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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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दादाश्री : चार्ज नहीं होता, लेकिन इस तरह शंका रखेंगे तो चार्ज होगा। यदि मोक्ष चाहिए तो शंका नहीं करनी चाहिए। वर्ना फिर भी, अज्ञानता में तो वैसा होगा ही। जबकि यह तो 'ज्ञान' का लाभ मिल रहा है, मुक्ति का लाभ मिल रहा है और जो 'है' वही हो रहा है। इसलिए शंका रखने का कोई कारण नहीं है। शंका बिल्कुल छोड़ देना। 'दादा' ने शंका करने को मना किया है।
यह तो खुद की ही निर्बलता प्रश्नकर्ता : इस शंका से, पहले तो खुद का ही आत्मघात होता है न?
दादाश्री : हाँ, शंका से तो खुद का ही, करने वाले का ही नुकसान हैं! सामने वाले को क्या लेना-देना? सामने वाले का क्या नुकसान है ? सामने वाले को तो कुछ पड़ी ही नहीं है। सामनेवाला तो कहेगा कि 'मेरा तो जो होनेवाला होगा, वह होगा। आप क्यों शंका कर रहे हो?'
अब आप शंका करते हो तो वह आपकी निर्बलता है। मनुष्य में निर्बलता तो होती ही है, सहज रूप से होती ही है। निर्बलता नहीं हो तब तो बात ही अलग है। वर्ना, निर्बलता थोड़ी-बहुत तो होती ही है मनुष्य मात्र में! और निर्बलता गई कि भगवान बन गया! एक ही वस्तु है, निर्बलता गई - वही भगवान !
शंका सुनते गैबी जादू से हम पर किसी को शंका हो न, तो फिर क्या वह उसे छोड़ेगी? नींद में भी उसे परेशान करती रहेगी। हमारा शुद्ध बहीखाता है इसलिए सभी का शुद्ध कर देता है। हम पर शंका हो, तब भी हमें उसमें कोई आपत्ति नहीं है। शंका होती है तो वह उसकी खुद की कमजोरियाँ हैं। इसलिए कविराज ने लिखा है न, कि
विपरीत बुद्धिनी शंका, ते सूणता गैबी जादूथी, छतां अमने नथी दंड्या, न करिया भेद हुँ' 'तुं' थी।