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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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है। अरे, क्या होना है? यह दुनिया कभी भी गिर नहीं गई है। यह दुनिया जब नीचे गिर जाएगी न, तब भगवान भी नीचे गिर जाएँगे! दुनिया कभी भी गिरेगी ही नहीं।
हम नेपाल की यात्रा में बस लेकर गए थे। तब रास्ते में यू.पी. में रात को बारह बजे एक शहर आया था। कौन सा था वह शहर?
महात्मा : बरेली था वह।
दादाश्री : हाँ। तो बरेली वाले सारे फौज़दार, और कहने लगे कि, 'बस रोको।' मैंने पूछा कि, 'क्या है ?' तब उन्होंने कहा कि, 'अभी आगे नहीं जा सकते। रात को यहीं पर रहो, आगे रास्ते में लुट लेते हैं। पचास मील के एरिया में इस तरफ से, उस तरफ से सभी को रोकते हैं।' तब मैंने कहा कि, 'भले ही लुट जाएँ, हमें तो जाना है।' तब अंत में उन लोगों ने कहा कि, 'तो साथ में दो पुलिसवालों को लेते जाओ।' तब मैंने कहा कि, 'पुलिसवालों को भले ही बैठा दो।' तब फिर दो पुलिस वाले बंदूक लेकर बैठ गए, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। ऐसा योग बैठना, वह तो अति-अति मुश्किल है! और अगर वैसा योग होना होगा तो हज़ारों प्रयत्न करोगे, तब भी तुम्हारे प्रयत्न बेकार हो जाएँगे! अतः डरना मत, शंका मत करना। जब तक शंका नहीं जाएगी, तब तक कभी भी काम नहीं हो पाएगा। जब तक निःशंकता नहीं आएगी, तब तक इंसान निर्भय नहीं हो सकेगा। जहाँ शंका है, वहाँ भय होता ही है।
ऐसी शंका कोई नहीं करता इस मुंबई शहर के हर एक इंसान से पूछकर आओ कि भाई, आपको मरने की शंका होती है क्या? तब कहेगा, 'नहीं होती।' क्योंकि उस सोच को ही निकाल दिया होता है, जड़मूल के साथ निकाल दिया होता है। वह जानता है कि 'यों शंका करेंगे तो अभी के अभी मर जाएँगे।' तो उसी प्रकार दूसरी शंकाएँ भी करने जैसी नहीं हैं। दूसरी शंकाएँ अंदर उठें न, तो उन्हें खोदकर निकाल दे न ! निःशंक हो जा न! लेकिन ये लोग तो दूसरी सभी शंकाओं को अंदर सहेजकर रखते