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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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नहीं तो शंका मत रखना हम 'ज्ञान' होने के पहले से ही एक बात समझ गए थे। हमें एक जगह पर शंका हुई थी कि, 'यह व्यक्ति ऐसा करेगा, धोखाधड़ी करेगा।' इसलिए फिर हमने तय किया कि शंका करनी हो तो पूरी जिंदगी करनी है, वर्ना शंका करनी ही नहीं है। शंका करनी है तो ठेठ तक करनी है क्योंकि उसे भगवान ने जागृति कहा है। यदि करने के बाद शंका बंद हो जानी है तो करना ही मत। हम काशी जाने के लिए निकले और मथुरा से वापस आ जाएँ, उसके बजाय निकले ही नहीं होते तो अच्छा था। यानी हमें उस व्यक्ति पर शंका हुई थी कि यह व्यक्ति ऐसा है। उसके बाद से, हमें शंका होने के बाद से, हम शंका रखते ही नहीं हैं। वर्ना उसके बाद से उसके साथ व्यवहार ही नहीं रखते। बाद में फिर धोखा नहीं खाते। यदि शंका रखनी हो तो पूरी जिंदगी व्यवहार ही नहीं करते।
सावधान रहो, लेकिन शंका नहीं प्रश्नकर्ता : जिस प्रकार, जब गाड़ी चलाते हैं न, उस समय हमें सामने जागृति तो रखनी ही पड़ती है न? इसी प्रकार हमारा जीवन व्यवहार चलाते समय हमें हमेशा जागृति तो रखनी ही पड़ेगी न, कि ऐसा करूँगा तो यह आदमी खा जाएगा?' ऐसा तो हमें ध्यान में रखना ही पड़ेगा न?
दादाश्री : वह तो रखना पड़ेगा लेकिन शंका नहीं करनी है और ऐसी जागृति रखने की भी ज़रूरत नहीं है कि 'यह खा जाएगा'। सिर्फ हमें सावधान रहना चाहिए। इसे जागृति कह सकते हो, लेकिन शंका नहीं करनी है। ऐसा होगा तो क्या होगा, शायद अगर ऐसा होगा तो क्या होगा?' ऐसी शंकाएँ नहीं करनी चाहिए। शंकाएँ तो बहुत नुकसानदायक! शंका तो उत्पन्न होते ही दुःख देती है !
प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि किसी काम में ऐसे 'प्रोब्लम्स' आने लगें तब सामने वाले व्यक्ति पर हमें शंका होती है, और उस वजह से हमें दुःख रहा करता है।
दादाश्री : हाँ, वह निराधार शंकाएँ हैं। शंका में दो चीजें होती