________________
१२६
आप्तवाणी-९
यों कंकड़ चुभे तो पता नहीं चलेगा? आपको 'ज्ञान' हुआ है न? चुभे तो निकाल देते हो या नहीं निकाल देते? उसे रहने देते हो क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं। निकाल देता हूँ। दादाश्री : अब नहीं रहेगा न?
शंकालु मन अलग, 'हम' अलग प्रश्नकर्ता : अब शंका का 'इफेक्ट' तुरंत तो होता ही है लेकिन क्या ऐसा 'इफेक्ट' अगले जन्म में भी रहेगा क्या?
दादाश्री : जिसका बीज डलता है न, उसका फल आता है इसलिए बीज में से ही निकाल देना है। शंका का बीज उग जाए न, तो उसका पता चल जाता है कि यह कपास का पौधा नहीं है लेकिन दूसरा पौधा है इसलिए उसे उखाड़कर फेंक देना है ताकि फिर से उसका बीज ही नहीं आए न! बाली उगेगी तब जाकर फिर बीज डलेंगे न?!
प्रश्नकर्ता : फिर दूसरे जन्म में बाधक नहीं होगा?
दादाश्री : बीज नहीं डलेंगे तो दूसरे जन्म में कुछ भी असर नहीं होगा। यह पिछले जन्म का बीज पड़ा हुआ है, उसी वजह से यह शंका उत्पन्न हुई, इसलिए अब बीज ही उत्पन्न नहीं होने देना है। अतः यह जगत् शंका करने जैसा नहीं है। चैन से सो जाना।
प्रश्नकर्ता : दृष्टि निःशंक हो जाए तभी निर्दोष दिखाई देते हैं।
दादाश्री : इसलिए तो मुझे निर्दोष दिखाई देते हैं। अब आप शुद्धात्मा हो गए, उसके बाद मन नहीं बदलेगा, वह 'डिस्चार्ज' के रूप में है। मन शंकालु हो तो शंकालु और उल्टा कहे तो उल्टा, उसमें घबराने का कोई कारण नहीं है। 'आपको' देखते रहना है। वह कहेगा, 'हम मर जाएँगे।' तब भी क्या? 'जो होना हो वह होगा, उसमें भी हमें हर्ज नहीं।'
प्रतिक्रमण से 'प्योरिटी' प्रश्नकर्ता : लेकिन कभी अगर प्रकृति में ही शंका की गांठे पड़ चुकी हों, तो उनका छेदन कैसे किया जा सकता है ?