________________
[२] उद्वेग : शंका : नोंध
उद्वेग के सामने वर्ना, यदि मोक्ष में जाना हो तो सरल बन जाओ। बालक जैसे सरल बन जाओ। ये बालक तो नासमझी में ऐसा करते हैं और 'ज्ञानीपुरुष' समझकर करते हैं, बस! दोनों में बचपना है तो सही, निर्दोषता बालक जैसी। बालक नहीं समझता फिर भी उसका संसार चलता है या नहीं चलता? बल्कि और अच्छा चलता है। जैसे-जैसे समझदारी आती है, वैसे उसका संसार बिगड़ता चला जाता है। 'ज्ञानीपुरुष' तो बालक जैसे सरल होते हैं
और यह आड़ाई तो एक प्रकार का अहंकार है कि सरल नहीं होना है, खुद का धार्यु (मनमानी) करना है। आड़ाई, वह तो धार्यु करने का परिणाम है। जिसे औरों की इच्छानुसार करना है, उसकी सभी आड़ाईयाँ चली जाती हैं।
प्रश्नकर्ता : खुद जैसा चाहता है उस अनुसार नहीं हो, तब फिर उद्वेग हो ही जाता है। खुद का मनचाहा परिणाम नहीं आए तो उद्वेग में ही रहता है वह।
दादाश्री : मनचाहा होता ही नहीं है कभी भी, इसलिए हमें पांसे फेंकने से पहले ही मन में सोच लेना चाहिए कि 'उल्टे गिरना।' फिर जितने सीधे पड़ें उतने सही, लेकिन अगर हम कहें कि 'चारों सीधे गिरना', तब वैसा कुछ होगा नहीं और पूरी तरह से उलझन और उद्वेग होगा। उसके बदले 'चारों उल्टे गिरना,' ऐसा कहेंगे न तो जितने सीधे निकले उतने तो सही। एक सीधा निकल गया तब हम समझेंगे कि 'चलो एक तो हो गया।' यानी 'एडजस्टमेन्ट' सेट करने की कीमत है सारी।