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आप्तवाणी-९
है लेकिन अगर कर्तापद का भान टूट गया तो उस उद्वेग का जो हिसाब भुगतना है, वह उद्वेग के रूप में नहीं आता। दूसरी तरह से आकर उलझाकर चला जाता है। 'सफोकेशन' करवाता है सिर्फ, घुटन करवाता है।
एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, 'दादा, ऐसा लग रहा है, जैसे सिर फटने को है', वही उद्वेग है। क्या करे फिर? लेकिन भाई, सिर कभी फटता होगा? यह खोपड़ी तो ऐसी है कि फट नहीं सकती। हथौड़ा मारें तब भी नहीं फटती ऐसी है, लेकिन देखो न उद्वेग की मुश्किलें! उद्वेग ऐसा आता है न, तो अंदर की नसें टूट जाती हैं। अब वह व्यापार नहीं करता है फिर भी अपने आप हो जाता है, नहीं करता है फिर भी हो जाता है क्योंकि जहाँ आवेग के व्यापारी होते हैं, वहाँ पर उद्वेग अवश्य आएगा ही। अपना ज्ञान प्राप्त करने के बाद आवेग के व्यापार बंद हो जाते हैं, इसलिए फिर उद्वेग आएगा ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उद्वेग तो, पूर्वजन्म की कमाई लेकर आया होता है न?
दादाश्री : हाँ, वह सारी कमाई फिर भोगनी पड़ेगी ज़रा। उस उद्वेग की कमाई को भोगने का मज़ा भी बहुत आएगा न?
प्रश्नकर्ता : क्रोध के साथ उद्वेग का संबंध है क्या?
दादाश्री : हाँ, क्रोध है तो उद्वेग होगा ही! आवेग भी, क्रोध है, तभी तक होता है। यानी जब तक कर्ता है तब तक क्रोध-मान-मायालोभ हैं, और तभी तक वे काम करते रहते हैं, लेकिन जब तक वे सभी कषाय सीमा में रहें तब तक वह आवेग कहलाता है और खुद की शक्ति से बाहर हो जाए, तब उद्वेग कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : उद्वेग आए तब भानसहित जाप करने से फर्क पड़ेगा न?
दादाश्री : उद्वेग आए तब सभानता रहती भी नहीं है न! यदि बहुत छोटे प्रकार का उद्वेग आए तो थोड़ी बहुत सभानता रहती है, तब