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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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दादाश्री : 'दादा' क्या कहते हैं कि शंका रखना ही मत। शंका आए तो कहना, 'जा, दादा के पास!' ऐसा उदय आए, तब भी वह उदय और आप दोनों अलग ही हैं।
प्रश्नकर्ता : सामने वाले पर शंका नहीं करनी है फिर भी शंका हो जाती है, तो उसे कैसे दूर करें?
दादाश्री : वहाँ पर फिर उसके शुद्धात्मा को याद करके क्षमा माँग लेना, उसका प्रतिक्रमण करना। यह तो पहले की भूलें की हुई हैं, इसलिए शंका होती है।
प्रश्नकर्ता : अपने कर्म के उदय के कारण जो भोगना पड़ता है, प्रतिक्रमण करते रहने से वह कम होगा न?
दादाश्री : कम होगा। और 'आपको' नहीं भोगना पड़ता। 'आप' 'चंदूभाई' से कहना, 'प्रतिक्रमण करो।' तब फिर कम हो जाएगा। जितना-जितना प्रतिक्रमण करते जाएँगे उतना वह कम होगा न! फिर रास्ते पर आ जाएगा।
यह तो कर्म के उदय से सब मिले हैं। इसे अज्ञानी बदल नहीं सकते और ज्ञानी भी नहीं बदल सकते तो फिर क्यों हम दो नुकसान उठाएँ?
प्रश्नकर्ता : यह आपने ठीक कहा दादा, कि यह जगत् पहले से ऐसा ही है।
दादाश्री : इसमें अन्य कुछ है ही नहीं। यह तो ढंका हुआ है इसलिए ऐसा लगता है और शंका ही मारती है। अतः अगर शंका होने लगे तो होने ही मत देना और प्रतिक्रमण करना। किसी भी व्यक्ति के प्रति कोई भी शंका हो तो प्रतिक्रमण करना।
वहाँ 'चार्ज' होता है प्रश्नकर्ता : यह 'ज्ञान' लेने के बाद आपने व्यवहार को निकाली कहा है, वह बात ठीक है लेकिन उसमें कहीं कोई अनौपचारिक व्यवहार रहता है तो वहाँ पर 'चार्जिंग' का भयस्थान कहाँ है?