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आप्तवाणी-९
श्रीमद् राजचंद्र ने कहा है कि,
रजकण के रिद्धि वैमानिक देव नी,
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो। एक ही स्वभाव का पुद्गल है। कसाई और दानेश्वरी दोनों ही पुद्गल हैं। कसाई पर जिसे चिढ़ नहीं होती, और दानेश्वरी पर राग नहीं होता, वह वीतराग!
प्रश्नकर्ता : आप बाहर के किसी भी 'स्टेशन' पर रुकने की जगह ही नहीं रहने देंगे।
दादाश्री : लेकिन बाहर के 'स्टेशन' पर रहोगे तो मार खाओगे। इतने समय तक तो मार खाई है, अब फिर से मार खानी है? इसलिए हम मार नहीं खाने की जगह बता देते हैं, जहाँ आपको कभी भी मार नहीं खानी पड़ेगी। अभी तक मार ही खाई है न! 'ज्ञान' लेने से पहले आपने मार नहीं खाई थी? थोड़ी बहुत खाई थी न? बाकी, मार खा-खाकर सभी का दम निकल चुका है।
अर्थात् बुद्धि ही परेशान करती है। वही उद्वेग लाती है, वेग में से उद्वेग लाती है। मुझमें से तो जब बुद्धि बिल्कुल चली गई न, तब मुझे ठंडक हुई। इसलिए मैंने पुस्तक में लिखा है न, कि 'मैं अबुध हूँ।' यह तो बहुत अच्छा विशेषण कहा जाएगा न! मैंने देखा कि कोई भी यह विशेषण लेने को तैयार ही नहीं है। अगर हम कहें, 'आपको अबुध का विशेषण देते हैं,' तो कहेंगे, 'नहीं साहब, मुझे अधिक बुद्धि चाहिए।' हमें तो अबुध का विशेषण मिला है, इसलिए 'इमोशनल' ही नहीं होते न! जब देखो तब 'मोशन' में ही रहते हैं।
शंका की जड़ प्रश्नकर्ता : 'अधिक बुद्धि चाहिए', कहते हैं, लेकिन उन अधिक बुद्धिशाली लोगों को ही अधिक शंका होती है न?
दादाश्री : हाँ। वह तो ऐसा है न, अभी तो विपरीत बुद्धि का