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आप्तवाणी-९
प्रश्नकर्ता : वह जो नाटक किया था, वह कपट नहीं है?
दादाश्री : नहीं, उसमें कपट नहीं है। दूध उफनने लगे और लकड़ी निकाल दें, तो वह कोई कपट नहीं कहलाता। खीर उफनने लगे तो लकड़ी निकाल देते हैं, वह क्या कपट कहलाएगा?
प्रश्नकर्ता : लेकिन आशय तो कुछ अच्छा करने का था न?
दादाश्री : उन्हें शुद्ध करने का था। उस समय वहाँ पर सभी बैठे थे, वे स्तब्ध हो गए थे। और सभी हों तभी आबरू लूँ, यों ही आबरू नहीं लूँगा न! वर्ना वे निगल जातीं। कहतीं 'ओहोहो कोई था ही नहीं न!' वे निगल जातीं और अपनी मेहनत बेकार जाती।
हीरा बा को अनुभव था, वे ऐसा जानती थीं कि 'ये सिन्सियर और मोरल हैं ही।' वह तो सिर्फ उसी एक केस में ही उनके मन में ज़रा घुस गया था। उसे निकालने में मुश्किल हुई लेकिन वह स्याद्वाद तरीके से नहीं निकला, इसलिए इस दूसरे तरीके से निकालना पड़ा। लेकिन इलाज ऐसा किया कि फिर से हीरा बा कुछ करने जाएँ तब पड़ोसन ही कहे, 'ऐसा मत करना। आपको भाई की बातों में पड़ना ही नहीं है। भाई का स्वभाव बहुत सख़्त है। ऐसा सख़्त स्वभाव, कि महादेव जी ही देख लो न!' ऐसा प्रभाव डाल दिया था। हीरा बा भी जानते थे, 'ये अभी भी तीखे भँवरे जैसे हैं!'
'ज्ञानी' बनकर बैठना कोई आसान नहीं है। किसी में ऐसे अंकुर फूटें तो उन सब को जड़ से निकाल देते हैं। नहीं तो वे अंकुर तो बड़े पेड़ बन जाएँगे! देखो न फिर वे लोग 'कुछ भी नहीं कहना है, आपको कुछ भी नहीं कहना है' हीरा बा से ऐसा कहते थे। मैंने कहा, 'मैं कुछ नहीं करूँगा। दादा को कौन कुछ कर सकता है? ये लड़कियाँ क्या करने वाली थीं?' फिर वही लोग कहने लगे, 'हमें बेकार ही झगड़ा मोल नहीं लेना है। अपने सिर पर आएगा।' मैंने तो उन्हें मुँह पर ही कह दिया था कि आप सबने ही यह बिगाड़ा है, मटकी में दरार डाल दी, अब क्या करें? बस एक ही बार मटके पर लाख लगाऊँगा। फिर