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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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हो फिर भी शंका नहीं करनी चाहिए। शंका जैसा एक भी भूत नहीं है। शंका तो करना ही मत। शंका उत्पन्न हो तभी से जड़ से निकाल देनी चाहिए कि, 'दादा' ने मना किया है। कोई कहे, 'यदि मैंने खुद देखा हो तो? कि कल यह व्यक्ति जेब में से रुपये ले गया था, और आज वापस आया है।' तब भी उस पर शंका नहीं करनी चाहिए। उस पर शंका करने के बजाय हमें अपनी सेफसाइड कर लेनी चाहिए क्योंकि शंका करना प्रेजुडिस कहलाता है। आज वह शायद ऐसा न भी हो, क्योंकि कितने ही लोग हमेशा के लिए चोर नहीं होते। कितने ही लोग संयोगवश चोर बन जाते हैं। बहुत ही तकलीफ आए तो चोरी कर लेते हैं, लेकिन वापस छ: सालों तक नहीं दिखते। जेब में रख जाओ तब भी नहीं छूते। ऐसे संयोगवश चोर!
प्रश्नकर्ता : कई लोग शातिर होते हैं, वे चोरी करने का धंधा ही लेकर बैठे होते हैं।
दादाश्री : वे चोर, वह अलग चीज़ है। यदि ऐसे चोर हों न, वहाँ तो हमें कोट दूर रख देना चाहिए। इसके बावजूद भी उसे चोर नहीं कहना चाहिए, क्योंकि हम थोड़े ही उसे मुँह पर चोर कहते हैं ! मन में ही कहते हैं न? मुँह पर कहेंगे तो पता चल जाएगा न! मन में कहने पर अपना जोखिम रहता है, मुँह पर कह दें तो हमें उसका जोखिम नहीं रहता। मुँह पर कह देंगे तो मार खाने का जोखिम है और मन में कहेंगे तो अपना जोखिम है। तब फिर क्या करना चाहिए हमें?
प्रश्नकर्ता : मन में भी नहीं रखना चाहिए और मार भी नहीं खानी चाहिए।
दादाश्री : हाँ, वर्ना मुँह पर कह देना अच्छा, सामनेवाला दो गालियाँ देकर चला जाएगा। लेकिन यह जो मन में रहा, उसकी जोखिमदारी आती है तो फिर उत्तम कौन सा? मन में भी नहीं रखना,
और मुँह पर भी नहीं कहना, वही उत्तम। मन में रखना, उसे भगवान ने प्रेजुडिस कहा है। कल कर्म का उदय था और उसने लिया, और आज शायद कर्म का उदय नहीं भी हो क्योंकि, 'जगत् जीव हैं कर्माधीन!' ऐसा होता है या नहीं होता?