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आप्तवाणी - ९
क्या कहना चाहते हैं कविराज ? 'दादा' पर शंका होना, ऐसा कब होता है ? विपरीत बुद्धि हो, तभी शंका होती है ।
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एक बार ऐसा हुआ था कि यहाँ पर तो सभी के सिर पर ऐसे हाथ रखते हैं न, ऐसे एक स्त्री के सिर पर हाथ रखा था। उसके पति के मन में वहम हो गया । फिर कभी उस स्त्री के कंधे पर हाथ रख दिया होगा, तो उसे फिर से वहम हुआ । 'दादा' की दृष्टि बिगड़ गई लगती है, ऐसा उसके मन में घुस गया । मैं तो समझ गया कि इस भले आदमी को वहम हो गया है, उस वहम का उपाय तो, अब क्या हो सकता था ? ! तो मैंने ऐसा माना कि दुःखी हो रहा होगा।
फिर उसने मुझे पत्र लिखा कि, 'दादाजी, मुझे ऐसा दुःख हो रहा है। ऐसा नहीं करो तो अच्छा । आपसे, ज्ञानीपुरुष से ऐसा नहीं हो तो अच्छा।' उसके बाद मुझे मिलता, मेरे सामने देखता, तब उसके मन में ऐसा होता था कि दादाजी पर कोई असर ही नहीं दिखाई दे रहा है । फिर दो-तीन दिनों बाद फिर से मिला । तब हमें तो ऐसा था कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, उस तरह से हमने तो 'सच्चिदानंद' किया। ऐसा पाँचसात बार हुआ। उसे कोई असर नहीं दिखा, तब वह मन में थक गया। उसे भीतर घबराहट हो गई, कि 'यह क्या ? पत्र लिखने के बाद पहुँचा, फिर पढ़कर आ रहे हैं, फिर भी कोई असर तो नहीं दिखाई दे रहा ।'
अरे, गुनहगार पर असर दिखाई देता है । गुनहगार को इफेक्ट होता है। हमें इफेक्ट होगा ही क्यों ? जब हम गुनहगार ही नहीं हैं, तब फिर ! तू चाहे जितने पत्र लिखे या चाहे जो भी करे फिर भी मुझे आपत्ति नहीं है। पत्र का जवाब ही नहीं है मेरे पास । मेरे पास वीतरागता है । यह तो तू अपने मन में ऐसा समझ बैठा है। उसने फिर मुझसे कहा, 'आपको कुछ नहीं हुआ?' मैंने कहा, "मुझे क्या होता ? तुझे शंका हुई है, लेकिन 'मैं' उसमें हूँ ही नहीं न ! इसलिए मुझे आपत्ति ही नहीं है न!"
इसलिए गैबी जादू लिखा है । अब ऐसे में लोगों को असर हो जाता है ? यदि वह पत्र लिखे तो ?