्मा संबंधी शंका, और शंका के कारण ही यहाँ पड़े हुए है। वे नि:शंक होते नहीं और उनके दिन बदलते नहीं। 'ज्ञानीपुरुष' के अलावा तो कहीं भी कोई आत्मा में नि:शंक हुआ ही नहीं है, एक भी व्यक्ति निःशंक नहीं हुआ है, आत्मा से संबंधित शंका ही रहा करती है। लोग तो निःशंक ज्ञान ढूँढते हैं लेकिन वह ज्ञान लोगों के पास है नहीं । क्रमिकमार्ग में भी वह ज्ञान नहीं है । यह तो 'अक्रम' का है, इसलिए संभव हो पाया। यह शंका चली जाए तो काम होगा।
यह तो यहाँ पर दरअसल आत्मा प्राप्त हो जाता है इसलिए एक घंटे में नि:शंक हो जाता है । यह ऐसा-वैसा ऐश्वर्य नहीं है लेकिन लोगों को समझ में नहीं आता, अक्रम का ऐश्वर्य है यह तो ! वर्ना करोड़ों जन्मों में भी आत्मा के संबंध में निःशंक नहीं हो सकता और आत्मा लक्ष (जागृति, ध्यान) में भी नहीं आता कभी भी ।
'ज्ञानीपुरुष' के बिना आत्मा से संबंधित शंका कभी भी नहीं जाएगी। और जब तक आत्मा से संबंधित निःशंक नहीं हो जाता, तब तक संसार व्यवहार में भी कोई शंका नहीं जाती । आत्मा से संबंधित शंका गई कि सभी शंकाएँ निरावृत हो जाएँगी और अपने यहाँ तो आत्मा से संबंधित शंका फिर रहती ही नहीं।
भेद विज्ञान 'अक्रम' द्वारा
किसी भी जगह पर शंका नहीं करनी चाहिए। शंका जैसा दुःख