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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
में घुस जाए तो यों चुभता रहता है जबकि शंका तो मार ही डालती है इंसान को, संताप उत्पन्न करती है । इसलिए शंका नहीं करनी चाहिए । शंका का उपाय
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बाकी, मनुष्य शंका के बगैर तो होते ही नहीं है न! और, मुझे तो पहले, बा जीवित थे न, तब गाड़ी में से उतरते ही, बड़ौदा के स्टेशन पर ऐसा विचार आता था कि, 'बा यदि आज अचानक मर गए होंगे, तो मुहल्ले में कैसे प्रवेश करूँगा ?' ऐसी शंकाएँ उत्पन्न होती थीं। अरे, तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं मनुष्य को लेकिन खोज करके मैंने पता लगा लिया था कि इन सब पर ध्यान मत दो ! शंका करने योग्य यह जगत् है ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : वह तो, मुझे भी घर से फोन आए तो मुझे अभी भी शंका होती है कि, 'बा को कुछ हो गया होगा तो ?'
दादाश्री : लेकिन वह शंका कुछ हेल्प नहीं करती, दुःख देती है । यह बूढ़ा इंसान कब गिर जाए, उसके लिए क्या कह सकते हैं ! क्योंकि हम थोड़े ही उसे बचा सकते हैं ? और ऐसी शंका होने लगे, तब उनके आत्मा से हमें उनके लिए विधि करते रहना कि, 'हे नामधारी बा, उनके द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न ऐसे प्रकट शुद्धात्मा, उनकी आत्मा को शांति दीजिए।' यानी शंका होने से पहले हमें ऐसे विधि रख देनी चाहिए। शंका हो तब हमें ऐसे पलट लेना है
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'व्यवस्थित' से निःशंकता
जगत् अधिक तो शंका से ही दुःखी है । शंका तो मनुष्य को अधोगति में ले जाती है । शंका से कुछ नहीं होता है क्योंकि व्यवस्थित के नियम को तोड़नेवाला कोई है ही नहीं । व्यवस्थित के नियम को कोई नहीं तोड़ सकता, इसलिए शंका करके क्यों बेकार में परेशान होता है ?
व्यवस्थित का अर्थ क्या है कि जो 'है' वह है, जो 'नहीं है' वह नहीं है। जो 'है' वह है, वह 'नहीं है' नहीं होगा और जो 'नहीं' है वह