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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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अहित हो जाएगा, इसलिए हमने तो... हमारी जिंदगी का परिश्रम ही ऐसा है कि हमने जो पेड़ लगाया, फिर प्लानिंग करते समय वह पेड़ अगर रोड के बीच में आ रहा हो, तब भी हम उस पेड़ को नहीं काटते, तब फिर रोड को ही घुमाना बाकी रहा! हमारा बोया हुआ, हमने पानी दिया हो और हमारे द्वारा पाले-पोसे गए उस पेड़ को हम उखाड़ते नहीं हैं लेकिन सिर्फ उस रोड को ही घुमाना रहा।
पहले से हमारी पद्धति ही इस प्रकार की रही है कि हमारे हाथ से बोया गया हमारे हाथ से उखड़ना नहीं चाहिए। बाकी, जीव तो बहुत प्रकार के मिलेंगे ही न!
ये तो अपार शंकाएँ हैं! शंका, शंका, चलते-फिरते शंकावाला जगत्। और किसी के द्वारा भूलचूक से किसी व्यक्ति की पत्नी पर हाथ रख दिया, तो उससे शंका हुई ! उससे तो घर पर बेहिसाब लड़ाईयाँ शुरू हो जाती हैं। अब उस स्त्री का इसमें कोई दोष नहीं है, फिर भी बेहिसाब लड़ाईयाँ चलती हैं। अब इन लोगों का क्या करें?! यानी कि यदि भूल से अपना हाथ रख दिया गया हो तो निःशंकता से उस शंका को खत्म कर देना चाहिए। शंका किससे खत्म करनी है ? निःशंकता से! वह 'दादा' की नि:शंकता से शंका गई ऐसा कहना।
शंका करने के बजाय... बाकी, जगत् में सब से बड़ा रोग हो तो वह है शंका!
प्रश्नकर्ता : लेकिन आपका यह वाक्य बहुत ज़बरदस्त है। यह जगत् शंका करने योग्य नहीं है!'
दादाश्री : शंका से ही यह जगत् उत्पन्न हुआ है। शंका से, बैर से, कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनके आधार पर जगत् टिका है। किसी पर शंका करने के बजाय उसे दो थप्पड़ मार देना अच्छा है, लेकिन शंका मत करना। थप्पड़ मारोगे तो परिणाम आएगा न झट से! सामनेवाला चार लगा देगा न? लेकिन शंका का परिणाम तो उसे खुद को ही, अकेले को ही! खुद गड्ढा खोदकर और अंदर उतर जाता है, वापस बाहर नहीं निकल पाता।