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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
है' वह 'है' होगा नहीं, और जो 'है' वह 'नहीं है' होगा नहीं, फिर सोचने को रहा ही नहीं न! उस संबंध में नि:शंक हो गया न!
और भविष्यकाल 'व्यवस्थित' के ताबे में है। अपने ताबे में है ही क्या?!
'व्यवस्थित में होगा वैसा हो जाएगा,' ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है लेकिन हमें ऐसा कहना चाहिए कि जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है। उँगली में थोड़ी सी भी चोट लगनी होगी तो अगर 'है' तो होगा
और 'नहीं है' तो नहीं होगा इसलिए जो 'नहीं है' वह नहीं है और जो होगा उसमें हमें आपत्ति नहीं है। यह संसार भी इसमें आपत्ति उठाकर कहाँ जाएगा?! सोचने से या कोई ऐसा पुरुषार्थ नहीं है कि जिससे यह बदल सके इसलिए जो 'है' वह है और जो 'नहीं है' वह नहीं है। लेकिन अज्ञानी यदि इसका उल्टा अर्थ निकाले तो नुकसान कर बैठेगा। ये बातें तो जिनके पास 'ज्ञान' है, उनके लिए हैं!
जिस प्रकार भगवान के बताए हुए तत्व हैं वे जो 'हैं' उतने ही तय कर रखे हैं न और जो 'नहीं है उन्हें नहीं कहा है। वैसे ही इसमें भी जो 'है' वह है। हम यदि अभी से ऐसा सोचने लगें कि 'नाई नहीं मिलेगा तो अब क्या करेंगे? शायद दो-तीन महीने नहीं भी मिला, तब पूरी जिंदगी नहीं मिले तो अब क्या उपाय करें?' ऐसा कुछ सोचने की ज़रूरत है क्या हमें? क्या ऐसा सोचते हैं कि बाल इतने-इतने लंबे हो जाएँगे तो क्या करेंगे?
अतः यदि शंका नहीं होगी तो कोई दुःख आएगा ही नहीं। शंका ही नहीं रहे तो फिर क्या बचा?! और शंका होगी तब भी हमें उसे हटा देना है, "आप क्यों आए हो? हम हैं न? आपको सलाह देने को किसने कहा है ? अब हम किसी वकील की सलाह नहीं लेते हैं और अन्य किसी की भी हम सलाह नहीं लेते हैं। हम तो दादा की सलाह लेते हैं, बस! जब जो रोग होता है तब दादा को दिखा देते हैं हम। हमें किसी को भी सलाह और नोटिस नहीं देना है। लोग भले ही हमें दें।' उसमें भी, व्यवस्थित से बाहर कोई कुछ कर सकता है क्या? तो