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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
न! लाखों रुपये का नुकसान तो होने लगा है, लेकिन तब नुकसान कम हो, ऐसा करना चाहिए या बढ़ जाए ऐसा करना चाहिए? नुकसान होने ही लगा है तो उसका उपाय तो होना ही चाहिए न? इसलिए बहुत ज्यादा नुकसान मत उठाना। तू खुद ही उसे घर पर सुला देना, और फिर दूसरे दिन समझाना कि 'समय पर घर आना। मुझे बहुत दुःख होता है और इससे फिर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा' कहना। 'ऐसे-वैसे करके समझा देना।' फिर वह समझ गया। रात को निकाल देगा तो वापस कौन रखेगा? लोग कुछ न कुछ कर देंगे। फिर खत्म हो जाएगा सबकुछ। रात को एक बजे निकाल देंगे तो लड़की कैसी लाचारी अनुभव करेगी बेचारी। यह तो कलियुग का मामला है। ज़रा सोचना तो चाहिए न?
यानी कभी रात को अगर बेटी देर से घर आए, तब भी शंका मत करना, शंका निकाल देना, तो कितना फायदा होगा? बेकार का डर रखने का अर्थ क्या है? एक जन्म में कुछ भी नहीं बदलेगा। उन बेटियों को बिना बात के दुःख मत देना। बेटों को दुःख मत देना। सिर्फ इतना ज़रूर कहना कि, 'बेटी, तू बाहर जाती है तो देर नहीं होनी चाहिए। हम खानदानी हैं। हमें यह शोभा नहीं देता इसलिए इतनी देर मत करना।' इस तरह सारी बातचीत करना, समझाना लेकिन शंका करने से कुछ नहीं होगा कि 'किसके साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी?' और फिर रात को बारह बजे आए तब भी फिर दूसरे दिन कहना कि, 'बेटी, ऐसा नहीं होना चाहिए।' उसे यदि निकाल देंगे तो वह किसके यहाँ जाएगी उसका ठिकाना नहीं है। आपको समझ में आया न? फायदा किसमें है? कम से कम नुकसान होने में फायदा है न? इसलिए मैंने सभी से कहा है कि 'बेटियाँ देर से घर में आएँ, तब भी उन्हें घर में आने देना, उन्हें निकाल मत देना।' वर्ना बाहर से ही निकाल दें, ये सख्त मिज़ाज वाले लोग ऐसे ही हैं न? काल कितना विचित्र है! कितनी दु:ख और जलनवाला काल है! और फिर यह कलियुग है, इसलिए घर में बिठाकर फिर समझाना।
___ मोक्षमार्गीय संयम अतः हमने क्या कहा है कि फाइलों का समभाव से निकाल करो।