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आप्तवाणी-९
प्रश्नकर्ता : यह बात तो दादा, सौ प्रतिशत है कि अक्रमज्ञान होगा तभी 'एडजस्टमेन्ट' हो सकता है। नहीं तो 'एडजस्टमेन्ट' संभव है ही नहीं।
दादाश्री : हाँ, वर्ना होगा ही नहीं न! 'एडजस्टमेन्ट' रहेगा ही नहीं, किस आधार पर टिकेगा? उसके 'एडजस्टमेन्ट' को खत्म करके वहाँ पर भी उद्वेग से सिर तोड़ देगा। फिर मुँह पर पूरे दिन अरंडी का तेल लगाकर घूमता रहेगा।
प्रश्नकर्ता : लेकिन पासे डालते समय 'उल्टे गिरना', ऐसा जो कहा है न, तो ऐसा आशय क्यों रखें कि 'उल्टे ही गिरना?'
दादाश्री : तो फिर क्या रखना चाहिए हमें?
प्रश्नकर्ता : आशय ही नहीं रखना चाहिए। जितने पड़ें वह सही, ऐसा रखो।
दादाश्री : 'जो पड़े वही सही' यदि कभी अपना मन ऐसा कबूल करे तो अच्छी बात है और फिर भी यदि संतोष नहीं हो तब आप कहना कि 'उल्टे गिरना।' तब फिर अगर दो सीधे पड़ेंगे तो मन को संतोष हो जाएगा। अतः यह इस पर आधारित है कि अपना मन किस तरह का है।
धारणा नहीं, तो उद्वेग नहीं यहाँ से मुंबई फोन पर बात करके सौदा मंजूर किया, सबकुछ हो गया और दो दिन बाद वह आदमी पलट गया तो हमें उद्वेग होता है और उसे नहीं होता। अरे, हमें किसलिए उद्वेग हो रहा है? हम तो अपने धर्म में हैं। पलट तो वह गया है, वह अधर्म में गया है। हमने तो कुछ उल्टा किया ही नहीं, तो हमें क्यों उद्वेग होना चाहिए? तब वह कहता है कि, 'लेकिन मेरा नफा चला गया न!' अरे, नफा तो आया ही कहाँ था, छोड़ दे न यहीं से। ऐसा मान न कि सौदा ही नहीं किया था लेकिन इससे उसे उद्वेग हो जाता है और उसमें घर वाले कहते हैं, 'क्यों ऐसे हो गए हो, क्यों ऐसे हो गए हो?' लेकिन क्या हो? देखो उद्वेग, उद्वेग, उद्वेग,