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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
होंगे? जो जागृत होते हैं, वे शंका करते रहते हैं । कमअक्ल को तो शंका ही नहीं होती न!
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इसलिए किसी भी प्रकार की शंका उत्पन्न होने से पहले ही उसे उखाड़कर फेंक देना चाहिए । यह तो, ये लड़कियाँ बाहर घूमने जाएँ, खेलने जाएँ, उन पर शंका करता है और शंका उत्पन्न हुई तो वहाँ हमें सुख रहता है क्या ?
प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन फिर शंका करने का अर्थ नहीं है।
दादाश्री : हाँ, बस ! इसलिए चाहे कुछ भी कारण हो फिर भी शंका उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए, लेकिन शंका नहीं करनी चाहिए। शंका हुई कि 'मृत्यु' आई समझो।
प्रश्नकर्ता : लेकिन शंका तो अपने आप ही उत्पन्न होती है न ?
दादाश्री : हाँ, लेकिन वह भयंकर अज्ञानता है। उससे बहुत दुःख पड़ते हैं। बेटियाँ बाहर जाएँ और कोई कहे कि 'उसे उसका फ्रेन्ड मिल गया है।' तब फिर लड़कियों पर शंका होती है, तो क्या स्वाद आएगा ?
प्रश्नकर्ता : बस, फिर अशांति रहा करती है ।
दादाश्री : अशांति रखने से क्या बाहर सब ठीक हो जाएगा ? फ्रेन्ड के साथ घूमती है, क्या उसमें कुछ बदलाव आ जाएगा ? बदलाव कुछ होगा नहीं और वह शंका से ही मर जाएगा! इसलिए शंका उत्पन्न हो कि तुरंत ही 'दादाजी ने मना किया है' इतना याद करके बंद कर देना चाहिए। बाकी सावधानी पूरी रखनी है।
लोगों की अपनी लड़कियाँ तो होती हैं न? तब क्या वे कॉलेज में नहीं जाएँगी ? ज़माना ऐसा है, इसलिए कॉलेज में तो जाएँगी न ? यह क्या पहले का ज़माना है कि बेटियों को घर में बिठाकर रखेंगे ? इसलिए जैसा ज़माना है, उसके अनुसार चलना पड़ेगा न ! यदि दूसरी लड़कियाँ अपने फ्रेन्ड के साथ बात करती हैं, तब वैसे ही ये लड़कियाँ क्या अपने फ्रेन्ड के साथ बात नहीं करेंगी ?