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आप्तवाणी - ९
प्रश्नकर्ता: पूरा वन बन जाता है।
दादाश्री : हाँ, पूरा वन बन जाता है । बाग में से जंगल बन जाता है। इन 'दादा' ने महामुश्किल से बगीचा बनाया होता है, उसमें फिर जंगल बन जाता है । इतना बड़ा बगीचा, वापस जंगल बन जाता है ? अरे, उस गुलाब को रोपते - रोपते तो 'दादा' का दम निकल गया। देखो, जंगल मत बना देना ! जंगल मत बनने देना। अब नहीं बनने दोगे न?!
प्रश्नकर्ता : शंका तो बिल्कुल पसंद ही नहीं है, दादा लेकिन निकाल नहीं होता, इसलिए फिर 'पेन्डिंग' रहा करता है ।
दादाश्री : वापस 'पेन्डिंग' पड़ा रहता है ? ! हल नहीं कर देते ? ! 'ए स्क्वेर, बी स्क्वेर,' ऐसा वह 'एलजेब्रा' में केन्सल कर देते हो न, उस तरह से? जिसे 'एलजेब्रा' आता है न, उसे यह सब आता है।
शंका से आपको सभी परेशानियाँ खड़ी होती हैं, तब फिर नींद में विघ्न डालती है कभी ?
प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं है लेकिन अगर निकाल नहीं होता है तो वापस आती है।
दादाश्री : अब क्या करोगे ? सेक दो न ! तो फिर उगे नहीं। जो बीज सेककर रख दिए, वे फिर उगेंगे नहीं । उगेंगे तब परेशानी है न ? !
इसलिए आपको ऐसा कहना चाहिए कि, 'दादा' के 'फॉलोअर्स' होकर भी ऐसा करने में आपको शर्म नहीं आती ? वर्ना कहना, 'दो तमाचे मार दूँगा। शंका क्या कर रहा है ?' ऐसे डाँटना । दूसरे डाँटें उसके बजाय
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'आप' डाँटो तो क्या बुरा है ? कौन डाँटे तो अच्छा ? अपने आपको ही डाँटे तो अच्छा, लोगों की मार खाने के बजाय !
प्रश्नकर्ता : यह तो, मार खाता है तब भी नहीं जाती ।
दादाश्री : हाँ, मार खाने पर भी नहीं जाती इसलिए यह बात