________________
[१] आड़ाई : रूठना : त्रागा
२९
दादाश्री : हाँ, फिर ऐसे कहने वाले भी मिल जाते हैं न कि, 'बिल्कुल ठीक किया है। चाय लाऊँ या नाश्ता लाऊँ ?' दो रूपये बचे हों तो लोग फिर वे भी निकलवा लेते हैं। इसमें बिल्कुल भी मज़ा नहीं है।
'दादा' की इस गाड़ी में से उतारकर बाहर निकाल दे, मारे तो भी पीछे से वापस घुस जाना। यहाँ से निकाल दे तो आप दूसरे डिब्बे में घुस जाना, फिर वहाँ से कोई निकाल दे तो तीसरे डिब्बे में घुस जाना। फिर वहाँ से भी निकाल दे तब चौथे डिब्बे में चले जाना! लोगों का काम क्या है? निकाल देना। लेकिन हमें तो फिर किसी डिब्बे में घुस जाना है, गाड़ी नहीं चूकनी है।
उसमें नुकसान किसे? मैं तो बचपन में रूठ जाता था, थोड़ा-बहुत। शायद ही रूठा होऊँगा। ज़्यादा नहीं रूठता था। फिर भी मैंने हिसाब निकालकर देखा कि रूठने में बिल्कुल ही नुकसान है। वह व्यापार ही बिल्कुल नुकसानवाला है। इसलिए फिर ऐसा तय ही कर दिया कि 'कभी भी रूलूंगा नहीं।' कोई हमें कुछ भी करे फिर भी रूठना नहीं है क्योंकि वह बहुत नुकसानदायक चीज़ है।
अतः मैंने तो बचपन से ही रूठना छोड़ दिया था। मुझे लगा कि इसमें तो बहुत बड़ा नुकसान है। मैं रूठा ज़रूर था, लेकिन उस दिन सुबह का दूध गया! उसके बाद मैंने तो, दिनभर में क्या-क्या खोया, उसका हिसाब निकाला, और शाम को फिर, वापस जैसे थे वैसे के वैसे। जब मनाया तब बल्कि नुकसान हुआ, वह मैंने ढूँढ निकाला। फिर मुझे मनाया था रौब से मान देकर! लेकिन सुबह का सारा दूध भी गया न! यानी बचपन में एकदो बार रूठकर देख लिया, लेकिन उससे नुकसान हुआ, इसलिए तब से फिर मैंने रूठना छोड़ दिया। इससे नुकसान होता है या नहीं होता?
प्रश्नकर्ता : होता है।
दादाश्री : अब तो हम आत्मा हुए। अब हमें ऐसा नहीं होना चाहिए। आप कभी रूठे थे क्या? नहीं? कोई रूठता है क्या घर में?