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आप्तवाणी - ९
प्रश्नकर्ता : चोरी करना भी एक कला है न ?
दादाश्री : हाँ, वह भी कला है लेकिन ये सब कलाएँ, जो कलाएँ इकट्ठी की थी न, वे सभी खुद को ही परेशान करती है
प्रश्नकर्ता : त्रागा करने की कला कहाँ से सीखते होंगे ?
दादाश्री : आत्मा में बहुत शक्ति है ! मन में तय करे कि, 'मुझे डरा-धमकाकर इन लोगों से छीन लेना है' तो त्रागा करना आ जाता है। फिर किस तरह से डराना-धमकाना, वह उसे आ जाता है।
त्रागा करना यानी उसके लिए तो बहुत ही अक्ल चाहिए। अपनी अक्ल वहाँ तक नहीं पहुँच सकती । फिर भी अगर सामने वाले त्रागा कर रहे हों तो उसका पता ज़रूर लगा लेता हूँ । त्रागा वाला व्यक्ति सामने आ जाए न, तो भी बहुत बेचैनी हो जाती है
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प्रश्नकर्ता : जो त्रागा करता है उसकी परख हो जाती है ?
दादाश्री : उसके करते ही समझ जाता हूँ कि त्रागा आया। ये त्रागा करने लगे!
वहाँ समझदारी से चेत गए
हमारे जान-पहचानवालों का एक बेटा, तो उसकी 'मदर' के जाते ही तुरंत ही बुक्का फाड़कर रोता था ! वैसे वह दस साल का था । एक ओर मैं पास वाले रूम में सोता, और एक तरफ वह लड़का बुक्का फाड़कर रोता। वह रोज़ ऐसा ही करता था । फिर एक दिन मैंने जाकर, जब वह अकेला था, तब दो-चार च्यूंटियाँ भर ली। तब उसने बहुत शोर मचाया, ज़ोर से रोया। तब उसकी माँ कहने लगी, 'यह रोया, रोज़ ऐसे ही परेशान करता है।' मैंने कहा कि, 'नहीं, वह परेशान नहीं कर रहा है। इसे देखो तो सही, कितनी अच्छी आवाज़ आ रही है ! यह तो संगीत है। सुनो, सुनो। सभी को बुला लाओ ।' दो-तीन दिनों तक ऐसा किया, उसके बाद फिर वह बंद हो गया ।