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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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तो वह यों पूरी एक्टिंग करता है। चिल्लाता है, वैराग लेता है, आँखों में पानी ले आता है, रोता है, अभिनय करता है। लोग समझते हैं कि इसे बहुत दुःख है और यदि हम उसे पूछने जाएँ कि, 'क्यों आपको बहुत दुःख था?' तब वह कहेगा, 'नहीं, मैं तो लक्ष्मीचंद हूँ। यह तो मुझे भर्तृहरि का पात्र निभाने को मिला है।' उसी तरह आपको यह 'चंदूभाई' का पात्र निभाना पड़ेगा और 'खुद कौन है' वह जान गए, तो समझो काम हो गया!
जन्मोजन्म से निःशंकता बाकी 'खुद कौन है' देखो न उसी पर किसी को शंका नहीं होती न! बड़े-बड़े आचार्यों और साधुओं को भी खुद का जो नाम है, उस पर शंका नहीं हुई कभी भी! यदि शंका होने लगे तो भी हम समझें कि सम्यक दर्शन होने की तैयारियाँ हो रही हैं। सर्वप्रथम तो वह शंका ही नहीं होती न! उल्टा उसी नाम को मज़बूत करते हैं और ये सब क्रोधमान-माया-लोभ उसी के कारण हैं। यह असत्य की पकड़ पकड़ी है, उसी का उसे सत्य के रूप में भान हुआ है कि 'यही सत्य है।' बार-बार असत्य की पकड़ पकड़ी जाती है, उसके बाद वही उसके लिए सत्य बन जाता है। गाढ़ रूप से असत्य का उपयोग किया जाए तो फिर वह सत्य बन जाता है। फिर उसे ऐसा भान ही नहीं रहता कि असत्य है, सत्य ही है ऐसा रहता है।
इसलिए यदि यहाँ पर शंका हो जाए तो क्रोध-मान-माया-लोभ सबकुछ चला जाएगा लेकिन ऐसी शंका होती ही नहीं न! किस तरह से हो?! कौन करवाएगा यह? जिस बारे में जन्मजन्मांतर से निःशंक हो चुका है, उस बारे में खुद को शंका होने लगे, ऐसा कौन कर देगा? जिस जन्म में गया, वहाँ पर जो नाम पड़ा, वहाँ उसी को सत्य माना। शंका ही नहीं होती न! कितनी अधिक मुश्किल है ?! और उसी के कारण ये क्रोध-मान-माया-लोभ खड़े रहे हैं न! आप यदि 'शुद्धात्मा' हो तो क्रोध-मान-माया-लोभ की ज़रूरत नहीं है और आप यदि 'चंदूभाई' हो तो क्रोध-मान-माया-लोभ की ज़रूरत है। पूरे शास्त्रों का 'सॉल्यूशन'