________________
आप्तवाणी-९
हमें रोटियाँ खिलाती है, उतने दिन तक अपनी। वर्ना अगर किसी और को खिलाए तो उसकी।
सभी महात्माओं से कह दिया है कि शंका मत रखना। फिर भी मेरा कहना है कि, जब तक नहीं देखा हो, तब तक उसे सत्य मानते ही क्यों हो, इस कलियुग में? यह सब घोटालेवाला है। जो मैंने देखा है उसका यदि मैं आपको वर्णन करूँ तो कोई भी जीवित ही नहीं रहेगा। अब ऐसे काल में अकेले पड़े रहो मस्ती में और ऐसा 'ज्ञान' साथ में हो तो उसके जैसा तो कुछ भी नहीं।
यानी कि काम निकाल लेने जैसा है अभी। इसलिए हम कहते हैं न, कि काम निकाल लो, काम निकाल लो, काम निकाल लो! यह कहने का भावार्थ इतना ही है कि ऐसा किसी काल में मिलता नहीं है और मिला है तो सिर पर कफन बाँधकर निकल पड़ो!
यानी आपको समझ में आ गया न? कि जब तक नहीं देखा, तब तक कुछ नहीं होता है, यह तो देखा उसका ज़हर है !
प्रश्नकर्ता : हाँ, दिख गया इसीलिए ऐसा होता है।
दादाश्री : इस पूरे जगत् में अंधेरे में घोटाला ही चल रहा है। हमें यह सब 'ज्ञान' में दिखाई दिया था लेकिन आपको नहीं दिखाई दिया इसलिए आप इसे देखते हो और भड़क जाते हो! अरे, भड़कते क्यों हो? इसमें तो सब, यह तो ऐसा ही चल रहा है, लेकिन आपको दिखाई नहीं देता है। इसमें भड़कने जैसा है ही क्या? आप आत्मा हो, तो भड़कने जैसा क्या रहा? यह तो सब जो चार्ज हो चुका है, उसी का डिस्चार्ज है! जगत् शुद्ध (पूर्णरूप से) डिस्चार्जमय ही है। यह जगत् 'डिस्चार्ज' से बाहर नहीं है। तभी तो हम कहते हैं न कि डिस्चार्जमय है इसलिए कोई गुनहगार नहीं है।
प्रश्नकर्ता : तो इसमें भी कर्म का सिद्धांत काम करता है न?
दादाश्री : हाँ. कर्म का सिद्धांत ही काम कर रहा है और कुछ भी नहीं। मनुष्य का दोष नहीं है, ये कर्म ही घुमाते हैं बेचारे को। लेकिन उसमें शंका रखे न, तो वह मर जाएगा बिना बात के।