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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
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असर है। वह विपरीत बुद्धि बहुत शंकाएँ करवाती हैं। भयंकर अज्ञानता, उसी को शंका कहते हैं। उसे हर तरफ की समझ नहीं मिली है, इसलिए 'सॉल्व' नहीं हुआ, इसलिए वह शंका में पड़ा। 'सॉल्व' हो जाए तो वह शंका में नहीं पड़ेगा। बुद्धि लगाकर देखता है और यदि बुद्धि को आगे जाने का रास्ता नहीं मिलता तो शंका खड़ी करती है। यह 'व्यवस्थित' समझ में आ जाए तो कोई भी शंका खड़ी ही नहीं होगी।
प्रश्नकर्ता : तो शंका का मूल क्या है ? शंका क्यों होती होगी?
दादाश्री : शंका तो बुद्धि की दखल है, आवश्यकता से अधिक बुद्धि की दखल है वह। यानी कि शंका उत्पन्न करवाने वाली बुद्धि, सबकुछ उल्टा दिखाती है। वह शंका खड़ी करवाती है, अनर्थकारी! जगत् के सभी अनर्थों की सब से बड़ी जड़ हो तो वह शंका है, उससे फिर उसके अंदर वहम आ जाता है। पहले वहम होता है। बुद्धि उसे वहम करवाती है। यानी शंका बुद्धि का ही प्रदर्शन है। इसलिए अपने यहाँ तो मैं एक ही बात कहता हूँ कि किसी भी प्रकार की शंका रखना ही मत। और शंका रखने जैसा जगत् में खास कारण है भी नहीं। यानी की शंका की जड़, बुद्धि है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह बुद्धि तो अच्छा दिखाती है और खराब भी दिखाती है।
दादाश्री : नहीं। जिसमें ज़रूरत लायक ही बुद्धि है, खुद की 'नेसेसिटी' लायक बुद्धि है, उसकी अगर पाँच बेटियाँ होंगी फिर भी विचार ही नहीं आएगा, विचार आए तब शंका होगी न?
प्रश्नकर्ता : अर्थात् अधिक बुद्धि हो तभी यह गड़बड़ होती है ?
दादाश्री : बुद्धि ही अधिक गड़बड़ करती है क्योंकि इस काल की बुद्धि विपरीत मानी जाती है, व्यभिचारिणी बुद्धि कहलाती है, इसलिए फिर मार ही खिलाती रहती है।
प्रश्नकर्ता : और ज़रूरत लायक बुद्धि वाले को तो विचार ही नहीं आता, ऐसा है?