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आप्तवाणी-९
दादाश्री : मान नहीं लेना है। एक ही मिनट के लिए शंका रखकर और पलट जाना है। उससे आगे गए तो शंका इतना बड़ा 'पोइजन' है कि उसे एक मिनट से अधिक लिया गया तो वह आत्महत्या समान है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यदि गलत ही लिखा हो तो क्या होगा?
दादाश्री : गलत होता ही नहीं है लेकिन यदि शंका होती है, तो एक मिनट शंका करके फिर शंका बंद कर देनी चाहिए।
भक्तों के लिए तो... प्रश्नकर्ता : आजकल हिन्दुस्तान में सभी धर्मात्मा, धर्मगुरु कहते हैं कि 'मैं ही भगवान स्वरूप हूँ।' क्या वह मान लेना चाहिए? शंका नहीं करनी चाहिए?
दादाश्री : हाँ, सब लिखें तो उसमें क्या है ? हमें शंका रखने की ज़रूरत नहीं है। हमें समझ में आ ही जाता है कि यह गलत है। शंका रखने की बात ही कहाँ है ? शंका अलग चीज़ है। आप जिसे शंका कहना चाहते हो उस शंका की ज़रूरत ही नहीं है। हम भगवान हैं,' उसमें तो शंका की ज़रूरत ही नहीं है। अभी वह भगवान बनकर, और फिर 'वह भगवान और खुद भक्त' की तरह लोगों की गाड़ी चलती रहती है। उसमें शंका हो जाना संभव है क्योंकि उसमें अगर करार टूट जाए या कुछ नई प्रकार का दिखे तब शंका होने की संभावना है। वर्ना, यों ही शंका होने का कोई कारण ही नहीं है न!
प्रश्नकर्ता : हर एक भगवान के भक्त तो ऐसा ही कहते हैं कि हमारे भगवान तो संपूर्ण भगवान हैं।
दादाश्री : ऐसा ही कहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं कहते तो मैं उन्हें कहता ही हूँ कि, 'भाई, आप संपूर्ण मानना। यहाँ से भी अधिक उच्च है वह।' तब वे कहते हैं, 'यहाँ के बराबर ही हैं?' मैंने कहा, 'यहाँ से भी अधिक उच्च प्रकार के हैं वे।' एक संत के लिए भी मैंने उनके भक्तों से कहा था कि, 'भाई, यहाँ से अधिक उच्च प्रकार का है।