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आप्तवाणी-९
दादाश्री : साम-दाम-दंड वगैरह करके और बेचारे सरल लोग तो क्या करते हैं ? कहेंगे, 'दे दो। अपना जो होना होगा, वह होगा।' और पत्नी बेचारी ज़ेवर भी दे देती है।
प्रश्नकर्ता : जो त्रागा करता है वह तो जान-बूझकर करता होगा
न?
दादाश्री : हाँ, सबकुछ जान-बूझकर ही। त्रागा यानी खुद अपने आप जान-बूझकर बनावट!
त्रागा के परिणाम प्रश्नकर्ता : तो उसका क्या परिणाम भुगतना पड़ता है?
दादाश्री : वह तो पूरी तिर्यंचगति लांघ जाता है! पूरी तिर्यंचगति लांघ जाता है, तो वह क्या कोई ऐसा-वैसा ऐश्वर्य है ?!
प्रश्नकर्ता : वह रौद्रध्यान में आता है ?
दादाश्री : रौद्रध्यान तो अच्छा है उससे, बहुत प्रकार से अच्छा है। इसलिए अपने यहाँ पर अगर किसी ने ऐसा गुनाह किया हो तो मुझसे माफी माँग लेना। दो-पाँच बार ऐसा होगा, तब एकाध गुनाह माफ होगा। बहुत खराब गुनाह कहलाता है। पूरी तिर्यंचगति लांघकर नर्कगति में जाएगा। वह भी फिर ऐसी नर्कगति नहीं कि जो रौद्रध्यान से मिलती है। ये तो जीते जी ही लोगों को नर्क में डालकर त्रागा करके काम निकलवा लेता है, किसी भी कीमत पर। कीमत यानी चाहे जो भी हो, लेकिन करवाकर ही छोड़ता है।
त्रागा करने वाले के सामने
प्रश्नकर्ता : आज इस काल में तो जगह-जगह पर ऐसे त्रागे होते रहते हैं।
दादाश्री : नहीं, हर एक जगह पर नहीं। वह तो छोटे प्रकार का होता है। जबकि ये त्रागे तो बहुत बड़े होते हैं। वह तो सिर भी फोड़ता