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आप्तवाणी-९
यहाँ पर सिर्फ इतना ही जानने से मिल जाता है ! लेकिन उस आत्मज्ञान को जानें किस तरह? और आत्मज्ञान जानने के बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता लेकिन वह जानें किस तरह ?!
आत्मा संबंधी निःशंकता अब भगवान ने कहा है कि, किसी को भी आत्मा संबंधी शंका नहीं जाती। कृष्ण भगवान की वह शंका चली गई थी। वर्ना, आत्मा संबंधी शंका कि 'आत्मा ऐसा होगा या वैसा होगा, फलाना होगा या वैसा होगा, ऐसा होगा या वैसा होगा? थोड़ा बहुत कर्ता तो वह होगा न? कुछ बातों का तो वह कर्ता होगा ही न?' फिर ऐसी शंका रहा करती है। वर्ना कहेगा, ‘कर्ता के बिना तो कैसे चलेगी यह गाड़ी?' अरे, तुझे नहीं पता चलेगा! वह तो 'ज्ञानीपुरुष' ही जानते हैं कि यह कैसे चल रहा है! अब वह आत्मा, जैसा 'ज्ञानी' ने जाना है, वैसा होता है, इस पुस्तक में लिखा है वैसा नहीं होता। पुस्तक में आत्मा संबंधी बात ही नहीं है कोई।
___ अर्थात् आत्मा के बारे में कोई शंका रहित हुआ ही नहीं है। ये तो कहेंगे, 'आत्मा की इतनी भावना तो होनी ही चाहिए न!' अब वह जिसे आत्मा मान रहा है, उसे मैं निश्चेतन चेतन कहता हूँ। अब वहाँ पर आत्मा कैसे प्राप्त हो सकेगा? शंका ही रहेगी न फिर!
पूरा जगत् आत्मा को लेकर शंका में ही पड़ा हुआ है। लोग मुझसे पूछते हैं कि, 'ये क्रोध-मान-माया-लोभ आत्मा के अलावा तो कोई करेगा ही नहीं न?' मैंने कहा, 'शांति हो गई तब तो!' तब कहते हैं, 'लेकिन जड़ तो करेगा ही नहीं न?' मैंने कहा, 'जड ये नहीं करता, लेकिन चेतन भी कैसे कर सकेगा? जिसमें जो गुणधर्म नहीं हैं, वह उसे करेगा ही कैसे?' ऐसा है न, ये जो व्यतिरेक गुण हैं, इसका उसे पता नहीं होता न! कि दो चीजें साथ में हों तो तीसरा व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो जाता है, खुद के गुणधर्म छोड़ते नहीं और नया गुण उत्पन्न हो जाता है लेकिन 'ज्ञानी' के बिना वह समझ में कैसे आए?!