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आप्तवाणी - ९
दादाश्री : हाँ। ज़रूरत लायक बुद्धि वाले कुछ लोग हिन्दुस्तान में हैं, उन्हें फिर दूसरा कुछ विचार ही नहीं आता। अक्ल वाले यानी अधिक सोचने वाले, अधिक बुद्धि वाले । अक्ल वाले के लिए हमें ऐसा होता है न, कि तू कितनी मार खाएगा ? इसलिए जब भी कोई दुःख भुगतना पड़ता है, वास्तव में दु:ख भुगतना पड़ता है, तब शंका उत्पन्न होती है।
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संशयात्मा विनश्यति
प्रश्नकर्ता: गीता में कहा है कि 'संशयात्मा विनश्यति ।' तो उसमें आत्मा संबंधी संशय होता है या दूसरा कोई संशय होता है ?
दादाश्री : संशय सभी को होता है । उसमें संशय रहित कोई मनुष्य नहीं होता। उसे तो इस जगत् में किसी पर भी विश्वास ही नहीं आता, संशय ही होता रहता है और संशय से वह मर जाता है, मरा हुआ ही है न!
प्रश्नकर्ता : व्यवहार में संशय या निश्चय में संशय ? कौन सा संशय ?
दादाश्री : निश्चय में संशय तो पूरे जगत् को है ही । वह तो नियम से है। कृष्ण भगवान ने व्यवहार में 'संशयात्मा विनश्यति' लिखा है। जिस व्यक्ति को हर कहीं पर शंका होती है, पत्नी पर शंका होती है, बाप पर शंका होती है, माँ पर शंका होती है, भाई पर शंका होती है, वह व्यक्ति मरा हुआ ही है न! सभी पर शंका होती है, वह मनुष्य जीएगा ही कैसे ? पूरा जगत् आत्मा के संशय में तो है ही, उन्हें मरना नहीं पड़ता लेकिन जो व्यवहार में संशयवाला है वह मर जाएगा, वह मरा हुआ ही है । उस व्यक्ति को किसी पर विश्वास नहीं आता, संशय होता रहता है। खुद उधार देना चाहता है और कर्ज़दारों पर संशय होता रहता है, तो वह व्यक्ति मृत समान ही है। बेटियाँ कॉलेज में जाती हैं, तो 'फादर' के मन में होता है कि 'उम्र हो गई है, अब ये लड़कियाँ क्या कर रही होंगी ? वे क्या करती हैं? कैसे मित्र रखती हैं?' यों संशय ही करता रहता है । वह मृत समान ही है न!