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आप्तवाणी - ९
दादाश्री : 'चार्ज' हो जाए वैसे भयस्थान हैं ही नहीं लेकिन जहाँ शंका होने लगे, वहाँ पर 'चार्ज' हो जाएगा । शंका होने लगे तो उस भयस्थान को ‘चार्जिंग' वाला मानना । शंका अर्थात्, कैसी शंका ? कि नींद नहीं आए, ऐसी शंका । यों ही छोटी सी शंका हुई और बंद हो जाए, ऐसी नहीं क्योंकि जो शंका हुई, और बाद में फिर उसे भूल जाएँ तो उस शंका की कोई कीमत ही नहीं है ।
प्रश्नकर्ता : तो फिर बिंदास रहना है ? निडर और बेलगाम रहना
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है ?
दादाश्री : नहीं । बेलगाम रहोगे तो मार पड़ेगी। बेलगाम हो जाए और बेफिक्र हो जाए तो मार पड़ जाती है। इन अंगारों में क्यों हाथ नहीं डालते ?
प्रश्नकर्ता : तो फिर वहाँ पर कौन सा औपचारिक 'एक्शन' लेना चाहिए ?
दादाश्री : 'एक्शन' में दूसरा क्या लोगे? वहाँ पर पछतावा और प्रतिक्रमण, इतना ही 'एक्शन' है।
प्रश्नकर्ता : यानी अपने इस 'ज्ञान' के बाद का पुरुषार्थ कौन सा है ? पछतावा करना है या भाव मन पर छोड़ देना है ?
दादाश्री : भाव मन तो इस 'ज्ञान' के बाद रहता ही नहीं है लेकिन जिसका यह 'ज्ञान' कच्चा रह गया हो, उसमें शायद भीतर थोड़ा बहुत भाव मन रह जाता है। बाकी, भाव मन नहीं रहता । 'ज्ञान' कुछ कच्चा परिणामित हुआ हो, यह 'ज्ञान' पूरी तरह से सुना नहीं हो अथवा यह ‘ज्ञान' पूरी तरह से बोला नहीं हो, तो उसमें अंदर कच्चा पड़ जाता है । यह तो, कई बार नया 'इंजन' भी शुरू नहीं होता, ऐसा होता है न ?
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इसलिए सिर्फ पछतावा ही करना है और पछतावा भी हमें नहीं करना है । हमें अपने आपसे पछतावा करवाना है कि, 'आप पछतावा करो। आप ऐसे हो, वैसे हो ।' ऐसा 'आपको' 'चंदूभाई' से कहना है।