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भाषित श्लोक संग्रह
तथा
स्तोत्रादि संग्रह ।
शाहपतराय जादवजी पालीताणा
(हायपणीवाला
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SASSIONSOSHARDS ही शास्त्रविशारद-जैनाचार्य-श्रीमद्-विजयधर्मसूरिभ्यो नमः । सुभाषित श्लोक संग्रह
तथास्तोत्रादि संग्रह।
शास्त्रविशारद-जैनाचार्य-श्रीमद्-विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर-इतिहासतत्त्वमहोदधि-आचार्यजी महाराज श्रीविजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य । मुनि महाराज श्रीभावविजयजी महाराजना
सदुपदेशथी
SSSSSSSSSSSSSSSSSS
प्रकाशकशाह भूपतरांय जादवजी, पालीताणा.
(हाथसणीवाला.)
__.. मूल्य-वांचन, मनन अने परिशीलन. BASIS ISSINESSI
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वीर संवत् २४६१ विक्रम संवत् १९९१ धर्म संवत् १३
जैनं जयति शासनम् ।
मुद्रकशाह गुलाबचंद लल्लुभाइ. श्री महोदय प्री. प्रेस, दाणापीठ-भावनगर
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ASOSASSASAL
SYTYTUTUR
OSASSASSASSAROSTI
शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज
بنا پر اس کا پورا کرنا ان کا
KUMAR PRINTERY, AHMEDABAD
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. ॥ अहम् ॥ ॥ सुन्नाषित संग्रह ॥
धर्माराधन का फल ।
यत्कन्याणकरोऽवतारसमयः स्वप्नानि जन्मोत्सवो। यद्रत्नादिकवृष्टिरिन्द्रविहिता यद्रूपराज्यश्रियः॥ यदानं व्रतसंपदुज्ज्वलतरा यत्केवलश्रीनवा ।
यद्रम्यातिशया जिने तदखिलं धर्मस्य विस्फुर्जितम् ॥१॥ वीर्थकरो की राज्यलक्ष्मी । .
संती कुंथू श्र अरो, अरिहंता चेव चकवट्टी ।
अवसेसा तिथ्थयरा, मंडलिया आसि रायाणो ॥२॥ धर्म से सात प्रकार की वृद्धि होती है ।
भायुर्वृद्धिर्यशोवृद्धि-वृद्धिः प्रज्ञासुखश्रियां ।
धर्मसंतानवृद्धिश्च, धर्मात्सप्ताऽपि वृद्धयः ॥३॥ बीज से बीज होता है। धर्मवृद्धि ।
बीजेनैव भवेद्बीजं, प्रदीपेन प्रदीपकः । द्रव्येणैव भवेद् द्रव्यं, भवेनैव भवांवरः ॥ ४ ॥
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( २ ) धर्म से संतानवृद्धि ।
बालाण वो तुरियाण, हिंसणं बंदिविन्दनिग्योसो। गुरुओ मंथासद्दो, धन्नाण घरे समुच्छलइ ॥५॥ वरबालामुहकमलं, बालमुहं धूलिधूसरच्छायं ।
सामिमुहं सुपसनं, तिन्नि वि सग्गं विसेसति ।। ६ ।।. प्रस्थान समय यह मंगलिक के लीए होते है। कन्यागोपूर्णकुंभं दधिमधुकुसुमं पावकं दीप्यमानं । यानं वा गोप्रयुक्तं करिनृपतिरथः(थं) शंखवाद्यधनिर्वा ।। उत्क्षिप्ता चैव भूमी जलचरमिथुनं सिद्धमन्नं यतिवा । वेश्यास्त्रीमद्यमांसं जनयति सततं मंगलं प्रस्थितानां ॥७॥
श्रमणस्तुरगो राजा, मयूरः कुञ्जरो वृषः ।
प्रस्थाने वा प्रवेशे वा, सर्वसिद्धिकरा मताः ॥८॥ भोजराजा के लिये मंत्रीयों का विलाप ।
अद्य धारा निराधारा, निरालम्मा सरस्वती ।
पण्डिता रण्डिताः सर्वे, त्वयि भोज दिवं गते ॥ ६ ॥ दया रहित को दीक्षादि नक्कामी है ।
न सा दीक्षा न सा भिक्षा, न तदानं न तत्तपः ।
न तद्ध्यानं न तन्मौनं, दया यत्र न विद्यते ॥१०॥ योगीश्रेष्ठ स्थूलीभद्र अथवा सब से बडा दानी, मानी, भोगी और योगी यह है।
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सेठ सेनाजी हुकमाजी
तखतगढवाला.
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श्रीशान्तिनाथादपरो न दानी, दशार्णभद्रादपरो न मानी। श्रीशालिभद्रादपरो न भोगी, श्रीस्थूलभद्रादपरो न योगी।११। बुद्धि आदि का सार क्या है ? बुद्धः फलं तत्त्वविचारणं च, देहस्य सारं व्रतधारणं च । अर्थस्य सारं किल पात्रदान, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् भ्रमर की माफक सब से सार लेना चाहीए ।
षट्पदः पुष्पमध्यस्थो, यथा सारं समुद्धरेत् ।
तथा सर्वेषु कार्येषु, सारं गृह्णाति बुद्धिमान् ॥१३॥ बहोत धनवाले की दसा बुरी है। दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो । गृहन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग भस्मीकरोति क्षणात् ॥ अम्मः प्लावयति क्षितौ विनिहितं यचा हरन्ति हठाद् । दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग्बह्वधीनं धनम् ॥१४॥ वस्तुपाल तेजपाल के धन का सद्व्यय ।
जैनागारसहस्रपञ्चकमतिस्फारं सपादाधिकं । लक्षं श्रीजिनमूर्तयस्तु विहिताः प्रोत्तुंगमाहेश्वराः ॥ प्रासादाः पृथिवीतले ध्वजयुताः सार्ध सहस्रद्वयं । प्राकाराः परिकल्पिता निजधनैात्रिंशदत्र ध्रुवम् ॥१५॥ सत्रागारशतानि सप्त विमला वाप्यश्चतुःषष्टयः । उच्चैः पौषधमन्दिराणि प्रवरा जैनाश्च शैवा मठाः ।।
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( ४ )
विद्यायाश्च तथैव पञ्चशतिकाः प्रत्येकतः प्रत्यहं । पश्चत्रिंशशतानि जैनमुनयो गृह्णन्ति भोज्यादिकम् ॥ १६॥
देह का सार क्या है ?
चीराब्धेरमृतं धने वितरणं वाणीविलासेऽनृतं । देहेऽन्योपकृतिस्तरौ शुभफलं वंशे च मुक्ताफलं ॥ मृत्स्नायां कनकं सुमे परिमलः पङ्के पयोजं यथा । संसारे पुरुषायुषं निगदितं सारं तथा कोविदैः ॥ १७ ॥
देह की अनित्यता ।
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
युगे युगे व्यतीतानि, कस्याहं कस्य बान्धवाः १ ॥ १८ ॥ शालभद्र का महान् आश्चर्य ।
पूर्वं न मंत्रो न तदा विचारः, स्पर्धा न केनापि फले न वाञ्च्छा । पश्चानुतापोऽनुशयो न गर्यो, हर्षस्तथा संगम के बभ्रुव ॥ १६ ॥ पुण्यहीन के मनोरथ सिद्ध नहीं होते ।
वनकुसुमं कृपणश्रीः, कूपच्छाया सुरंगधूली च । तत्रैव यान्ति विलयं, मनोरथा भाग्यहीनानाम् ||२०||
पुन्यशाली का कर्तव्य |
शिष्टे संग ः श्रुतौ रंगः, सद्ध्याने धीर्धृतौ मतिः । दाने शक्तिर्गुरौ भक्तिः, षडेते सुकृताकराः ॥ २१ ॥
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संगति का माहात्म्य ।
पश्य संगस्य माहात्म्यं, स्पर्शपाषाणयोगतः। . लोहं स्वर्णीभवेत् स्वर्ण,-योगात्काचो मणीयते ॥२२॥ संसर्ग से दोष और गुण आते है। गवाशनानां स वचः शृणोति,अहं च राजन् मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ॥२३॥ मन ही मोक्ष को बन्ध को प्राप्त करता है।
मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धस्तु(स्य) विषयासंगे(गो), मुक्तेनिर्विषयं मनः॥२४॥ · मणमरणे इं(0)दियमरणं, इंदियमरणे मरंति कम्माई ।
कम्ममरणेण मुक्खो, तम्हा मणमारणं विति ॥ २५ ॥ हस्तादि दानादि से शोभते है। दानेन पाणिनं तु कंकणेन, मानेन तृप्तिन तु भोजनेन । धनेन कान्तिन तु चन्दनेन, ध्यानेन मुक्तिन तु दर्शनेन ॥२६॥ मत का धन अच्छा नहीं है । दुर्मियोदयमनसंग्रहपरः पत्युर्वधं बन्धकी। ध्यायत्यर्थपतेर्मिषग्गदगणोत्पातं कलिं नारदः ॥ दोषग्राही जनश्च पश्यति परच्छिद्रं छलं राक्षसी । निःपुत्रं म्रियमाणमाढ्यमवनीपालो हहा वाञ्च्छति ॥२७॥
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दान कहीं भी नक्कमा नहीं होता। पात्रे धर्मनिबन्धनं तदपरे प्रोद्यद्दयाख्यापकं । मित्रे प्रीतिविवर्धकं रिपुजने वैरापहारक्षमं ॥ भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सन्मानपूजाप्रदं । भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न काश्यहो निष्फलम् ॥२८॥ गुरुभक्ति विना संब निष्फल है। विना गुरुभ्यो गुणनीरधिम्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि। यथार्थसार्थ गुरुलोचनोऽपि, दीपं विना पश्यति नांधका।२९। जैसी भावना वैसी सिद्धि ।
मन्त्रे देवे गुरौ तीर्थे दैवज्ञे स्वमभेषजे ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥ ३० ॥ असार से सार लेना चाहिए।
दानं वित्तादृतं वाचः, कीर्तिधर्मी तथायुषः ।
परोपकरणं कायाद,-सारात्सारमुद्धरेत् ।। ३१ ॥ लक्ष्म्यादि पाणी के फेन समान है।
कल्लोलचपला लक्ष्मीः, संगमाः स्वप्नसनिमाः।
वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त,-तूलतुल्यं च यौवनम् ॥ ३२ ॥ कृपण का धन निष्फल होता है। शास्त्रैनिःप्रतिभस्य किं गतदृशो दीप्रैः प्रदीपैश्च किं । किं क्लीवस्य वधूजनैः प्रहरणैः किं कातरस्योन्बणैः ॥
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किं वाद्यैर्बधिरस्य भूषणगणैर्लावण्यहीनस्य किं । किं भोज्यैज्र्ज्वरजर्जरस्य विभवैः प्रौढैरदातुश्च किं ? ॥ ३३ ॥
वाणी सच्ची बोलनी चाहिए ।
सत्यपूतं वदेद्वाक्यं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं मनःपूतं समाचरेत् || ३४ ॥ हरणादि मरे हुए शरीर से परोपकार करते हैं ।
कस्तूरी पृषतां, रदाः करटिनां, कृत्तिः पशूनां पयो, धेनूनां, छदमंडलानि शिखिनां, रोमाण्यवीनामपि ॥ पुच्छस्नायुवसाविषाणनखरस्वेदादिकं किञ्चन । स्यात्कस्याप्युपकारि मर्त्यवपुषो नामुष्य किञ्चित्पुनः||३५|| इन्द्रियदमन कठिन है ।
विश्वामित्र पराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशिनस्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्रैव मोहं गताः । प्राहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा - स्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् ? ।। ३६ । । .
पशुपक्षी भि काल से काम का सेवन करते है । सिंहो बली द्विरदशूकरमांस भोजी, संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारं । पारापतः खरशिलाकखभोजनोऽपि,
कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः || ३७ ॥
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( 6 ) काम को जितनेवाले स्थूलभद्र को धन्य है। . . वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भी रसैर्भोजनं,
रम्यं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यो वयम्संगमः । कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगायादरात् ,
तं वन्दे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥३८॥ कलियुग का प्रभाव । धर्मः पर्वगतस्तपः कपटतः सत्यं च दूरे गतं, पृथ्वी मंदफला नृपाश्च कुटिलाः शस्त्रायुधा ब्राह्मणाः । लोकः स्त्रीषु रतः स्त्रियोऽतिचपला लौल्ये स्थिता मानवाः, . साधुः सीदति दुर्जनः प्रभवति प्रायः प्रविष्टः (टे) कलि (लौ)३९। निवर्या पृथिवी निरौषधिरसा नीचा महत्त्वं गता, भूपाला निजधर्मकर्मरहिता विप्राः कुमार्गे रताः । भार्या भर्तृवियोगिनी पररता पुत्राः पितुषिणो, हा ! कष्टं खलु दुर्लभाः कलियुगे धन्या नराः सजना॥४०॥ विद्वत्ता वसुधातले विगलिता, पाण्डित्यधर्मों गतः । श्रोतृणां हृदयेष्वबुद्धिरधिका, ज्ञानं गतं चारणे ॥ गाथागीतविनोदवाक्यरचनायुक्त्या जगद्रजितं । ज्योतिर्वैद्यकशास्त्रसारमखिलं शरेषु जातं कलौ ।। ४१ ॥ सीदति संतो विलसंत्यसंतः, पुत्रा म्रियन्ते जनकश्चिरायुः। स्वजनेषु रोषश्च परेषु तोषः, पश्यन्तु लोकाः कलिकौतुकानि
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( ९ )
दाता दरिद्रः कृपणो धनाढ्यः, पापी चिरायुः सुकृती गतायुः । कुलीनदास्यं ह्यकुलीनराज्यं, कलौ युगे षद् गुणमावहन्ति । ४३ ।
यह दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते है ।
|
मतंगा भिंगंगा, तुडिभंगा दीवासिह जोइसिहा । चित्तंगा चित्तरसा, मणिभंगा गेहागारा अणिगाय ॥ ४४ ॥ देव की अपेक्षा मनुष्य जन्म अच्छा है ।
देवा विसयपसत्ता, नेरइया विविदुक्खसंतता । तिरिया विवेगविगला, मणुश्राणं धम्मसामग्गी ||४५ ||
धन के सिवाय सब नक्कमा है ।
जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतां, शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना । शौर्ये वैरिथि वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं, येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ॥ ४६ ॥
-पुण्य के चिह्न |
कुंकुम कजल केवडो भोजन कूरकपूर ।
कामिनी कंचन कप्पडां एह पुण्य अंकूर || ४७ ॥
भाग्य से ज्यादा कोई नहीं देता ।
•
भाग्याधिकं नैव नृपो ददाति तुष्टोऽपि वित्तं खलु याचकस्य । रात्रौ दिवा वर्षतु वारिधारा, तथापि पत्रत्रितयं पलाशे ॥ ४८ ॥
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( १० ). मोक्षाभिलाषी जिनेश्वर पर प्रीति रखता है।
देहे द्रव्ये कुटुम्बे च, सर्वसंसारिणां रतिः।
जिने जिनमते संघ, पुनर्मोचाभिलाषिणाम् ॥ ४६ ॥ पांच प्रमाद । मजं विसयकसाया निद्दा विगहा य पंचमी मणिया । एए पंचपमाया जीवं पाडंति संसारे ॥५०॥ वर्ष मेघ कुणालायां दिनानि दश पंच च । मुशलप्रमाण(लमान)धाराभिर्यथा रात्रौ तथा दिवा ॥ ५१ ॥ भाग्यहीन को पास में रही लक्ष्मी नहीं दीखती । . पदे पदे निधानानि, योजने रसकूपिकाः। भाग्यहीना न पश्यन्ति, बहुरत्ना वसुंधरा ॥ ५२ ॥ तीर्थ में जानेवाला भवभ्रमण नहीं करता है ।
श्रीतीर्थपाथरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु वंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः,
पूज्या भवंति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ५३ ॥ पुरुष पृथ्वी का आभूषण है। वसुधाभरणं पुरुषाः, पुरुषाभरणं प्रधानतरलक्ष्मीः । लक्ष्म्यामरणं दानं, दानाभरणं सुपात्रं च ॥ ५४॥
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( ११ )
द्रव्य के विना सब निष्फल है ।
साकारोऽपि सविद्योऽपि, निर्द्रव्यः क्वापि नार्घ्यते । व्यक्ताचरः सुवृत्तोऽपि, द्रम्मः कूटो यथा जने ॥ ५५ ॥ धनवाला सर्व श्रेष्ठ है ।
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स पंडितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः, सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते । ५६ । धन अन्याय से नहीं लेना चाहिए ।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दश वर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे, समूलं च विनश्यति ।। ५७ ।। दान और भोग नहीं करनेवाले का धन नहीं रहता । दानं भोगो नाश - स्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्के, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ ५८ ॥ दातव्यं भोक्तव्यं, सति विभवे संचयो न कर्त्तव्यः । पश्येह मधुकरीणां संचितमर्थ हरन्त्यन्ये ॥ ५९ ॥ नकार की विचित्रता ।
नाणं नियमग्गहणं, नवकारो नयरुई अ निट्ठा य । पंच न विभूसियाणं, न दुल्लहा सुग्गई लोए ॥ ६० ॥ नारी - नदी-नरेन्द्राणां नागानां च नियोगिनां । नखिनां च न विश्वासः, कर्तव्यः श्रियमिच्छता ॥ ६१ ॥
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( १२ )
-ज्ञान का प्रभाव ।
यानपात्रसमं ज्ञानं, ब्रुडतां भववारिधौ ।
मोहान्धकारसंहारे, ज्ञानं मार्तडमण्डलम् || ६२ ॥
अणिमिसनयणा मणक-ज साहया पुप्फदाम मिलाणा | चउरंगुलेण भूमिं न बिन्ति सुरा जिया बिंति ॥ ६३ ॥ पंचपरमेष्ठि का माहात्म्य |
संग्रामसागर करीन्द्रभुजंगसिंहदुर्व्याधिवह्निरिपुबन्धन संभवानि । चौरग्रहव्रजनिशाचरशाकिनीनां,
नश्यन्ति पञ्चपरमेष्ठिपदैर्भयानि ॥ ६४ ॥
प्रभुपूजा का महत्त्व |
यो लक्षं जिनबद्धलक्ष्यसुमनाः सुव्यक्तवर्णक्रमः । श्रद्धावान् विजितेन्द्रियो भवद्दरं मन्त्रं जपेत् श्रावकः || पुष्पैः श्वेतसुगंधिभिश्च विधिना लक्षप्रमाणैर्जिनं । यः संपूजयते स विश्वमहितः श्रीतीर्थराजो भवेत् || ६५||
नवकार का महिमा |
नमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुंजयसमो गिरिः । आदिनाथसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ।। ६६ ।। जो गुणइ लक्खमेगं, पूह जिणं (गुणइ) च नवकारं । तित्थयरनामगोयं, सो बंधइ नत्थि संदेहो ॥ ६७ ॥
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नवकारइक्कमक्खर, पावं फेडेइ सत्ताइराणं । पनासं च पयाणं, सागरपणसमग्गेण ॥ ६८॥ पचेन्द्रिय को सेवन करनेवाला कैसे नहीं नष्ट होता ? कुरंग-मातंग-पतंग-गा, मीना हताः पंचभिरेव पंच । एकः प्रमादीस कथं न हन्यात् , यः सेवते पंचभिरेव पंचा६९। । संसार विरक्तता।
पूमा पञ्चक्खाणं, पडिकमणं पोसहो परुवयारो । . पंच पयारा जस्स उ, न पयारो तस्स संसारे ॥ ७० ॥ शौचादि काकादि में नहीं होते है । काके शौचं, द्यूतकारेषु सत्यं क्लीबे धैर्य, मद्यपे तत्त्वचिंता । सर्पक्षान्ति:,स्त्रीषु कामोपशांती,राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ।७१। जिनपूजा का महत्त्व । सायरजलस्स पारं, पारं जाणामि तारगाणं वा । गोयम जिणवरपूना,-फलस्स पारं न जाणामि ॥ ७२ ॥ . चैत्यवंदन दक्षिण भाग से करना ।
अर्हतो दक्षिणे भागे, दीपस्य विनिवेशनं ।
ध्यानं तु दक्षिणे भागे, चैत्यानां वन्दनं तथा ॥७३॥ गुरु का महत्त्व । विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थ, · सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति ।
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( १४ ) . अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयो,
भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥७४॥ हितशिक्षा बालक से भी लेनी चाहिए ।
बालादपि हितं ग्राह्य-ममेध्यादपि काञ्चनं ।
निचादप्युत्तमा विद्या, स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ ७५ ॥ धूतासक्तता।
स वटः पंच ते यक्षा, ददति च हरन्ति च । ।
अक्षान् पातय कन्याणि, यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥७६॥ भावना फलदायी होती है।
भावना मोक्षदा स्वस्य, स्वान्ययोस्तु प्रभावना। .
प्रकारेणाधिकं मन्ये, भावनातः प्रभावनाम् ।। ७७ ॥ पुण्यानुबन्धी पुण्य ।
दया दानेषु (नं च) वैराग्यं, विधिवजिनपूजनं । विशुद्धा न्यायवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुवन्ध्यदः ॥७॥ देवद्रव्य नहीं खाना चाहिए।
देवद्रव्येण या वृद्धि, गुरुद्रव्येण यद्धनं ।
तद्धनं कुलनाशाय, मृतोऽपि नरकं व्रजेत् ॥ ६ ॥ स्वर्ग से पात कब होता है ? प्रभास्वं (साधारणद्रव्यं) ब्रह्महत्या च, दरिद्रस्य च यद्धनं । गुरुपत्नी देवद्रव्यं, स्वर्गस्थमपि पातयेत् ।। ८०॥
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विद्यादि यत्न से आते है। पत्नानुसारिणी विद्या, लक्ष्मीः पुण्यानुसारिणी । दानानुसारिणी कीर्ति-बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥ ८१॥ देवपूजा में कैसे पुष्प लेना ?
नैकपुष्पं द्विधा कुर्या-न छिन्द्यात् कलिकामपि ।
चंपकोत्पलभेदेन, भवेदोषो विशेषतः ॥ ८२॥ गुरु कैसा होना चाहिए।
नरयगइगमणपडिह-त्थए कए तहय पएसिणा रण्णा।
अमरविमाणं पत्तं, तं पायरिअप्पभावेण ॥ ८३ ॥ अभयदान महिमा ।
हेमधेनुधरादीनां, दातारः सुलभा भुवि । . दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥८४॥ पशुघात करनेवाले की दशा ।
यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत !।
तावन्ति वर्षलक्षाणि, पच्यन्ते पशुघातकाः ॥ ८५ ॥ भावना से क्या होता है ?
दारिद्यनाशनं दानं, शीलं दुर्गतिनाशनं ।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा, भावना भवनाशिनी ॥ ८६ ॥ ऋषि का उपशमभाव । सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजंगं ।
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( १६ ) - वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति, श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहं ॥८७॥ मृग का पश्चात्ताप ।
भावण भावे हरिणउ, नयणे नीर झरन्त ।
मुणि विहरावत भावसुं, जो हुं माणस हुंत ॥ ८८ ॥ रात्रिभोजन नहीं करने का फल ।
ये च रात्रौ सदाहार, वर्जयन्ति सुमेधसः । . . तेषां पदोपवासस्य, फलं मासेन जायते ।। ८९ ॥ शील का महिमा । . श्रीमन्नेमिजिनो दिनोऽधतमसा जम्बुप्रभुः केवली,
सम्यग्दर्शनवान् सुदर्शनगृही स स्थूलभद्रो मुनिः । सचंकारी सरस्वती च सुभगा सीता सुमद्रादयः,
शीलोदाहरणे जयन्ति जनितानंदा जगत्यद्भुताः ।९०। गृहस्थ के षट्कर्म ।
देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने ॥११॥ तीर्थकर की पूजा का फल । आयुष्कं यदि सागरोपममितं व्याधिव्यथावर्जितं,
पाण्डित्यं च समस्तवस्तुविषयं प्रावीण्यलब्धास्पदं । जिह्वा कोटिमिता च पाटवयुता स्यान्मे धरित्रीतले,
नोशनोमि तथापि वर्णितुमलं तीर्थेशपूजाफलम् ॥१२॥
कम ।
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(१७) प्रह्मचर्य सब से श्रेष्ठ है। प्रौदार्येण विना पुंसां, सर्वेऽन्ये (सर्वान्या) निष्फलाः कलाः । प्रमचर्य विना याद्, यतीनां निष्फला गुणाः ॥६३॥ पुरुषोत्तम कोण है ? स्त्रीणां श्रीणां च ये वश्या-स्तेऽवश्यं पुरुषाधमाः। स्त्रियः श्रियश्च यदश्या-स्तेऽवश्यं पुरुषोत्तमाः ॥९४ ॥ धर्मलाभ का महिमा । दीर्घायुः स्वस्ति धनवान् , पुत्रवान् प्रमुखाः परे । भाशीवादा अमी सर्वे, धर्मलाभस्य किंकराः ॥६५॥ भारंभे नस्थि दया, महिलासंगेण नासए बंभं । संकाए सम्मत्तं, पव्वज्जा दव्यग्ग(ग)हणेणं ॥ ९६ ॥ विनय का माहात्म्य ।
विणश्रो सासणे मूलं, विणो संजो भवे ।
विणयाश्रो विप्पमुक्कस्स, को धम्मो को तवो ॥९७॥ जिनपूजा का महिमा । महान्याधिग्रस्तः शटितवसनो दीनवदनो,
बुभुक्षाक्षामात्मा परगृहशतप्रेक्षणपरः । सुदुःखार्तो लोके भ्रमति हि भवे येन कुधिया,
न सद्भक्त्या ध्यातो ननु जिनपतिश्चिंतितफलः ॥९८॥
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(१८) पांच प्रकार के शौच ।
सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।।
सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं च पंचमं ॥ ९९ ॥ पात्रपरीक्षा।
मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र, विद्वांश्च वृषलीपतिः। उभौ तौ तिष्ठतो द्वारे, कस्य दानं प्रदीयते ॥१०॥ श्वानचर्मगता गंगा, वीरं मद्यघटस्थितं । कुपात्रे पतिता विद्या, किं करोति युधिष्ठिर ? ॥ १०१॥ न विद्यया केवलया, तपसापि च पात्रता।
यत्र विद्या चरित्रे(त्र) च, सद्धि पात्रं प्रचक्ष्यते ॥१०२॥ जीवन का फल । । भवणं जिणस्स न कयं, न य विवं न य पहमा साहू । दुद्धरवयं न धरियं, जम्मो परिहारियो तेहिं ॥ १०३॥ न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः । लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयारणपविलापतुल्यं ॥
॥१०४॥ उदारभावना।
अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसां । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ १०५ ॥
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देवांशी कोण होता है ?
देवपूजा दया दानं, दाक्षिण्यं दधता दमः।
यस्यैते षद् दकाराः स्युः, स देवांशो नरः स्मृतः॥१०६॥ चार प्रकार का धर्म । दानं सुपात्रे विशदं च शीलं, तपो विचित्रं शुभभावना च । भवार्णवोत्चारणसत्तरंड, धर्म चतुर्धा मुनयो वदन्ति ॥१०७॥ अभयदान प्रशंसा।
यो दद्यात्कांचनं मेरु, कृत्स्नां चैव वसुंधरा ।
एकस्य जीवितं दद्या-नच तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥ १०८ ॥ अहिंसाव्रत श्रेष्ठ है।
अपि वंशक्रमायाता, यस्तु हिंसां परित्यजेत् ।
स श्रेष्टः सुलस इवं, कालसूकरिकात्मजः ॥ १०९ ॥ पात्र की प्रशंसा । भौमे मंगलनाम विष्टिविषये भद्रा कणानां चये, वृद्धिः शीतलिकेतितीव्रपिटके राजा रजःपर्वणि । मिष्टत्वं लवणे विषे च मधुरं राः कंटकान्या यथा, पात्रत्वं च पणांगनासु रुचिरं नाम्ना तथा नार्थतः ॥११०॥ दया सर्वत्र करना चाहिये।
दानक्षणे महेच्छानां, किं पात्रापात्रचिंतया । दीनाय देवव्याध, यथादात्कृपया प्रभुः ॥ १११ ॥
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(२०) अपकारिष्वपि कृपा, सुधीः कुर्याद्विशेषतः।
दंदशूकं दर्शतं श्री-वीरः प्राबोधयद्यथा ॥ ११२॥ ब्रह्मचारी पवित्र है ?
शुचि भूमिगतं तोयं, शुचिनारी पतिव्रता ।
शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः ॥११३॥ प्रतमंग से क्या होता है ?
प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं, गुरुसाधिकृतं व्रतं ।
व्रतभंगोऽतिदुःखाय, प्राणा जन्मनि जन्मनि ॥११४॥ स्त्री-चरित्र की विचित्रता ! रविचरियं गहचरियं, ताराचरियं च राहुचरियं च । जाणंति बुद्धिमंता, महिलाचरियं न जाणंति ॥ ११५ ॥ तप का प्रभाव ।
चक्रे तीर्थकरैः स्वयं निजगदे तैरेव तीर्थेश्वरैः, श्रीहेतुर्भवहारि दारितरुजं सन्निर्जराकारणं । सद्यो विघ्नहरं हृषीकदमनं मांगन्यमिष्टार्थकृत ,
देवाकर्षणमारदर्पदलनं तस्माद्विधेयं तपः ॥ ११६॥ कोप वर्जनीय है।
एकेन दिनेन तनो-स्तेजः षण्मासिकं ज्वरो हंति । कोपःक्षणेन सुकृतं, यद-र्जितं पूर्वकोव्यापि ॥ ११७॥
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( २१ ) कपाय से हानि ।
कषाया देहकारायां, चत्वारो यामिका इव ।
यावजाग्रति ते पापा-स्तावन्मोक्षः कुतो नृणां १ ॥११८॥ मुक्ति का मंत्र । माशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्कवादे । न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥
दानादि से रहित का जीवन निष्फल है ।
दानं तपस्तथा शीलं, नृणां भावेन वर्जितं । .
अर्थहानिस्तथा पीडा, कायक्लेशश्च केवलं ॥ १२० ॥ सद्भाव से क्या फल होता है ?
दुग्धं देयानुमानेन, कृषिर्मेघानुसारतः ।
लाभो व्ययानुसारेण, पुण्यं भावानुसारतः ॥१२१॥ भाव का महिमा ।
भावेषु विद्यते देवो, न पाषाणे न मृन्मये ।
न रत्नेन च सौवणे, तस्माद्भावो हि कारणम् ॥१२२॥ सात क्षेत्र ।
जिनभवनबिम्बपुस्तक-चतुर्विधश्रमणसंघरूपाणि । सप्त क्षेत्राणि सदा, जयन्ति जिनशासनोक्तानि ॥१२३॥
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वक्ता का लक्षण ।
( २२ )
शतेषु जायते शूरः, सहस्रेषु च पण्डितः । वक्ता शतसहस्रेषु, दाता भवति वा न वा ।। १२४ ॥
आगम लिखने का फल |
न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जडस्वभावं । नैवान्धतां बुद्धिविहीनतां च, ये लेखयन्त्यागमपुस्तकानि ॥ ॥ १२५ ॥
धर्म का फल |
न कयं दीद्धरणं, न कयं साहम्मियाणवच्छन्नं । tिriमि वीयरायो, न धारियो हारियो जम्मो ॥ १२६ ॥ उत्तम पात्र कोण है ?
उत्तमपत्तं साहू, मज्झं पत्तं सुसावगा भणिया । अविरयसम्मद्दिठ्ठी, जहमपत्तं मुंणेयव्वं ॥ १२७ ॥ पूजा का महिमा । संसाराम्भोधिबेडा शिवपुरपदवी दुर्गदारिद्र्यभूभृ
गंगे दम्भोलिभूता सुरनरविभवप्राप्तिकल्पद्रुकल्पा । दुःखाग्नेरम्बुधारा सकलसुखकरी रूपसौभाग्यकर्त्री,
पूजा तीर्थेश्वराणां भवतु भवभृतां सर्वकन्याण कर्त्री । १२८ | सयं पमजणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे ।
- सय साहस्सिया माला, अवंतं गीयवाइए ॥ १२६ ॥
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( २३ ) वीतराग कैसे हो सकते है ? ।
वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते ।
ईलिका भ्रमरीभीता, ध्यायंती भ्रमरी यथा ॥ १३० ॥ जिनपूजा का महिमा । स्वर्गस्तस्य गृहांगणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा,
सौभाग्यादिगुणावलिविलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि । संसारः सुतरः शिवं करतलकोडे लुठत्यंजसा, ___ यः श्रद्धाभरभाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः ।१३१॥ तवनियमेण य मुक्खो, दाणेण य हुँति उत्तमा भोगा। देवचणेण. रजं, अणसणमरणेण इंदत्तं ॥ १३२ ।। यास्याम्यायतनं जिनस्य लमते ध्यायंश्चतुर्थ फलं,
षष्ठं चोत्थितुमुद्यतोऽष्टममथो गंतुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात प्राप्तस्ततो द्वादशं,
मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवास फलम् ।१३३। वस्तुपाल की तीर्थयात्रा का वर्णन । चत्राणां हयशस्वबंदिषु भवेद् द्रव्यव्ययः प्रायशः, शृंगारे पणयोषितां च वणिजां पराये कृषी क्षेत्रिणां । पापानां मधुमांसयोर्व्यसनिनां स्त्रीचूतमद्यादिके, भूमध्ये कृपणात्मनां सुकृतिनां श्रीतीर्थयात्रादिषु ॥१३४॥
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( २४ ) स्त्रीओं की जूठी प्रशंसा । नो सत्येन मृगाङ्क एव वदनीभूतो न चेन्दीवर
द्वन्द्वं लोचनतां गतं न कनकैरप्यङ्गयष्टिः कृता । किं त्वेवं कविभिः प्रतारितमनास्तत्त्वं विजानापि, __ त्वङ्मांसास्थिमयं वपुर्झगदृशां मत्वा जनः सेवते १३५ यदेतत्पूर्णेन्दुद्युतिहरमुदाराकृतिधरं,
मुखाजं तन्वङ्गयाः किल वसति यत्राधरमधुः । इदं तत्किम्पाकद्रुमफलमिवातीव विरसं,
व्यतीतेऽस्मिन् काले विषमिव भविष्यत्यसुखदम् ।१३६। व्यादीLण चलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिना,
नीलाब्जद्युतिनाऽहिना वरमहं दष्टो न तच्चक्षुषा । . दष्टे संति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण पुण्यार्थिनो,
मुग्धाक्षीक्षणवीक्षितस्य नहि मे वैद्यो न वाप्यौषधम् १३७ नूनं हि ते कविवरा विपरीतबोधा, ___ ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् ॥ याभिर्विलोलतरतारकदृष्टिपातः,
शक्रादयोऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः १॥ १३८॥ सम्पत्ति कहां जाती है ? । स किं सखा साधु न शास्ति याऽधिपं,
हितान यः संशृणुते स किं प्रभुः । सदाऽनुकूलेषु हि कुर्वते रति,
नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ॥१३९ ॥
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(२५) पूर्वपुण्य का फल मीलता है।
पूर्वोपार्जितपुण्यानां, फलमप्रतिमं खलु ।
पुण्यच्छेदेऽथवा सर्व, प्रयाति विपरीतताम् ॥ १४० ॥ भोत्रिय की व्याख्या ।
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेया, संस्काराद् द्विज उच्यते । विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ॥१४१॥ प्रभु की स्तवना । वह्निज्वालावलीढं कुपथमथनधीर्मातुरस्तोकलोक
स्याग्रे संदर्य नागं कमठमुनितपः स्पष्टयन् दुष्टमुच्चैः। यः कारुण्यामृताब्धिर्विधुरमपिकिल स्वस्य सद्यः प्रपद्य,
प्राज्ञैः कार्य कुमार्गस्खलनमिति जगौ देवदेवं स्तुमस्तम् ।। दानप्रशंसा । दानेन भूतानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दानात् , ततः पृथिव्यां प्रवरं हि दानम् ।। व्याकरण की महत्ता।
अङ्गीकृतं कोटिमितं च शास्त्रं, नाङ्गीकृतं व्याकरणं च येन। • न शोभते तस्य मुखारविन्दं, सिन्दूरबिन्दुविधवाललाटे । धर्म को जल्दी करना चाहिए।
अजरामरवत्प्राज्ञो, विद्यामर्थं च चिन्तयेत् । गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ १४५ ॥
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( २६ ) विद्याप्रशंसा।
गतेऽपि वयसि ग्राह्या, विद्या सर्वात्मना बुधैः ।
यद्यपि स्यान सुलमा, सुलमा सान्यजन्मनि ॥१४६॥ न चौरहार्य न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि । व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम् ॥ धर्महीन पशु है।
आहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥ काम की उपशान्ति ।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४९ ॥ दारिद्य निन्दा ।
हे ! दारिद्र ! नमस्तुभ्यं, सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः ।
अहं सर्वत्र पश्यामि, मां च कोऽपि न पश्यति ॥१५॥ वीर कोण है ? संपदि यस्य न हों, विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भुवनत्रयतिलकं, जनयति जननी सुतं विरलम् ॥१५१॥ कर्तव्य नहि भूलना चाहीए।
कर्तव्यमेव कर्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि । अकर्तव्यं न कर्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ १५२॥
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( २७ ) कालिदास का भोज से प्रश्न । खादम गच्छामि हसन्न भाषे, गतं न शोचामि कृतं न मन्ये । द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् ! भस्मादृशाः केन गुणेन मूाः? तृष्णा निरुपद्रव है।
यौवनं जरया अस्तं, शरीरं व्याधिपीडितम् ।
मृत्युराकासति प्राणाँ-स्तृष्णका निरुपद्रवा ॥१५४॥ दरिद्रता सर्वशून्य है।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं, दिशः शून्या ह्यबान्धवाः ।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं, सर्वशून्या दरिद्रता ॥ १५५ ॥ समय व्यर्थ नहीं करना ।
धर्मारम्भे ऋणच्छेदे, कन्यादाने धनागमे । · शत्रुधातेऽग्निरोगे च, कालक्षेपं न कारयेत् ॥ १५६ ॥ ब्रह्मचारी की गति ।
एकरात्र्युषितस्यापि, या गतिर्ब्रह्मचारिणः ।
न सा. क्रतुसहस्रेण, वक्तुं शक्या युधिष्ठिर ! ॥१५७।। राजा सब का आश्रय है।
दुर्बलानामनाथानां, बालवृद्धतपस्विनाम् ।
अनार्यैः परिभृतानां, सर्वेषां पार्थिवो गतिः॥१५८।। भय कहाँ नहीं जाता है। उद्यमे नास्ति दारिद्रय, जपतो नास्ति पातकम् । मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो भयम् ॥ १५९॥
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( २८ ) पार्श्वप्रभुस्तुति । कोऽयं नाथ ! जिनो भवेत्तव वशी हूँ हूँ प्रतापी प्रिये !, हूँ हूँ तर्हि विमुश्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां । मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तकिकराः के वयं, इत्येवं रतिकामजन्पविषयः पार्थः प्रभुः पातु नः ॥१६०॥ जाति कारण नहीं है।
श्वपाकीगर्भसंभूतः, पाराशरमहामुनिः।
तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥१६॥ कैवर्तीगर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १६२ ॥ शशकीगर्भसंभूतः, शुको नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १६३ ॥ न तेषां ब्राह्मणी माता, संस्कारश्च न विद्यते । तपसा ब्राह्मणो(णा) जात(ता)-स्तस्माजातिरकारणम् ।१६४। शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो, गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः, शूद्रापत्यसमो भवेत् ।। १६५॥ जीव का होम करनेवाले अपने संबंधी का होम क्युं नहीं करते। नाहं स्वर्गफलोपभोगरसिको, नाभ्यर्चितस्त्वं मया, संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं, साधो न युक्तं तव । स्वर्गे यांति यदि त्वया विनिहता, यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो, यचं किं न करोषि मातृपितृमिः, पुत्रैस्तथा बांधवैः॥१६६।।
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( २९ ) इन को गंगा पवित्र नहीं करती। चित्तं रागादिभिः क्लिष्टं, अलीकवचनैर्मुखम् ।। जीवघातादिभिः कायो, गङ्गा तस्य पराङ्मुखी ॥ १६७॥ हिंसा की व्याख्या।
पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, . उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता
स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ।। १६८ ॥ लक्ष्मी का प्रभाव । पूज्यते यदपूज्योऽपि, यदगभ्योऽपि गम्यते । वंद्यते यदवंद्योऽपि, तत्प्रभावो धनस्य च ॥१६६ ॥ जिन की व्याख्या
रागो द्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो ह्यसौ।
अस्त्रीशस्त्राक्षमालात्वा-दर्हनेवानुमीयते ॥ १७० ॥ चोर निष्फल कैसे हो ।'
आदिचौरकपिलस्य, ब्रह्मलब्धवरस्य च । तस्य स्मरणमात्रेण, चोरो गच्छति निष्फलम् ।। १७१ ।। दिवा काकरवाभीता, रात्रौ तरति नर्मदा । तत्र किं मकरो नास्ति, सा हि जानाति सुंदरी ॥ १७२॥
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( ३० )
लंका का नाश ।
दिधक्षन्मारुतेवोलं तमादीप्यद् दशाननः ।
मात्मीयस्य पुरस्यैव, सद्यो दहनमन्वभूत् ॥ १७३ ।। नारी प्राभित को कलंकित करती है।
लोके कलंकमपहातुमयं मृगाको, जातो मुखं तव पुनस्तिलकच्छलेन । तत्रापि कल्पयसि तन्वि कलंकरेखां,
नार्यः समाश्रितजनं हि कलंकयन्ति ॥१७४॥ शान्तिप्रिय कोण है । काव्यं सुधा रसज्ञानां, कामिना कामिनी सुधा। धनं सुधा सलोभानां, शान्तिः संन्यासिनां सुधाः ॥१७॥ आत्मशिक्षा । यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरौषधीना___ माविष्कृतोऽरुणपुरःसर एकतोऽर्कः । तेजोद्वयस्य युगपद् व्यसनोदयाभ्यां,
लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु ॥ १७६ ॥ सद्गुणी का लक्षण ।
स्वश्लाघा परनिंदा च, लक्षणं निर्गुणात्मनाम् । 'परश्लाघा स्वनिंदा तु, लचणं सद्गुणात्मनाम् ॥१७७॥
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(१) उत्तमता गुण से आती है।
गुणैरुत्तमतां याति, न तु जातिप्रभावतः ।
चीरोदधिसमुत्पन्ना, कालकूटः किमुत्तमः ॥ १७ ॥ अतिपरिचय का निषेध । अतिपरिचयादवज्ञा, भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः । लोकः प्रयागवासी, कूपे स्नानं सदा कुरुते ॥ १७६ ।। मित्रता कहां करना ? मृगा मृगैः संगमनुव्रजति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरंगैः। मूर्खाश्च मूखैः सुधियः सुधीभिः, समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ।। सच्चा वीतराग कोण है ।
प्रशमरसनिमग्नं दष्टियुग्मं प्रसनं, " वदनकमलमंकः कामिनीसंगशून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबन्धवन्ध्यं,
तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥ १८१ ॥ निर्मल ज्ञानी सम्यक्त्वहीन नहीं हो सकता। जानन्ति यद्यपि चतुर्दश चारुविद्या,
देशोनपूर्वदशकं च पठन्ति सार्थम् । सम्यक्त्वमीश ! न धृतं तव नैव तेषां,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ १८२॥
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( ३२ ) काक भी काक का विवेक करता है ।
काकोऽप्याहूय काकेम्यो, दवामाग्रुपजीवति ।
ततोऽपि हीनस्तदहं, भोगान् भुंजे विना घमन् ॥१८३॥ प्रभु को नमस्कार ।
नमस्तुभ्यं जगन्नाथ, विश्वविश्वोपकारिणे ।।
भाजन्मब्रह्मनिष्ठाय, दयावीराय तायिने ॥ १४ ॥ यह सब घातक है।
हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ता भक्षकस्तथा ।
क्रेतानुमन्ता दाता च, घातकाः सर्व एव ते ॥ १८५॥ महात्मा को दुःख नहीं देना चाहिए ।
महात्मगुरुदेवाना-मश्रुपातःक्षितौ यदि । देशभ्रंशो महदुःखं, मरणं च भवेद् ध्रुवम् ॥ १८६ ।।
आघ्रातं परिचुम्बितं परिमुहुर्तीद पुनः चर्वितं, त्यक्तं वा भुवि नीरसेन मनसा तत्र व्यथां मा कृथाः। हे ! सद्रत्न तदा तवैव कुशलं यद्वानरेणादरादन्तःसारविलोकनव्यसनिना चूर्णीकृतं नाश्मना ।१८७)
यह सब दूसरे के लिये है ।
वृक्षच्छाया यतिद्रव्यं, कीटिकाधान्यसंचयः। पिता पालयते कन्या, ते सर्वे परकारणम् ॥ १८८॥
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( १ ) विषय के लिये क्या २ होता है ?
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं, शय्या च भूः परिजनो निजदेहमानं । वस्त्रं च जीर्णशतखंडमयी च कंथा,
हा हा तथापि विषया न परित्यजन्ति ॥ १८६ ।। सर्व श्रेष्ठ क्या है ?।
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१९० ॥ प्रभु की स्तुति । सिद्धार्थराजांगज देवराज!, कल्याणकैः षड्भिरिति स्तुतस्त्वम् । तथा विधेयांतरवैरिषदकं, यथा जयाम्यद्य तत्र प्रसादात् ।१६१। निद्रादि से रहित कोण होता है । चिंतातुराणां न सुखं न निद्रा ।
कामातुराणां न भयं न लजा ।। अर्थातुराणां स्वजनो न बंधुः।
क्षुधातुराणां न बलं न तेजः ॥ १९२ ॥ भावसे रहित धर्म क्या काम का । गुरुं विना न विद्या स्यात् , फलं नैव विना तरुम् । नाधिपारो विना नावं, धर्मो भावं विना न हि ॥१९३।।
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( ३४ ) धर्म को करना श्रेष्ठ है। .. संसारम्मि असारे नस्थि सुहं वाहिवेत्रणापउरे।। जाणंता इह जीवा न कुणइ जिनदेसियं धम्मं ।। १६४ ॥ न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । म जाया न मुआ जत्थ, सबे जीवा भणंतसो ॥१६॥ अलस्स मोहवन्ना थंभा कोहा य लोह किवनत्तं । निदा विगहा य कीडा इसा नेह च वीरायतं ॥ १६ ॥ वचन में दरिद्रता क्यों करना । .
प्रियवाक्यप्रसादेन सर्वे तुष्यन्ति जंतवः ।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता १ ॥ १९७ ॥ दम्भी से सब ठगाते है। । त्रिदशा अपि वंच्यते, दाम्मिकैः किं पुनर्नराः । ।
देवी यक्षश्च वणिजा, लीलया वंचितावहो ॥१९८॥ रक्षक भक्षक होंगे तो रक्षण कोण करेगा ? माता यदि विषं दद्याद, पिता विक्रयते सुतं । राजा हरति सर्वस्वं, पूत्कर्तव्यं ततः क च ? ॥ १९९ ।। प्रथमं डंबरं दृष्ट्वा, न प्रतीयाद् विचक्षणः। अत्यल्पं पठितं कीरं, मेने च कुट्टिनी यथा ॥२०॥ संग्रह फलदायी है।
कृतो हि संग्रहो लोके, काले स्यात् फलदायकः । - मृतसर्पसंग्रहेण, लेभे हारं वणिक् पुरा ॥२०१॥
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कर्म ही सब कुछ है |
( ३५ )
वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारं, ज्योतिर्विद ग्रहगणादिनिमित्तदोषं । भूतोपसर्गमथ मंत्रविदो वदन्ति, कर्मेति शुद्धमतयो यतयो वदति
पशुवत् जीवन कीस का है ? |
।। २०२ ॥
नानाशास्त्रसुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वतां, येषां यान्ति दिनानि पंडितजन व्यायामखिन्नात्मनां । तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तैरेव भूर्भूषिता, शेषैः किं पशुवविवेक विकलैः भूभारभूतैर्नरैः || २०३ ॥ निःस्पृह को जगत् तृण तुल्य है ।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् ।
विरक्तस्य तृणं नारी, निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ २०४ ॥ क्षणं तुष्टः क्षणं रुष्टो, नानापूजां च वांछति । कन्याराशिस्थितो नित्यं, जामाता दशमो ग्रहः ॥ २०५ ॥
यह पांच जीने पर भी मरे समान है ।
जीवन्तोऽपि मृताः पंच, व्यासेन परिकीर्तिताः । दरिद्रो व्याधितो मूर्खः, प्रवासी नित्यसेवकः ॥ २०६ ॥
अतिलोभ नहीं करना |
एकं दृष्ट्वा शतं दृष्ट्वा दृष्ट्वा सप्त शतानि च । अतिलोभाभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके ॥ २०७ ॥
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( ३६ ) स्त्री के स्वाभाविक दोष ।
वंचकत्वं नृशंसत्वं, चंचलत्वं कुशीलता ।
इति नैसर्गिका दोषा, यासांतासु रमेत कः ॥२०८॥ पांच अनर्थ । मर्मवाग् दासविश्वासः, स्वैः कलिः खलसंगतिः । विरोधो बलिभिश्वामी, पंचानर्था प्रपंचकः ॥२०६ ।। कर्म की महत्ता । नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा, विधिर्वद्यः सोऽपि प्रतिनियतकमैकफलदः । फलं कर्मायत्तं यदि किममरैः किं च विधिना १, नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥ २१०॥ क्रोध क्या नहीं करता । क्रोधः कृपावल्लिदवानलोऽयं,
क्रोधो भवांभोनिधिवृद्धिकारी । क्रोधो जनानां कुगतिप्रदाता, .
क्रोधो हि धर्मस्य विघातविघ्नः ॥२११ ॥ - स्वकर्मनिरताः सर्वे नान्यशिक्षामपेचते ॥ २१२ ॥ जीवदया सर्व श्रेष्ठ है।
व्यर्थ दानं मुधा ज्ञानं, वृथा निग्रंथतापि हि । । अनार्या योगचर्यापि, न, चेत् जीवदया भवेत् ॥२१३॥
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( ३७ )
सच्चे और नित्य कुटुम्बी कोण है ?
धर्मो यस्य पिता क्षमा च जननी भ्राता मनःसंयमो, मित्रं सत्यमिदं दया च भगिनी वीरागता गेहिनी । शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं, यस्यैतानि सदा कुटुम्बमनघं तस्येह कष्टं कथं ? ॥२१४ ॥
प्रशंसा ।
तेजोमयोऽपि पूज्योऽपि, पापिना नीचधातुना । असा संगतो वह्निः, सहते घनताडनम् ॥ २१५ ।।
नच संगकी निन्दा |
महतोऽपि कुसंसर्गात् महिमा हीयते किल । कियन्नन्दति कर्पूरगन्धो लशुनसंगतः ॥ २१६ ॥
बस्स य निंबस्स य दुहवि समागयाई मूलाई । संसग्गए विहो, अंबो निवत्तणं पत्तो ।। २१७ ॥ कर्म की प्रधानता ।
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इन्द्रोऽपि कीटतां याति नरकं चक्रवर्त्यपि । पृथ्वीनाथोऽपि भृत्यत्वं, धनाढ्योऽपि दरिद्रताम् ॥ २९८ ॥ नीरोगोऽपि सरोगत्वं दौर्भाग्यं सुभगोऽपि च । सर्वसुख्यपि दुःखित्वं समर्थोऽप्यसमर्थताम् ॥ २१९ ॥ कौन कारण से नारी दूसरा पति कर सकती है। (पुराण) पत्यौ प्रब्रजिते क्लीवे प्रनष्टे पतिते मृते । पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।। २२० ॥
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( ३८ )
मानभंग नहीं होना चाहिये ।
वरं प्राणपरित्यागो, न मानपरिखण्डनम् ।
प्राणनाशात् क्षणं दुःखं मानभंगात् दिने दिने ॥ २२१ ॥
सब भाग्याधीन है।
अन्यथा चिंतितं कार्यं दैवेन कृतमन्यथा । राजकन्याप्रसादेन मृदंगीमरणं भवेत् ।। २२२ ।।
कैसे देव देव हो सकते है ।
हास्यादिषङ्कं चतुरः कषायान्, पंचाश्रवान् प्रेममदौ च केलिम् । तत्याज यस्त्याजयते च दोषान् देवः स सेव्यः कृतिभिः शिवाय ॥ २२३ ॥
ब्रह्म का लक्षण ।
सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म चेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म एतद्ब्राह्मणलक्षणं ॥ २२४ ॥
ब्राह्मण होने पर शूद्र जैसा कारण है ।
ब्रह्मकुले च संभूतः, क्रियाहीनश्च यो नरः । नाम्ना स ब्राह्मणो भूत्वा शूद्रापत्यसमो भवेत् ॥ २२५॥
शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकते ।
जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते । शूद्रकुले च संभूतः ब्राह्मणः किं न जायते ॥ २२६ ॥
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( ३९ ) रात्रिभोजन निषेध ।
अस्तंगते दिवानाथे, पापो रुधिरमुच्यते ।
अनं मांससमं प्रोक्तं, मार्कण्डेन महर्षिणा ॥ २२७ ॥ सच्चा बन्धु कोण है ।
आदौ धर्मधुरा कुटुम्बनिचये, क्षीणे च सा धारिणी, विश्वासे च सखी हिते च भगिनी, लजावशाच्च स्नुषा । व्याधौ शोकपरिवृते च जननी, शय्यास्थिते कामिनी, त्रैलोक्येऽपि न विद्यते भुवि नृणां, भार्यासमो बान्धवः ॥
॥२२८॥ एको ध्यानमुभौ पाठं त्रिभितिं चतुःपथम् । पंच सप्त कृषि कुर्यात् , सङ्ग्रामं बहुभिर्जनः ।। २२६ ।।
सुगुणं विगुणं नैव गणयंति दयालयः, ॥२३०॥ दश प्रकारकी नरक पीडा । ज्वरोष्णदाहभयशोकतृष्णाकण्डबुभुक्षा अपि पारवश्यम् । शीतं पुनर्नारकिणामतीव दशप्रकाराः प्रभवन्ति पीडाः ॥
॥२३१॥ घोर नरक कीसके मिलता है।
धर्मभ्रष्टा हि ते ज्ञेयास्तमाखुधूम्रपानतः। पतन्ति नरके घोरे रौरवे नात्र संशयः।। २३२ ॥
तमाखु-भंग-मद्यानि, ये पिबन्ति नराधमाः । : तेषां हि नरके वासो यावद् ब्रह्मा चतुर्मुखः ॥ २३३ ॥
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(४० ) ये पिबन्ति तमा वै लक्ष्मीनश्यति तद्गृहात् । दारियं वसति तेषां गुरौ भक्तिर्न संभवेत् ॥ २३४ ॥ घोरे कलियुगे प्राप्ते सर्वे वर्णाश्रमे रताः ।
तमालं भक्षितं येन स गच्छेत् नरकार्णवे ।। २३५ ॥ ब्रह्मा भी खुश नहीं रहता। अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ।। २३६ ।। मातंगी प्रथमे प्रोक्ता द्वितीये रजकी मता। रजस्वला तृतीये च शूद्रा तुर्थे च वासरे ॥ २३७ ॥ जातिका प्रभाव ।
नेच्छन्ति प्राकृतं मूर्खा मक्षिका चन्दनं यथा । ।
क्षीरानं शूकरा यद्वद्, घूका इव रविप्रभाम् ॥ २३ ॥ तमाखुपान निन्दा। बामणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च मुनिसत्तम ।। श्वपचैः सदृशा ज्ञेयास्तमाखुपानमात्रतः ।। २३९ ॥ धूम्रपानरतं विप्रं दानं कुर्वन्ति ये नराः। दातारो नरकं यान्ति ब्राह्मणो ग्रामशंकरर ।। २४०॥ यस्तमा पिबेत् सोऽपि स्वाश्रमाबिरये पतेत् । नारदान न संदेहः सत्यं सत्यं मयोदितम् ॥ २४१ ।।
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( १ ) कालिदास का उत्तर । कियदत्र जलं विप्र ! जानुदनं नराधिप ।
तदा केयमवस्था ते, न हि सर्वे भवादृशाः ॥ २४२ ॥ रामचन्द्र स्तुति । यद्भग्नं धनुरीश्वरस्य शिशुना यद् जामदग्न्यो जितः, त्यक्ता येन गुरोगिरा वसुमती बद्धो यदम्भोनिधिः। एकैकं दशकंधरस्य भयकृत् रामस्य किं वयेते, दैवं वर्णय येन सोऽपि सहसा नीतः कथाशेषतां ॥२४३।। देह असारता। यदि नामास्य कायस्य यदंतस्तद्वहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं, शुनः काकाँश्च वारयेत् ॥२४४ ॥ उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघ्न वीजस्व या । रोगैरंकुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः ॥२४॥ साधुप्रशंसा। सावद्ययोगविरतो, गौरवत्रयवर्जितः । त्रिगुप्तः पंचसमितो रागद्वेषविनाकृतः ॥ २४६ ।। निर्ममो नगरवसत्यंगोपकरणादिषु । ततोऽष्टादशशीलांगसहस्रधारणोद्धरः ।। २४७ ।। निरन्तरं यथाशक्ति, नानाविधतपःपरः । संयम सप्तदशधा, धारयन्नविखण्डितम् ॥ २४८ ॥
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(४२) अष्टादशप्रकारं च ब्रह्मचर्य समाचरन् । .. यत्रेदृग् ग्राहको दानं, तत्स्याद् ग्राहकशुद्धिमत् ॥ २४९ ॥ नित्यवस्तु को न छोडना चाहिए । विहाय जम्बुको मांस, तीरे मीनाय धावितः । मीनोऽपि प्राविशत्तोयं, मांसं गृध्रोऽप्यपाहरत् ॥ २५० ॥ व्यसनी की पास लक्ष्मी नहिं जाती है। भासन्ने व्यसने लक्ष्म्या, लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते । प्रकृतिव्यत्ययः प्रायो भवत्यंते शरीरिणाम् ।। २५१ ॥ विषयसेवन निन्दा।
आमसूत्रव्यूतखवा-धिरोहणसहोदरम् । ' भवभूमौ निपाताय, नृणां विषयसेवनम् ।। २५२ ।। दुःख की सीमा नहिं है। भाविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जन्पताम् । अस्मिन्नसारे संसारे, निसर्गेणाऽतिदारुणे । अवधिर्नास्ति दुःखानां, यादसामिव वारिधौ ।। २५३ ॥ साधु की वाणी निष्फल नहीं होती है । ब्रुवते हि फलेन साधवो, न तु कष्टेन निजोपयोगिताम् कर्म का स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते दुर्जया हि विषया विदुषापि बुद्धिशाली कोण है । झटिति पराशयवदिनो हि विज्ञाः ॥ २५५ ॥ .
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गुण कहां रहते है। यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ।। २५६ ॥ अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा, यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा। तणेन वात्येव तयाऽनुगम्यते, जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ।। कथं विधातर्मयि पाणिपङ्कजा-नव प्रिया शैत्यमृदुत्वशिल्पिना। वियोक्ष्यसे वल्लभयेति निर्गता लिपिर्ललाटंतपनिष्ठुराऽक्षरा ।। ममैव शाकेन विदीर्णवक्षसा, त्वया विचित्रांगि विपद्यते यदि । तदाऽस्मि दैवेन हतोऽपि हा हतः, स्फुटं यतस्ते शिशवः
परासवः ।। २५९ ॥ आपत्तिकाले बुद्धि नष्ट होती है। असंभवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुभे मृगाय । प्रायः समापनविपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिना भवन्ति ।। भाग्यकी विचित्रता। कान्तं वक्ति कपोतिकाऽऽकुलतया, नाथांतकालोऽधुना, व्याधोधो धृतचापसजितशरः, श्येनो नमो भ्राम्यति । इत्यस्मिन्नहिना स दष्ट इषुणा, श्येनोऽपि तेनाहतस्तूर्ण तौ तु यमालयं प्रति गतो, दैवी विचित्रा गतिः ॥ प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंच भूतानि ॥ २६२ ॥
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( ४४ )
पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः ।
जटी मुंडी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ २६३ ॥
असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावात् च सत्कार्यम् ॥ २६४ ॥
भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्व । कारण कार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य || २६५ ।।
ब्रह्माकी स्तुति ।
- रजोजुषे जन्मनि सत्रवृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे । जाय सर्गस्थितिनाशतंत्रिणे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः ॥ पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य | पुग्वन्द्यवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ २६६ ॥
रागान्धकी दशा कैसी होती है ।
दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देदीवर पूर्णचन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवानारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमा - गात्रेषु यन्मोदते ॥ २६७ ॥
चोद्येऽपि यदि चोद्यं स्यात् तव चोद्यं चोद्यते मया । तस्माद्योद्यं परीहार्य नास्ति चोद्यस्य चोद्यता ॥ २६८ ॥
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( ४५ )
समय पर सब अच्छा लगता है ।
श्रनागतं यः कुरुते स शोभते न शोभते यो न करोत्यनागतम् । वने वसन्तस्य जराप्युपागता बिलस्य वाचा न कदापि निर्गता ।। धर्मी त्वरितगति होती है ।
jमेको विबेषु विलंबे सज्जनग्रहै ।
परदाराविलंबेषु धर्मस्य त्वरिता गतिः ।। २७० ।।
जायं शतगुणं पुण्यं श्रजाप्यं लक्षमेव च । गुप्तं कोटिगुणं पुण्यं सेवादानस्य निष्फलम् || २७१ ॥ क्षमा तपस्वी का रूप है ।
कोकिलानां स्वरं रूपं नारीरूपं पतिव्रता ।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ॥ २७२ ॥
जन्म किसका नकमा है ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्थैव तस्य जन्म निरर्थकम् || २७३ ||
पण्डित कोण है ।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं स्वभावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं को यो जानाति स पण्डितः ॥ २७४ ॥
सत्त्व कोण है ।
प्राणा द्वि-त्रि- चतुःप्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सच्वाः प्रकीर्तिताः ॥ २७५ ॥
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( ४६ )
अच्छे का संग अच्छा ।
वरं न राज्यं न कुराज्यराज्यं वरं न दारा न कुदारदाराः । वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रं वरं न शिष्यो हि कुशिष्यशिष्यः २७६ दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च । विचरन्ति महाधूर्ता:, वटे वररुचिर्यथा ।। २७७ ।।
स्त्रीणां चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ।
क्रोध निन्दा |
क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारवर्धनः । धर्मक्षयंकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोषं विवर्जयेत् ॥ २७६ ॥
निन्दा अच्छी नहीं है ।
मा मतिः परदारेषु परद्रव्येषु मा मतिः । परापवादिनी जिह्वा मा भूदेव कदाचन ॥ २८० ॥ वी कोण है ? |
विरला जानंति गुणा विरला पालन्ति निद्धने नेहं । विरला परकजकरा परदुक्खे दुक्खिया विरला ।। २८१ ॥ सज्जन प्रशंसा |
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सुजनो न याति विकृतिं परहितनिरतो विनाशकालेऽपि ।
वेदेऽपि चंदनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ २८२ ॥
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(४७) विश्वास नहीं करनेलायक कौण है । विश्वसेन हि सर्पस्य खड्गपाणेर्न विश्वसेत् । स्त्रियाश्च चलचित्ताया नृपस्यापि न विश्वसेत् ॥२८३ ॥ मनुष्याणां पशूनां च पक्षिणां कृमिसंज्ञिनाम् । शुश्रूषणेन धर्मस्य समुत्पत्तिः प्रजायते ॥ २८४ ॥ आयुष्यादि गर्भमें निश्चित होते हैं।
आयुः कर्म च वित्तं च, विद्या निधनमेव च ।
पंचैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥ २८५ ॥ विचक्षण समय देख चलते है ।
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः ॥ २८६ ॥ स्त्रीयोंको काम आठगुणा होता है। .
स्त्रीणां द्विगुण आहारो लजा चापि चतुर्गुणा । साहसं षट्गुणं प्रोक्तं कामश्चाष्टगुणः स्मृतः ।। २८७ ॥ कृष्णमुखी न मार्जारी द्विजिह्वा न च सर्पिणी ।
पंचभर्ती न पांचाली तस्याहं कुलबालिका ।। २८८ ।। कर्म करनेवाला फल पाता है।
मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं गतास्ते फलमोगिनः ।। २८६ ।।
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(४८) विचित्रता कहाँ होती है। किं चित्रं यदि शास्त्रवेदिनिपुणो विप्रो भवेत् पंडितः ?, किं चित्रं यदि नीतिशास्त्रनिपुणो राजा भवेद्धार्मिकः । तच्चित्रं यदि रूपयौवनवती साध्वी भवेत् कामिनी, तच्चित्रं यदि निर्धनोऽपि पुरुषः पापं न कुर्यात् कचित् २६० भाग्य समयपर फलता है।
नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शीलं, विद्याऽपि नैव न च यत्नकृतापि सेवा । भाग्यानि पूर्वतपसा किल संचितानि,
काले फलन्ति पुरुषस्य यथेह वृक्षाः ॥ २६१ ॥ धनान्ध क्या नहीं करता है। यद् दुर्गामटवीमटन्ति विकटं कामन्ति देशान्तरं, गाहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशा कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पतिं गजघटासंघट्टदुःसंचरं, सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फूर्जितम् ॥२९॥ जिनस्तुति
सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमयं, . सार्बीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् । सिद्धं शिवं शिवकरं करणव्यपेतं, श्रीमजिनं जितरिपुं प्रयतः अणौमि ॥२९३॥
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(४९) विधुकरपरिरम्भादात्मनिष्यन्दपूर्णे, शशिदृषदुपक्कृप्तरालवालस्तरूणाम् । विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण, व्यरचि स हृतचित्तस्तत्र भैमीवनेन ॥ ॥२९४ ॥ शूरेषु विनैकपरेषु को नरः, करस्थमप्यर्थमवाप्तुश्विरः ॥२९॥ न काकुवाक्यैरतिवाममङ्गजं द्विषत्स याचे पवनं तु दक्षिणम् दिशापि मद्भास्माकिरत्वयं तया प्रियो यया वैरविधि
. वधावधिः ।। २९६ ॥ जंचिय विहिणा लिहिये तं चिय परिणमई सयललोयस्त । इइ जाणिऊण धीरा विहुरे वि न कायरा हुंति ॥ २९७ ।। अच्छेको बुरा समझनेवाले कोण है । अज्ञानी निन्दति ज्ञानं चौरा निन्दति चन्द्रमाः। अधमा धर्म निन्दन्ति मूर्खा निन्दन्ति पण्डितान् ॥२९८॥ धर्मबुद्धि ।
भत्ती जिणेसु मेत्ती जियेसु तत्ती गुरुवदेसेसु । पीइ सीलगुणड्डेसु तह मति धम्मसवणम्मि ॥२९९ ॥ बोधके पात्रको बोध देना चाहीए । किलात्र यो यथा जन्तुः, शक्यते बोधभाजनम् ।
कर्तुं तथैव तद्बोधो विधेयो हितकारिभिः ॥३०॥ उपदेश वयके प्रमाण अच्छा होता है ।
न चादौ मुग्धबुद्धिनां, धर्मो मनसि भासते । ___ कामार्थकथनात्तेन, तेषामाक्षिप्यते मनः ॥ ३०१ ॥
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मद्य-तूर्य-ग्रह-ज्योतिर्भूषा-भोजनविग्रहाः ।
स्रग्दीपवस्त्रपात्री गा दशधा परिकल्पिताः ॥ ३०२॥ मासी की लडकी से विवाह नहिं करना चाहीए । मातृस्वस्सुतां भोक्तुं मोहितो येन कांचति ।
न मद्यतस्ततो निन्धं दुःखदं विद्यते परम् ॥ ३०३ ॥ मद्यपानकी स्थिति ।
मूत्रयन्ति मुखे श्वानो वस्त्रं मुष्णन्ति तस्कराः । मद्यमृढस्य रथ्यायां पतितस्य विचेतसः ॥ ३०४ ।। विवेकः संयमः चान्तिः सत्यं शौचं दया दमः ।।
सर्वे मद्येन सूद्यन्ते पावकेनेव पादपाः ॥३०५ ॥ निर्लजकी स्थिति ।
तं तं नमति निर्लज्जो यं यमग्रे विलोकते ।
रोदिति भ्रमति स्तौति रौति गायति नृत्यति ॥३०६॥ ताडनके गुण ।
लालने बहवो दोषास्ताडने बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन तु लालयेत् ॥३०७॥ पर्व-प्रशंसा ।
चतुर्दश्यष्टमी च अमावास्या च पूर्णिमा । पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ॥३०८ ॥
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(५१) नरक प्राप्तिका साधन ।
तैलस्त्रीमांससंभोगी पर्वस्वेतेषु वै पुमान् । . विण्मृत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः ॥३०९॥ मूर्खताकी निशानी ।
शाठ्यन धर्म कपटेन मित्रं परोपतापेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां परुषेण नारी वाञ्छन्ति ये व्यक्तमप
ण्डितास्ते ॥ ३१०॥ शूर कोण है ?।
न रणे निर्जिते शूरो, विद्यया न च पण्डितः ।
न वक्ता वाक्पटुत्वेन, न दाता धनदायकः ॥ ३११ ॥ असत्य कहां फलदायी होता है ।
न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले ।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे पश्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ रक्षक शत्रु कैसे होते है ?।
ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी। भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ।। ३१३ ।। क्लेशभाजन कोण है ।
पूर्वेषां यः कुलं कीर्ति पुण्यं नाधिकतां नयेत् । नातेनाप्यथ किं तेन जननीक्लेशकारिणा ? ॥३१४ ।।
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( ५२ ) आगमकी आवश्यकता। इह किल कलिकाले चण्डपाखण्डिकीर्णे व्यपगतजिनचन्द्र केवलज्ञानहीने । कथमिव तनुभाजां संभवेद् वस्तुतत्त्वाऽ
वगम इह यदि स्यानागमः श्रीजिनानाम् ॥३१५ ।। लोभादि निन्दनीय है।
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातक १, सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् । सौजन्यं यदि किं निजैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनैः?,
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ॥ वैशेषिककी मुक्ति निन्दनीय है।
वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टुत्वं परिवाश्चिछतम् ।
न तु वैशेषिकी मुक्ति गौतमो गन्तुमिच्छति ॥ ३१७ ॥ तीर्थ-प्रशंसा।
अन्यस्थाने कृतं पापं, धर्मस्थाने विनश्यति । धर्मस्थाने कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ॥ ३१८ ॥ अन्यक्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थक्षेत्रे विनश्यति । तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥ ३१९ ।।
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(५३) गुणी से गुणी होता है। गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। सुस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः॥
॥३२०॥ नाम सान्वय कब होता है । योगेन योगी सुधिया नियोगी, भोगेन भोगी प्रमिति प्रयोग: भूपेन सेना विनयेन सूनु-ज्ञानेन देही द्रविणेन गेही ॥ विषयसे हानि । संसारपाशो नरके निवासः, शिष्टेषु हासः सुकृतस्य नाशः। दास्यावकाशः कुयशोविलासो भवन्ति नृणां विषयाभि
संगात् ॥ ३२२ ॥ दुख की अवधि । शिशूनां जननीनाशो, भार्यानाशस्तु यौवने ।
वृद्धस्यात्मजनाशश्च, दुःखमेभ्यः परं न हि ॥ ३२३ ।। दुर्लभ क्या है ?
अर्थलुब्धकृतप्रश्नौ, सुलभौ तौ गृहे गृहे । दाता चोत्तरदाता च, दुर्लभौ पुरुषावुभौ ॥३२४ ॥ वकार प्रवीण कोण होता है ? ।
व्यापारे वाङ्मये वादे, विज्ञाने विनये व्रते । षद्स्वमीषु वकारेषु, धीमानेव पुरस्सरः ॥ ३२५ ॥
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योग्यकी प्रति योग्य ।
शठं प्रति शाठ्यं कुर्यात्, आदरं प्रति चादरं । त्वया स मुच्यते पक्ष, मया च नाम्यते शिरः ॥३२६॥ शृंगारवर्णन ।
क्षौरं मजनवस्त्र भालतिलकं गात्रेषु गंधार्चनम् । कर्णे कुण्डलमुद्किा च मुकुटं पादौ च चर्मायतौ । हस्तं खड्गकटारकं कटिधुरि विद्याविनीतं मुखे ।
ताम्बूलं करकंकणं चतुरता शृंगारके षोडशः।। ३२७॥ परपीडा पाप है।
अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ ३२ ॥ शूरवीरता ।
अनेन तव पुत्रस्य, प्रसुप्तस्य वनान्तरे । शिखामाक्रम्य पादेन, खड्गेन पातितं शिरः ॥३२९ ॥ वनिकपुत्र ।
प्रादौ नम्रः पुनर्नम्रः, कार्यक्लेशेषु निष्ठुरः ।
कार्य कृत्वा पुनर्नम्रः, शिश्नुतुल्यवणिकसुतः ॥३३०॥ नरक-प्रतिति ।
यत्र नास्ति मनःप्रीतिः, यत्र न प्रियदर्शनम् । यत्रास्ति परतन्त्रत्वं, तद्राज्यं नरकं विदुः ॥ ३३१ ॥
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(५५) स्वभाव प्रशंसा ।
एकतडागे यद्यपि, पिबति भुजङ्गो जलं तथा गौश्च ।
परिणमति विषं सर्प, तदेव गवि जायते क्षीरम् ॥३३२।। पुण्य का फल । सती सुरूपा सुभगा विनीता,प्रियाभिरामा सरलस्वभावा ।
सदा सदाचारविचारदक्षा, सा प्राप्यते पुण्यवशानरेण॥ भार्या कैसी होनी चाहिए ?।
कार्येषु मंत्री कर्णेषु दासी, भोज्येषु माता शयेनेषु रम्भा। मनोऽनुकूला क्षमया धरित्री, षड्गुणभार्या कुलमुद्धरति।। हंसादरनिवासिनो वसुमती प्रादुर्भवत्कन्दला, पद्मानां निधनं जडैः परिचयः पङ्कातिरेकः पथि । जातः स्वैरविहारिणो द्विरसनाः शूरप्रतापक्षयः जीमुतौ हि करालकेलिकलितम्तन्मूर्तिभाजामभूत् ।। सूर्य भरिमुत्सृज्य, जीमूतं मारुतं गिरिं । स्वयोनि मूषिका प्राप्ता स्वजातिदुरतिक्रमा ॥३३६॥ महाभारत ।
अत्र द्रोणशतं दग्धं, पाण्डवानां शतत्रयम् । - दुर्योधनसहस्रं च, कर्णसंख्या न विद्यते ॥ ३३७॥ गङ्गास्तुति ।
मातः शैलसुता सपत्निवसुधा शृंगारहारावलिः, . स्वर्गारोहणवैजयन्ति भवती भागीरथी प्रार्थये ।
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(५६) त्वत्तीरे वसतस्त्वदम्बु पिबतस्त्वयानध्यातः सदा, त्वनामस्मरतस्त्वदर्पित दृशः स्यान्मे शरीरव्ययः॥ सपत्नीदर्शनं दूरे, श्रुतं नामाप्यसौख्यदं । गङ्गा विप्राय नो तुष्टा, श्रुतं शैलसुतेति यत् ॥ ३३९ ॥. प्रश्न ।
किं तद्वर्णचतुष्टयेन वनजं वर्गीत्रिमिभूषणं । प्रायः के न महीद्वयेन विहगो मध्ये द्वये प्राणदः । व्यस्ते गोत्रतुरङ्गचारिरखिलं प्रान्ते च संप्रेषणं ।
ये जानन्ति विचक्षणाः क्षितितले तेषामहं किंकरः॥ जीवदया प्रशंसा। तव श्रुतं यातु पातालं, तच्चातुर्य विलायताम् ।
ते विशन्तु गुणा वह्नौ, यत्र जीवदया नहि ॥ ३४१ ॥ पापकी अतिरेकता ।
साधुस्त्रीबालवृद्धानां, पीडितानां च केनचित् ।
उल्लङ्घने च तीर्थानां, विमानं स्थिरतां भजेत् ।। ३४२॥ निवृत्ति फलद यी है । __ न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥ ३४३ ॥ नारी निन्दा । दर्शने हरते चित्तं, स्पर्शने हरते बलम् । संगमे हरते वीर्य, नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥३४०॥
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( ५७ ) सज्जन-प्रशंसा ।
तो सुमणो जइ सुमणो भावेण य जइन होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु ॥३४॥ नत्थि यसि कोइ वेसो पिनो व सव्वसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अनोऽवि पज्जाभो ॥ ३४२ ॥ उन्मत्तप्रेमसंरंभादारम्भन्ते यदङ्गनाः । तत्र प्रत्यूहमाधातुं, ब्रह्मापि किल कातरः ॥ ३४३ ॥ भाग्य-प्रशंसा । . भाग्यं फलति सर्वत्र, न च विद्या न च पौरुषम् ।
समुद्रमथनाल्लेभे, हरिर्लक्ष्मी हरो विषम् ॥३४४ ॥ कर्मकी प्रधानता।
कर्मणो हि प्रधानत्वं, किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः।
वसिष्ठदत्तलग्नोऽपि, रामः प्रव्रजितो वने ॥ ३४५॥ श्रावककी व्याख्या । श्रद्धालुतां श्राति पदाचिन्तनाद्,
धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनाद्
अद्यापि तं श्रावकमाहुरंजसा ॥ ३४६ ॥ कामानिन्दा ।
कामोऽयं नरके दूतः, कामो व्यसनसागरः। कामो विपल्लताकन्दः, काम:पापद्रुसारणिः॥३४७॥
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अर्थ धर्म च मोक्षं च वेश्मेव गृहमेधिनः । .
प्रासादितप्रवेशोऽयं खनत्याखुरिव स्मरः ॥ ३४८ ॥ कुसंसर्ग निन्दा।
कुसंसर्गात्कुलीनानां भवेदम्युदयः कुतः।
कदली नंदति कियबदरीतरुसंनिधौ ॥ ३४९ ॥ अधर्म निन्दा ।
चक्रवर्त्य प्यधर्मः सन् जन्म तल्लभते पुनः । कदन्नमपि संप्राप्तं यत्र राज्याय मन्यते ॥ ३५० ।। महाकुलप्रसूतोऽपि धर्मोपार्जनवर्जितः। भवेद्भवान्तरे श्वेव परोच्छिष्टानभोजनः ॥ ३५१ ॥ धर्महीनो द्विजन्मापि नित्यं पापानुबन्धकः । बिडाल इत्र दुर्वृत्तो म्लेच्छयोनिषु जायते ।। ३५२ ॥ बिडालव्यालशार्दूलश्येनगृध्रादियोनिषु । भवन्ति भूयिष्ठभवा भविनो धर्मवर्जिताः ॥ ३५३ ॥ धर्महीनाः कृमयः स्युरसकृच्छकृदादिषु ।
कुकुटादेले भन्ते च चञ्चुचरणताडनम् ॥ ३५४ ।। कर्मका फल ।
किं च प्रत्यक्षमीक्ष्यन्ते जलस्थलखचारिणः । प्राणिनो विविधं दुःखमापेदानाः स्वकर्मजम् ॥ ३५५॥ तत्र वारिचराः स्वैरं खादन्त्यन्योन्यमुत्सुकाः । धीवरैः परिगृह्यन्ते गिन्यन्ते च बकादिभिः ॥ ३५६ ॥
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विश्वासघात ।
विश्वासप्रतिपमानां, वञ्चने का विदग्धता ।
अङ्कमारुह्य सुप्तानां, हन्तुः किं नाम पौरुषम् ।।३५७॥ मित्रद्रोही निन्दा।
सेतुं गत्वा समुद्रस्य, गङ्गासागरसङ्गमे ।
ब्रह्महा मुच्यते पापैः, मित्रद्रोही न मुच्यते ।।३५८ ।। नरक कोण जाता है ? ।
मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, स्तेयी विश्वासघातकः । .... चत्वारो नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ३५९ ॥ दान महिमा । . • राजंस्त्वं राजपुत्रस्य, यदि कल्याणमिच्छसि ।
- देहि दानं सुपात्रेषु, गृही दानेन शुध्यति ॥ ३६० ॥ कौनसे शकुन फलदायी है ।
बुद्धिपूर्वकं शकुनं तथा न फलदं यथाकस्मिकम् । गुरुप्रशंसा।
देवगुरूप्रसादेन, जिह्वाग्रे मे सरस्वती ।
तेनाहं नृप जानामि, भानुमत्यास्तिलकं यथा॥३६२।। विपत्तिका मूल क्या है ? ।
कूलच्छाया दुर्जनाच, विषं च विषयास्तथा । दंदशूकाश्च जायन्ते, सेव्यमाना विपत्तये ।। ३६३ ॥
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(६० ) . तृष्णा ।
आसंसार सरिनाथः किं तृप्यति सरिजलैः । सरित्पतिपयोभिवा किमेप वडवानलः ॥ ३६४ ॥ अन्तको जन्तुभिः किं वा, किमेधोभिक्षुताशनः । सुखैषयिकैरात्मा किं तथैव कदाचन ॥ ३६५ ॥ सत्कारयन्ति ह्यात्मानं, कृत्वाप्यागांसि मायिनः।
अत्युग्रपुण्यपापानां, फलमत्रैव जन्मनि ।। ३६६ ॥ पक्षपाती । सहजान्धदृशः स्वदुनये परदोषेक्षणदिव्यचक्षुषः स्वगुणोचगिरो मुनिव्रताः परवर्णग्रहणेष्वसाधवः ॥३६७॥ त्यजन्त्यसूञ्शम च मानिनो वरं, त्यजन्ति न त्वेकमयाचितव्रतम् ॥३६८ ॥ तत्र दायकशुद्ध तन्न्याय्यार्थो ज्ञानवान् सुधीः । निराशंसोऽननुतापी दायकः प्रददाति यत् ॥३६९ ॥ भाग्यहीनकी दशा।
खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापितो मस्तके, वाञ्च्छन् देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः। तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ।३७०। कायाकी शोभा कीससे है ? ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणिनं तु कङ्कणेन । विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ।३७१।
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(६१) वणिक अवस्था ।
कार्य सपौरूषणापि वणिजा न हि पौरुषम् ।
वणिजो लोकसामान्येऽप्यर्थे साशंकवृत्तयः ॥ ३७२ ॥ . जरावस्था ।
पुरुषस्य जरा पंथा अश्वाना मैथुनं जरा ।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां, वस्त्राणां वमलं जरा ॥३७३ ॥ कार्य विना दूसरेके घर जाना निन्दनीय है।
विना कार्येण ये मूढा, गच्छन्ति परमन्दिरम् ।
अवश्यं लघुतां यान्ति, कृष्णपक्षे यथा शशी ॥३७४।। मेदपाटके मनुष्यकी प्रशंसा ।
निर्विवेका मरुस्थन्यां, निर्लजा गुर्जरे जनाः।
निर्दया मालवे प्रोक्ता, मेदपाटे त्रयो न हि ॥ ३७५ ॥ यह छ शास्त्रवर्जित है।
अलसो मन्दबुद्धिश्च, सुखितो व्याधितस्तथा ।
निद्रालुः कामलुब्धश्च, षडेते शास्त्रवर्जिताः ॥ ३७६ ॥ समानता बुरी है।
राजा राजानमालोक्य, वैद्यो वैद्यं नटो नटम् । भिक्षुको भिक्षुकं दृष्ट्वा, श्वानवत् घुघुरायते ॥ ३७७ ।। कीसके लीये कैसा धन अच्छा है।
ब्राह्मणानां धनं विद्या, क्षत्रियाणां धनं धनुः । ऋषीणां च धनं सत्यं, योषितां यौवनं धनम् ॥३७८॥
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( ६२ ) परमात्मा कोण है ।
दुषणेभ्यो विनिर्मुक्तो-ऽष्टादशभ्यो भवेद्धि यः ।
प्रातिहार्याष्टकैर्युक्तः, परमात्मा स उच्यते ॥ ३७९ ॥ श्री आदीश्वर स्तुति।
श्रीश@जयभूषणं जिनवरं श्रीनाभिभूपात्मजं, सेन्द्र किवरैर्नरेन्द्रनिकरैक्या प्रणुनैनतम् । . ज्ञानं यस्य त्रिकालवस्तुविषयं लोकेतराभाषकं,
सर्वेषां हितदं कृपारसमयं वन्दे तमादीश्वरम् ॥३८॥ विद्या-प्रशंसा। विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो, धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा । सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नविना भूषणं, तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥३८१।। लोभनिन्दा।
अतिलोभो न कर्त्तव्यश्चक्रं भ्रमति मस्तके ।
अतिलोभप्रसादेन, सागरः सागरं गतः ॥३८२ ॥ मालवदेश प्रशंसा।
मालवे पञ्चरत्नानि कंट भाटा पर्वताः। चतुर्थ वस्त्रहरणं पञ्चमं प्राणघातकाः ॥ ३८३ ॥
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अज्ञान-निंदा |
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति
( ६३ )
विना अनिका दाह ।
नरक प्राप्ति कैसे होती हैं ? |
तिलसिक्तेन मात्रेण, भन्नं भुञ्जन्ति ये नराः । ते नरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ वीरस्तुति ।
धर्मोपदेशनविधौ रदनाच्छकान्तिः, सान्द्रोद्यती जनतनूविंशदीचकार । 'अन्तर्विशुद्धिकरगीर्विजिगीषयेव, यस्य श्रियं जिनपतिस्तनुतात् स वीरः
पुत्रच मूर्खो विधवा च कन्या,
शंठ च मित्रं चपलं कलत्रम् | विलासकालेsपि दरिद्रता च,
विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति देहम्
सज्जनका सज्जनत्व ।
॥ ३८४ ॥
प्रारभ्यते न खलु विघ्नमयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
॥ ३८५ ॥
॥ ३८६ ॥
॥ ३८७ ॥
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( ६ ) विनैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति । ॥३८८ ॥ धूर्त कौन है ।
नराणां नापितो धूर्तः, पक्षिणां चैव वायसः । - चतुष्पदे शृगालस्तु, स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी ॥३८९॥ विद्या आदि का मूळ क्या ?
विज्झामूलं च विनो, लच्छीमूलं तहा भवीसासो ।
भवमूलं महिलाओं, दानमूलं च कित्तीमो ॥ ३९० ॥ नरककी आगाही।
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी,
__ दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् । नीचप्रसंगः कुलहीनसेवा,
. चिह्नानि देहे नरकस्थितानि ॥३९१॥ कैसी लक्ष्मी अच्छी है ?। .
किं तया क्रियते लक्ष्म्या, या वधूरिव केवला ।
या च वेश्येव सामान्या, पथिकैरुपभुज्यते ॥३९२ ॥ निन्दनीय क्या है ?।
किं गीतं कण्ठहीनस्य, किं रूपं गुणहीनस्य । किं धनं दानहीनस्य, मानहीनस्य भोजनम् ॥३९३॥
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(६५) वृद्धत्व प्रशंसा।
वयोवृद्धास्तपो वृद्धा, राजवृद्धा बहुश्रुताः
सर्वेऽपि धनवृद्धस्य, द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः ॥ ३९४ ॥ ज्यादा भोजन और बोलना मरण के लीये है ।
प्रतिभुक्तमतीवोक्तं, प्राणिनां मरणप्रदम् ।
न कार्योऽत्र स्मयो येन, बहुरत्ना वसुंधरा ॥३९५ ॥ युक्ति प्रशंसा।
उपायेन प्रकर्तव्यं, न शक्यं यत्पराक्रमः । .
अभीप्सितानि सिध्यन्ति, जने हास्यं न जायते ॥३९६॥ दश अवतार | .
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च, नरसिंहोऽथ वामनः ।
रामो रामश्च कृष्णश्व, बुद्धः कल्की च ते दश ॥३९७॥ सज्जनो के लक्षण । तृष्णां छिन्धि भज क्षमा जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः,
सत्यं ब्रह्मनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वजनान् । मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रच्छादय स्वान्गुणान् , कीर्ति पालय दु:खिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् ॥३९८॥
आसीदिदं तमोभृत-मप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥३९९ ॥
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( ६६ ) .
॥। ४०० ॥
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तस्मिन्मेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराचसे केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विस्तत्र शयानस्तप्यते तपः ॥४०१ ॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुण रविमण्डलनिभं हृद्यं काञ्चनकर्णिकम् ॥४०२ ॥ तस्मिन् पद्मे भगवान् दण्डी यज्ञोपवीत संयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः अदितिः सुरसङ्घानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ४०४ ॥ कद्रूः सरीसृपाणां सुलसा माता च नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ४०५ ॥ ईश्वर सर्वव्याप्त है |
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॥ ४०३ ॥
जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके | ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ ४०६॥
ईश्वर सर्वत्र है ।
अहं च पृथिवी पार्थ ! वाय्वग्निजलमप्यहम् । वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम्
कामदेव कैसा नीच है ।
।। ४०७ ॥
कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः, क्षुधाचामो जीर्णः पिठरककपालार्पितगलः ।
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( ६७ ) वणैः पूक्लिौः कृमिकुलशतैराकृततनुः,
शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥४०८॥ साधुकी निन्दा नहीं करना ।
देवनिन्दा च दारिद्री, गुरुनिन्दा च पातकी ।
धर्मनिन्दा भवेत् कुष्ठी, साधुनिन्दा कुलचयः ॥४०९।। यह सब नरकमें जाते है।
स्वामिद्रोही कृतघ्नश्च, येन (यो हि) विश्वासघातकः ।
ते नरा नरकं यान्ति, यावचन्द्रदिवाकरौ ॥४१० ॥ मूर्ख हित करनेवाला होनेपर मित्रके लायक नहीं है । ।
पण्डितोऽपि वरं शत्रुर्न मूो हितकारकः ।
वानरेण हतो राजा, विप्रचौरेण रक्षितः ॥४११ ॥ धर्मकथा से मूर्ख को लाभ नहीं होता । कि मौक्तिहारं न च मर्कटस्य,
मिष्टान्नपानं न च गर्दभस्य । अन्धस्य दीपं बधिरस्य गीतं । मूर्खस्य किं धर्मकथाप्रसंगः
॥४१२॥ कोनसा द्रव्य उत्तम है।
उत्तमं स्वार्जितं द्रव्यं, मध्यमं पितुरर्जितम् । अधमं मातृवित्वं च, स्त्रीवित्तं (स्वसुरवित्तं)
चाधमाधमम् ।। ४१३ ॥
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( ६८ )
दरिद्रको मान नहीं मीलता ।
श्रादरं लभते लोके, न क्वापि धनवर्जितः । कान्तिहीनो यथा चन्द्रो, वासरे न लभते प्रथाम् ॥४१४ ॥
दुर्जनका संग नहीं करना ।
दुर्जनः परिहर्तव्यो, विद्यया भूषितोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः, किमसौ न भयङ्करः ॥ ४१५ ॥ प्राण और धनको कोण हरण करता है ?
वैद्यराज ! नमस्तुभ्यं, यमराजसहोदर । यमस्तु हरते प्राणान्, त्वं च (वैद्यः) प्राणान्
कामावस्था |
धनानि च । ४१६ ॥
मांसाहारी क्रूर होता है ।
कामलुब्धे कुतो लज्जा, धर्महीने कुतः क्रिया । मद्यपाने कुतः शौचं मांसाहारे कुतो दया ॥ ४१७ ॥
मुण्डं शिरो वदनमेतद निष्टगन्धं, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य ।
गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं,
चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा ॥ ४१८ ॥ वचन से बदलना न चाईए ।
राज्यं यातु श्रियो यान्तु, यान्तु प्राणा विनश्वराः । या भया स्वयमेवोक्ता, वाचा मा यातु शाश्वती ॥ ४१९ ॥
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निगुणी से क्या प्रयोजन ?
गुणेषु यत्नः क्रियता, किमाटोपैः प्रयोजनम् ।
विक्रीयन्ते न धण्टाभि-र्गावः क्षीरविवर्जिताः ॥४२०॥ निन्दासे दूर रहना चाहीए।
लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रौचित्यपालनम् ।
प्रवृत्तिर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि ४२१॥ शिवभक्तिः ।
यत्र जीवः शिवस्तत्र न भेदः शिवजीवयोः । . न हिंस्यात् सर्वभूतानि शिवभक्तिचिकीर्षकः ॥ ४२२ ।। मोक्षको सब कोई चाहता है।
यथामृतरसास्वादी, नान्यत्र रमते जनः ।
तथा मुक्तिसुखाभिज्ञो, रज्यते न सुखान्तरे ।। ४२३ ।। कम निद्रावालेका धन्य है। मत्तेमकुम्भपरिणाहिनि कुङ्कुमार्दै,
कान्तापयोधरयुगे रतिखेदखिन्नः। वक्षो निधाय भुजपंञ्जरमध्यवर्ती,
धन्यः क्षपां चपयति क्षणलब्धनिद्रः ॥ ४२४ ।। उद्यमके विना सब नक्कमा है । उद्यमेन विना राजन् , सिद्ध्यन्ति न मनोरथाः । कातरा इति जल्पन्ति यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥ ४२५ ॥
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(७०) कुलीन पुरुष नीतिको नहिं छोडते । वनेऽपि सिंहा मृगमांसभक्ष्या, बुभुक्षिता नैव तृणं चरन्ति । एवं कुलीना व्यसनाभिभूता, न नीतिमार्ग परिलङ्घयन्ति, ।। कालवशात् बडा छोटा और छोटा बढा होता है । रामस्य व्रजनं बलेनियमनं पाण्डोः सुतानां वनं,
वृष्णीनां निधनं नलस्य नृपते राज्यात्परिभ्रंशनम् । नाट्याचार्यकमर्जुनस्य पतनं संचिन्त्य लकेश्वरे, __ सर्व कालवशाजनोऽत्र सहते कः कं परित्रायते ॥४२७॥ पुरुषका पतन कब होता है। सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, __ लजां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां हृदि न धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति॥४२८॥ दान से अच्छा सुख मीलता। न्यस्तो हन्त यदेन्द्रजालविदुषा मोहेन बन्धो दृशां,
दृष्टाः काश्चन चन्द्रचम्पकनिमाकारास्तदा योषितः । सम्प्रत्यत्र विवेकमन्त्रपयसा ध्वस्ते यथावस्थितं,
तत्कार्येषु वसात्वगस्थिपिशितस्तोमादि संलक्ष्यते ॥४२९॥ वस्त्रं पात्रं भक्तपानं पवित्रं, स्थानं ज्ञानं भेषजं पुण्यहेतुः। ये यच्छन्ति स्वात्मभावकसारं ते सर्वाङ्गं सौख्यमासादयन्ति
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( ७१ )
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ । व्याधिर्भेषज संग्रहैश्च विविधैर्मत्रप्रयोगैर्विषं, सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥ ४३१ ॥ तीर्थयात्रा कीस को फलदायी होती है ?
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभचणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः
।। ४३२ ।।
वृथा चैकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः । वृथा च पौष्करी यात्रा वृथा चान्द्रायणं तपः ।। ४३३ ॥ देवानन्दोदरे श्रीमान्, श्वेतषष्ठ्यां सदा शुचिः । श्रवतीर्णोऽसि मासस्याषाढस्य शुचिता ततः ॥ ४३४ ॥ त्रिशला सर्वसिद्धेच्छा त्रयोदश्यामभूद्यतः । तवावतारस्तेनैषा सर्वसिद्धा त्रयोदशी
॥ ४३५ ॥
॥ ४३६ ॥
शुक्लत्रयोदश्यां यश्चापलं मेरुं प्रचालयन् । चित्रं कृतवांस्तद्योगाच्चैत्रमासोऽपि कथ्यते यस्याद्यदशम्यां दुर्ग- मोक्षमार्गस्य शीर्षकम् । चारित्रमादतं युक्ता, मासोऽस्य मार्गशीर्षता ॥ ४३७ ॥ दशम्यां यस्य शुक्लायां, केवल श्रीरहो त्वया । व्याहृता तेन मासोऽस्य, युक्ता माधवता प्रभो ! ॥ ४३८ ॥ तव निर्वाणकल्याणं, यद्दिनमागमिष्यति । ततो न वेधि नाथोsहं, मादृशोऽध्यचवेदिनः ॥ ४३६ ॥
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(७२ ) सर्वदेव नमस्कार । भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥४४०॥ जुगुप्साभयाज्ञाननिद्राविरत्यंगभूहास्यसुखैः। द्वेषमिथ्यात्वरागैर्नयोऽस्त्यरत्यरत्यरायैः । ॥४४१ ॥ सिषेवे स एव परात्मगतिः मे जिनेन्द्रः। ईश्वर सब के लीये समान है, मान्यता भिन्न २ है.। यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदांतिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः। अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः, सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:४४२ काम क्या नहीं करता ? ये रामरावणादीनां, संग्रामाग्रस्तमानवाः । श्रूयन्ते स्त्रीनिमित्तेन, तेषु कामो निवन्धनम् ॥४४३ ।। स्त्री का विश्वास कोण कर सकता । दुर्गाद्यं हृदयं यथैव वदनं यद्दपणान्तर्गतं, भावः पर्वतमार्गदुर्गविश्मः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं, नेकत्र संतिष्ठते, नार्यो नाम विषाङ्कुरैरिव लता दोषैः समं वर्धिताः ॥१४॥ कश्चित् काननकुञ्जरस्य भयतो नष्टः कुबेरालयः, शाखासु ग्रहणं चकार फणिनः कूपे त्वधो दृष्टवान् ।
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( ७३ )
वृक्षो वारणकम्पितोऽथ मधुनो बिन्दुनितो लेढि सः, लुब्धश्चामरशन्दितोऽपि न ययौ संसारसक्तो यथा ४४५ प्रशंसा कीसकी करनी चाहीये । लोकेभ्यो नृपतिस्ततोऽपि च वरश्चक्री ततो वासवः । सर्वेभ्योऽपि जिनेश्वरः समधिको विश्ववयीनायकः ।। सोऽपि ज्ञानमहोदधिं प्रतिदिनं सङ्घ नमस्यत्यहो । वीरस्वामिवदुबतिपदं यः स प्रशस्यः क्षितौ ॥४४६॥ विधि की बलिहारी । शशिनि खलु कलङ्कः कण्टकाः पबनाले, युवतिकुचनिपातः पक्कता केशजाले । जलधिजलमपेयं पण्डिते निर्धनत्वं, वयसि धनविवेको निर्विवेको विधाता ॥४४७ ॥ कवि कालिदास प्रत्ति उनकी खीका प्रश्न ।
अनिलस्यागमो नास्ति द्विपदं नैव दृश्यते । वारिमध्ये स्थितं पद्मं कम्पितं केन हेतुना ॥४४८॥ कवि कालिदास का प्रत्युत्तर । पावकोच्छिष्टवर्णोऽयं, शर्वरीकृतबन्धनः । मोक्षं न लभते कान्ते, ! कम्पितं तेन हेतुना ।। ४४९ ॥ सामान्य हास्य भी उपयोगी है । गुरुणापि समं हास्यं, कर्त्तव्यं कुटिलं विना । परिहासविहीनस्य, जन्तोर्जन्म निरर्थकम् ॥४५० ॥
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( ७४ ) महासती कैसी होती है। पहुं मूकं च कुब्जं च, कुष्ठाङ्गं व्याधिपीडितम् ।
आपत्सु च गतं नाथं, न त्यजेत् सा महासती ॥४५॥ सज्जन और दुर्जन का फरक । तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा, मयूरा घनगर्जितैः। साधवः परकन्याणैर, खलाः परविपत्तिभिः ॥ १५२ ।। तप से क्या होता है ? सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । पुराकृतं कर्म तदेव भुज्यते, दुष्कर्म नूनं तपसा च हीयते। बुद्धिशाली इतनी वस्तु गोपाता है । अर्थनाशं मनस्तापं, गृहे दुश्चरितानि च। ... वचनं चापमानं च, मतिमात्र प्रकाशयेत् ॥४५४ ॥ सच्चा पाण्डित्य क्या है। स्वकार्यपरकार्येषु, यस्य बुद्धिः स्थिरा भवेत् । तस्य चेवेह पाण्डित्यं, शेषाः पुस्तकवाचकाः ॥ ४५५ ।। गुरु की अवज्ञा करनेवाले की क्या दशा होती है । एकाक्षरप्रदातारं, यो गुरुं नैव मन्यते । श्वानयोनिशतं गत्वा, याति चाण्डालयोनिषु ॥ ४५६ ॥ नीच पुरुष की उपर सज्जनो का उपकार । अनर्थाय भवेनीचेषूपकारः सतामपि । पक्षान्तरक्षितौ हंसमाखुः शीघ्रममारयत् ॥ ४५७ ॥
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( ७५ ) पूर्व पुण्य का फल एसा होता है।
भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं, सर्वो जनः सुजनतामुपयाति तस्य । कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा,
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य ॥४५८ ।। कवि कालिदास जगमशहूर कैसे हुए । काव्येषु नाटकं रम्यं, तत्र रम्यं शकुन्तलम् । तत्रापि च चतुर्थोङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम् ॥४५९ ॥ शकुन्तला के जाने से सब को दुःख होता है । यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया, कण्ठस्तम्भितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम् । वैक्लव्यं मम तावदीदृशमपि (मिदं) स्नेहादरण्यौकसः, पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैनवैः ॥४६०॥ शकुन्तला का वृक्षादिसे स्नेह । पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या, नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् । माये वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः, सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ॥४६॥ अस्मान् साधु विचिन्त्य संयमधनानुच्चैः कुलं चात्मनस्त्वय्यस्य कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिश्च ताम् ।
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( ७६ ) सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृश्या त्वया, भाग्यायत्तमतः परं न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभिः ॥४६२॥ शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्ति सपत्नीजने, भर्तुर्विप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः । भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी, यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ॥४६३।। सर्वामिरपि नैकोऽपि तृप्यत्येकापि नाखिलैः, द्वितीयं द्वावपि द्विष्टः धिम् धिक्कायविडम्बनाम् ।।४६४॥ कामी के लीये और क्या अच्छा होता है ? मांसासृग्पूतिपिण्डेषु, चर्मणा वेष्टितेषु वै । पयोधरेषु रागान्धा ब्रूत किं रामणीयकम् ॥४६५ ।। जैनको यह पालन करना चाहीए।
अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसंचयः ।
मद्यमांसमधुत्यागो, रात्रिभोजनमेव च ॥ ४६६ ॥ इन के पर देव भी नाराज होते है ।
चौराणां वश्चकाणां च, परदारापहारिणाम् । निर्दयानां च निःस्वानां, न तुष्यन्ति सुराः कदा ॥४६७॥ कर्मरिपु से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। राजानः खेचरेन्द्राश्च केशवाश्चक्रवर्तिनः । देवेन्द्रा वीतरागाच, मुच्यन्ते नैव कर्मणा ॥४६८ ॥
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( ७७ ) सब शत्रु से कामशत्रु बहोत खराब है।
दुर्जयोऽयमनंगो हि, विषमा कामवेदना ।
कृत्याकृत्यं न जानाति, भूतग्रस्त इव भ्रमेत् ॥ ४६९ ॥ शरीर अनित्य है, धर्म नित्य है ।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः, कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः ॥ ४७० ॥ लक्ष्मीदेवी इतने की पास नहीं जाती। कुचेलिनं दन्तमलावधारिणं, बह्वाशनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम् । सूर्योदये चास्तमने च शायिनं, विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपा.
णिनम् ॥ ४७१॥ सम्यक्त्व क्या है ? या देवे देवता बुद्धि-गुरौ च गुरुतामतिः। धर्मे च धर्मधी: शुडा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥४४२ ॥ धनका व्यय कहां करना ? व्याजे स्याद् द्विगुणं वित्तं, व्यवसाये चतुर्गुणम् ।
क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनन्तगुणं तथा ॥४७३ ।। न्यायी पुरुष क्या करता है। निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ॥ ४७४ ॥ अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, - न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ ४७५ ॥
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( ७८ ) सज्जनों के संसर्ग का फल ।
महानुभावसंसर्गः, कस्य नोबतिकारकः ।
रथ्याम्बु जाह्नवीसङ्गात्रिदशैरपि वन्द्यते ॥४७६ ॥ दुर्जनोंकी संगति नहीं करना ।
वरं पर्वतदुर्गेषु, भ्रान्तं वनचरैः सह ।
न मूर्खजन संपर्कः, सुरेन्द्र भवनेष्वपि ॥४७७ ॥ रात्रिभोजन नरक का द्वार है।
चत्वारो नरकद्वारा, प्रथमं रात्रिभोजनम् ।
परस्त्रीसेवनं चैव, संधानानन्तकायकम् ॥४७८ ॥ पात्र देखके उपदेश चाहीए। 'यो यथा येन बुध्येत तं तथा बोधयेद् बुधः
दग्धकाकादिनटिनो यथा विज्ञेन बोधिताः ॥ ४७९ ॥ वेश्या अग्नि की ज्वाला है।
वेश्यासौ मदनज्वाला, रूपेन्धनसमेधिता।
कामिभिर्यत्र हूयन्ते, यौवनानि धनानि च ॥ ४०॥ भाग्य की परीक्षा दुसरे स्थानमें जाके करनी चाहीए । गन्तव्यं नगरशते विज्ञानशतानि वीक्षितव्यानि । नरपतिशतं च सेव्यं स्थानान्तरितानि भाग्यानि ॥४१॥ यह पांच पिता समान है।
जनकचोपनेता च, यश्च विद्यां प्रयच्छति । - अभयदाता भयत्राता, पश्चैते पितरः स्मृताः ॥४८२॥
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( ७९ ) साधारण द्रव्य से क्या फायदा ।
किं तया क्रियते लक्ष्म्या, या वधूरिव केवला ।
या च वेश्येव सामान्या, पथिकैरुपभुज्यते ॥ ४८३ ।। युवावस्था सब से श्रेष्ठ है। यौवनं सफलं भोगैः, भोगाः स्युः सफला धनैः। तद्विना मानुषं जन्म, जायते वनपुष्पवत् ॥४८४॥ हांसी से कर्मबन्ध होता है । हसन्तो हेलया जीवा, कर्मबन्धं प्रकुर्वते । तद्विपाको हि कार्येषु, रटद्भिरपि भुज्यते ॥४८५ ॥ गुणहीन शोभास्पद नहीं होता है । विभूतिस्त्यागशून्येव, सत्यशून्येव भारती । विद्या विनयशून्येव, न भाति स्त्री पति विना ॥४८६॥ पञ्चमो लोकपालस्त्वं, कृपालुः पृथिवीपतिः । दैवेनाहं पराभूत:, आगतः शरणं तब ॥४८७ ।। दरिद्राधिगमे जीव-देहस्थाः पञ्च देवताः । सद्यो निर्गत्य गच्छन्ति, श्रो-हो-धी-कान्ति-कीर्तयः॥४८८॥ धनाढ्यता राजकुले च मानं, प्रियानुकूला तनयो विनीतः । धर्मे मतिस्सजनसंगतिश्च, षद् स्वर्गलोका जगतीतलेऽपि ॥४८॥ स्वार्थ नहीं छोडना चाहीए।
अपमानं पुरस्कृत्य, मानं कृत्वा च पृष्ठतः । स्वाथेमालम्बयेत्प्राज्ञः, स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता ॥४९॥
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( ८० ) . मूर्ख पुत्र से कुलका नाश होता है।
कुपुत्रेण कुलं नष्टं, जन्म नष्टं कुभार्यया ।
कुभोजनेन दिनं नष्ट, पुण्यं नष्टं कुकर्मतः ॥ ४९१ ॥ धर्म के विना सुख नहीं मीलता । ग्रामो नास्ति कुतः सीमा, धर्मो नास्ति कुतः सुखम् । दानं नास्ति कुतः कीर्तिर्भार्या नास्ति कुतः सुतः ॥४९२॥ शास्त्र बुद्धिमानों का जीवन है।
जीवन्ति सुधियः शास्त्रैः, व्यापारैर्वणिजां व्रजाः।
करैर्विश्वंभराधीशाः, कपटैः कमलेक्षणाः ॥४९३ ॥ शक्ति का उपयोग करना चाहीए। द्वौ हस्तौ द्वौ च पादौ च, दृश्यते मनुजाकृतिः। अहो ! कपीन्द्र ! राजेन्द्र ! गृहं किन्न करिष्यति ॥४९४॥
मूचिमुखे दुराचारे रण्डे पण्डितमानिनि ।
असमर्थो गृहकरणे, समर्थो गृहभञ्जने ॥४९५ ॥ मन चलायमान कैसे हो।
पुष्पं दृष्ट्वा फलं दृष्ट्वा, दृष्ट्वा नारी सुशोभिताम् । - एतानि त्रीणि वने दृष्ट्वा, कस्य न चलते मनः ॥४९६॥ कामदेव क्या चीज है।
सतीव्रतेऽग्नौ तृणयामि जीवितम् ।। ... स्मरस्तु किं वस्तु तदस्तु भस्म यः... ॥४६७॥
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( ८१ ) सात प्रकारका चौर ।
चौरचौरापको मन्त्री, भेदज्ञः काणकक्रयी ।
अन्नदः स्थानदश्चैव, चौराः सप्तविधाः स्मृताः॥४६८) पालसीको ज्ञान नहीं होता। अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्र-ममित्रस्य कुतो बलम् ॥ ४९९ ॥ यह सातमें दया नहीं होती है। छुतकारस्तलारक्षस्तैलिको मांसविक्रयी। वार्धकी नृपतिर्वैद्यः, कृपया सप्त वर्जिताः ॥५०० ॥ मूर्ख की पास में वाणीविलास नक्कमा है। मुर्खाणामग्रतो वाचां, विलासो वाग्मिनां मुधा । लास्यं वेषसृजां वन्ध्यं, पुरतोऽन्धसभासदाम् ।। ५०१ ॥ कीडी ( चींटी ) आदि पेट में न जाना चाहिए । मेघां पिपीलिका हन्ति, युका कुर्याजलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥ ५०२ ।। वींछु की विडम्बना । कण्टको दारुखण्डश्च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तनिपतित-स्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ ५०३ ॥
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( ८२ ) रात्रिभोजनसे हानि । विलग्नश्च गले वालः, स्वरमाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशि भोजने ॥५०४ ।। उलूक-काक-माजोर-गृध्र-शम्बर-शूकराः । अहि-वृश्चिक-गोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥५०॥ नैवाहुतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्री भोजनं च विशेषतः ॥ ५०६ ।। स्त्रीके स्वाभाविक दोष। अनृतं साहसं माया, मूर्खत्वमतिलोभता । अंशाचं निर्दयत्वं च, स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ॥५०७॥ विश्वास नहिं करने लायक कोण है ?।। विद्युल्लताचश्चलताश्रयाणां, स्त्रीणां नृपाणामथ दुर्जनानाम् । स्वार्थप्रियाणां परवञ्चकानां, कुर्वीत विश्वासमहो न धीमान्॥ देवता को कैसे वस करना।
कूटन कूटं विजयेत धीमान्, सत्ये च सत्यं रचयेत् प्रपश्चम् । विगन्धधूपेन जयेत् पिशाचान्, सुगन्धधूपेन जयेद्धि देवान् । याचक की पहेचाण । गर्भङ्गः स्वरो हीनो, गात्रे वेदो महद्भयम् । मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचके ॥ ५१०॥
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(८३) लक्ष्मी का निवास कहां होता है ? । गुरखो यत्र पूज्यन्ते, यत्र वित्तं नयार्जितम् । भदन्तकलहो यत्र, शक्र ! तत्र वसाम्यहम् ॥ ५११ ।। श्रेष्ठ क्या है । वरं मौनं कार्य, न च वचनमुक्तं यदनृतं, वरं प्राणत्यागो, न च पिशुनवाक्येष्वभिरुचिः। वरं मिक्षाशित्वं, न च परधनास्वादनसुखं, वरं वासोऽरण्ये, न पुनरविवेकाधिपपुरे ॥५१२ ॥ धन का माहात्म्य ।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं, ट्ठमालयं पक्कफलाम्बुभोजनम् । तृणानि (वसन) शय्या परिधानवन्कलं,
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ॥ ५१३ ॥ कन्दमूलमिषेध । पुत्रमांसं वरं भुक्तं, न तु मूलकभक्षणम् । भवणानरकं गच्छेत्, वर्जनात् स्वर्गमाप्नुयात् ॥५१४॥ कुवे वगेरे में स्नान करना अच्छा नहीं है । कूपेषु ह्यधर्म स्नानं, वापीस्नानं च मध्यमम् । तटाके वर्जयेत् स्नानं, नद्याःस्नानं न शोभनम् ॥५१५॥
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( ८४ ) स्वार्थवश सब कुछ होता है। पृचं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगा:, शुष्कं सरः सारसाः, निद्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका, भ्रष्टं नृपं सेवकाः । निर्गन्धं कुसुमं त्यजन्ति मधुपा, दग्धं वनान्तं मृगाः,
सर्वे स्वार्थवशाजनोऽभिरमते,नों कस्यचिद्(को) वल्लभः।५१६॥ मनुष्यादि को पीडाभूत क्या है । अध्वा जरा मनुष्याणां, हस्तिनां बन्धनं जरा, अभोगेन जरा स्त्रीणां, संभोगो वाजिनां जरा ॥ ५१७ ।। आगे बढा हुआ क्या करता है ? । . प्रवर्धमानः पुरुषस्त्रयाणामुपघातकः । पूर्वोपार्जितमित्राणां, दाराणामथ वेश्मनाम् ॥ ५१८ ॥ राजा को इतने मित्र नहीं होना चाहीए । वैद्यो गुरुश्च मन्त्री च, यस्य राज्ञः प्रियंवदाः । शरीरधर्मकोशेभ्यः, क्षिप्रं स परिहीयते ॥ ५१९ ॥ सजन और दुर्जन का भेद। अपराधशतं साधुः, सहतैकोपकारतः। शतं चोपकृती चो, नाशयेदेकदुष्कृतात् ॥५२० ॥ दृष्टानपि सतो दोषान् मन्यन्ते नहि रागिणः ॥ ५२१ ॥
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( ८५ ) सब धर्मवालोंको क्या प्रिय है । पश्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ ५२२ ।। भूषण सच्चा क्या है ? तृतीयं लोचनं ज्ञानं, द्वितीयो हि दिवाकरः । प्रचौर्यहरणं वित्तं, विना स्वर्ण हि भूषणम् ।। ५२३ ॥ चतुरता कीससे आती है ? देशाटनं पण्डितमित्रता च, वाराङ्गना राजसभाप्रवेशः । अनेकशास्त्रार्थविलोकनं च, चातुर्यमूलानि भवन्ति पश्च ५२४॥ स्वभाव का औषध नहीं होता है। काकः पनवने रतिं न कुरुते, हंसो न कूपोदके, मूर्खः पण्डितसङ्गमे न रमते, दासो न सिंहासने । कुत्री सजनसङ्गमे न रमते, नीचं जन सेवते, या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता, केनापि न त्यज्यते ॥५२॥ बुद्धि भाग्याधीन है। ननिर्मितं न (नापि) च केन दृष्ट, न श्रूयते हेममयः कुरजः। तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीतबुद्धिः कलसे कार्य होता है बलसे नहीं। यस्य बुद्धिर्बलं तस्य, निर्बुद्धस्तु कुतो बलम् । बने सिंहो मदोन्मत्तः, शशकेन निपातितः ॥ ५२८ ॥
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(५) भावी की पहेचाण । शिरसः स्फुरणे राज्यं, बाहोश्च प्रियमेलकः ।
चक्षुषः स्फुरणे प्रीति-रधरस्य प्रियागमः ॥ ५२६ ।। सत्तर प्रकार का संयम। पश्चाश्रवाद्विरमणं, पश्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति, संयमः सप्तदशभेदः ॥५३० ॥ लक्ष्मी का त्याग करनेवाला कैसा होता है ? ।
उत्पादिता स्वयमियं यदि तत्तनूजा, तातेन वा यदि तदा भगिनी खलु श्रीः। यद्यन्यसंगमवती च तदा परस्त्री,
तच्यागबद्धमनसः सुधियो भवन्ति ॥ ५३१ ।। राग और द्वेष से युक्त को कोण बुद्धिमान नमेगा ? शक्रं वज्रधरं (वलं) हरं हलधरं विष्णुं च चक्रायुधं, स्कन्दं शक्तिधरं श्मशाननिलयं रुद्रं त्रिशूलायुधम् । एतान्दोषभयार्दितान् गतघृणान् बालान् विचित्रायुधान, नानाप्राणिषु चोधतप्रहरणान् कस्तानमस्येद् बुधः ॥५३२॥ पश्चादत्तं परैर्दत्तं, लभ्यते वा न लभ्यते । स्वहस्तेन च यद् दत्तं, लभ्यते तन संशयः ॥ ५३३ ।। रत्न उपद्रवरहित नहीं होते है । चन्द्र लाञ्छनता हिमं हिमगिरौ चारं जलं सागरे, रुद्धाश्चन्दनपादपा विषधरैरम्भोरुहं कण्टकैः ।
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( ८७ ) खीरत्नेषु जरा कुचेषु पतनं विद्वत्सु दारिद्रता, सर्व रत्नम्पद्रवेण सहितं दुर्वेधसा निर्मितम् ॥ ५३४ ।। कर्णान्तायतलोचना शशिमुखी मचेभकुम्भस्तनी, बिम्बोष्ठी मृगराजपेशलकटी गाङ्गेयगौरद्युतिः। श्रोणीमारघना मरालगमना कुन्दावदातद्विजा, तन्वी पेशलपाणिपादयुगला कन्या न केषां मता ॥५३५॥ लोकः पृच्छति मे वार्ता, शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माकं, गलत्यायुर्दिने दिने ॥ ५३६ ॥ पुण्यं कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः, स्वर्थाः साम्राज्यमद्भुतम् । प्रयांति मानतो हन्त, भवेद् दुर्गतिसंगतिः ॥५३७ ।। श्रीश@जयशक्रवारणभवो मुक्तामणिः सच्छियः, श्रेणिः पुण्यनभोमणिः शुभयशोवेणित्रिलोकीगुरुः ।। श्रीमनामिनरेन्द्रवंशजमणिः श्रीमान् युगादिः प्रभुध्यात्सौख्यमखण्डितं कुवलयोद्धोधेकदोषामणिः ॥५३८॥ भव तरने में दान हि साधन है। दानं सिद्धिनिदानं हि, देयमत्र महाधिया। . न तरन्ति विना दानं, प्राणिनो भवसागरम् ॥ ५३९ ।। धर्मलाभ प्रशंसा । वश्यौषधं सर्वलक्ष्म्या , विपत्पनगगारुडम् । धर्मलाभं ददौ तस्मै, गुरुः संसारतारकम् ॥५४० ॥
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( ८८ )
गीत का महत्त्व ।
त्रैलोक्यवशकद्गीतं गतिं स्वर्गादि सौख्यकृत् । गीतं सर्वजनानन्दि, गीतं सर्वार्थसाधकम्
हिंसा निषेध |
।। ५४१ ।।
न कार्या सर्वथा हिंसा, नरकस्येव दूतिका । परपीडाकृतः पुंसः, प्रत्यासन्नो न धर्मराट् ॥ ५४२ ॥
गत समय फीर नहिं आता है ।
नाभ्यस्ता भुवि वादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता, खद्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः । कान्ता कोमलपल्लवाधररसः, पीतो न चन्द्रोदये, तारुण्यं गतमेव निःफलमहो, शून्यालये दीपवत् ॥५४३॥ मूर्ख लडके से लडका नहिं होना ही अच्छा है | वरं गर्भस्रावो वरमपि च नैवाभिगमनं, वरं जातप्रेतो वरमपि च कन्यैव जनिता । वरं वन्ध्या भार्या वरमपि च गर्भेषु वसतिर्न चाविद्वान्रूपद्रविणगुणयुक्तोऽपि तनयः ।। ५४४ ।। वाताहारतया जगद्विषधरैराश्वास्य निःशेषितं, ते ग्रस्ताः पुनरभ्रतोयकणिका तीव्रव्रतैर्हिभिः । तेsपि क्रूरचमूरुचर्मवसनैर्नीताः चयं लुब्धकैदम्भस्य स्फुरितं विदमपि जनो जाल्मो गुणानीहते ॥ २४५ ॥
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( ८९ )
बिभेमि चिन्तामपि कर्तुमीदृशीं, चिराय चित्तार्पितनैषधेश्वरा । मृणालतन्तुच्छिदुरा सतीस्थितिर्लवादपि त्रुट्यति चापलादपि ।। उचित और अनुचित को कोण जानता है ? ।
।। ५४७ ।।
किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यः, त्रिदशपतिरहन्यां तापसीं यत् सिषेवे । हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मरानाबुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ? प्राकृत एव प्राप्ते द्रव्ये देदीप्यते न सत्पुरुषः । वारिणि तैलं विकसति, निर्मुक्तं स्त्यायते सर्पिः ॥ ५४८ ॥ धूमः पयोधरपदं कथमप्यवाप्य, वर्षाम्बुभिः शमयति ज्वलनस्य तेजः । दैवादवाप्य कलुषप्रकृतिर्महत्वं, प्रायः स्वबन्धुजनमेव तिरस्करोति
पुरुष - स्त्री संवाद |
पाकं किं न करोषि पापिनि ! कथं १, पापी त्वदीयः पिता, रण्डे ! जल्पसि किं ? त्वदीयजननी, रण्डा त्वया स्वसा । निर्गच्छ स्वगृहाद् बहिर्मम गृहं, नेदं त्वदीयं गृहं,
!! नाथ ! ममापि देहि मरणं, शष्पं मदीयं गतम् । ५५० | जगन्नाथ कवि का कथन ।
न यांचे गजालिं न वा वाजिराजिम् न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदापि ।
।। : ४९ ।।
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(९०) इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तहस्ता,
लवङ्गी-कुरङ्गी-दृगङ्गी-करोतु ॥५१॥ गुण-दुर्गुण होता है, दुर्गुण गुण बनता है। . असंतुष्टा द्विजा नष्टाः, संतुष्टाश्च महाभुजः । सलजा गणिका नष्टा, निलेखश्चि कुलाङ्गनाः ॥ ५५२॥ पुरुषार्थहीन से भाग्य भी चीडता है । त्रिषु श्यामां त्रिषु श्वेता, त्रिषु ताम्रां त्रिनताम् । त्रिगंभीरां त्रिविस्तीर्णा, व्यायतां त्रिक्रशीयसीम् ॥५५३॥ स्वर्गीय सुख । वापी कापि स्फुरति गगने तत्परं सूक्ष्मपना, सोपानालीमधिगतवती काश्चनीमैन्द्रनीली । भने शैली सुकृतिसुगमौ चन्दनाच्छनदेशी, तत्रत्यानां सुलभममृतं सबिधानात् सुधांशोः ॥५५४॥ उत्सङ्गे सिन्धुभर्तुर्भवति मधुरिपुर्गाढमाश्लिष्य लक्ष्मीमध्यास्ते वित्तनाथो निधिनिवहमुपादाय कैलासशैलम् । शक्रः कन्पद्रुमादीन् कनकशिखरिणोऽधित्यकासुन्यधासीव धूर्तेभ्यस्त्रासमित्थं दधति दिविषदो मानवाः के वराकाः ।। इक्ष्वाकुवंश का व्रत । अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दवा यूने सिताऽऽतपवारणम् ।
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(९१) मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलव्रतम् ॥ ५५६ ।। कवि-प्रशंसा ।
ते केचिदस्खलितबन्धनवप्रबन्धसन्धानबन्धुरगिरः कवयो जयन्ति । येषामचर्वितरसापि चमत्करोति,
कर्णे कृतैव भणितिर्मधुरा सुधेव ।। ५५७ ॥ एकः श्लोकवरो रसौषमधुरो हृद्यो वरं सत्कवेनैवेष्टः कुकवेः प्रलापबहुला कृत्स्नः प्रबन्धोऽपि वा। वक्रोक्त्या वलितः सहासरमसः पौराङ्गनाविभ्रमो, हर्षोत्कर्षकरो यथा नहि तथा ग्रामीणवध्वारतम् ॥५५८॥ किं कवेस्तस्य काव्येन, किं काण्डेन धनुष्मता । परस्य हृदये लग्नं, न घूर्णयति यच्छिरः ॥५५९ ॥ बचन कैसा बोलना चाहिये ।
पिपासुता शान्तिमुपैति वारिजा, न जातु दुग्धान्मधुनोऽधिकादपि । गुरोगिरः पल्लवनाऽर्थलाघवे,
मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता ॥ ५६० ॥ यदि स्वभावान्मनोज्ज्वलं कुलं ततस्तदुद्भावनमौचिती कुतः । प्रथाऽवदातं तदहो विडम्बना तथा कथा प्रेष्यतयोपसेदुषः।। महाजनाचारपरम्परेडशी स्वनाम नामाददते न साधवः । अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुनर्जनः किलाचारमुचं विगायति ।
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( १२ ) विधि की बलिहारी।
पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किङ्कर इव, स्वयं स्रष्टा सृष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः । तुधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरव्याट जगतीं, अहो ! केनाप्यस्मिन् विलसितमलवयं हतविधेः ॥५६॥ भङ्गोऽभव भरतेश्वरस्य सगरस्यापत्यशोको वने, . विभ्रान्तिः गृहिणी गृहाद्रघुपतेः पण्डोस्तु जामापदः । स्थानाद् विच्युतिरच्युतस्य महतामीदग्विधा दुःस्थितिः, को वाऽन्यः कुशली कृतीह बलवान् नान्यो बलीयान् विधेः॥ अच्छी भावना । सवेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कुपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ. सदा ममात्मा विदधातु देव ! ।। ज्ञानावरणीयकर्म कैसे उत्पन्न होते है ? ।
ज्ञानस्य ज्ञानिनो वाऽपि, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः। .
उपघातैश्च विघ्नेश्व, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥५६६ ॥ बुद्धिगम्य क्या है । तन्नेत्रस्त्रिमिरीक्षते न गिरिशो नो पअजन्माऽष्टभिः, स्कन्दो द्वादशभिर्न वा न मघवा चक्षुःसहस्रेण च । संभूयापि जगत्त्रयस्य नयनस्तद्वस्तु नो वीक्ष्यते, प्रत्याहृत्य दृशः समाहितधियः पश्यन्ति य पण्डिताः
.
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( ९३ )
बा की पहचाण ।
प्राक् पादयोः पतति खादति पृष्ठमांस, कर्णे कलं किमपि रौति शनैर्विचित्रम् । छिद्रं निरूप्य सहसा प्रविशत्यशङ्क, सर्व खलस्य चरितं मशकः करोति ।। ५६८ ।। पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकः परमधार्मिकः । शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशङ्कया ।। ५६९ ।। सहवासी हि विजानाति सहवासिविचेष्टितम् । बकः किं वर्ण्यते राम ! येनासो निष्कुलीकृतः ॥ ५७० ॥ पश्यन्नपि न मन्येत यस्तस्मै स्वस्ति धीमते ॥ ५७१ ॥ विषय कैसा है ? |
• श्रापातमात्रमधुरा, परिणामेऽतिदारुणाः । शठवाच इवात्यन्तं, विषया विश्ववञ्चकाः ।। ५७२ ।।
आयुष्यादि विनश्वर है ।
श्रायुर्धनं यौवनं च, स्पर्द्धयेव परस्परम् । सत्वरं गत्वराण्येव, संसारेऽस्मिन् शरीरिणाम् ||५७३ ॥ समय समय का काम करता है ।
उपचितेषु परेष्वसमर्थतां व्रजति कालवशाद् बलवानपि । तपसि मन्दगभस्तिर भी षुमान्नहि महाहिमहानिकरोऽभवत् ॥ को निर्दग्धस्त्रिपुरजना १ कश्च कर्णस्य हन्ता ? नद्या; कूलं विघटयति कः कः परस्त्रीरतश्च १ ॥ ५७४ ॥
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कः सबद्धो भवति समरे १, कः प्रियश्चाङ्गनानां ? को दुःसङ्गाद् भवति विदुषां १, मानपूजापहारः ॥५७५॥ पुष्पेषु माता पुरुषायमाणा लज्जावती विश्वसृजं विलोक्य । नाभीसरोजे नयनं मुरारेवातरं वारयति स्म वेगात् ॥५७३॥ जाता लता हि शैले, जातु लतायां न जायते शैलः । संप्रति तद्विपरीतं, कनकलतायां गिरिद्वयं जातम् ॥ ५७७॥ सहायक से शोभा बढ़ती है।
वस्त्रहीनमलङ्कारं, घृतहीनं च भोजनम् । ।
स्वरहीनं च गान्धर्व, भावहीनं च मैथुनम् ॥ ५७८ ॥ प्रभु की बोध देने की कुशलता ।
सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेषु हि तामसेषु,
सूयांशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ ५७९ ॥ तावचंद्रबलं ततो गृहबलं ताराबलं भूवलं, तावसिद्ध्यति वांछितार्थमखिलं तावजनः सजनः । मुद्रामंडलमंत्रतंत्रमहिमा तावत्कृतं पौरुषं, यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यचये चीयते ॥ ५८० ॥ धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रदः,
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( ९५ )
॥ ५८२ ॥
राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमथवा नानाविकल्पैर्नृणां, तत् किं करोति किंच कुरुते स्वर्गापवर्गाद्यपि ॥ ५८९ ॥ पत्नी प्रेमवती सुतः सुविनयो भ्राता गुणालंकृतः, स्निग्धो बंधुजनः सखापि चतुरो नित्यं प्रसन्नः प्रभुः । निर्लोभानुचराः स्वबंधुसुमनः प्रायोऽत्र भोग्यं धनं, पुण्यानामुदयेन संततमिदं कस्यापि संपद्यते वापी प्रविहारवर्णवनिता वाग्मी वनं वाटिका, विद्वद् (वैद्य) ब्राह्मणवादिवारिविबुधा वेश्या वणिग् वाहिनी । विद्या वीरविवेकवित्तविनयो वाचंयमो वल्लिका, वस्त्रं वारणवाजिवेसरवरं राज्यं च वै शोभते ॥ ५८३ ॥ राज्यं निःसचिवं गतप्रहरणं सैन्यं विनेत्रं मुखं, वर्षा निर्जलदा धनी च कृपणो भोज्यं तथाज्यं विना । दुःशीला दयिता सुहृन्निकृतिमान् राजा प्रतापोज्झितः शिष्यो भक्तिविवर्जितो नहि विना धर्म नरः शस्यते ॥ ५८४ ॥ कुग्रामवासः कुनरेन्द्रसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या । कन्याबहुत्वं च दरिद्रता च षड् जीवलोके नरका भवंति । ३८५ राजा कुलवधूविप्रा नियोगिमंत्रिणस्तथा ।
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दंता केशा नखा नराः ॥ ५८६ ॥ पूगीफलानि पत्राणि राजहंसतुरंगमाः ।
स्थानभ्रष्टा सुशोभंते सिंहाः सत्पुरुषा गजाः निर्दतः करटी यो गतजवचंद्रं विना शर्वरी, निर्गन्धं कुसुमं सरोगतजलं छायाविहीनस्तरुः ।
।। ५८७ ।।
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भोज्यं निर्लवणं सुतो गतगुणश्चारित्रहीनो यतिनिद्रव्यं भुवनं न राजति तथा धर्म विना मानवः ॥५८८॥ अमेध्यपूर्णे कृमिजालसंकुले स्वभावदुर्गधअशौचनिन्हवे कलेवरे मूत्रपुरीषभाजने लपंति मूढा विरमन्ति पंडिताः ।५८९। स्पृष्ट्वा शत्रुजयं तीर्थ, नत्वा रैवतकाचलं । स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ५९० ॥ भक्ति तीर्थकरे गुरौ जिनमते संघे च हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहव्युपरमं क्रोधाधरीणां जयं । सौजन्यं गुणिसंगमिंद्रियदमं दानं तपो भावनां, वैराग्यं च कुरुष्व निवृतिपदे यद्यस्ति गंतुं मनः ॥ ५९१ ॥
श्री तीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति। । तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, पृज्या भवंति जगदीशमथार्चयंतः ॥ ५९२ ॥
छटेणं भत्तेणं अपाणएणं तु सत्तजत्ताय . जो कुणइ सिचुंजये सो तइए भवे लहइ सिद्धिं ॥५९३।। यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्यर्थमुत्तिष्ठते, यं तीर्थ कथयति पावनतया येनास्ति नान्यः समः । यस्मै तीर्थपतिनमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते, स्फूर्तिर्यस्य परा वसंति च गुणा यस्मिन् स संघोऽयंताम् ५९४ लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसा कीर्तिस्तमालिंगति, प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कण्ठया ।
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( ९७ ) स्वाश्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, , यः संघ'गुणराशिकलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥ ५९५॥ आतुरे व्यसने प्राप्ते, दुर्भिक्षे शत्रुनिग्रहे। राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥५९६ ॥ कीटिकासंचितं धान्यं, मक्षिकासंचितं मधु। कृपणेन संचिता लक्ष्मी-रपरैः परिभुज्यते ॥५९७॥ पा जे धन मेलियु, ते धन किं थिर थाय । मेलणहारो मरी गयो, ते धन कोक ज खाय ॥ ५९८ ॥ पिवंति नद्यः स्वयमेव नाम्भः, खादन्ति न स्वादुफलानि वृक्षाः पयोमुचः किं विलसंति सस्यं, परोपकाराय सतां विभूतयः५९९ • कैवर्तकर्कशकरग्रहणाच्च्युतोऽपि,
जाले पुनर्निपतितः शफरोऽविवेकी । जालात् पुनर्विगलितो गलितो बकेन,
वामे विधौ बत कुतो व्यसनानिवृत्तिः ॥ ६०० ॥ एकेनाऽपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् ।
सहैव दशभिः पुत्रैर्भारं वहति गर्दभी ॥ ६०१ ॥ आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमङ्गाद्,
मां मुश्च वागुरिक ! यामि कुरु प्रसादम् । अद्यापि सस्यकवलग्रहणानभिज्ञा, मन्मार्गवीक्षणपराः शिशवो मदीयाः ॥६०२॥
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(९८) जणणी जम्मभूमी पच्छिमानिद्दा सुभासिमा गुट्ठी ___ मणइ8 माणुस्सं पंचवि दुक्खेण मुञ्चति ॥ ६०३ ॥ रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगा,
निरालंबो मार्गश्वरणविकलः सारथिरपि । रवियत्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः,
क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे ॥६०४। विजेतव्या लङ्का चरणतरणीयो जलनिधिः,
विपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः । तथाप्याजौ रामः सकलमवधीद् राक्षसकुलम् ,
क्रियासिद्धिः सच्चे वसति महतां नोपकरणे ॥६०५॥ अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं,
कूर्मो बिभर्ति धरणीमपि पृष्ठकेन । अम्भोनिधिर्वहति दुर्वहवाडवाग्नि.. मङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ॥६०६ ॥ रिक्तपाणिर्न पश्येच्च राजानं देवतां गुरुम् ।
उपाध्यायं च वैद्यं च फलेन फलमादिशेत् ॥६०७॥ आस्तन्यपानाजननी पशूनामादारलाभाच नराधमानाम् । आगेहकम्मैव तु मध्यमानामाजीवितात् तीर्थमिवोत्तमानाम्
॥६०८॥ जातापत्या पतिं द्वेष्टि, कृतदारस्तु मातरम् । कृतार्थः स्वामिनं द्वेष्टि, जितरोगश्चिकित्सकम् ॥६०९॥'
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( ९९ ) एका भार्या त्रयः पुत्रा द्वे हले दश धेनवः। ग्रामे वासः पुरासन्ने स्वर्गादपि विशिष्यते ॥६१०॥ तरुणं सर्षपशाकं नवौदनं पिच्छिलानि च दधीनि । अल्पव्ययेन सुन्दरि! ग्राम्यजनो मिष्टमश्नाति ॥६११॥ अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अनाथा पृथिवी नास्ति, आम्नायाः खलु दुर्लभा॥६१२॥ वेश्याका नृपतिश्चौरो नीरमार्जारदंष्ट्रिणः। जातवेदाः कलादश्च न विश्वास्या इमे क्वचित् ॥६१३॥ द्यूतं सर्वापदां धाम, द्यूतं दीव्यन्ति दुर्धियः । द्यूतेन कुलमालिन्यं, छूताय श्लाघतेऽधमः ॥६१४॥ खलः सक्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम् । दुग्धधौतोऽपि किं याति वायसः कलहंसताम् ॥६१।। शास्त्रं बोधाय दानाय धनं धर्माय जीवितम् । वपुः परोपकाराय धारयन्ति मनीषिणः ॥६१६ ॥ अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥६१७॥ वने रणे शत्रुजलागिमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा। सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा,रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ६१८ संपदि यस्य न हों, विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भुवनत्रयतिलकं, जनयति जननी सुतं विरलम् ॥६१९॥ गात्रं संकुचितं गतिविगलिता दंताश्च नाशं गता। दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव इमते वैरूप्यवर्णोदयम् ॥
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(१००) वाक्यं नैव करोति बांधवजनः पत्नी न शुश्रूषते । धिकष्टं जरयाभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥६२० ॥ दिव्यज्ञानयुता जगत्रयनुताः शौर्यान्विताः सत्कृताः। . देवेंद्रासुरवृंदवंद्यचरणाः सद्विक्रमाश्चक्रिणः॥ वैकुण्ठा बलशालिनो हलधरा ये. रावणाद्याः परे । ते कीनाशमुखं विशंत्यशरणा यद्वा न लंध्यो विधिः ॥६२१॥ ये पातालनिवासिनोऽसुरगणा ये स्वैरिणो व्यंतरा । ये ज्योतिष्कविमानवासिविबुधास्तारांतचंद्रादयः ।। सौधर्मादिसुरालये सुरगणा ये चापि वैमानिकास्ते सर्वेऽपि कृतांतवासमवशा गच्छंति किं शुच्यते? ।६२२॥ यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा। यावचेंद्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।। आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महानादीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कशिः ॥६२३॥ जिणसासणस्स सारो, चउद्दसपुव्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नमुक्कारो, संसारो तस्स किं कुणइ ॥ ६२४ ॥ नात्यन्तसरलैव्यं गत्वा पश्य वनस्पतिम् ।। सरलास्तत्र छिद्यते कुब्जास्तिष्ठति पादपाः ॥६२५ ॥ शीलं नाम नृणां कुलोन्नतिकरं शीलं परं भूषणं । शीलं ह्यप्रतिपाति वित्तमनघं शीलं सुगत्यावहं ।। शलिं दुर्गतिनाशनं सुविपुलं शीलं यशः पावनं । शीलं निर्वृतिहेत्वनंतसुखदं शीलं तु कल्पद्रुमः ॥६२६॥
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(१०१) भोगे रोगभयं सुखे क्षयमयं वित्तेऽग्निभूभृद्भयं । माने म्लानिभयं जये रिपुभयं वंशे कुयोषिद्भयम् ।। दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं । सर्व नाम भयं भवेदिह नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ ६२७ ॥ लजा दया दमो धैर्य पुरुषालापवर्जनम् । एकाकित्वपरित्यागो नारीणां शीलरक्षणम् ॥६२८ ॥ यौवनं धनसंपत्तिः, प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय, किं पुनस्तचतुष्टयम् ॥६२९ ॥
आदौ मजनचारुचीरतिलकं नेत्रांजनं कुंडलं, नासामौक्तिकहारपुष्पकलिकं झंकारवन्नू पुरम् ।। अंगं चंदनचर्चितं कुचमणिक्षुद्रावली घण्टिका, ताम्बूलं करकंकणं चतुरता शृंगारकाः षोडश ॥ ६३० ॥ दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोत्रे मषीकूर्चकशारित्रस्य जलांजलिर्गुणगणारामस्य दावानलः ।। संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः । शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचूडामणिः ॥६३१॥ भक्खणे देवदव्वस्स परत्थीगमणेण य सत्तमं नरयं यांति सत्त वारा उ गोयमा! ॥६३२ ॥ विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं ।। विद्या भोगकरी यश:सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ॥ विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं । विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ।६३३॥
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( १०२ ) '
६३४ ।।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं १ । लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति १ ।। कोहो पीई पणासे, माणो वियनासो | माया मितिं पणासे, लोहो सव्वविणासणो ।। ६३५ ।।
वैरवैश्वानरव्याधि-वादव्यसनलक्षणाः ।
॥ ६३६ ॥
महानर्थाय जायन्ते वकाराः पंच वर्द्धिताः पासा वेश्या अग्नि जल ठग ठाकुर सोनार । . ए दश न होये आपणा दुर्जन सर्प मंजार ॥ ६३७ ॥ दिवा पश्यति नो घूकः, काको नक्तं न पश्यति । पूर्वः कोऽपि कामांधो, दिवा नक्तं न पश्यति ॥ ६३८ ॥ न पश्यति हि जात्यंधः, कामांधो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मत्तो, अर्थी दोषं न पश्यति ॥ ६३९ ॥ न स्वर्धुनी न फणिनो न कपालदाम ।
॥ ६४० ॥
नेन्दोः कला न गिरिजा न जटा न भस्म || यत्रान्यदेव च न किञ्चिदुपास्महे तद्, रूपं पुराणमुनिशीलितमीश्वरस्य || स्वपति या परित्यज्य निखपोपपतिं भजेत् । तस्यां क्षणिकचित्तायां विश्रम्भः कोऽन्ययोषिति ॥ ६४१ ॥ प्राणसन्देहजननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च परस्त्रीगमनं त्यजेत्
।। ६४२ ॥
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ॥ ६४३ ॥
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(१०३) जम्मंतीए सोगो, वतीए य वड्डए चिंता। परिणीयाए दंडो, जुबइपिया दुक्खिो निच्चम् ॥६४४॥ छटुं छद्रेण तवं कुणमाणो पढमगणहरो भयवं। अक्खीणमहाणसीओ सिरिगोयमसामियो जामो ॥६४५॥ कूटसाक्षी मृषाभाषी कृतघ्नो दीर्घरोपणः । मद्यपापर्द्धिकुन्नीरैन शुद्ध्यति कदाचन ॥६४६ ॥ चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुद्ध्यति । शतशोऽपि जलैधौत सुराभाण्डमिवाऽशुचि ॥६४७ ॥ आयुवर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतम्, तस्यार्द्धस्य कदाचिदर्धमधिकं वृद्धत्ववाल्यत्वगम् । शेषं व्याधिवियोगशोकमदनासेवादिभिनीयते देहे वारितरगचंचलतरे धर्मः कुतः प्राणिनाम् ॥६४८॥ दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवेद्गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलितवपुः स्त्रीपयःपानमिश्रम् ॥ तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारेरे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ६४९ दारिद्याकुलचेतसां सुतसुताभादिचिंताजुषां, नित्यं दुर्भरदेहपोषणकते रात्रिंदिवं खिद्यताम् । राजाज्ञा प्रतिपालनोद्यतधियां विश्राममुक्तात्मनां, सर्वोपद्रवशंकिनामघभृतां धिग् देहिनांजीवितम् !!॥६५॥
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(१०४) । निद्रव्यो धनचिंतया धनपतिस्तद्रक्षणे चाकुलो । निःस्त्रीकस्तदुपायसंगतमतिः श्रीमानपत्येच्छया ॥ पाप्तस्तान्यखिलान्यपीह सततं रोगैः पराभूयते । जीवः कोऽपि कथंचनापिनियतं प्रायः सदा दुःखितः ।६५१॥ कस्तूरीकृष्णकायच्छविरतनुफणारत्नरोचिष्णुमाली। . विधुच्छाली गभीरानघवचनमहागर्जिविस्फूर्जितश्रीः॥ वर्षन् तत्वांबुपूरैभविजनहृदयोव्यां लसबोधिबीजाकुरं श्रीपार्श्वमेघः प्रकटयतु शिवानय॑सस्याय शश्वत् ।६५२। शत्रूणां तपना सदैव सुहृदामानन्दनश्चन्द्रवत् । पात्रापात्रनिरीक्षणे सुरगुरुर्दीनेषु कर्णोपमः॥ नीतौ रामनिभो युधिष्ठिरसमः सत्ये श्रिया श्रीपतिः । स्वीयान्येष्वपि पक्षपातसुभगः स्वामी यथार्थो भवेत् ॥६५३॥ वरं रेणुवरं भस्म नष्टश्रीन पुनर्नरः ।। मुक्त्वैनं दृश्यते पूजा क्वापि पर्वणि पूर्वयोः ॥ ६५४ ॥ यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता । साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः॥ . अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या । धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥६५५ ॥ दयैव धर्मेषु गुणेषु दानं प्रायेण चानं प्रथितं प्रियेषु । मेघः पृथिव्यामुपकारकेषु तीर्थेषु माता तु मता नितान्तम्
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दुष्टस्य दण्डः स्वजनस्य पूजा, न्यायेन कोशस्य सदैव वृद्धिः । अपक्षपातो रिपुराष्ट्ररक्षा, पञ्चैव धर्माः कथिता नृपाणाम् ॥ ॥ ६५७ ॥
सीह सउण न चंदबल नवि जोइ धण रिद्धि | एकल्लो लक्खहिं भिडइ जिहां साहस तिहां सिद्धि ॥ ६५८ ॥ उपाध्यायाद्दशाचार्य, श्राचार्याणां शतं पिता । सहस्रं तु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते
।। ६५९ ।।
बद्धा येन दिनाधिपप्रभृतयो मञ्चस्य पादे ग्रहाः । सर्वे येन कृताः कृताञ्जलिपुटाः शक्रादिदिक्पालकाः ॥ लङ्का यस्य पुरी समुद्रपरिखा सोऽप्यायुषः संक्षये । कष्टं विष्टपकण्टको दशमुखो दैवाद् गतः पञ्चताम् ॥६६० ॥ धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतामानन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ॥ अस्माकं तु मनोरथैः परिचितप्रासादवापीतट — क्रीडाकानन केलि कौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। ६६१ ।। पानीयस्य रसः शान्तः परान्नस्यादरो रसः । आनुकूल्यं रसः स्त्रीणां मित्रस्यावचनं रसः ॥ ६६२ ॥
एकं ध्याननिमीलितं मुकुलितं चतुर्द्वितीयं पुनः । पार्वत्या विपुले नितम्बफलके शृङ्गारभारालसम् ।। अन्यत्क्रूरविकृष्टचापमदनको धानलोद्दीपितम् ॥ शम्भोर्भिनरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥ ६६३ ॥
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(१०६)
कर्तुः स्वयं कारयितुः परेण , तुष्टेन भावेन तथाऽनुमन्तुः। साहाय्यकर्तुश्च शुभाशुभेषु, तुल्यं फलं तच्चविदो वदन्ति ।। हरिहरचउराणणचंद-सूर-खंदाइणो वि जे देवा । नारीण किंकरत्तं कुणंति धि द्धी विसयतण्हा ॥६६४ ॥ अणिमिसनयणा मणकजसाहणा पुप्फदामअभिलाणा । चउरंगुलेण भूमि न छिवंति सुरा जिणा विति ॥ ६६५ ॥ श्वेताम्बरधरा नारी श्वेतगन्धावलेपना। अवगृहेत यं स्वमे तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ॥६६६ ॥ क्षमा खड्गं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति । अतणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ॥६६७ ॥ ॐ नमो विश्वनाथाय विश्वस्थितिविधायिने । अर्हते व्यक्तरूपाय युगादीशाय योगिने ॥६६८ ॥ अर्हच्चक्री श्रियः स्वामी चामीकरसमप्रभः। . स्तुत्यः सत्कृत्य लाभाय श्रीशांतिः शुभतांतिकृत् ॥६६९॥ हेलांदोलितदैत्यारिजरासंधप्रतापहृत् । स्मरणीयं स्मरं कुर्वन् श्रीमान्नेमिः पुनातु वः ॥६७०॥ यस्थ दृष्टिसुधावृष्टिदानादहिरहीश्वरः । जातस्तापत्रयान्मुक्तः स श्रीपार्थो मुदेऽस्तु वः ॥६७१॥ सुरादि सुरनाथस्य संशयापनयाय यः। अकंपत्रिधा वीरः श्रीवीरः श्रेयसेऽस्तु वः ॥६७२ ॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु वैलक्षण्यं कलासु च । करोति कीर्ति प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम् ॥६७३ ।।
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(१०७) नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र च दुर्लभा । कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र च दुर्लभा ॥६७४ ।। काव्यालापाश्च ये केचित् गीतकान्यखिलानि च । शब्दमूर्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः ॥६७५ ॥ न्यकारो ह्ययमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौ तापसः। सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो रावणः ॥ धिग् धिक् शक्रजितं प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णेन वा । स्वर्गग्रामटिकाविलुण्ठनवृथोच्छूनैः किमेभिर्भुजैः? ॥६७६।। यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैव क्षपास्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिलाः । सा चैवाऽस्मि तथाऽपि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ । रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते ॥६७७ ॥ शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किश्चिच्छनैनिंद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्यपत्युमुखम् । विश्रब्धं परिचुंब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थली । लजानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता ॥६७८॥ यस्यालीयत शल्कसीम्नि जलधिः पृष्ठे जगन्मण्डलं, दंष्ट्रायां धरणी नखे दितिसुताधीशः पदे रोदसी। क्रोधे चत्रगणः शरे दशमुखः पाणौ प्रलम्बासुरो, ध्याने विश्वमसावधार्मिककुलं कस्मैचिदस्मै नमः ॥८९॥ वाली जोइउ नहु वलई होइडह धरई कसाय । मेन्ही उटारस सींदरो जहीं भावइ तहि जाइ ॥६८०॥
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( १०८ )
अक्खाणणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभवयं । गुत्तीय य मणगुत्ती चउरो दुक्खेण जिप्पंति ॥६८१॥ वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । कुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते, निवृत्तरागस्य गृहं ततो वनम् ॥ ॥ ६८२ ॥ यः प्राप्य दुष्प्रापमिदं नरत्वं, धर्म न यत्नेन करोति मूढः । क्लेशप्रबन्धेन स लब्धमब्धौ चिंतामणि पातयति प्रमादात् ॥ ६८३ ॥ श्रासन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं, विद्याविहीनमकुलीनमसंस्तुतं च प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च यत्पार्श्वतो भवति तत्परिवेष्टयंति ।। ६८४ ।। अनागतं यः कुरुते स शोभते, न शोभते यों न करोत्यनागतम् वने वसन्तस्य जराप्युपागता, बिलस्य वाचा न कदापि निर्गता ॥ ६८५ ॥ किं किं न कयं को को न पत्थिश्रो. कहकहवि न नामियं ससिं । दुब्भरपिट्टस्स कए, किं न कथं किं न कापव्वं ॥ ६८६ ॥
कुलं च शीलं च सनाथता च, विद्या च वित्तं च वपुर्वयश्च । एतान गुणान् सप्त निरीक्ष्य देया, ततः परं भाग्यवशा च कन्या ।। ६८७ ।
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्
।। ६८८ ॥
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(१०९) कर्मणो हि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः। वसिष्ठदत्तलग्नोऽपि रामः प्रव्रजितो वने ॥६८९ ॥ जातेति शोको महतीति चिन्ता, कस्य प्रदेयेति महान् वितर्कः। दत्ता सुखं स्थास्यति वा न वेति,कन्यापितृत्वं खलु नाम कष्टम् ॥ विलंबो नैव कर्तव्यो आयुर्याति दिने दिने । न करोति यमः क्षांतिं धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ ६९० ।। जैनो धर्मः प्रकटविभवः संगतिः साधुलोके । विद्वद्गोष्ठी वचनपटुता कौशलं सर्वशास्त्रे ॥ साध्वी लक्ष्मीश्चरणकमलोपासना सद्गुरूणां । शुद्धं शीलं मतिरमलिना प्राप्यते भाग्यवद्भिः ॥ ६९१ ॥ जिनभक्तिः कृता तेन, शासनस्योन्नतिस्तथा । साधर्मिकेषु वात्सन्यं कृतं येन सुबुद्धिना ॥६९२ ।। षष्टिमिनके दोषा, अशीतिमधुपिंगले। शतं च टुंडमुंटे च, काणे संख्या न विद्यते ॥ ६९३॥ तावद् गजः प्रमृतदानगण्डः, करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु, लाशूलविस्फोटरवं शृणोति
॥६९४ ॥ क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः, . सोढा दुःसहतापशीतपवनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्द्वैर्न तचं पर, तत् तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलैवंचिताः॥६९।।
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(११०) कार्य नुत्प्रभवं कदन्नमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नति संयमे, दोषाश्चापि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्य पदे योजिताः ॥ दारिद्र को किसीने जलाया नहीं। . दग्धं खाण्डवमर्जुनेन बलिना, द्रव्यैर्दुमैः सेवितम्, दग्धा वायुसुतेन रावणपुरी, लंका सकलस्वर्णभूः । दग्धः पंचशरः पिनाकपतिना, तेनापि युक्तं कृतम्, दारियं जनतापकारकमिदं, केनापि दग्धं नहि ॥ ६९७ ।। विधिकी प्रबलता। पञ्चैते पाण्डुपुत्राः, क्षितिपतितनया धर्मभीमार्जुनाद्याः, शूराः सत्यप्रतिज्ञा, दृढतरवपुषः, केशवेनापि गूढाः । ते वीराः पाणिपात्रे कृपणजनगृहे, भिक्षुचयाँ चरन्तः, को वा समर्थो भवति विधिवशाभाविनी कर्मरेखा ।३९८॥ पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः, शोकं जहाति बकुलो मुखसीधुसिक्तः। आलिङ्गितः कुरुबकः कुरुते विकाशमालोकितः सतिलकः तिलको विभाति ॥६९९ ।। । न स्नेहेन न विद्यया न च धिया रूपेण शौर्येण वा, नेणूंचाटुभयार्थदानविनयक्रोधक्षमामार्दवैः ।। लजायौवनभोगसत्यकरुणासवादिभिर्वा गुणगृह्यन्ते न विभूतिभित्र ललना दुःशोलाचिचा यतः॥७००।
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(१११) स्वाध्यायादि नहीं करनेवाला जगत् में पापी कहा जाता है । आवश्यक-ध्यान-तपोविधान-स्वाध्यायशून्यानि
दिनानि यस्य । प्रयांति तारुण्यहता स्वमातुर्जातेन पापेन किमत्र तेन ७०१ यः सर्वमृलोत्तरसद्गुणादि, प्रध्वंसपापेन न निंदति स्वं । निलीननीलीप्रचयांशुकश्रीः, कथं स शुध्येदपि वर्षलक्षैः।७०२। आत्मायुर्नरके धनं नरपती, प्राणास्तुलायां कुलं, वाच्यत्वे हृदि दीनता त्रिभुवने, तेनायशः स्थापितम् । येनेदं बहुदुःखदायि सुहृदां, हास्यं खलानां कृतं, शोच्यं साधुजनस्य निंदितपरस्त्रीसंगसेवासुखम् ॥७०३॥ सत्य का महिमा । सत्येनाग्निर्भवेच्छीतो, गाधं दत्तऽम्बु सत्यतः। नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद्रज्जूयते फणी ।। ७०४ ॥ दसण-वय-सामाइय-पोसह-पडिमा-सचित्त-आरंभ। पेसं-उद्दिट वजरा समणभूए अ॥ ॥७०५॥ विजयापत्रमादाय, श्वेतसपसंयुतम् । अनेन लेपयेद्देह, मोहनं सर्वतो जगत् ॥७०६ ॥ गृहीत्वा तुलसीपत्रं, छायाशुष्कं तु कारयेत् । अष्टगंधसमायुक्तं विजयावीजसंयुतम् ॥ ॥७०७ ॥ कपिलादुग्धसाद्धे, वटकाकंटप्रमाणतः।। भक्षित्वा प्रातरुत्थाय, मोहनं सर्वतो जगत् ॥७०८॥
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( ११२ )
॥ ७१० ॥
पचांगं दाडिमीपिष्टो, श्वेतगुञ्जासमन्वितः । एभिस्तु तिलकं कृत्वा, मोहनं सर्वतो जगत् ॥ ७०९ ॥ कटुतुम्बीरबीजतैलं, ज्वालयेत् पतवर्त्तिका । कज्जलेन जयेनेत्रे, मोहनं भवति ध्रुवम् किं ब्रूमो जलधेः श्रियं स हि खलु, श्रीजन्मभूमिः स्वयं, किं महिमाऽपि यस्य हि किल, द्वीपं महीति श्रुतिः । त्यागः कोऽपि स तस्य विभ्रति जगद्यस्यार्थिनोऽप्यम्बुदाः । शक्तेः कै कथाsपि यस्य भवति क्षोभेण कल्पान्तरम् ७११ पार्वती और शंकर का प्रश्नोत्तर |
कस्त्वं शूली मृगय भिषजं, नीलकण्ठः प्रियेऽहं. कामेकां कुरु पशुपतिर्लाङ्गुलं ते कथं न १ । स्थाणुर्मुग्धे न वदति तरुर्जीवितेशः शिवाया, गच्छाटव्यामिति हतवचाः पातु वश्चन्द्रचूडः ॥ ७१२ ॥ निरर्थक दूसरों का हित नष्ट करनेवाले कैसा जानना ? | एके सत्पुरुषाः परार्थैरचकाः स्वार्थं परित्यज्य ये, सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये || ते मी मानुषराचसाः परहितं, स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीम हे ||७१३ ॥ जिनेश्वर भगवान का तत्त्व । जीवोऽनादिरनैधनः स गुणवान् कर्त्ता च भोक्ता विदन्, सूक्ष्म देहमितश्च याति नरकं तिर्यग्गतिं चाघतः |
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( ११३ )
पुण्यात् स्वर्गमुपैति मानुषगतिं प्राप्नोति तन्मिश्रणात्, मुक्तिं गच्छति पुण्यपापविलयादित्याह तवं जिनः ||७१४ ॥ भग्गो ट्ठो मुवि गिरिकन्दरपइट्ठो ।
तत्थ व सासदेव पसाए सावजो दिट्ठो || ७१५ ।।
कुलीन पुरुष किस को कहते हैं ? |
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिनिरुत्सेको लक्ष्म्यामनभिभवगन्धाः परकथाः । प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृते:, . श्रुतेऽत्यन्तासक्तिः पुरुषमभिजातं कथयति ॥ ७१६॥ रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः ।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,
॥ ७१७ ॥
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार मय्येव जीर्णतां यातु, यत् त्वयोपकृतं हरेः । नरः प्रत्युपकारार्थी, विपत्तिमभिकांक्षति ॥ ७१८ ।। यक्षेत्र समानकान्ति सलिले मग्नं तदिन्दीवरं, . मेघैरन्तरितः प्रिये तव मुखच्छायाऽनुकारी शशी । येsपि त्वद्गमनानुसारिगतयस्ते राजहंसा गतास्त्वत्सादृश्यंविनोदमात्रमपि मे दैवेन न क्षम्यते ||७१६ ॥
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( ११४ )
सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भवद्मन्त्रणाः, सर्वत्रैव जनापवादचकिता जीवन्ति दुःखं सदा । अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो, युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः ॥ ७२० ।। रत्याप्तप्रियलाञ्छने कठिनता वासे रसालिङ्गिते, प्रह्लादैकरसे क्रमादुपचिते भूभृद्गुरुत्वाप । कोकस्पर्धिनि भोगभाजि जनतानङ्गे खलीनोन्मुखे, भाति श्रीरमणावतारदशकं वाले भवत्याः स्तने ॥ ७२१ ॥ किसी भी रीति से प्रसिद्धि में आना चाहिए ।
घटं भित्त्वा पटं छत्वा कृत्वा रासभरोहणं । येन केन प्रकारेण, प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् ॥ ७२२ ॥ व्यसनों से हानि ।
द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापर्द्धिचौर्ये परदारसेवा । एतानि सप्तव्यनांनि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥ ।। ७२३ ॥ द्यूताद् राज्यविनाशनं नलनृपः प्राप्तोऽथवा पाण्डवाः, मद्यात्कृष्णनृपश्च राघवपिता पापर्द्धितो दूषितः । मांसात् श्रेणिकभूपतिश्च नरके चौर्याद्विनष्टा न के ? वेश्यातः कृतपुण्यको गतधनोऽन्यस्त्री मृतो रावणः ॥७२४॥ तात्कालिक पाप को कौन नष्ट करता है ?
सद्यः प्रीतिकरो नादः, सद्यः प्रीतिकराः स्त्रियः सद्यः शीतहरो वह्निः, सद्यः पापहरो जिनः ॥७२५ ॥
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(११५) दानादि कैसे निष्फल जाते हैं ?
दानं पूजा तपश्चैव, तीर्थसेवा श्रुतं तथा ।
सर्वमेव वृथा तस्य, यस्य शुद्धं न मानसम् ॥७२६॥ किसका शकुन अच्छा होता है ? ।
वामस्वरा शिवा श्रेष्ठा, पिंगला दविणस्वरा ।
प्रदक्षिणा च वामा च, कोकिला सिद्धिदायिनी ॥७२७॥ भाग्यको भी बिचार करना पडता है।
उद्यमः साहसं धैर्य, बलं बुद्धिः पराक्रमः।
षडेते यस्य विद्यन्ते, तस्य देवोऽपि शंकते ॥ ७२८॥ लक्ष्मी कहां स्थिर नहीं होती है। .. वेश्यासक्तस्य चौरस्य, द्यूतकारस्य पापिनः ।
अन्यायोपार्जकस्यैव, पुंसो लक्ष्मीः स्थिरा नहि ।।७२९॥ कौनसा पुरुष माननीय होता है ? । दानेन लक्ष्मीविनयेन विद्या, नयेन राज्यं सुकतेन जन्म । परोपकारक्रिययाऽपि कायः, कृतार्थ्यते येन पुमान् स मान्यः
|| ७३०॥ धन ही पुरुषका सच्चा मित्र है। त्यजन्ति मित्राणि धनविहीन, पुत्राश्च दाराश्च सहोदराश्च । तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति, अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः
॥७३१॥
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विना पढे पण्डित और पढे हुए कतिपय मूर्ख
अपठाः पण्डिताः केचित, केचित्पठितपण्डिताः ।
अपठा मूर्खकाः केचित्, केचित् पठितमूर्खकाः ॥७३२॥ दम्भ हानिकर्ता है।
विद्यादम्भः चणस्थायी, दानदम्भो दिनत्रयम् ।
रसदम्भस्तु षण्मासान, धर्मदम्भस्तु दुस्तरः ॥७३३॥ ऐसे राजाको धिक्कार हो जो निर्दय हैपदे पदे सन्ति भटा रणोद्भटा, न तेषु हिंसारस एषः पूर्यते। धिगीदृशं ते नृपते कुविक्रम, कृपाश्रये यः कृपणे पतत्रिणि ।
॥ ७३४ ।। न वासयोग्या वसुधेयमीश__स्त्वमङ्ग यस्याः पतिरुज्झितस्थितिः । इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभ:___ खगास्तमाचुक्रुशुरारवैः खलु ॥७३५ ॥ घिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः, समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजन्मनः। तवार्णवस्येव तुषारसीकरै-भवेदमीमिः कमलोदयः कियान् । ब्राह्मणपुत्रका वक्तव्य ।
सतिका ढेकरा यान्ति, सशब्दापानवायवः । · पुनरामन्त्रणं प्राप्तं, किं करवाणि तात भोः ! ॥७३७॥
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पिता कहता है।
परानं प्राप्य दुर्बुद्धे !, मा प्राणेषु दयां कुरु ।
परामं दुर्लभं मन्ये, प्राणा जन्मनि जन्मनि ॥७३८ ।। पूजारी शब्दकी व्युत्पत्ति ।
पूर्वजन्मनि पूतत्वा-आरत्वादिह जन्मनि ।
अरित्वाद्देवपूजायां, पूजारीत्यभिधीयते ॥७३९ ।। पुरोहित शब्दकी व्युत्पत्ति।
पुरीषस्य च रोषस्य, हिंसायास्तस्करस्य च । ., भाद्याक्षराणि संगृद्य, वेधाश्चके पुरोहितम् ॥ ७४० ।। मिनु और राजाकी साम्यता। ' पृथुकार्तस्वरपात्रं, भूषितनिःशेषपरिजनं देव ।।
विलसत्करेणुगहनं, सम्प्रति सममावयोः सदनम्।।७४१॥ धनपाल कविका राजाके प्रति कथन ।
अहो! खलभुजंगस्य, विचित्रोऽयं वधक्रमः ।
अन्यस्य दशति श्रोत्र-मन्यः प्राणैर्वियुज्यते ।। ७४२॥ स्वभावकी अतिरेकता। न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं,
न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते,
यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ॥७४३॥
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( ११८ )
विद्याका अध्ययन सहेल नही है ।
नानुद्योगवता न च प्रवसता मानं न चोत्कर्षता, नालस्योपहतेन नान्यमनसा नाचार्यविद्वेषिणा । न भ्रूभंगकटाच सुन्दरमुखीं सीमन्तिनीं ध्यायता, लोके ख्यातिकरः सतां बहुमतो विद्यागुणः प्राप्यते । । ७४४ ॥ श्रीशीतलनाथ तीर्थंकरका पृथक् २ वर्ण में रहा हुआ महत्त्व | आद्येन हीनं जलधावदृष्टं, मध्येन हीनं भुवि वर्णनीयम् । अन्त्येन हीनं धुनुते शरीरं, तन्नामकं तीर्थपतिं नमामि ॥ " शीतल " ।। ७४५ ॥
दरिद्रताकी शंकासे लोभी और दाता क्या करते है ।
लुब्धो न विसृजत्यर्थ, नरो दारिद्र्यशंकया । दाताऽपि विसृजत्यर्थ, तयैव ननु शंकया ॥ ७४६ ॥ ध्येयस्त्वं सर्वसत्त्वानामन्यं ध्यायसि न प्रभो ! | पूज्यस्त्वं विबुधेशाना-मपि पूज्यो न ते क्वचित् ॥ ७४७|| आद्यस्त्वं जगतां नाथ, नैवाद्यः कोऽपि ते प्रभो ! । स्तुत्यस्त्वं स्तूयसे नान्यं, जगदीश्वरभावतः ।। ७४८ ॥ शरण्यस्त्वं हि सर्वेषां न कोऽपि शरणं तव । त्वं प्रभुर्विश्वविश्वस्य, प्रभुरन्यो न ते जिन ! ॥ ७४९ ॥ मुक्तिसौख्यं त्वदायत्तं तद्दाता यत्परो नहि । परात्परतस्त्वं हि तवास्ति न परः क्वचित् ॥ ७५० ॥
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( ११६ )
।। ७५१ ॥
नमस्तुभ्यं भवाम्भोधि-- यानपात्राय तायिने । स्वतः शिवसुखानंद, प्रार्थये नतवत्सल ! तब प्रेष्योऽस्मि नाथाहं त्वत्तो नाथामि नाथताम् । जगच्छरण्य ! मां रच, प्रसीद परमेश्वर ! ।। ७५२ ।।
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क्वाहं बुद्धिधनैर्हीनः क्व च त्वं गुणसागरः । तथापि त्वां स्तवीम्येष त्वद्भक्तिमुखरीकृतः ॥ ७३३ ॥ त्वया हतास्तपोऽस्त्रेण, सर्वथान्येन दुर्जयाः । रागाद्या रिपवः स्वामि- नात्मनः स्वार्थघातकाः ||७५४ || रागाद्यै रिपुभिर्देवा भाषा अन्यैर्विडंबिताः, पश्यति ते बहिः शत्रून् विहायार्तनिकेतिन अनन्तज्ञानमाहात्म्यवारिधे ! चतुरप्रभो ! | जगत्प्रदीप ! भगवन् ! नाभेय ! भवते नमः
।। ७५५ ।।
अष्टांगानि तथा नाथ ! भवान् योगस्य निर्ममे | यथा तानि प्रवर्तन्ते, कर्माष्टकनिपिष्टये
रत्नेन काञ्चनमिव, तेजसेव नभोमणिः । अलंकृतं त्वया नाथ तीर्थं शत्रुंजयं ह्यदः
॥७५६॥
शत्रुंजयशिरोरत्नं, श्रीनाभिकुलभास्करम् । स्वर्गापवर्गव्यापारं निदानं त्वां विभो स्तुमः ॥ ७५८ ॥
नाभ्यर्थये स्वर्गसुखं, न मोक्षं न नरश्रियम् । सदा त्वत्पादपद्मानि वसन्तु मम मानसे
॥ ७५७ ॥
।। ७५६ ॥
॥ ७६० ॥
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(१२०) दानेन प्राप्यते लक्ष्मीः, शीलेन सुखसंपदा । तपसा क्षीयते कर्म, भावना भवनाशिनी ॥५६१ ॥ आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पाक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥७६२॥ त्रयः स्थानं न मुञ्चति, काकाः कापुरुषा मृगाः। अपमाने त्रयो यान्ति, सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ॥ ७६३ ॥ उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता, मध्यमास्तु पितुर्गुणैः। अधमा मातुलैः ख्याताः, श्वशुरैरधमाधमाः ॥ ७६४ ।। स्त्रीजातौ दाम्भिकता, भीलुकता भूयसी वणिग्जातौ । रोषः क्षत्रियजातो, द्विजातिजातौ पुनर्लोभः ॥७६५ ॥ विरोधो नैव कर्तव्यः, साक्षरेभ्यो विशेषतः। त एव विपरीताः स्यु, राक्षसा एव केवलम् ॥ ७६६ ॥ अनुचितकर्मारंभः, स्वजनविरोधो बलीयसा स्पर्धा। प्रमदाजनविश्वासो, मृत्युद्वाराणि चत्वारि ॥७६७ ॥ कान्तावियोगः स्वजनापमानं,
रणस्य भीतिः कुजनस्य सेवा । दरिद्रभावः खलसंगमश्च,
विनाग्निना पंच दहन्ति देहम् ॥७६८ ॥ भिक्षुर्विलासी निर्धनश्च कामी,
वृद्धो विटः प्रव्रजितश्च मूर्खः । पण्यांगना रूपविलासहीना, .. प्राजायत दुश्चरितानि पंच ॥७६९॥
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(१२१) अपरीचितं न कर्त्तव्यं, कर्त्तव्यं सुपरीक्षितम् ।। पश्चाद्भवति संतापो, ब्राह्मणी नकुलं यथा ॥ ७७० ॥ शकटात्पंचहस्तेषु, दशहस्तेषु वाजिनः । हस्तिनः शतहस्तेषु, देशत्यागश्च दुर्जनात् ॥ ७७१ ॥ न विश्वसेत्पूर्वविरोधितस्य, शत्रोच मित्रत्वमुपागतस्य । दग्धा गुहा पश्य उलूकपूर्णा, काकप्रकीर्णेन हुताशनेन
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः, पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजाः ॥ ७७२ ॥ शास्त्रे सुनिश्चितधिया परिचिन्तनीय
माराधितोऽपि नृपतिः परिशंकनीयः । अंके स्थिताऽपि युवतिः परिरक्षणीया ' शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतः स्थिरत्वम् ? ॥ ७७३॥
हावो मुखविकारः स्याद् , भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥ ७७४ ॥ गतानुगतिको लोको, न लोकः पारमार्थिकः । शोको राजकुले सर्वे, कुन्तकुन्मदने मृते ॥७७५ ॥ दश धर्म न जानन्ति, धृतराष्ट्र निबोधनात् । मूर्खः प्रमत्त उन्मत्तः, क्रुद्धः श्रान्तो बुझुचितः त्वरमाणश्च रक्तश्च लुब्धकामी च ते दश ॥ ७७६ ॥ मांसास्वादनलुब्धस्य, देहिनं देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिा, शाकिन्या इव दुर्धियः॥ ७७७ ।।
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(१२२)
कालेन पच्यते धान्यं, फलं कालेन पच्यते । वयसा पच्यते देह, पापी पापेन पच्यते ॥७७८ ।। अभ्रच्छाया तणाग्निश्च, स्थले जलं खले प्रीतिः । वेश्यारागः कुमित्रं च, षडेते बुबुदोपमाः ॥ ७७६ ॥ दशशूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो द्विजा।
दशद्विजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ।। ७८० ॥ मद तीन प्रकारका है। .
मत्तस्तु मदिरामत्तः, प्रमत्तो धनगर्वितः।
उन्मत्तः स्त्रीमदांधश्च, मदत्रयमुदाहृतम् ॥ ७८१॥ मीयोंका विश्वास मत करो।
अपसेत्ववटे नीरं, चालिन्यो सूक्ष्मपिष्टकम् ।
स्त्रीणां च हृदये वार्ता, न तिष्ठन्ति कदाचन ।। ७८२ ।। इनके उपर उपकार नहीं हो सकता।
जामाता कृष्णसर्पश्च, नापितो दुर्जनस्तथा ।
उपकारने गृद्यन्ते, पंचमो भागिनेयकः ॥७८३ ॥ कृपण दान या भोग नही कर सकता है । न दातुं नोपभोक्तुं च, शक्नोति कृपणः श्रियम् । किन्तु स्पृशति हस्तेन, नपुंसक इव स्त्रियम् ॥७८४ ॥ गुप्त बात स्त्रीयोंको नही कहना चाहिए ।
स्त्रीणां गुह्यं न वक्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि । नीतो हि पक्षिराजेन, परागो यथा फणी ॥ ७८५ ॥
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. (१२३) दुष्टानां दुर्जनानां च, पापिनां क्रूरकर्मणाम्। . अनाचारप्रवृत्तानां, पापं फलति तद्भवे ॥७८६ ।। परोपकारः कर्त्तव्यः, प्राणैरपि धनैरपि । परोपकारजं पुण्यं, न स्याद्यज्ञशतैरपि ॥ ७८७ ॥ तीर्थस्नानैर्न सा शुद्धि-बहुदानैर्न तत्फलं ।
तपोभिरुप्रैस्तन्नाप्य-मुपकाराद्यदाप्यते ॥७८८ ॥ उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां
विकसति यदि पनं पर्वताग्रे शिलायाम् । . प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्नि
स्तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा ॥७८९ ॥ शंभुस्वयंभूहरयो हरिणेक्षणानां, . येनाक्रियन्त सततं गृहकुम्भदासाः । ...वाचामगोचरचरित्रविचित्रिताय,
तस्मै नमो भगवते मकरध्वजाय ॥ ७९० ॥ दैत्येन दानवेनैव, राज्ञा सिंहेन हस्तिना। रक्षसा ताड्यमानोऽपि, न गच्छेच्छैवमन्दिरम् ॥ ७९१ ॥ पश्चापि मम रोचन्ते, पाण्डवास्तात ! सुन्दराः । तथापि बलीयान् कामो, मतिः षष्ठेऽपि जायते ॥ ७९२॥ तारुण्यं दुममञ्जरी किमथवा कन्दर्पसंजीवनी, किं लावण्यनिधानभूमिरथवा संपूर्णचन्द्रावली । किं नारी किमु किनरी किमथवा विद्याधरी वाथ कि, केयं केन कियच्चिरेण कियता कस्मै कथं निर्मिता १॥७९३॥
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(१२४) मृच्यालनीमहिसहंसशुकस्वभावा,
मार्जारकाकमशका च जलौकसाम्या । सच्छिद्रकुम्भपरिकर्षशिलोपमानं,
श्रोतुर्गुणा भुवि चतुर्दशधा भवन्ति ॥ ७९४ ॥ प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रस्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, . ब्रूयाद् धर्मकथां गुणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः॥७९॥ चिन्तया नश्यते बुद्धिः, चिंतया नश्यते बलम् । चिन्तया नश्यते ज्ञानं, व्याधिर्भवति चिन्तया ॥ ७९६ ॥ अर्थानामर्जने दुःखं, अर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थो दुःखभाजनम् ॥ ७९७॥ विनयेन विद्या ग्राह्या, पुष्कलेन धनेन वा। अथवा विद्यया विद्या, चतुर्थ नास्ति कारणम् ॥ ७९८ ॥ नाणाविहाई दुक्खाई, अनुहोंति पुणो पुणो । संसारचक्कवालंमि, मच्चुवाहिजराकुले ॥७९९ ॥ उच्चावयाणि गच्छन्ता, गम्भमेस्संति णंतसो । नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥ ८०० ॥ स्रष्टा यन सृजेत् सृष्टी, हरो ध्यानेन दृष्टवान् । नोदरे वैष्णवे चास्ति, तत् कुर्वन्ति स्त्रियोऽदयाः ॥८०१॥ घूतासक्तस्य सञ्चित्तं, धनं कामाः सुचेष्टितम् । नश्यन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति ॥८०२ ॥
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(१२५ ) विषयव्याकुलचित्तो, हितमहितं वा न वेत्ति जन्तुरयम् । तस्मादनुचितचारी, चरति चिरं दुःखकान्तारे ॥८०३ ।। रक्तः शब्देन हरिणः, स्पर्शाबागो रसेन वारिचरः। पणपतंगो रूपे, भुजंगो गंधेन तु विनष्टः ॥८०४ ॥ अनम्यासे विषं शास्त्रं, अजीर्णे भोजनं विषम् । दरिद्रस्य विषं गोष्ठी, वृद्धस्य तरुणी विषम् ॥८०५ ॥ रसातलं यातु यदत्र पौरुषं, कुनीतिरेषा शरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद्धलिनाऽपि दुर्बलो, हहा महाकष्टमराजकं जगत्
__ ॥८०६ ।। कन्दः कन्याणवल्ल्याः सकलसुखफलप्रापणे कल्पवृक्षो,' - दारिद्योद्दीप्तदावानलशमनघनो रोगनाशैकवैद्यः । भेयाश्रीवश्यमन्त्रो विगलितकलुषो भीमसंसारसिन्धोः, तारे पोतायमानो जिनपतिगदितः सेवनीयोऽत्र धर्मः
॥ ८०७॥ संवत्सरेण यत्पापं, कैवर्तकस्य जायते । एकाहेन तदाप्नोति, अपूतजलसंग्रही . ॥८०८ ॥ उपकारिषु यः साधुः, साधुत्वे कीदृशो गुणः । अपकारिषु यः साधुः, श्लाघ्यः स भुवि मानवैः ।।८०९।। विवेको न भवेत् प्रायो, जन्तोर्दुर्गतिगामिना, चित्रस्था अपि चेतांसि, हरन्ति हरिणीदृशः ॥१०॥
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( १२६ )
किं पुनः स्मरविस्मेरा, विस्फारितविलोचनः । विवेकी यत् श्रियं प्राप्य सत्कार्ये न प्रणोद्यति ॥ ८११ ॥ आवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां, दोषाणां संनिधानं कपटशतगृहं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । दुर्ग्राह्यं यन्महद्भिर्नरवरवृषभैः सर्वमायाकरण्डं, स्त्रीयन्त्रं केन लोके विषममृतमयं शर्मनाशाय सृष्टम् १ ॥
॥ ८१२ ॥
निषिद्धमप्याचरणीयमापदि क्रिया सती नावति यत्र सर्वथा । घनाम्बुना राजपथे हि पिच्छिले, कचिद् बुधै रथ्यापथेन गम्यते द्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः । कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी ॥ ८१३ ॥
शत्रुंजयः शिवपुरं, नदी शत्रुंजयाभिधा । श्री शान्तिः शमिनां दानं शकाराः पंच दुर्लभाः॥ ८१४ ॥
प्राप्तुं पारमपारस्य पारावारस्य पर्य | स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां दुश्चरित्रस्य नो पुनः ॥ ८१५ ॥
षट्कर्णो भिद्यते मंत्र - चतुष्कर्णो न भिद्यते । द्विकर्णस्य तु मंत्रस्य, ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति ॥१६॥ लंकेशोऽपि दशाननोऽपि विजिताशेष त्रिलोकोऽपि सन्, रचोलचयुतोऽपि सेन्द्रजिदपि व्यापाद्यते रावणः ।
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(१२७)
नि:स्वेनैव सुखेन काननजुषा सर्वेण मन यत्, रामेणामिततेजसा जनकजाशीलस्य तद्वन्गितम् ॥
॥८१७॥ अङ्गेि गिरिजां बिभर्ति गिरीशो विष्णुर्वहत्यन्वहं,
शस्त्रश्रेणिमथाऽक्षसूत्रवलयं धत्ते च पद्मासनः । पौलोमीचरणाहतिं च सहते धृष्टः सहस्रेक्षणस्तन्मोहस्य विजृम्भितं निगदितं तिर्यग्जने का कथा ?
॥८१८॥ ब्रह्मचारि-यतीनां च, विधवानां च योषितां ।
ताम्बूलभक्षणं विप्र!, गोमांसान विशिष्यते ॥ ८१९॥ देयं भोज! धनं घनं सुकृतिभिर्नो संचनीयं कदा,
श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता । अस्माकं मधु दानभोगरहितं कष्टैश्चिरात्सेवितं,
लुप्तं तन्मधु पादपाणियुगलं घर्षत्यसौ मक्षिका ॥२०॥ प्रातः द्यूतप्रसंगेन, मध्याह्ने स्त्रीप्रसंगतः। सायं चौरप्रसंगेन, कालो गच्छति धीमताम् ।। ८२१॥ तथापि चित्रमुत्पद्य-कालदेपः करिष्यते । कालक्षेपाद्यदि पुनः, प्रभो कोऽपि निवर्तते ॥८२२ ॥ शुद्धान्तसंभोगनितान्ततुष्टे, न नैषधे कार्यमिदं निगाधम्। अपां हि तृप्ताय न वारिधारा, स्वादुः सुगन्धि स्वदते तु
बारा ।। ८२३ ।।
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( १२८ )
॥ ८२४ ॥
गुरुत्यागे भवेद्दुःखी, मन्त्रत्यागे दरिद्रता । गुरुमंत्र परित्यागे, सिद्धोऽपि नरकं व्रजेत् देवा देवीं नरा नारीं, शवराश्च शाबरीम् । तिर्यश्वोऽपि तैरवी, मेनिरे भवतो गिरम् दाने तपसि शौर्ये, यस्य न प्रथितं मनः । विद्यायामर्थलाभे वा, मातुरुच्चार एव सः ॥ ८२६ ॥
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कलारत्नं काव्यं श्रवणसुखरत्नं हरिकथा, रणे रत्नं वाजी, गगनमुखरत्नं दिनकरः । निशारत्नं चंद्रः, शयनसुखरत्नं शशिमुखी, समारत्नं विद्या, जयति नृपरत्नं रघुकुलः ॥८२७॥ काया हंसविना नदी जलविना दातुर्विना याचकाः; भ्राता स्नेहविना कुलं सुतविना धेनुश्च दुग्धं विना । मार्या भक्तिविना पुरं नृपविना वृक्षं च पत्रं विना, दीपः स्नेहविना शशी निशि विना धर्म विना मानवाः ८२८ हसंति पृथिवी नृपतोऽपि राजा, हसंती कालो गम वैद्यराज । हसंती भार्या व्यभिचारणीच, इसंती लक्ष्मीः कृपणे गृहे च ॥ ॥ ८२९ ॥
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी, दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या,
यस्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ॥ ८३० ॥
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(१२६) प्रामिग्गहियमणाभिग्गहं च अनिवेसियं चेव । संसइयमणाभोग मिच्छत्तं पंचहा होइ .. ॥ ८३१ ॥ . जन्मिनां प्रकृतिमत्युविकृति वितं पुनः । ततः स्वभावसिद्ध्यर्थे, को विषादो विवेकिनः ॥ ८३२ ॥ न स्वादु नौषधमिदं न च वा सुगन्धि
नाक्षिप्रियं किमपि शुष्कतमाखुचूर्णम् । किं चाक्षिरोगजनकं च तदस्य भोगे
बीजं नृणां नहि नहि व्यसनं विनान्यत् ॥८३४॥ या मतिर्जायते पश्चात्सा यदि प्रथमं भवेत् । . न विनश्येत् तदा कार्य, न हसेत् कोऽपि दुर्जनः ॥३४॥ विषस्य विषयाणां च, दृश्यते महदन्तरं । उपभुक्तं विषं हंति, विषयाः स्मरणादपि ॥८३५ ॥ अभक्ष्यभक्षणाद् दोषात् कण्ठरोगः प्रजायते ॥८३६ ॥ कन्याविक्रयिणश्चैव रसविक्रयिणस्तथा । विषविक्रयिणश्चैव नरा नरकगामिनः ॥८३७ ॥ कोटं च बूट-पटलौन कौश्च मुखे च धुम्रं सिगरेट पिबन्तम् । घडी छडी गन्ध लवण्डरं च जानन्ति सर्वे कुलधर्ममेवम् ।।
॥८३८॥ ध्यानं दुःखनिधानमेव तपसां संतापमानं फलं, स्वाध्यायोऽपि हि वन्ध्य एव कुधियां तेऽभिग्रहाः कुग्रहाः।
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( १३०) अश्लीला खलु दानशीलतुलना तीर्थादियात्रा वृथा, सम्यक्त्वेन विहीनमन्यदपि यत्तत्सर्वमंतगडु ॥ ८३९ ॥ लुद्धा नरा अत्थपरा हवंति, मूढा नरा कामपरा हवंति । बुद्धा नरा खंतिपरा हवंति, मिस्सा नरा तिमि वि पायरंति
॥८४०॥ कोहाभिभूया न सुहं लहंति,
माणंसिणो सोयपरा हवंति। . मायाविणो हुंति परस्स पेसा,
लुद्धा महिच्छा नरयं उर्वति ॥ ८४१ ॥ न सेवियन्वा पमया परका, ___ न सेवियन्वा पुरिसा अविजा। न सेवियव्वा अहिया निहीणा,
. न सेवियव्वा पिसुणा मणुस्सा ॥ ८४२ ॥ दानं दरिदस्स पहुस्स खंती, इच्छा निरोहो च सुहोइयस्स । तारुण्णए इंदियनिग्गहो य, चत्तारि एयाई सुदुक्कराई ॥८४३॥ जूए पसत्तस्स धनस्स नासो, मसे पसत्तस्स दयाई नासो । मज्झे पसत्तस्स जसस्स नासो, वेसापसत्तस्स कुलस्स नासो
॥८४५॥ असासयं जीवियमाहु लोए, धम्मं चरे साहु जिणोवइटुं । धम्मो य ताणं सरणं गई य, धम्मं निसेवित्तु सुहं लहंति ८४५
नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे .. रसोपविद्धा इव लोहधातवः ।
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(१३१) भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो
भवन्तमार्या: प्रणता हितैषिणः ॥ ८४६ ॥ औषधं शकुन मन्त्रं, नचत्रं गृहदेवता। भाग्यकाले प्रसीदन्ति, अभाग्ये यान्ति विक्रियाम् ॥८४७॥ अग्निर्विप्रो यमो राजा, समुद्र उदरं स्त्रियः । अतृप्ता नैव तृप्यन्ति, याचन्ते च दिने दिने ॥ ८४८ ॥ स्त्रीचरित्रं प्रेमगति, मेघोत्थानं नरेन्द्रचित्तं च। . विषमविधिविलसितानि च को वा शक्नोति विज्ञातुम् ८४९ सत्येन धार्यते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः सत्येन वायवो वान्ति, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ।। ८५० ॥ अंतर्विषमा हि ता ज्ञेया, बहिरेव मनोहराः । गुंजाफल समाकारा, योषितः केन निर्मिताः ॥८॥२॥ कुटिलगतिः कुटिलमतिः, कुटिलात्मा कुटिलशीलसंपन्ना । सर्व पश्यति कुटिलं कुटिलः कुटिलेन भावेन ॥ ८५३ ।। संपीन्याहिदंष्ट्राऽग्नि-यम जिह्वा-विषव्रजात् । जगजिघांसुना नायः कृता क्रूरेण वेधसा ॥८५५ ॥ समेषु शौर्य प्रशमं महत्सु नीचेष्ववज्ञां प्रणतेषु मानं । वृजत्वं निपुणे विदध्याद् धूर्तेषु कुर्यादतिधूर्तभावम् ।।८५६॥
वारिदस्तृप्तिमानोति सुखमक्षयमन्त्रदः।। तिलप्रदः प्रजाभीष्टामायुष्कमभयप्रदः ॥८५७ ॥
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(१३२) रुधिरमांसमेदोऽस्थि. मलमूत्रादिपूरितम् । नवद्वार रतविस्य रसक्लिनमिदं वपुः ।। ८५९ । वणिपण्यांगना दस्युचूतकृत्पारदारिकः ।
स्वार्थसाधकनिद्रालु सप्तासत्यस्य मन्दिरम् ॥ ८॥ गुर्वेकवाक्यादपि पापभीता, राज्यं त्यजन्ति स्म नरा हि सन्ता व्याख्यासहस्रनं भवेद् विरागो, ध्रुवं कलौ वज्रहदो मनुष्याः
१८६१ ॥ अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, .
जातं दशनविहीनं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं
तदपि न मुश्चत्याशापिण्डम् ॥८६२॥ लक्ष्मी कौस्तुभपारिजातकसुराः धन्वंतरिश्चंद्रमाः
गांवः कामदुधाः सुरेश्वरगजो रंभादिदेवांगनाः। अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोऽमृतं चांबुधेः रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात् सदा मंगलम् ॥८६॥ चीरिण्यः सन्तु गावो भवतु वसुमती सर्वसंपनशस्या, पर्जन्यः कालवर्षी सकलजनमनोनन्दिनो वान्तु वाताः । मोदन्तां जन्मभाजः सततमभिमता ब्राह्मणाः सन्तु सन्तः श्रीमन्तः पान्तु पृथ्वीं प्रशमितरिपको धर्मनिष्ठाश्च भूपा८६४
असितगिरिसमं स्यात् कजलं सिंधुपात्रे, ... सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुवी ।
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(१३३) लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् ,
तदपि तव गुणानां ईश ! पारं न याति ॥ ८६५ ॥ जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता,
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत् प्रकुरुषे, ___ कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।८६६॥ घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनश्चंदनं चारुगन्धं __ छिन छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादु चैवेचुकाण्डम् । दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्णम् ___न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ।।८६७॥ मुक्त्वा निःश्रीकमप्यन्जं मराली न गतान्यतः । अमराली त्वगाद् वेगादिदं सदसदन्तरम् ॥ ८६८ ॥
असद्भिः शपथेनोक्तं जले लिखितमचरम् । सद्भिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमचरम् ।।८६९॥ आपदो महतामेव महतामेव संपदः । बीयते वर्धते चन्द्रः कदाचिनैव तारकाः ॥ ८७० ।। गुणग्रामाविसंवादि नामापि हि महात्मनाम् । यथा सुवर्णश्रीखण्डरत्नाकरसुधाकराः ॥८७१ ॥ कि जन्मना च महता पितृपौरुषेण ..
शक्या हि याति निजया पुरुषः प्रतिष्ठाम् ।
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(१३४ ) कुम्भा न कूपमपि शोषयितुं समर्थाः
कुम्भोद्भवेन मुनिनाम्बुधिरेव पीतः ॥८७२॥ अन्या जगद्धितमयी मनसः प्रवृत्तिः
अन्यैव कापि रचना वचनावलीनाम् । लोकोत्तरा च कृतिराकृतिराहिद्या
विद्यावतां सकलमेव चरित्रमन्यत् ॥८७३ ॥ तरुमूलादिषु निहितं, जलमाविर्भवति पल्लवाग्रेषु । निभृतं यदुपक्रियते, तदपि महांतो वहंत्युच्चैः ॥ ८७४ ।। महो किमपि चित्राणि चरित्राणि महात्मनाम् । लक्ष्मी तृणाय मन्यन्ते तद्भरेण नमन्त्यपि ॥८७५ ॥ मौने मौनी गुणिनि गुणवान् पण्डिते पण्डितोऽसौ
दीने दीन: सुखिनि सुखवान् भोगिनि प्राप्तभोगः । मूर्खे मृों युवतिषु युवा वाग्मिषु प्रोढवाग्मी धन्यः कोऽपि त्रिभुवनजयी योऽवधूतेऽवधृतः ॥ ८७६ ॥ केनादिष्टौ कमलकुमुदोन्मीलने पुष्पवन्तौ
विश्वं तोयैः स्नपयितुमसौ केन वा वारिवाहः । विश्वानन्दोपचयचतुरो दुर्जनानां दुरापः
साघ्यो लोके जयति महतामुज्ज्वलोऽयं निसर्गः ॥८७७॥ दुर्जनस्वभावः ।
खला सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । आत्मनो विन्धमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥८॥
पथितुम
दुरापः सर्गः ॥८
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( १३५ ) अनुकुरुतः खलसुजनावाग्रिमपाश्चात्यभागयोः सूच्याः। विदधाति रन्ध्रमेको गुणवानन्यस्तु पिदधाति ।। ८७९ ॥ त्यजन्ति शूर्पवद् दोषान् गुणान् गृह्णन्ति साधवः । दोषग्राही गुणत्यागी चालिनीव हि दुर्जनः ॥ ८८० ॥ रविरपि न दहति तादृग् यादृक् संदहति वालुकानिकरः । अन्यस्मानन्धपदःप्रायो नीचोऽपि दुःसहो भवति ॥८८१॥ शरदि न वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः । नीचो वदति न कृरुते न वदति सुजनः करोत्येव ॥ ८८२॥
उपकारोऽपि नीचानामपकारो हि जायते । . पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् ॥८८३ ।। . मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला ।
हृदयं कर्तरीतुल्यं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ॥ ८८४ ।। नलिकागतमपि कुटिलं, न भवति सरलं शुनः पुच्छम् । तद्वत् खलजनहृदयं, बोधितमपि नैव याति माधुर्यम् ।।८८५ बोधितोऽपि बहुसूक्तिविस्तर
किं खलो जगति सजनो भवेत् । स्नापितोऽपि बहुशो नदीजलै___ गर्दभः किमु हयो भवेत् कचित् ॥८८६ ।। न देवाय न धर्माय न बंधुभ्यो न चार्थिने। दुर्जनेनार्जितं द्रव्यं भुज्यते राजतस्करैः ॥८८७॥
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( १३६ )
मूर्खस्य पंच चिह्नानि गर्वी दुर्वचनी तथा । हठी चाप्रियवादी च परोक्तं नैव मन्यते
॥ ८८ ॥
॥ ८६० ॥
काकस्य कति वा दंता मेषस्यांडे कियत् पलम् । गर्दभे कति रोमाणि व्यर्थैषा तु विचारणा ॥ ८६ ॥ गर्गो हि पादशौचात् लघ्वासनदानतो गतः सोमः । दत्तः कदशनभोज्यात् श्यामलकश्चार्धचंद्रेण अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चान्तिमः । सकृद् दुःखकरावाद्यावन्तिमस्तु पदे पदे क्षणे तुष्टाः क्षणे रुष्टास्तुष्टा रुष्टाः चणे चणे । अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयंकरः यस्यास्ति सर्वत्र गतिः स कस्मात् स्वदेशरागेण हि याति नाशम् ।
॥ ८६१ ॥
॥ ८९२ ॥
तातंस्य कुपोऽयमिति ब्रुवाणाः चारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति
॥ ८९३ ॥
दैवविलास
॥ ८९४ ॥
सच्छिद्रो मध्यकुटिलः कर्णः स्वर्णस्य भाजनम् । घिग् दैवं विमले नेत्रे पात्रं कज्जल भस्मनः आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमूढ लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् | एतान् प्रपश्यसि घटान् जलयन्त्रचक्रे
रिक्ता भवन्ति भरिता भरिताश्च रिक्ताः ॥८९५ ॥
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( १३७ )
अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि । तदा दुःखैर्न लिप्येरन् नलराजयुधिष्ठिराः प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो देवोऽपि तं लङ्घयितुं न शक्तः । तस्मान शोचामि न विस्मयो मे यदस्मदीयं न हि तत् परेषाम्
॥ ८६६७ ॥
लिखिता चित्रगुप्तेन ललाटेऽक्षरमालिका । - तां देवोऽपि न शक्नोति उल्लिख्य लिखितुं पुनः ||८६८ ॥
शशिदिवाकरयोर्ग्रहपीडनम् गजभुजंगमयोरपि बन्धनम्
मतिमतां च विलोक्य दरिद्रताम् विधिरहो बलवानिति मे मतिः
।। ८९६ ॥
तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यो भाग्यात् परं नैव ददाति किंचित् । अहर्निशं वर्षति वारिवाहः
।। ८९९ ।।
॥ ९०० ॥
तथापि पत्रत्रितयः पलाशः अश्वं नैवं गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च । अजापुत्रं बलिं दद्याद् देवो दुर्बलघातकः ॥ ९०१ | यः सुन्दरस्तद्वनिता कुरूपा या सुंदरी सा पतिरूपहीना ।
यत्रोभयं तत्र दरिद्रता च विधेर्विचित्राणि विचेष्टितानि
।। ९०२ ॥
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(१३८ )
व्याघ्र च महदालस्यं सर्प चैव महद्भयम् । पिशुने चैव दारियं तेन जीवन्ति जन्तवः ॥९.३॥ पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्
नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् । धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् __ यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुंकः क्षमः ९०४ अधः पश्यसि किं वाले पतितं तव किं भुवि । . रे रे मूढ न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम् ॥६०५॥ चतुरः सखि मे भर्ता यल्लिखति तत् परो न वाचयति तस्मादप्यधिको मे स्वयमपि लिखितं स्वयं न वाचयति
. ॥६०६॥ दश व्याघ्राः जिताः पूर्व सप्त सिंहास्त्रयो गजाः । पश्यन्तु देवताः सर्वाः अद्य युद्धं त्वया मम ।।९०७ ॥ गच्छ सूकर भद्रं ते ब्रूहि सिंहो मया जितः । पण्डिता एव जानन्ति सिंहसूकरयोर्बलम् ॥६०८॥
अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य
हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम् । एको हि दोषो गुणसंनिपाते
निमलतींदोः किरणेष्विवांकः ॥६०९॥ एको हि दोषो गुणसंनिपाते निमजतींदोरिति यो बभाषे।
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(१३९) नूनं न दृष्टं कविनाऽपि तेन
दारिद्यदोषो गुणराशिनाशी ॥९१० ॥ कस्त्वं लोहितलोचनास्य चरणः हंसः कुतो मानसात् किं तत्रास्ति सुवर्णपङ्कजवनान्यंभः सुधासनिभम् । रत्नानां निचयाः प्रवाललतिका वैडूर्यरोहः कचित् शम्बूकाः न हि सन्ति नेति च बकैराकर्ण्य हीही कृतम् ६११ गृहात्येष रिपोः शिरः प्रजविनं कर्षत्यसौ वाजिनम् धृत्वा धर्म धनुः प्रयाति पुरतः संग्रामभूमावपि । पूतं चौर्यकथा तथा च शपथं कुर्यात्र वामः करो दानानुधमतां विलोक्य विधिना शौचाधिकारी कृतः ९१२ विप्रास्मिन् नगरे महान् कथयतां तालद्रुमाणां गणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातगृहीत्वा निशि । को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोऽपि दचो जनः कस्माजीवसि हे सखे विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम् ॥९१३
भूरिभारभराक्रान्तो बाधति स्कन्ध एष ते न तथा बाधते स्कन्धो यथा बाधति बाधते ॥९१४॥ निरर्थकं जन्म गतं नलिन्या
यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् । उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव
कृता विनिद्रा नलिनी न येन ॥९१५ ॥ भवित्री रम्भोरु त्रिदशवदनग्लानिरधुना
स रामो मे स्थाता न युधि पुरतो लक्ष्मणसखः ।
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( १४० ) इयं यास्यत्युच्चैर्विपदमधुना वानरचमूः ___ लघिष्ठेदं षष्ठाक्षरपरविलोपात् पठ पुनः ॥ ९१६ ।। न तज्जलं यन सुचारुपङ्कजं ___ न पङ्कजं तद्यदलीनषट्पदम् । न षट्पदोऽसौ कलगुंजितो न यो
न गुंजितं तम जहार यन्मनः ॥६१७ ॥ मिचो कन्था श्लथा ते नहि शफरिवधे जालमनासि-मत्स्यान् ते वै मद्योपदंशाः पिबसि मधु समं वेश्यया यासि वेश्याम् । दवाचि मूर्त्यरीणां तव किमु रिपवो भित्तिभेत्तास्मि येषाम् चौरोसि छूतहेतोस्त्वयि सकलमिदं नास्ति नष्टे विचार
॥६१८॥ प्रादिमध्यान्तरहितं दशाहीनं पुरातनम् ।
अद्वितीयमहं वन्दे मद्वस्त्रसदृशं हरिम् ॥६१६ ॥ कोऽयं द्वारि हरिः प्रयायुपवनं शाखामृगस्यात्र किम् कृष्णोऽहं दयिते विभेमि सुतरां कृष्णादहं वानरात् । राधेऽहं मधुसूदनो व्रज लतां तामेव पुष्पान्विताम् इत्थं निर्वचनीकृतो दयितया हीणो हरिः पातु वः॥२०॥ गवीशपत्रो नगजापहारी
कुमारतातः शशिखण्डमौलिः। लंकेशसंपूजितपादपमा
पायादनादिः परमेश्वरो नः ॥६२१ ।। विना गोरसं को रसः कामिनीनाम्
विना गोरसं को रसः पण्डितानाम् ।
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(१४१ ) विना गोरसं को रसो भूपतीनाम्
विना गोरसं को रसो भोजनानाम् ॥ २२ ॥ कन्याप्रस्तस्य धनुष्प्रसंगात्
भंगाधिकासादितविक्रमस्य । धनंजयाधीनपराभवस्य
शीतस्य कर्णस्य च को विशेषः ॥ ९२३ ॥ अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि । बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरुषो भवान् ।।९२४ ।। यो रात्रिंचरशेखरः किल दशास्यः कोणपान्याश्रयः वजाबाधितशक्तिको नृरुधिरं पातुं सदा वाञ्छति । उन्मत्तो मधुयोगतो भवति यस्तन्मत्कुणो रावणः तस्मानश्यति पुत्रपौत्रसहितः सीताभिसंधानतः ॥ ९२५ ॥ द्वंद्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः । तत्पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुब्रीहिः ॥६२६ ॥ तनुग्रासे स एव स्याद् असुग्रासेऽपि स स्मृतः। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन भवेद् नित्यं सुभोजनः ॥६२७ ॥ शूली जातः कदशनवशाइँक्ष्ययोगात् कपाली वस्त्राभावाद्गगनवसनः स्नेहशून्याजटावान् । इत्थं राजन् तव परिचयादीश्वरत्वं मयाऽऽप्तम् तस्मान्मज्ञं किमिति कृपया नार्धचंद्रं ददासि ॥६२८॥ खलानां धनुषां चापि सवंशजनुषामपि । गुणलामो भवेदाशु परहृभेदकारक: ॥९२९ ॥
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( १४२ ) भक्तद्वेषो जडप्रीतिः सुरुचिर्गुरुलङ्घने मुखे कटुकता नूनं धनिनां ज्वरिणामिव ॥ ६३० ॥ जनस्थाने भ्रान्तं कनकमृगतृष्णाकुलतया
वचो वैदेहीति प्रतिपदमुदश्रु प्रलपितम् । कृतालंकाभर्तुर्वनपपरिपाटीषु घटना
मयाप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता ॥९३१॥ जाता शुद्धकुलं जघान पितरं हत्वापि शुद्धा पुनः स्त्री चैषा वनिता पितेव सततं विश्वस्य या जीवनम् । सङ्गं प्राप्य पितामहेन जनकं प्रास्त या कन्यका सा सर्वैरपि वन्दिता चितितले सा नाम का नायिका ॥६३२॥ शमीगर्मस्य यो गर्मस्तस्य गर्भस्य यो रिपुः । रिपुगर्भस्य यो भर्ता स मे विष्णुः प्रसीदतु ॥९३३ ॥ पानीयं पातुगिच्छामि स्वतः कमललोचने । यदि दास्यसि नेच्छामि नो दास्यसि पिबाम्यहम् ॥६३४॥ काचिद् बाला रमणवसतिं प्रेषयन्ती करण्डं
सा तन्मूले समयमलिखद् व्यालमस्योपरिष्टात् । गौरीनाथं पवनतनयं चम्पकं चास्य भावं पृच्छत्यार्यान् प्रति कथमिदं मल्लिनाथः कवीन्द्रः ॥१३॥ अपदो दूरगामी च सादरो न च पण्डितः। प्रमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ।। ९३६ ।।
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वृक्षाप्रवासी न च पधिराजः ..
त्रिनेत्रधारी न च शूलपाणिः त्वग्वस्त्रधारी न च सिद्धयोगी ___जलं च विभ्रन् न घटो न मेषः ॥ ९३६ ॥ चक्री त्रिशूली न हरो न विष्णु
महान् बलिष्ठो न च भीमसेनः । स्वछन्दचारी नृपतिर्न योगी
सीतावियोगी न च रामचंद्रः ॥९३७ ।। अणोरणीयान् महतो महीयान्
योगे वियोगे दिवसः प्रियस्य ।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं . स्पृष्ट्वा सखे सत्यमहं ब्रवीमि ॥६३८ ॥ यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च । अंहं कथं द्वितीया स्याद् द्वितीया स्यामहं कथम् ।। ९३९ ।। भकुबेरपुरीविलोकनं, न धरासूनुकरं कदाचन । अथ तत्प्रतिकारहेतवेऽदमयन्तीपतिलोचनं भज ॥ १४१॥ सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके
न बोधयामास पतिं पतिव्रता । तदाऽभवत् तत्पतिभक्तिगौरवात्
हुताशनश्चंदनपङ्कशीतलः ॥ ६४२॥ राजाभिषेके मदविह्वलाया . हस्ताच्च्युतो हेमघटस्तरुपयाः।
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(१४) सोपानमासाद्य करोति शन्दं ਠਠੇ ਠਠ ਠਠਠ ਠਠ ਨ
॥१४॥ जम्बूफलानि पकानि पतन्ति विमले जले। कपिकम्पितशाखाम्यो गुलुगुग् गुलुगुग्गुलुः ॥ ६४४ ॥ नवनीतमयं लिंगं पूजार्थे केनचित् कृतम् । हन्त तस्य प्रमादेन ओतुना भचितः शिवः ॥६४५ ॥ पतिश्वशुरता ज्येष्ठे पतिदेवरतानुजे। इतरेषु च पाश्चान्यास्त्रितयं त्रितयं त्रिषु ॥६४६ ॥ यदि रामा यदि च रमा, यदि तनयो विनयधीगुणोपेतः। तनये तनयोत्पत्तिः, सुरवरनगरे किमाधिक्यम् ॥६४७ ॥ लोभमूलानि पापानि व्याधयो रसमूलकाः । स्नेहमूलानि दुःखानि त्रयं त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ ६४८॥ यत्र नास्ति दधिमन्थनघोषो
यत्र नो लघुलघूनि शिशूनि । यत्र नास्ति गुरुगौरवपूजा
तानि कि बत गृहाणि वनानि ॥९४६॥ अर्थागमो नित्यमरोगिता च
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या
षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥ ६५० ॥ सदा वक्रः सदा क्रूरः सदा पूजामपेक्षते । कन्याराशिस्थितो नित्यं जामाता दशमो ग्रहः ॥९५१ ।।
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क्रोशन्तः शिशवः सवारि सदनं पङ्कावृतं चांगणं,
शय्या दंशवती च रुक्षमशनं धूपेन पूर्ण गृहम् । भार्या निष्ठुरभाषिणी प्रभुरपि क्रोधेन पूर्णः सदा स्नानं शीतलवारिणा हि सततं धिग् धिग् गृहस्थाश्रमम् ।।
॥९५२ ॥ न विप्रपादोदकपङ्किलानि,
न वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि । स्वाहास्वधाकारविवर्जितानि
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि ॥६५३ ।। न विषं विषमित्याहुब्रह्मस्वं विषमुच्यते । विषमेकाकिनं हन्ति ब्रह्मस्वं पुत्रपौत्रकम् ॥६५४ ॥ ___ भार्यावियोगः स्वजनापवाद, .. ऋणस्य शेष कृपणस्य सेवा । .. दारिद्यकाले प्रियदर्शनं च
. विनामिना पञ्च दहन्ति कायम् ॥९५५ ॥ चिता चिन्ता समा ह्युक्ता, बिन्दुमात्रं विशेषतः । सजीवं दहते चिन्ता, निर्जीवं दहते चिता ॥९५६ ॥ दिव्यं चूतरसं पीत्वा, गर्व नायाति कोकिलः। पीत्वा कर्दमपानीयं, मेको रटरटायते ॥६५७॥ भद्रं कृतं कृतं मौनं, कोकिलैलदागमे। दर्दुरा यत्र वक्तारा, तत्र मौनं हि शोभनम् ॥६५८ ॥ रेरे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयताम् , अम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः।
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( १४६ )
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः । ९५९ ॥ यास्यति जलधरसमयस्तव च समृद्धिर्लघीयसी भविता । afनि ! तद्रुमपातनपातकमेकं चिरस्थायि ॥ ९६० ॥
दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैः, दूरीकृताः करिवरेण मदांधबुद्धया । तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा
भृंगाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति ॥ ९६१ ॥ किं केकीब शिखण्डमण्डिततनुः किं कीरवत् पाठकः, किं वा हंस इवांगनागतिगुरुः शारीव किं सुस्वरः । किं वा हन्त शकुन्तबालापिकवत् कर्णामृतं सिञ्चति, काकः केन गुणेन काञ्चनमये व्यापारितः पञ्जरे ॥ ९६२ ॥ स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण सखे गजश्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां वनभुवि । सौ कुंभिभ्रान्त्या खरनखरविद्रावितमहागुरुग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः चातकस्य मुखचंचु संपुटे
नो पतंति यदि वारिबिंदवः । सागरीकृत महीतलस्य किं दोष एव जलदस्य दीयते रे रे रासभ ! वस्त्रभारवहनात् कुग्रासमश्नासि किम् ? राजाश्वावसथं प्रयाहि चणकाम्यूषान् सुखं भक्षय ।
॥ ६६४ ॥
॥ ६६३ ॥
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(१४७ ) सर्वान् पुच्छवतो हयानिति वदंत्यत्राधिकारे स्थिताः ।
राजा तैरुपदिष्टमेव मनुते सत्यं तटस्थाः परे ॥९६५।। त्वयि वर्षति पर्जन्ये सर्वे पल्लविता द्रुमाः । अस्माकमर्कवृक्षाणां जीणे पत्रेऽपि संशयः ॥९६६॥ गिरिगड्वरेषु गुरुगर्वगुंफितो।।
गजराजपोत न कदापि संचरेः । यदि बुध्यते हरिशिशुः स्तनंधयो भविता करेणुपरिशेषिता मही
॥९६७॥ गात्रं कण्टकसङ्कटं प्रविरलच्छाया न चायासहृत्
निर्गन्धः कुसुमोत्करस्तव फलं न तुद्विनाशक्षमम् । बब्बूलद्रुममूलमति न जनस्तत् तावदास्तामहो . ह्यन्येषामपि शाखिनां फलवतो गुप्त्यै वृतिजायसे ॥६६८॥ साधारणतरुबुद्ध्या न मया रचितस्तवालवालोऽपि । लज्जयसि मामिदानी चंपक भवनाधिवासितैः कुसुमैः ॥९६६॥ उत्कन्धरो विततनिर्मलचारुपक्षो
हंसोऽयमत्र नभसीति जनैः प्रतीतः । गृह्णाति पन्वलजलाच्छफरी यदासौ . ज्ञातस्तदा खलु बकोऽयमितीह लोकैः ॥९७०॥ हेलया राजहंसेन यत् कृतं कलकूजितम् । न तद् वर्षशतेनापि जानात्याशिचितुं बकः ॥९७१॥ उष्ट्राणां च गृहे लग्नं गर्दभाः शान्तिपाठकाः। परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपम् अहो ध्वनिः! ॥९७२॥
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(१४८) कुटिला लक्ष्मीर्यत्र प्रभवति न सरस्वती वसति तत्र । प्रायः श्वश्रूस्नुषयोर्न दृश्यते सौहृदं लोके ॥७३॥ पिंडे पिंडे मतिर्मिमा कुंडे कुंडे नवं पयः। जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे ॥ ९७४ ॥ यो न संचरते देशान् यो न सेवेत पंडितान् । तस्य संकुचिता बुद्धिघृतबिन्दुरिवांभसि ॥९७५ ॥ यस्तु संचरते देशान् यस्तु सेवेत पंडितान् । . तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवां मसि ॥६७६ ।। यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पंडितानुपासयति । तस्थ दिवाकरकिरणैर्नलिनीदलमिव विकास्यते बुद्धिः।९७७ एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् । न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना ॥६७८ ।। यथा देशस्तथा भाषा यथा राजा तथा प्रजा।। यथा भूमिस्तथा तोयं यथा बीजं तथांकुरः ॥९७६ ॥ स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥९८०॥ यत्र विद्वजनो नास्ति श्लाघ्यस्तत्रान्पधीरपि । निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते ॥९८१ ॥ नक्रः स्वस्थानमासाद्य गजेन्द्रमाप कर्षति । स एव प्रच्युतः स्थानाच्छुनापि परिभूयते ॥९८२॥ अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च । पुरुषविशेष प्राप्ता भवन्दि योरया अयोग्याच ॥ ९८३ ॥
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(१४९) वार्ता च कौतुकवती विमला च विद्या
लोकोत्तरः परिमलश्च कुरंगनामेः। तैलस्य बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवार
मेतत् त्रयं प्रसरात स्वयमेव लोके ॥९८४ ॥ केचिनिद्रागताः केचित् कथयन्ति बहिर्गताः। केचिदन्तर्गताः केचित्रो जाने क्व गता इति १ ॥९८५ ॥ बंधनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुदृढबंधनमाहुः। दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रि-निष्क्रियो भवति पंकजकोषे ।।८६। अर्थातुराणां न पिता न बंधुः, कामातुराणां न भयं न लजा। तुधातुराणां न बलं न तेजः,चिंतातुराणां न सुखं न निद्रा ६८७ विशाखांतं गता मेघाः प्रसवांतं हि यौवनम् । प्रणामांतः सतां कोपो याचनांतं हि गौरवम् ।। ९८८ ॥ संग्रामे सुभटेंद्राणां कवीनां कविमंडले । दीप्तिर्वा दीप्तिहानिर्वा मुहूर्तादेव जायते ॥९८९ ॥ मौनं कालविलंबश्च प्रयाणं भूमिदर्शनम् । भृकुव्यन्यमुखी वार्ता नकारः षड्विधः स्मृतः ॥९६० ॥
यत्रात्मीयो जनो नास्ति भेदस्तत्र न विद्यते । . कुठारैर्दैण्डनिमुक्तमिद्यते तरवः कथम् ? ॥६१ ॥ यथा खरश्चंदनभारवाही, भारस्य वेत्ता न तु चंदनस्य । तथा हि विप्रः श्रुतिशास्त्रपूर्णो, ज्ञानेन हीनः पशुभिः समानः९६२ अन्तर्विशति मार्जारी शुनी वा राजवेश्मनि । बहिष्ठस्य गजेन्द्रस्य किमर्थः परिहीयते . ॥९९३ ॥
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(१५०) सद्यः फलति गांधर्व, मासमेकं पुराणकम् । वेदाः फलंति कालेषु, ज्योतिवैद्यं निरंतरम् ॥ ९९४ ॥ सहते शरशतघातानाजानेयः कशा नैव । सहते विपत्सहस्रं मानी नैवापमानलेशमपि ॥६६५ ॥ जानामि नागेन्द्र तव प्रभावं
कण्ठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य । ' स्थानं प्रधानं न बलं प्रधानं
स्थानं स्थितः कापुरुषोऽपि शूरः ॥९९६ ।। सत्सङ्गाद् भवति हि साधुता खलानां,
पंडितसाधूनां न हि खलसंगमात् खलत्वम् । श्रामोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते
मृद्गन्धं न हि कुसुमानि धारयन्ति ॥९९७ ॥ . अजायुद्धमृषिश्राद्धं प्रभाते मेघडम्बरम् । दम्पत्योः कलहश्चैव परिणामे न किंचन ॥885 उत्तमा आत्मना ख्याता पितुः ख्याताश्च मध्यमाः । अधमा मातुलात् ख्याताः श्वशुराचाधमाधमाः ।। ६६६ ।। हस्तादपि न दातव्यं गृहादपि न दीयते । परोपकरणार्थाय वचने किं दरिद्रता ? ॥१००० ॥ निजदोषावृतमनसामतिसुन्दरमेव भाति विपरीतम् । पश्यति पित्तोपहतः शशिशुभ्रं शङ्खमपि पीतम् ॥१००१॥ सुलभाः पुरुषा राजन् , सततं प्रियवादिनः। अप्रियस्य च पथ्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥१००२॥
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( १५१ )
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ १००३ ॥ बालोऽपि चौरः स्थविरोऽपि चौरः, समागतः प्राघुर्णिकोऽपि चौरः । दिल्लीप्रदेशे मथुराप्रदेशे
चौरं विना न प्रसवन्ति नार्यः अर्धमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेचत | विनाश्रयं न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः ।। १००५ ॥ गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः ।
॥ १००४ ॥
11 2008 11
रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव कालो वा कारणं वा राज्ञो राजा वा कालकारणम् । इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणम् ||१००७॥ दृष्ट्वा यतिर्यतिं सद्यो वैद्यो वैद्यं नटं नटः । याचको याचकं दृष्ट्वा श्वानवद् घुघुरायते ॥ १००८ ॥ आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशृंखला | यया बद्धाः प्रधावंति मुक्तास्तिष्ठति पंगुवत् ॥ १००९ ॥ शृगालोऽपि वने कर्ण शशैः परिवृतो वसन् । मन्यते सिंहमात्मानं यावत् सिंहं न पश्यति नमस्कारसहस्रेषु शाकपत्रं न लभ्यते । श्राशीर्वादसहस्रेषु रोमवृद्धिर्न जायते सुभाषितेन गतिन युवतीनां च लीलया । यस्य न द्रवते चित्तं स वै मुक्तोऽथवा पशुः
॥ १०१० ॥
॥ १०१२ ॥
।। १०११ ।।
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(१५२) पणशः कर्णशश्चैव विद्यामर्थं च चिंतयेत् । पणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥१०१३॥ गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा वापि प्रवर्तते । कौँ तत्र पिधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥ १०१४ ॥ तैलाद्रक्षेजलाद्रक्षेद्रक्षेच्छिथिलधनात् । मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥१०१५ ॥ घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात् कुर्याद् वा रासमध्वनिम् । येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् ॥१०१६ ॥ शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्रं स्नानमाचरेत् । लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा हरिं भजेत् ॥ १०१७ ॥ जिह्वे ! प्रमाणं जानीहि भोजने भाषणेऽपि च । अतिभुक्तिरतीवोक्तिः सद्यः प्राणापहारिणी ॥ १०१८ ॥ अनुकूले विधौ देयं यतः पूरयिता प्रभुः ।। प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्व हरिष्यति ॥१०१९ ।। स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखा नराः । इति विज्ञाय मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत् ॥ १०२० ॥ परिचरितव्याः संतो यद्यपि कथयंति नो सदुपदेशम् । यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि ॥१०२१ ॥ युद्धं च प्रातरुत्थानं भोजनं सह बंधुभिः । स्त्रियमापद्गतां रक्षेत् चतुः शिक्षेत कुक्कुटात् ॥ १०२२ ॥ अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणीतरणम् । भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥१०२३ ॥
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हरेः पदाहतिः श्लाघ्या न श्लाघ्यं खररोहणम् । स्पर्धाऽपि विदुषा युक्ता न युक्ता मूर्खमित्रता ॥ १०२४ ॥ दारेषु किंचित् स्वजनेषु किंचिद्
___ गोप्यं वयस्येषु सुतेषु किंचित् । युक्तं न वा युक्तमिदं विचिंत्य
वदेद् विपश्चिन्महतोऽनुरोधात् ॥१०२५ ॥ पठतो नास्ति मूर्खत्वं जपतो नास्ति पातकम् । मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥१०२६॥ ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् । तयोमैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥१०२७ ॥ शनैः पन्थाः शनैः कन्थाः शनैः पर्वतमस्तके। शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः ॥१०२८ n एकस्तपो द्विरध्यायी त्रिभिर्गीतं चतुः पथम् । सप्त पश्च कृषीणां च संग्रामो बहुभिर्जनैः ॥१०२६ ।। श्रुतिविभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना
नैको मुनिर्यस्य वचोप्रमाणम् । धर्मस्य तवं निहितं गुहायां . - महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥१०३० ॥ अन्यैः साकं विरोधेन वयं पश्चोत्तरं शतम् ।
परस्परविरोधेन वयं पञ्च च ते शतम् ॥१०३१ ॥ अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते । छत्तुः पार्श्वगतां छायां नोपसंहरते द्रुमः ॥१०३२॥
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(१५४) यावजीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ? . ॥१०३३ ।। सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः ॥१०३४ ॥ मला तिन्दुकस्येव मुहर्तमपि हि जल। मा तुषाग्निरिवानर्चिधूमायस्व जिजीविषुः ॥१०३५ ॥ निर्वनो बध्यते व्याघ्रो निर्व्याघ्रं छिद्यते वनम् । . तस्माद् व्याघ्रो वनं रक्षेद् वनं व्याघ्रं च पालयेत् ।। १०३६॥ प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यसि ? ॥१०३७ ।। कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम् ।। बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः ॥ १०३८ ॥ कमला कमले शेते हरिः शेते महोदधौ । हरो हिमालये शेते मन्ये मत्कुणशङ्कया ॥१०३६ ।। अस्माकं बदरीचक्रं युष्माकं बदरीतरुः । बादरायणसंबन्धात् यूयं यूयं वयं वयम् ॥१०४० ॥ न स्थातव्यं न गन्तव्यं क्षणमप्यधमैः सह। पयोऽपि शौण्डिनीहस्ते मदिरां मन्यते जनः ॥ १०४१ ॥ इतरपापफलानि यथेच्छया,
वितर तानि सहे चतुरानन । अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं . शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख ॥१०४२॥
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( १५५)
दुर्जेनषितमनसां पुंसां सुजनेऽपि नास्ति विश्वासः। पाणौ पायसदग्धे तक्रं फूत्कृत्य बालकः पिबति ॥१०४३॥ अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरो भवति । मलये भिल्लपुरन्ध्री चन्दनतरुकाष्ठमिन्धनं कुरुते ॥ १०४४॥ असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमंदिरम् । हरो हिमालये शेते हरिः शेते महोदधौ ॥१०४५॥
अगस्तितुल्याश्च घृताब्धिशोषणे
दंभोलितुल्या वटकाद्रिभेदने । शाकावलीकाननवाहिरूपाः
त एव भट्टा इतरे भटाश्च ॥१०४६॥ भो भाद्रपक्ष सकलद्विजकल्पवृक्ष, . क्वास्मान् विहाय गतवानसि देहि वाचम् । डिण्डीरपिण्डपरिपाण्डुरवर्णभाजां, ' लामः कथं त्वयि गते घृतपायसानाम् ॥१०४७॥ इह तुरगशतैः प्रयान्तु मूर्खा:, ___ धनरहिता विबुधाः प्रयान्तु पद्भ्याम् । गिरिशिखरगतापि काकपंक्तिः
पुलिनगर्न समत्वमेति हंसः ॥१०४८ ॥ पीतोऽगस्त्येन तातश्चरणतलहतो वल्लभोऽन्येन रोषाद्,
आबाल्याद् विप्रवः स्ववदनविवरे धारिता वैरिणी मे । गेहं मे छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजानिमित्तं, तस्मात् खिन्ना सदाहं द्विजकुलसदनं नाथ नित्यं त्यजामि ॥
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( १५६ )
॥ १०५१ ॥
- हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात् कृष्ण किमद्भुतम् १. हृदयाद् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ।। १०५० ॥ भकारो कुंभकर्णेऽस्ति भकारोऽस्ति विभीषणे । तयोर्ज्येष्ठे कुलश्रेष्ठे भकारः किं न वर्तते क्वचिद् वीणावाद्यं क्वचिदपि च हाहेति रुदितम् क्वचिद् विद्वद्गोष्ठी कचिद्भि सुरामत्त कलहः । क्वचिद् रम्या रामाः क्वचिदपि गलत्कुष्ठवपुषो न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः १ ॥ १०५२ ॥ काक श्राह्वयते काकान् याचको न तु याचकान् । काकयाचकयोर्मध्ये वरं काको न याचकः ।। १०५३ ।। हस्ती स्थूलतनुः स चाङ्कुशवशः किं हस्तिमात्रोऽङ्कशो वज्रेणाभिहताः पतन्ति गिरयः किं शैलमात्रः पविः । दीपे प्रज्वलिते विनश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः ।। १०५४।। कचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम् कचिच्छाखाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः । क्वचित कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् ॥ १०५५ ॥ अद्यापि दुर्निवारं स्तुतिकन्या वहति कौमारम् । सद्द्भ्यो न रोचते साऽसंतोऽप्यस्यै न रोचन्ते ॥ १०५६॥ वाङ्माधुर्यान्नान्यदस्ति प्रियत्वं
- वाक्पारुष्याच्चोपकारोऽपि नष्टः ।
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( १५७ )
।। १०५७ ।।
किं तद्द्द्रव्यं कोकिलेनोपनीतं को वा लोके गर्दभस्यापराधः ऊर्जा नैष बिभर्ति नैष विषयो दोहस्य वाहस्य वा, तृप्तिर्नास्य महोदरस्य बहुभिर्घासैः पलालैरपि । हा कष्टं कथमस्य पृष्ठशिखरे गोणी समारोप्यते, को गृह्णाति कपर्दकैरिममिति ग्राम्यैर्गजो हास्यते ॥ १०५८ ॥ धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारि जनः श्मशाने । देहचितायां परलोकमार्गे
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः निर्वाणदीपे किमु तैलदानं
चौरे गते वा किमु सावधानम् । • वयोगते किं वनिताविलासः
॥ १०५६ ॥
पयोगते किं खलु सेतुबन्धः इयं सुंदरी मस्तकन्यस्त कुंभा
कुसुंभारुणं चारु चेलं वसाना । समस्तस्य लोकस्य चेतः प्रवृत्तिं
॥ १०६१ ॥
गृहीत्वा घटे न्यस्य यातीव भाति समत्वाकांक्षिणी भार्या विवादे ज्यूरराऽभवत् । स्तन्यार्थे बालको गेहे रोति नाथोऽप्यनाथवत् ॥ १०६२ ॥
चांचल्यमुच्चैःश्रवसस्तुरंगात्, कौटिल्यमिंदोर्विषतो विमोहः ।
॥ १०६० ॥
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(१५८) इति श्रियाऽशिषि सहोदरेभ्यो, ___न वेनि कस्माद् गुणवद्विरोधः ॥१०६३॥ मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालंकारभृतो गतः । सेतुर्येन महोदधौ विरचितः कासौ दशास्यांतकः ? । अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता.दिवं भूपते ! नैकेनापि समं गता वसुमती नूनं त्वया यास्यति ॥१०६४॥
एकेन तिष्ठताऽधस्तादन्येनोपरि तिष्ठता। दात्याचकयोर्भेदः कराभ्यामेव सूचितः ॥१०६५॥ अयश्चणकचर्वणं फणिफणामणेः कर्षणम् ,
करेण करितोलनं जलनिधेः पदा लंघनम् । प्रसुप्तहरिबोधनं निशितखड्गसंस्पर्शनम् । __ कदाचिदपि संभवेन्न कृपणस्य वित्तार्जनम् ॥१०६६॥ ग्रासोद्गलितसिक्थस्य का हानिः करिणो भवेत् । पिपीलिका तु तेनैव सकुटुंबाऽपि जीवति ॥१०६७ ॥ अलंकरोति हि जरा राजामात्यभिषग्यतीन् । विडंबयति पण्यत्रीमल्लगायकसेवकान् ॥१०६८ ॥ दूरस्थाः पर्वता रम्या वेश्या च मुखमंडने । युद्धस्य वार्ता रम्या च त्रीणि रम्याणि दूरतः ॥ १०६९ ॥ अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति । । सकलरसायनमहितो गन्धेनोग्रेण लशुन इव ॥ १०७० ॥ कवयः परितुष्यन्ति नेतरे कविसूक्तिभिः । न बकूपारवत् कूपा वर्धन्ते विधुकान्तिभिः ॥१०७१ ॥
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( १५९ )
।। १०७२ ॥
तवं किमपि काव्यानां जानाति विरलो भुवि । मार्मिकः को मरन्दानामन्तरेण मधुव्रतम् शिला बाला जाता चरणरजसा यत्कुलशिशोः स एवायं सूर्यः सपदि निजपादैर्गिरिशिलाम् । स्पृशन् भूयो भूयो न खलु कुरुते कामपि वधूम् कुले कश्चिद् धन्यः प्रभवति नरः श्लाघ्यमहिमा || १०७३ || तृणादपि लघुस्तूलस्तूलादपि च याचकः । वायुना किं न नीतोऽसौ मामेवं प्रार्थयेदिति ॥ १०७४ ॥ पङ्गो वन्द्यस्त्वमसि न गृहं यासि योऽर्थी परेषां धन्योऽन्ध त्वं धनमदवतां नेचसे यन्मुखानि । श्लाघ्यो मूक त्वमपि कृपणं स्तौषि नार्थाशया यः स्तोतव्यस्त्वं बधिर न गिरं यः खलानां शृणोषि ।। १०७५ ॥ वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च ।। १०७६ ।। शय्या वस्त्रं चन्दनं चारु हास्यं वीणा वाणी सुन्दरी या च नारी । न भ्राजन्ते क्षुत्पिपासातुराणां सर्वारम्भास्तण्डुलप्रस्थमूला: श्रादौ रामतपोवनादिगमनं मायामृगोन्माथनं, वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् । वालिव्याहननं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम् पश्चाद् रावण कुंभकर्णहननं एतद्धि रामायणम् ॥ १०७८॥
॥ १०७७ ॥
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( १६० ) उच्चैरध्ययनं पुरातनकथा स्त्रीभिः सहालापनम् तासामर्थकलालनं पतिनुतिस्तत्पाकमिथ्यास्तुतिः । आदेशस्य करावलम्बनविधिः पाण्डित्यलेखक्रिया होरागारुडमंत्रतंत्रकविधीभिचार्गुणा द्वादश ॥१०७९॥ जटा नेयं वेणीकृतकचकलापो न गरलम्
गले कस्तूरीयं शिरसि शशिलेखा न कुसुमम् । इयं भूतिर्नाङ्गे प्रियविरहजन्मा धवलिमा पुरारातिभ्रान्त्या कुसुमशर किं मां प्रहरसि ? ॥१०८०॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ । परिवाड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥१०८१॥ चते प्रहारा निपतन्त्यमीक्ष्णं
धनक्षये वर्धति जाठराग्निः। आपत्सु वैराणि समुद्भवन्ति
छिद्रेष्वनाःबहुलीभवन्ति ॥१०८२ ॥ अभूत् प्राची पिङ्गा रसपतिरिव प्राश्य कनकम्
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि । क्षणात् क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपरा नदीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः ॥१०८३॥ सौमित्रिर्वदति विभीषणाय लंकां
देहि त्वं भुवनपते विनैव कोशम् । एतस्मिन् रघुपतिराह वाक्यमेतद्
विक्रीते करिणि किमंकुशे विवादः ॥ १०८४ ॥
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( १६१) प्रानन्दतांडवपुरे द्रविडस्य गेहे
चित्रं वसिष्ठवनितासममाज्यपात्रम् । विद्युल्लतेव परिनृत्यति तत्र दर्वी
धारां विलोकयति योगबलेन सिद्धः ॥ १०८५ ॥ नाहं जानामि केयूरे नाहं जामामि कुण्डले । नपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥ १०८६ ।। अस्य मूर्खस्य यागस्य दक्षिणा महिषशितम् । त्वयाधं च मयाधं च विघ्नं मा कुरु पण्डित ! ॥१०८७ ॥ यदि नाम दैवगत्या, जगदसरोजं कदाचिदपि जातम् । प्रवकरनिकरं विकिरति, तत् किं कुकवाकुरिव हंसः ॥१०८८॥ अखिलेषु विहङ्गेषु हन्त स्वच्छन्दचारिषु । शुक पञ्जरबन्धस्ते मधुराणां गिरां फलम्। ॥११८९ ।। स्वस्त्यस्तु विद्रुमवनाय नमो मणिभ्यः ।
कल्याणिनी भवतु मौक्तिकशुक्तिमाला । प्राप्तं मया सकलमेव फलं पयोधे।
यद्दारुणैर्जलचरैन विदारितोऽस्मि कुमुदवनमपति श्रीमदम्भोजखण्डं
त्यजति मुदमुलूका प्रीतिमांश्चक्रवाकः । उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं
हतविधिलसिताना ही विचित्रो विपाकः ॥१०६१॥ मर्कटस्य सुरापानं तस्य वृश्चिकदंशनम् !
तन्मध्ये भूतसंचारो यद्वा तद्वा भविष्यति ॥१०६२।। ໑໑
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( १६२) मार्गे मार्ग निर्मलं ब्रह्मवृन्दं ___ वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवादः। वादे वादे जायते तत्ववोधो
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥१०९३ ।। चिकीर्षिते कर्मणि चक्रपाणे
नापेक्षते तत्र सहायसंपत् । पाञ्चालजायाः पटसंविधाने
मध्येसमं यत्र तुरी न मा ॥१०६४ ॥ पुष्पेषु चम्पा नगरीषु लङ्का |
नदीषु गङ्गा च नृपेषु रामः। योषित्सु रंभा पुरुषेषु विष्णुः
काव्येषु माघः कविकालिदासः ॥ १०९५ ॥ गतास्ते दिवसा राजन् देवाः सेवानुवर्तिनः । दशानन दशां पश्य तरन्ति दृषदोऽम्भसि ॥१०९६।।
अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः । इदं ब्राह्ममिदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ॥१०९७॥ अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥१०९८॥ न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं शिरः । बालोऽपि यः प्रजानाति तं देवाः स्थविरं विदुः॥११९६।। भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थ न वेत्ति यः। यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा ॥ ११०० ॥
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( १६३) तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते
सोऽहं रथी नृपतयो यत पानमन्ति । सर्व क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तम्
भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमृष्याम् ॥ ११०१ ॥ स्त्रीणां स्पर्शात् प्रियंगुर्विकसति बकुल सीधुगण्डूषसेकात् पादाघातादशोकस्तिलककुररको वीक्षणालिंगनाम्याम् । मन्दारो नर्मवाक्यात् पटुमृदुहसनाचम्पको वक्त्रवातात् चूतोगीतानमेरुर्विकसति च पुरो नर्तनात् कर्णिकारः।।११०२ तमाखुपत्रं राजेन्द्र भज भाज्ञानदायकम् ।। तमाखुपत्रं राजेन्द्र भज माज्ञानदायकम् ॥११०३ ॥ रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणामिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः। रामानास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ११०४ ॥ सीताचिन्ताकुले रामे निद्रा निरगमद् रुषा । कथमेकाकिनं जह्याम् , इत्येवं न जहौ निशा ॥११०५ ॥ का को के कं को कान्, हसति हसतो हसन्ति तन्वंग्याः । दृष्ट्वा पल्लवमधरो, पाणी पोच कोरकान् दन्ताः॥११०६।। अकर्णमकरोच्छेषं विधिब्रह्मांडभंगधीः।। श्रुत्वा रामकथां रम्यां शिरः कस्य न कम्पते ॥ ११०७ ॥ सरसो विपरीतश्चेत् सरसत्वं न सुंचति । साक्षरा विपरीताश्चेद् राचसा एव केवलम् ॥११०८ ।।
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( १६४ )
मौखर्य लाघवकरं मौनमुन्नतिकारकम् । मुखरं नूपुरं पादे कंठे हारो विराजते यो वर्तते शुचित्वेन स वैश्वानर उच्यते । यो वर्तते शुचित्वेन स वै श्रा नर उच्यते राजंस्त्वत्कीर्तिचन्द्रेण तिथयः पौर्णिमाः कृताः । मद्गेहान वहिर्याति तिथिरेकादशी भयात् यदि वा याति गोविंदो मथुरातः पुनः सखि । राधाया नयनद्वंदे राधानामविपर्ययः
निद्राप्रियो यः खलु कुंभकर्णो हतः समीके स रघूत्तमेन । वैधव्य मापद्यत तस्य कान्ता
॥ ११०९ ॥
॥ १११० ॥
।। ११११ ।।
-
।। १११२ ।।
॥ १११३ ॥
श्रोतुं समायाति कथां पुराणम् न संध्यां संधत्ते नियमितनिमाजान्न कुरुते नवा मौजीबन्धं कलयति न वा सौनतविधिम् । न रोजा जानीते व्रतमपि हरेर्नैव कुरुते
न काशी मक्का वा शिव शिव न हिंदुर्न यवनः।। १११४ खद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदयते शशी । उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चंद्रमाः ।। १११५ ।। सहसा विदधीत न क्रिया-मविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।। १११६ सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते, घनान्धकारेष्वि दीपदर्शनम् । सुखाच्च यो याति नरो दरिद्रतां धृतः शरीरेण मृतः स जीवति
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॥ १११६ ॥
( १६५ ) चाहने ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणाः कटिबंधने निवाते ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणाः कर्णबंधने । लंघने ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणा लघुभोजने व्यायामे ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणा प्राणधारणे ॥ १११८ ॥ धनुषि धनुराकारः मकरे कुंडलाकृतिः । कुंभे शीतमशीतं वा मीने शीतनिवारणम् मञ्जन्ति मुनयः सर्वे त्वमेकः किं न मजसि । अंबे त्वदर्शनाद् मुक्तिः न जाने स्नानजं फलम् ॥ ११२० ॥ विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च । व्याधितस्योंषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् । शान्तिर्भूषयते विद्यां दानं भूषयते धनम् अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यतिदर्पात् सुयोधनः विनष्टो रावणो लोभादति सर्वत्र वर्जयेत् वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तस्य भोजनम् । वृथा दानं समर्थेभ्यो वृथा दीपो दिवाऽपि च शोभते विद्यया विप्रः चत्रियो विजयेन वै । अर्थः पात्रे प्रदानेन लज्जया च कुलाङ्गना सौवर्णानि सरोजानि निर्मातुं सन्ति शिम्पिनः । तत्र सौरभनिर्माणे चतुरश्चतुराननः प्रदोषे दीपकचन्द्रः प्रभाते दीपको रविः त्रैलोक्ये दीपको धर्मः सुपुत्रः कुलदीपकः
॥ ११२२ ।।
॥ ११२३ ॥
॥ ११२४॥
॥ ११२५ ।।
।। ११२६ ॥
॥ ११२१ ॥
।। ११२७ ।।
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(१६६)
हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् । श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम् ॥११२८॥ नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभरणं गुणः । गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा ॥ ११२९ ॥ आत्मनो मुखदोषेण वध्यन्ते शुकसारिकाः । बकास्तु नैव वध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥ ११३० ॥ महो दुर्जनसंसर्गान्मानहानिः पदे पदे। पावको लोहसङ्गेन मुद्गरैरभिहन्यते ॥ ११३१ ।। एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैः किं शतैरपि । एकश्चन्द्रो जगन्नेत्रं नक्षत्रैः किं प्रयोजनम् ॥११३२ ।। दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः । सस च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः ॥११३३ । अन्नदानं महादानं विद्यादानं महत्तरम् । अन्नन क्षणिका तृप्तिर्यादजीवं तु विद्यया ॥११३४ ॥ कवयः किं न पश्यन्ति किं न खादन्ति वायसाः मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न कुर्वन्ति दुर्जनाः॥११३५॥ जनिता चोपनेता च विद्यायाश्च प्रदायकः । अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः ॥११३६ ॥ पादपानां भयं वातात् पानां शिशिराद् भयम् । पर्वतानां भयं वज्रात् साधूनां दुर्जनाद् भयम् ॥११३७॥ उद्योगः खलु कर्तव्यः फलं मार्जारवद् भवेत् । जन्मप्रभृति गौनास्ति पयः पिबति नित्यशः ॥११३८॥
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(१६७ ) उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥ ११३९ ॥ दरिद्रोऽपि नरो नूनं तमाखुं नैव मुञ्चति । निवारितोऽपि मार्जारस्तमा नैव मुश्चति ॥११४० ॥ धीराणां भूषणं विद्या मन्त्रिणां भूषणं नृपः भूषणं च नयो राज्ञां शीलं सर्वस्य भूषणम् ॥ ११४१ ।। पण्डिते हि गुणाः सर्वे मूर्खे दोषाश्च केवलम् । तस्मान्मूर्खसहस्रेभ्यः प्राज्ञ एको विशिष्यते ॥११४२ ॥ उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् ॥११४३॥ वित्ते त्यागः क्षमा शक्तौ दुःखे दैन्वविहीनता । निर्दम्भता सदाचारे स्वभावोऽयं महात्मनाम् ॥ ११४४॥ सर्पदुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः । सर्पो दशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ॥११४५ ॥ खलः करोति दुर्वृत्तं नूनं फलति साधुषु । दशाननोऽहरत् सीतां बन्धं प्राप्तो महोदधिः ॥ ११४६ ॥ यथाऽऽमिषं जले मत्स्यैर्भक्ष्यते श्वापदैः स्थले । आकाशे विहगैश्चैव तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥११४७ ॥ जायते नरकः पापात् पापं दारिद्यसम्भवम् । दारिद्यमप्रदानेन तस्माद् दानपरो भव ॥११४८ ॥ दारिद्रान् भर कौन्तेय मा यच्छ प्रभवे धनम् । व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषधैः ॥११४६ ॥
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(१६८) मातरं पितरं पुत्रं भ्रातरं बान्धवानपि । लोभाविष्टो नरो हन्ति स्वामिनं वा सुहृत्तमम् ॥ ११५० ॥ निर्विषेणापि सर्पण कर्तव्या महती फटा। विषं भवतु वा मा वा फटाटोपो भयङ्करः ॥११५१ ॥ नष्टं नैव मृतं चैव नानुशोचन्ति पण्डिताः । पण्डितानां जडानां च विशेषोऽयमतः स्मृतः ॥११५२ ॥ धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तथैव च । . पञ्च यत्र न विद्यन्ते मा तत्र दिवसं वस ॥११५३ ॥ ऋणशेषोऽग्निशषश्च शत्रुशेषस्तथैव च। पुनः पुनः प्रवर्तन्ते तस्माछेषं विनाशय ॥११५४ ॥ सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्यधं त्यजति पण्डितः। अर्धेन कुरुते कार्य सर्वनाशः सुदुःसहः ॥११५५ ॥ षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।। निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध श्रालस्यं दीर्घसूत्रता ॥ ११५६ ॥ विद्या विनयोपेता, हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । काश्चनमणिसंयोगो, नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ।।११५७ इच्छति शती सहस्र, ससहस्रः कोटिमीहते कर्तुम् । कोटियुतोऽपि नृपत्वं, नृपोऽपि बत चक्रवर्तित्वम् ॥ ११५८ ॥ अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं
दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं
तदपि न मुश्चत्याशापिण्डम् ॥११५६ ।।
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( १६९) विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः। परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥११६०॥ लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रजायते । लोमान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ॥११६१॥ चमा बलमशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा । क्षमया जीयते लोकः क्षमया किं न सिद्ध्यति ।। ११६२ ॥ दुर्बलस्य बलं राजा बालानां रोदनं बलम् । बलं मूर्खस्य मौनित्वं चौराणामनृतं बलम् ॥११६३ ॥ उपकारः परो धर्मः परार्थकर्म नैपुणम् । पात्रदानं परं सौख्यं परो मोक्षो वितृष्णता ॥ ११६४ ॥ दुर्मन्त्री राज्यनाशाय ग्रामनाशाय कुञ्जरः । श्यालको गृहनाशाय सर्वनाशाय दुर्जनः ॥११६५ ॥ उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम् । विरक्तस्य तृणं भार्या निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥११६६ ॥ जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दनः । जनकः पञ्चमश्चैव जझाराः पञ्च दुर्लभाः ॥११६७ ॥ सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः । सत्येन वहते वायुः सत्यं सर्वस्य कारणम् ॥११६८ ॥ किं कुलेन विशालेन शीलमेवात्र कारणम्।। कृमयः किं न जायन्ते कुसुमेषु सुगन्धिषु ॥११६९ ॥ कुस्थानस्य प्रवेशेन गुणवानपि पीड्यते । वैश्वानरोऽपि लोहस्थोऽयस्कारैरभिहन्यते
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( १७० )
॥ ११७१ ॥
॥ ११७३ ॥
॥ ११७४ ॥
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधुसमागमः शुचित्वं त्यागिता शौर्य समत्वं सुखदुःखयोः । दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः ॥ ११७२ ॥ एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना । दाते काननं सर्व दुष्पुत्रेण कुलं तथा नास्ति क्षुधासमं दुःखं क्षुधा प्राणापहारिणी । नास्त्याहारसमं सौख्यमाहारः प्राणरक्षकः मद्यपस्य कुतः सत्यं दया मांसाशिनः कुतः | अलसस्य कुतो विद्या निर्धनस्य कुतः सुखम् ॥ ११७५ ।। सर्पाणां च खलानां च परद्रव्यापहारिणाम् । मनोरथा न सिध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत् नास्ति विद्यासमं नेत्रं नास्ति सत्यसमं तपः । नास्ति लोभसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ११७७॥ पण्डिते चैव मूर्खे च बलवत्यबलेऽपि च । सघने निर्धने चैव मृत्योः सर्वत्र तुल्यता मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । श्रात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ॥ ११७३ ॥ राजपत्नी गुरोः पत्नी भ्रातृपत्नी तथैव च ।
॥ ११७६ ॥
॥ ११७८ ॥
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैता मातरः स्मृताः ॥ ११८० ॥ ज्ञातिभिर्भज्यते नैव चौरेणापि न नीयते । दानेन न चयं याति विद्यारत्नं महाधनम्
॥ ११८१ ॥
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(१७१)
पिपीलिकार्जितं धान्यं मक्षिकासश्चितं मधु । लुब्धेन सश्चितं द्रव्यं समूलं वै विनश्यति ॥११८२ ॥ विवेकः सह सम्पच्या विनयो विद्यया सह । प्रभुत्वं प्रश्रयोपेतं चिह्नमेतन्महात्मनाम् ॥११८३ ॥ सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सात् क्रूरतरः खलः । मन्त्रेण सान्त्व्य ते सर्पः खलस्तु न कथंचन ॥ ११८४ ।। प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता ॥११८५ ॥ गौरवं प्राप्यते दानान तु वित्तस्य सञ्चयात् । स्थितिरुच्चैः पयोदानां पयोधीनामधः स्थितिः ॥११८६॥ गीतशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥१९८७ ॥ यस्मिन् देशे न सम्मानो न प्रीतिनं च बान्धवाः । न च विद्यागमः शक्यो मा तत्र दिवसं वस ॥११८८ ॥ अतिसञ्चयकर्तृणां विचमन्यस्य हेतवे । मन्यैः सञ्चीयते यत्नादन्यैश्च मधु पीयते ॥११८९ ॥ च्युता दन्ताः सिता केशा दृष्टिरोधः पदे पदे। क्षीणं जीर्णमिमं देहं तृष्णा नूनं न मुश्चति ॥ ११९० ॥ गुणवजनसम्पर्काद् याति नीचोऽपि गौरवम् । पुष्पाणामनुषङ्गेण सूत्रं शिरसि धार्यते ॥११९१ ॥ गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृवंशो निरर्थकः । वासुदेवं नमस्यन्ति वसुदेवं न मानवाः ॥११९२ ॥
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(१७२) उद्यमः साहसं धैर्य बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः। एतानि यत्र वर्तन्ते तत्र देवः प्रसीदति ॥११९३ ।। आरोग्यं विद्वत्ता, सज्जन मैत्री महाकुले जन्म । स्वाधीनता नराणां, महदैश्वर्य विनाप्यर्थैः ॥ ११९४ ॥ गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निबलः । पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥ ११९५ ॥ सत्यं तपो ज्ञानमहिंसतां च
वृद्धप्रणामं च सुशीलतां च । एतानि यो धारयते स विद्वान्
न केवलं वेदविदेव विद्वान् ॥ ११९६ ॥ परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः। परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥११६७ ॥ पुस्तकं येन नाधीतं नाघीतं गुरुसनिधौ । सभायां शोभते नैव हंसमध्ये बको यथा ॥११९८ ॥ स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य स जीवति । गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम् ॥ ११९९ ॥ चाण्डालश्च दरिद्रश्च जनावेतौ समाविह । चाण्डालस्य न गृह्णन्ति दरिद्रो न प्रयच्छति ॥ १२००॥
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( १७३) तीक्ष्णधारेण खड्न वरं जिह्वा द्विधा कृता। न तु मानं परित्यज्य देहि देहीति भाषणम् ॥१२०१ ॥ उपकर्तुं यथा स्वल्पः समर्थो न तथा महान् । प्रायः कूपस्तृषां हन्ति न कदापि तु वारिधिः ॥१२०२॥ सुखार्थी च त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम् । सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥ १२०३ ॥ मात्मार्थ जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थ यो जीवति स जीवति ॥१२०४ ॥ बहूनामन्पसाराणां समवायो दुरत्ययः । तृणैर्विधीयते रज्जुर्बध्यन्ते दन्तिनस्तया ॥१२०५॥ महाजनस्य संसर्गः कस्य नोनतिकारकः । पनपत्रस्थितं वारि धत्ते मुक्ताफलाश्रयम् ॥१२०६ ॥ काचः काञ्चनसंसर्गाद् धत्ते मारकती द्युतिम् । तथा सङ्गेन विदुषां मूर्यो याति प्रवीणताम् ॥१२०७ ।। निष्णातोऽपि हि वेदान्ते साधुत्वं याति नो खलः । चिरं जलनिधौ मग्नो मैनाक इव मार्दवम् ॥१२०८ ।। प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किं नु सत्पुरुषैरिति ॥१२०९ ॥ चिन्तनीया हि विपदामादावेव प्रतिक्रियाः। न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वतिना गृहे ॥१२१०॥
१ 'पुरुषः' इति शेषः ।
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( १७४) मर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।। वञ्चनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत् ॥ १२११ ॥ सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत सङ्गतिम् ।। सद्भिर्विवादं मैत्री च नासद्भिः किञ्चिदाचरेत् ॥ १२१२ ।। जानन्ति पशवो गन्धाद् वेदाजानन्ति पण्डिताः। चरैर्जानन्ति राजानो नेत्राभ्यामितरे जनाः ॥ १२१३ ॥ सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो निर्वृतिर्यतः। तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीव्यते ॥१२१४ ॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके न भूतो न भविष्यतः। प्रार्थितं यश्च कुरुते यश्च नार्थयते परम् ॥१२१५ ।। वेपथुमलिनं वक्त्रं दीना वाग् गद्गदस्वरः। . भरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥ १२१६ ।। न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति । अतः श्व:करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान् ॥१२१७ ॥ निःसारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् ।। न सुवर्णाद् ध्वनिस्तादृग् यादृक् कांस्यात् प्रजायते॥१२१८॥ सा श्रीर्या न मदं कुर्यात् तन्मित्रं यत् सदा समम् । स सुखी यो वितृष्णश्च स नरो यो जितेन्द्रियः ॥ १२१६ ।। गुरुशुश्रूषया विद्या प्राप्यते द्रविणेन वा । अथवा विद्यया विद्या न दृष्टं साधनान्तरम् ॥१२२० । यावत् स्वस्थो ह्यसौ देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः । वावदात्महितं कुर्याः प्राणान्ते किं करिष्यसि ॥१२२१ ।।
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( १७५)
कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् । को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ॥ १२२२ ॥ स्थान एव नियोज्यन्ते भृत्याश्चाभरणानि च । न हि चूडामणिः पादे नू पुरं मूनि धार्यते ॥ १२२३ ॥ न यस्य चेष्टितं विद्यान्न कुलं न पराक्रमम् । विश्वस्यात् तत्र न प्राज्ञो यदीच्छेच्छ्रेय आत्मनः ॥१२२४॥ सद्भिः सम्बोध्यमानोऽपि दुरात्मा पापपूरुषः । घृष्यमाण इवाङ्गारो निर्मलत्वं न गच्छति ॥१२२५ ॥ गुणानामन्तरं प्रायस्तज्झो जानाति नेतरः। मालतीमल्लिकामोदं घ्राणं वेत्ति न लोचनम् ॥१२२६ ॥ सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदरपूरणे । शुकोऽप्यशनमामोति राम रामेति वै ब्रुवन् ॥१२२७॥ विदुषां वदनाद् बाचः सहसा यान्ति नो बहिः । याताश्चेन्न पराश्चन्ति द्विरदानां रदा इव ॥१२२८ ॥ उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमने तथा । सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥१२२९ ॥ श्लोको वै श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः । लकारो लुप्यते तत्र यत्र तिष्ठन्त्यसाधवः ॥१२३० ॥ सजना एव साधूनां प्रथयन्ति गुणोत्करम् । पुष्पाणां सौरमं प्रायस्तनुते दिक्षु मारुतः ॥१२३१ ॥
१ तत्र शोको भवति, इत्यर्थः
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( १७६ ) यथा गजपतिः श्रान्तश्छायार्थी वृत्तमाश्रितः विश्रम्य तं द्रुमं हन्ति तथा नीचः स्वमाश्रयम् ॥१२३२॥ युध्यन्ते पक्षिपशवः पठन्ति शुकसारिकाः । दातुं शक्नोति यो वित्तं स शूरः स च पण्डितः॥१२३३ ।।
युधिष्ठिरो यक्ष प्रति ब्रूते- . . पञ्चमेऽहनि वा षष्ठे शाकं पचति यो गृहम् । अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ॥१३३४ ।। एकचक्रो रथो यन्ता विकलो विषमा हयाः । माक्रामत्येव तेजस्वी तथाप्यर्को नमस्तलम् ॥ १२३५ ॥ गुणैर्गौरवमायाति न महत्याऽपि सम्पदा । पूर्णेन्दुर्न तथा वन्द्यो निष्कलङ्को यथा कृशः ॥१२३६ ॥ प्रभुमिः पूज्यते लोके कलैव न कुलीनता । कलावान् धार्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शम्भुना ॥१२३७ ।। अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्राद् हि सत्यमेव विशिष्यते ॥१२३८ ।। किं कुलेनोपदिष्टेने शीलमेवात्र कारणम् । भवन्ति सुतरा स्फीताः सुक्षेत्रे कण्टकिद्रुमाः ॥ १२३६ ॥ भद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा । अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतद् विदुर्बुधाः ॥१२४० ।।
. १ हे यक्ष । २ . किं कुलस्य कथनेन ' इत्यर्थः ।
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( १७७)
परोचे हन्ति यत् कार्य प्रत्यक्षे भाषते प्रियम् । वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥ १२४१ ॥ पिबन्ति मधु पद्धेषु भृङ्गाः केसरधूसराः। हंसाः शैवालमश्नन्ति धिग् दैवमसमञ्जसम् ॥१२४२ ॥ सेवया धनमिच्छद्भिः सेवकैः पश्य किं कृतम् । स्वातन्त्र्यं यच्छरीरस्य मूडैस्तदपि हारितम् ॥१२४३ ॥ यश्च सञ्चरते देशान् सेवते यश्च पण्डितान् ।। तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥ १२४४ ॥ छिनोऽपि रोहति तरु-श्चन्द्रः क्षीणोऽपि वर्धते लोके । इति विमृशन्तः सन्तः, सन्तप्यन्ते न लोकेऽस्मिन् ॥१२४॥ रत्नाकरः किं कुरुते स्वरत्नैर्विन्ध्याचलः किं करिभिः करोति । श्रीखण्डवृक्षैर्मलयाचलः किं, परोपकाराय सतां विभूतयः।४६ चार जलं वारिसुचः पिबन्ति
तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति । सन्तस्तथा दुर्जनदुर्वचांसि
श्रुत्वा हि सूक्तानि सदा वदन्ति ॥१२४७॥ याचना हि पुरुषस्य महत्त्वं,
नाशयत्यखिलमेव तथाहि । सद्य एव भगवानपि विष्णु
वोमनो भवति याचितुमिच्छन् ॥१२४८ ॥
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( १७८) पापानिवारयति योजयते हिताय,
गुह्यानि गृहति गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥१२४९ ॥ मातेव रक्षति पितेव हिते नियुते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् । लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥ १२५०॥ वासो वल्कलमास्तरः किसलयान्योकस्तरूणां तलं
मूलानि पतये नुधो गिरिनदीतोयं वृषाशान्तये। . क्रीडा मुग्धमृगैर्वयांसि सुहृदो नक्तं प्रदीपः शशी स्वाधीने विभवेऽपि हन्त कृपणा याचन्त इत्यद्भुतम् ॥१२५१।
यो नात्मजे न च गुरौ न च भृत्यवर्गे ____दीने दयां न कुरुते न च बन्धुवर्गे । किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके
___ काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुते ॥१२५२॥ हर्तन गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।। कन्पान्तेऽपि न सा नश्येत् किमन्यद् विद्यया समम् ॥१२५३ केचिदज्ञानतो नष्टाः केचिन्नष्टाः प्रमादतः । केचिज्ज्ञानावलेपेन केचिद् दुष्टैश्च नाशिताः ॥१२५४ ॥ को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः । मृदङ्गो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम् ॥१२५५ ।।
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(१७९)
दुर्जनेन समं सख्यं मा कुरुष्व कदाचन ।
।। १२५८ ।।
उष्णो दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते करम् ।। १२५६ ।। यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः || १२५७॥ कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति परोपकारशून्यस्य धिङ् मनुष्यस्य जीवितम् । जीवन्तु पशवो येषां चर्माऽप्युपकरिष्यति विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलम्बते । प्रासादसिंहवत् तस्य मूर्ध्नि तिष्ठन्ति वायसाः ॥ १२६० ॥ चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमाः । साधुसङ्गतिरेताभ्यां नूनं शीततरा स्मृता
।। १२५९ ।।
॥ १२६१ ॥
यस्य मित्रेण सम्भाषा यस्य मित्रेण संस्थितिः । मित्रेण सह यो भुङ्क्ते स मतः पुण्यवान् बुधैः ॥ १२६२ ॥ वाणी रसवती यस्य भार्या प्रेमवती सती ।
लक्ष्मीर्दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥ १२६३ ॥
सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि । प्रतिकूलेषु भाग्येषु त्यजन्ति स्वजनं खलु
॥। १२६४ ॥
क्षमापरं तपो नास्ति न सन्तोषात् परं सुखम् न च लोभात् परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ।। १२६५ ।।
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( १८०)
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्याथै कुलं त्यजेत् । . ग्रामं जनपदस्यार्थे ह्यात्मार्थे च महीं त्यजेत् ॥ १२६६ ।। स्पृशनपि गजो हन्ति जिघ्रनपि भुजङ्गमः ।। इसमपि नृपो हन्ति मानयत्नपि दुर्जनः ॥ १२६७ ।। चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्यन्येन पण्डितः। नासमीक्ष्य परं स्थानं पूर्वमायतनं त्यजेत् ॥.१२६८ ॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके सुखिनौ न कदाचन । यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥ १२६९ ॥ वनानि दहतो वहेः सखा भवति मारुतः।। स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम् ॥ १२७० ॥ परोऽपि हितवान् बन्धुर्वन्धुरप्यहितः परः । अहितो देहजो व्याधिर्हितमारण्यमौषधम् ॥१२७१ ॥ एकस्य कर्म संवीक्ष्य करोत्यन्योऽपि गर्हितम् । गतानुगतिका लोका न लोकास्तत्वदर्शिनः ॥ १२७२ ॥ कुसुमानां यथा हृचं सारं गृह्णाति षट्पदः । सारं तथैव गृह्णाति शास्त्राणां खलु पण्डितः ॥१२७३॥ मनसा चिन्तितं कार्य वचसा न प्रकाशयेत् । अन्यलक्षितकार्यस्य यतः सिद्धिर्न जायते ॥१२७४ ॥ पुस्तकस्था हि या विद्या धनं यद् वान्यहस्तगम् । नोपकुर्याजनस्येह कार्यकाले समुत्थिते ॥१२७५॥
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( १८१ )
।। १२७६ ।
भये महति हर्षे वा सम्प्राप्ते यो विचिन्तयेत् कृत्यं न कुरुते वेगान्न स सन्तापमाप्नुयात् आपन्नाशाय विबुधैः कर्तव्याः सुहृदोऽमलाः । न तरत्यापदं कश्चिद् योऽत्र मित्रविवर्जितः ।। १२७७ ।। यः पृष्ट्वा कुरुते कार्य प्रष्टव्यान् स्वान् हितान् गुरून् । न तस्य जायते विघ्नः कस्मिंश्चिदपि कर्मणि ॥ १२७८ ॥ दुर्जनो जीयते युक्त्या विग्रहेण न धीमता । निपात्यते महावृक्षस्तत्समीपचितिक्षयात् किं कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिनः । अकुलीनोऽपि विद्यावान् विबुधैरपि पूज्यते यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः । चित्ते वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता स्वभावं नैव मुञ्चन्ति सन्तः संसर्गतोऽसताम् । न त्यजन्ति रुतं मञ्जु काकसम्पर्कतः पिकाः ॥ १२८२ ॥
॥ १२७९ ॥
।। १२८० ॥
।। १२८१ ।।
यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सज्जनः | तथा पराऽपकारेषु नित्यं जागर्ति दुर्जनः
1
।। १२८३ ॥
लोभाविष्टो नरो वित्तं वीक्षते न स आपदम् । दुग्धं पश्यति मार्जारो यथा न लगुडाइतिम् ॥ १२८४ ॥
जानीयात् सङ्गरे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनागमे । आपत्कालेषु मित्राणि भार्यां च विभवक्षये
॥ १२८५ ॥
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( १८२) देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्च देवताः । मुखानिर्गत्य गच्छन्ति श्रीहीधीधृतिकीर्तयः ॥१२८६ ॥ यस्य नास्ति विवेको वै केवलं यो बहुश्रुतः। न स जानाति शास्त्रार्थान् दर्वी पाकरसानिव ॥ १२८७ ॥. चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा वैद्यो' विस्मयमागतः । नाहं गतो न मे भ्राता कस्येदं हस्तलाघवम् ॥१२८८ ।। नालिकेरसमाना हि दृश्यन्ते खलु सजनाः। अन्ये बदरिकातुल्या बहिरेव मनोहराः ॥१२८९ ।। त्याग एको गुणः श्लाध्यः किमन्यैर्गुणराशिभिः । त्यागाजगति पूज्यन्ते नूनं वारिदपादपाः ॥१२९० ॥ दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै । स लोहकारभस्नेव श्वसनपि न जीवति ॥ १२६१ ॥ कुसुमस्तबकस्येव द्वे गतीह मनस्विनः। मूनि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा ॥ १२६२ ॥ गुणेन स्पृहणीयः स्यान रूपेण पुनर्जनः। गन्धहीनं न गृह्णाति पुष्पं कान्तमपीह नो ॥१२६३ ॥ योजनानां सहस्रं वै शनैर्गच्छेत पिपीलिका । अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति ॥१२६४ ॥ नाऽसत्यवादिनः सख्यं न पुण्यं न यशो भुवि । दृश्यते नापि कल्याणं कालकूटमिवाश्नतः ॥१२६५ ।।
.१ 'कुवैद्यः' इत्यर्थः । २ मनुष्यः ।
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(१८३) यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः। वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्नात्युपानहम् ।। १२६६॥ न मातरि न दारेषु न सोदर्ये न चात्मनि ।। विश्वासस्तादृशो नृणां यादृङ् मित्रे हितैषिणि ॥ १२६७ ॥ शिरसा धार्यते सोमो नीलकण्ठेन सर्वदा । तथापि कृशतां याति कष्टः खलु पराश्रयः ॥ १२६८ ॥ वैकन्यं धरणीपातमयथोचितजल्पनम् । सन्निपातस्य चिह्नानि मद्यं सर्वाणि दर्शयेत् ॥१२६९॥ किमत्र चित्रं यत् सन्तः परानुग्रहतत्पराः। न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः ॥१३०० ॥ रक्तत्वं कमलानां, सत्पुरुषाणां परोपकारित्वम् । असतांच निर्दयत्वं, स्वभावसिद्धं त्रिषु त्रितयम् ॥ १३०१॥ अमृतं किरति हिमांशु-विषमेव फणी समुद्भिरति । गुणमेव वक्ति साधु-र्दोषमसाधुः प्रकाशयति ॥ १३०२॥ अर्थी करोति दैन्यं, लब्धार्थो गर्वमपरितोषं च । नष्टधनोऽस्ति सशोकः सुखमास्ते नि:स्पृहः पुरुषः॥१३०३॥ गुणवन्तः क्रिश्यन्ते, प्रायेण भवन्ति निर्गुणाः सुखिनः । बन्धनमायान्ति शुका, यथेष्टसञ्चारिणः काकाः ॥ १३०४ ॥ न पण्डिताः साहसिका भवन्ति,
श्रुत्वाऽपि ते सन्तुलयन्ति तत्वम् ।
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( १८४ ) तत्त्वं समाधाय समाचरन्ति, ____ स्वार्थ प्रकुर्वन्ति परस्य चार्थम् ॥१३०५ ॥ मुक्ताफलैः किं मृगपक्षिणां च,
मिष्टानपानेन च किं खराणाम् । अन्धस्य दीपेन च कोऽस्ति हेतु
गीतेन कोऽर्थों बधिरस्य चापि ॥ १३०६॥ दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या
चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय । परोपकाराय वांसि यस्य ।
वन्द्यस्त्रिलोकीतिलकः स एव ।। १३०७॥ भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमै--
वाम्बवो भूरिविलम्बिनो घनाः। अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः,
स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥ १३०८॥ कन्पद्रुमः कल्पितमेव सूते,
गौः कामधुक् कामितमेव दोग्धि । चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते,
सतां तु सङ्गः सकलं प्रसूते ॥१३०६ ॥ जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं ___ मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति .. सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ १३१० ॥
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(१८५) चित्ते भ्रान्तिर्जायत मद्यपानाद्
भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गतिं याति मूढ__ स्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयम् ॥१३११ ॥ ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो । ज्ञानस्योपशमः कुलस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ।। अक्रोधस्तपसः क्षमा बलवतां धर्मस्य निर्व्याजता । सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥१३१२ ॥ सन्ति स्वादुफला वनेषु तरवः स्वच्छं पयो नैझरं । वासो वन्कलमाश्रयो गिरिगुहा शय्या लतावल्लरी ॥ . पालोकाय निशासु चन्द्रकिरणाः सख्यं कुरङ्गः सह । स्वाधीने विभवेऽप्यहो धनपति सेवन्त इत्यद्भुतम् ।।१३१३॥ केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्वला। न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कता मूर्धजाः ॥ वाण्येका समलङ्करोति पुरुष या संस्कृता धार्यते । क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।।१३१४॥ ब्रह्मचारी का कामदेव को उपालम्भकाम ! जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१३१५॥ नारकीयों को कैसा दुःख है ? श्रवणलवनं नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं,
हृदयदहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षणदारुणम् ।
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( १८६) कटविदहनं तीक्ष्णापातत्रिशूलविभेदनं,
दहनवदनैः कर्पोरैः समन्तविभक्षणम् ॥१३१६।। तीक्ष्णैरसिमिर्दीप्तैः, कुन्तैर्विषमैः परश्वधैश्चकैः।। परशु-त्रिशूल-मुद्गर-तोमर-वासी-मुषण्दीभिः ॥१३१७।। संभिन्नतालुशिरस-छिन्नभुजाश्छिन्नकर्णनासौष्ठाः । भिन्नहृदयोदरान्त्रा, भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्ताः ॥१३१८॥ निपतन्त उत्पतन्तो, विचेष्टमाना महीतले दीनाः। . नेक्षन्ते त्रातारं, नैरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥१३१९॥ छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, ..
क्रन्दन्तो विषवृश्चिकैः परिवृताः संभक्षणव्यापृतैः। . पाट्यन्ते क्रकचेन दारुवदसिना प्रच्छिन्नबाहुद्वया, कुम्भीषु त्रपुपानदग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥१३२०॥ भृज्ज्यन्ते ज्वलदम्बरीषहुतभुगज्वालाभिराराविणो,
दीप्ताङ्गारनिभेषु वज्रभवनेष्वङ्गारकेस्थिताः। दह्यन्ते विकृतोर्ध्वबाहुवदनाः क्रन्दन्त आर्तस्वना, पश्यन्तः कुपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेत्।।१३२१॥ पीतनीरस्य किं नाम मंदिरादिकपृच्छया। कृतौरस्य वा पुंसः किं नक्षत्रपरीचया ॥१३२२॥ कौलमतावलम्बियों की कपटपटुताअन्तः शाक्ता बहिः शैवाः, सभामध्ये च वैष्णवाः । नानारूपधराः कौला, विचरन्ति महीतले ॥१३२३॥
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(१८७) पश्चाशत्पञ्चवर्षाणि, पञ्च मासा दिनत्रयम् । भोजराजेन भोक्तव्यं, सगौडं दक्षिणापथम् ॥१३२४॥ उभे मूत्रपुरीषे च दिवा कुर्याद् उदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चायुन हीयते ॥१३२॥ वीरिएणं तु जीवस्स समुच्छलिएण गोयमा । जम्मंतरकए पावे, पाणी महुत्तेण निद्दहे ॥१३२६॥ जीभीमें अमृत वसे, विष भी उसके पास । एक बोले कोडी गुण, एक बोले कोडी विनास ॥१३२७।। तित्थभरा गणहारी, सुरवहणो चक्की केसवा रामा । संहरिया कालेणं, अवरमणुप्राण का वत्ता ॥१३२८॥ तिणि सल्ला महाराय ! मस्सि देहे पइट्ठिया । वायमुत्तपुरीसाणं पत्तवेगं न धारए
॥१३२९॥ कार्येषु का वचनेषु कुत्ती, भोजेषु डंका सदा हि क्रोधी। दया रहिता च कलहकारी,षड्गुण भार्या कुल नाशयंति।१३३०। एगा हिरण्णकोडी, अद्वैव य नुणगा सयसहस्सा । सूरोदयमाइभं, दिज्जइ जा पाउरासाभो ॥१३३१॥ तिमेव य कोडिसया, अट्ठासीअं च हुंति कोडीभो । प्रसिधं च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिनं । ॥१३३२।। निम्बो वातहरः कलौ सुरतरुः शाखाप्रशाखाकुला, पित्तघ्नः कृमिनाशनः कफहरो दुर्गन्धनिर्नाशनः । कुष्ठव्याधिविषापहो व्रणहरो द्राक् पाचनः शोधना, बालानां हितकारको विजयते निम्बाय तस्मै नमः॥१३३३॥
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( १८८ )
यच्चन्तितं तदिह दूरतरं प्रयाति, यच्चेतसाऽपि न कृतं तदिहाऽभ्युपैति । प्रातर्भवामि भुवनेश्वर चक्रवर्ती
सोsहं व्रजामि विपिने जटिले तपस्वी
I
घर घर बाजा न बजे, कहत पुकार पुकार प्रभु विसारे पसु भये, पडत चाम पर मार कृपण कोथली श्वान भग, दोनों एक समान | घालत ही सुख उपजे, नीकलत निकसे प्राण वसीकरण यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर । तुलसी मीठे बोलसे, सुख उपजे चउ ओर ये गायन में बडे, तुं गायनमें परवीण । ये ग्राहक कडवीणके, तु ले बेठा कर वीण जबराईका पेंडा न्यारा, कोइ मत मानो रीस । सब देवता सीस पूजावे, लिंग पूजावे ईश
॥ १३३४॥
।। १३३५॥
॥१३३६॥
॥ १३३७॥
॥१३३८ ॥
॥१३३९॥
भंग वेची थी जा दीना, भूरखा वेचा था ता दिना । खबर पडेगी ता दीना, रंगरोट कटेगो जा दिना ॥ १३४० ॥ जिसका काम तिसको छाजे, ओर करे तो लाठी वाजे । कुकर ठोडे गद्धा पोकारे, लाठी लेह करी धोबी मारे || १३४१ ॥
मठो घोरी ठोठ गुरु, कूवे तो खारो नीर । गामको ठाकुर घरकी घरनी, पांचो दहे सरीर ॥१३४२॥
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(१८९ ) अवगुण ढंके गुण लहे, न वदे निठुर वान । मानस रूपे देवता, निर्मल गुणनी खान ॥१३४३॥ घर नहि तो मठ बनाया, धंधा नहि तो फेरी । बेटा नहि तो चेला मुंडा, ऐसी माया गेरी ॥१३४४ ॥ ओछे नरके उदरमें, न रहे मोटी बात। आध सेर के पात्रमें, कैसे सेर समात ॥१३४५ ॥ समकित श्रद्धा अंक हे, और अंक सब शून्य । । अंक जतन कर राखिये, शून्य शून्य दस गुण ॥ १३४६ ॥ हितकर मूढ रीझाइये, अति हित पंडित लोक । अर्ध दगध जड जीवको, विधव रिझावत जोग ॥ १३४७ ॥ नयन श्रवण अरु नासिका, कर नहि करत करो। सुत वनिता परिवार को, अचरज कीसो रह्यो ॥ १३४८ ॥ जब तक तेरे पुन्यका, और पता नहि करार । तब लग गुणा माफ हे, अवगुण करो हजार ॥ १३४९ ॥ पापी दृष्टि जीवने, धर्म वचन न सुहाय । के ऊंचे के लडपडे के उठके घर जाय ॥१३५० ॥ नारी कपटकी कोथली नारी कपटकी खान । जे नारीके वस पड्या, ते न तो संसार ॥१३५१॥ धर्म करत संसार सुख, धर्म करत नव निध । धर्म पंथ साधन विना, नर तिर्यच समान ॥१३५२ ॥
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(१९०) फूट नाशका मूल हे, फूट मत करो कोय । . फूट पडी नृप हिंदमें दीयो देशको खोय ॥१३५३ ॥ दमयंती नल नरवरे, राणी तजी निरधार ।। पांडव पांचाली तजी, ए जूवारी भाचार . ॥१३५४ ॥ जूवारी घर ऋघडी, माकड कंठे हार । घेली माथे बेडलो, रहे केटली बार ॥१३५५ ॥ राजाके घर रातिजो, भाभज विना न होय । जो सुवे साचे कहे, तो मेनाकी गत होय ॥ १३५६ ॥ पंडित भये मसालची, वातां करे बनाई।
औरन को उजलो करे, आप अंधेरे जाई ॥ १३५७ ॥ रांड गुरु पैसा परमेश्वर, छोरा छोरी साध । तीरथ हमारे कोन करे, घरमें ही वैराग ॥१३५८ ॥ सासु तीरथ ससरा तीरथ, आधा तीरथ साली । मावाप को लातज मारु, सब तीरथ घरवाली ॥ १३५९ ॥ जे माणस जेणी परे, समजे धर्मनो सार । पंडित जन तेनी परे, समजावे निरधार ॥१३६० ॥ जिन प्रतिमा पूजी नहि, धर्यों जो मनमें द्वेष । सो नर मर कर कुता भया, झालर वेरा देख ॥ १३६१ ॥ कर मरोडे चुडीया तिडे, रे मूर्ख मणियार । अपने पियुके कर विना, कभी न करूं सीसकार ॥ १३६२ ॥
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( १९१)
सुभाषितसंग्रहान्तर्गतश्लोकानाम् अकाराद्यनुक्रमणिका.
अद्य धारा
२ असकृदकरणाअन्यायोपार्जितं
११ जना
११ अनागतं यः अणिमिसनयणा १२-१०६ अंहिमेको अर्हतो दक्षिणे १३ . अज्ञानी निन्दति अयं निजः .. १८ अन्यस्थाने कृतं . अपि वंशक्रमा- १६ अन्यक्षेत्रे कृतं अपकारिष्वपि २० अर्थलुब्धकृतअङ्गीकृतं कोटि- २५ अष्टादशमजरामरवत्
अनेन तव अपुत्रस्य गहं
२७ अत्र द्रोणशतंअतिपरिचया- ३१ अंथ धर्म च अंबस्स य
अन्तको जन्तु- . अन्यथा चिन्तितं ३८ अलसो मन्दअस्तं गते दिवा
अतिलोभो न मज्ञः सुखमा
अत्यन्तकोपः अष्टादशप्रकारं ४२ अतिभुक्तअवश्यभव्ये
अदितिः सुर- ६६ असंभवं हेम- .४३ अहं च पृथिवी-... ६६
४३
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अनिलस्यागमो
अर्थनाशं
अनर्थाय भवे
अस्मान् साधु
अहिंसा सत्य
अनित्यानि
अपमानं पुर
अलसस्य
अनृतं साहसं
अध्वा जरा
अपराधशतं
असंतुष्टा द्विजा
अथ स विषय
अमेध्यपूर्णे
अद्यापि नोज्झ
अमन्त्रमक्षरं
अयं निजः परो
चक्री
अक्खाण सणी
अनागतं यः
अपठाः पण्डिताः
अहो खल
-
अनन्तज्ञान
( १९२ )
७३
.७४
७४
७५
७६
७७
७६
८१
८२
८४
८४
९६
९८
९९
६९
१०६
१०८
१०८
११६
११७
११९
अष्टाङ्गाि
अनुचितकर्मा
अपरीक्षितं
अभ्रच्छाया
अपसेत्व
अर्थानामर्ज
अनभ्यासे विषं
अर्धाङ्गे गिरि
अभक्ष्यभक्षणाद्
अश्लीला खलु
असासयं जीविय
अग्निर्विप्रो
अन्तर्विषमा
अङ्गं गलितं
असितगिरिसमं
११९
१२०
१२१
१२२
१२२
१२४
१२५
१२७
१२९
१३०
१३०
१३१
१३१
१३२ - १६८
१३२
१३३
१३४
असद्भिः शपथे—
अन्या जगद्धित
अहो किमपि
अनुकुरुत: खल
अजातमृत
अवश्यं भावि
अश्वं नैव
अधः पश्यसि
१३४
१३५
१३६
१३७
१३७
१३८
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________________
(१९३)
१९८
अनन्तरत्न१३८ अयश्चणक
१५८ महं त्वं च . . १४१ अलंकरोति हि १५८ अपदो दूरगामी १४२ अमितगुणोऽपि पणोरणीयान् १४३ अभूत् प्राची १६० अकुबेरपुरी . १४३ अस्य मूर्खस्य अर्थागमो नित्य- १४४ अखिलेषु विह- १६१ अश्वः शस्त्रं १४८ अग्रतश्चतुरो
१६२ अर्थातुराणां न १४९ अर्थस्य पुरुषो १६२ अन्तर्विशति १४९ अकर्णमकरो- ' . भजायुद्धमृषि- १५० अतिदानाद् अनर्घमपि १५१ अहो दुर्जन- १६६ अनुकूले विधी
१५२ अन्नदानं महा- १६६ अव्याकरणमधीतं १५२ अतिसञ्चय- १७१ मन्यैः साकं १५३ अर्थनाशं मन- १७४ अरावप्यु- . १५३ अश्वमेधसहस्रं १७६ मलातं तिन्दुक- १५४ अद्रोहः सर्व- १७६ अस्माकं बदरी- १५४ अमृतं किरति १८३ अतिपरिचया- १५५ अर्थी करोति .. १८३ असारे खलु १५५ अन्तः शाक्ता अगस्तितुल्या, १५५ बगुण ढंके ... १८९ अद्यापि दुर्निवारं. १५६ साघुद्धिर्यशो
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________________
(१९४)
१११
१११
११८
१२०
१२६
१२९
१४०
आयुष्कं यदि आरंभे नत्यि आशाम्बरत्वे भाहारनिद्रामादिचौरप्राघातं परिपालस्स मोहआदौ धर्मधुराआसन्ने व्यसने शामसूत्रव्यूतआयुः कर्म च आदौ नम्रः प्रासंसारं, आसीदिदं प्रादरं लभते आपातमात्रमायुर्धनं आतुरे व्यसने आदाय मांसभास्तन्यपानाभादो मज्जनआयुर्वर्षभासनमेव
१५१
१६ आवश्यकध्यान . १७ अात्मायुर्नरके २१ प्रायेन हीनं २६ आद्यस्त्वं २९ आग्रही बत ३२ आवर्तः संशया३४ आभिग्गहिय- .
मापदो महता४२ प्रापद्गतं हससि ४२ आदिमध्यान्त४७ पाशा नाम ५४ आदौ राम६० शानन्दताण्डव
आत्मनो मुख६८ प्रारोग्यं विद्वत्ता ९३ . भात्मार्थं जीव
आपन्नाशाय इन्द्रोऽपि कीटतां
इह किल ९८ इतरपाप१०१ इह तुरगशतैः १०३ इयं सुन्दरी १०८ इच्छति शती
www.rom aro
१५९
१६१ १६६ १७२
१७३
९३
१८१
९७
१५४
१५५ १५७
१६८
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________________
( १९५)
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१६७ १६९
१६९ १७२ १७३ १७५
१८७
१५७
उत्तभपत्तं
२२ उद्योगः खलु उद्यमे नास्ति २७ उद्यमेन हि उपतो यः
४१ उपदेशो हि उन्मत्तप्रेम
उपकारः परो उपायेन प्रक
६५ उदारस्य तृणं उत्तमं स्वार्जितं
उद्यमः साहसं उद्यमेन विना
उपकर्तुं यथा उलूककाक
८२ उदये सविता स्पादिता स्वय- ८६ उभे मूत्रपुरीषे उत्सङ्गे सिन्धु- ९० ऊर्णा नैष उपचितेषु .. ९३ ऋणकर्ता पिता उपाध्यायादशा- १०५ ऋणशेषोऽग्निउद्यमः साहसं . ११५ एकेन दिनेन उत्तमाः स्व- १२० एकराव्युषितउदयति यदि १२३ एकं दृष्ट्वा शतं उच्चावयाणि . १२४ _एको ध्यानउपकारिषु यः १२५ एकतटाके उद्योगिनं पुरुष- १२८ एकाक्षरउपकारोऽपि
१३५ एकः श्लोकउत्कन्धरो वितत- १४७ एकेनापि उष्ट्राणां च १४७ एका भार्या उत्तमा आत्मना १५० एकं ध्यानउबैरध्ययन १६० एके सत्पुरुषाः
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११२ ११२
( १९६ ) एको हि दोषो १३८ कण्टको दारु- . एकेन राज- १४८ कर्णान्तायतएकस्तपो द्वि- १५३ कस्तूरीकृष्ण एकेन तिष्ठता १५८ कर्तुः स्वयं एकोऽपि गुणवान् १६६ कर्मणो हि एफेन शुष्क- १७० कपिलादुग्ध एकचक्रो रथो
१७६ कटुतुम्बी एकस्य कर्म १८० कस्त्वं शूली एगा हिरण- १८७ कन्दः कल्याणऐश्वर्यस्य
१८५ कलारत्नं ॐ नमो विश्व- १०६ कन्याविक्राये-. ओछे नरके १८९ कस्त्वं लोहितप्रौदार्येण विना
कन्याप्रसूतस्य औषधं शकुन १३१ कन्या वरयते कन्यागोपूर्ण- २ कमला कमले कल्लोलचपला
६ कवयः परिकस्तूरी पृषतां
७ कः कौ के कषाया देह- २१ कवयः किं न कर्तव्यमेव
२६ कल्पद्रुमः कल्पितकथं विधातर्मयि ४३ कर मरोडे कर्मणो हि
५७ काके शौचं कः सरीसृपाणां .. ६६ काव्यं सुधारसकश्चित् कानन- ७२. काकोऽप्याहूय
१२८ १२९
१३९
१४१
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११२ . १२६
कान्तं वक्ति कार्येषु मन्त्री कामोऽयं कार्य सपौरुषे कामलुब्धे कुत्तो काव्येषु नाटकं काकः पद्मवमे काव्यालापाश्च काश्यं सुत्प्रकान्तावियोगः कालेन पच्यते कावा हंस- कालस्य कति काचिद् बाला कालो वा कारणं काक माह्वयते काचः काञ्चनकाम ! जानामि कार्येषु का कियदत्र किं चित्रं किलात्र यो । किं तद्वर्ण
४३ किं च प्रत्यक्ष. ५५ किं तया क्रियते
किं गीतं किं मौक्तिहारं किं तया क्रियते
किमु कुवलय८५ किं कवेस्तस्य १०७ किं किं न ११० किं ब्रूमो १२० किं पुनः स्मरा- . १२२ किं जन्मना
१२८ किं केकीव १३६ किं कुलेन १४२ किं कुलेनोप१५१ कि कुलेन १५६ किमत्र चित्रं १७३ कीटिकासंचितं १८५ कुङ्कुमकज्जल१८७ कुरङ्गमाता
कुसंसर्गाव
कुचेलिनं ४९ कुपुत्रेण कुलं ५६ कुत्रामवासः
१४६
१६६ १७६
१८१
१८३
११
४८
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________________
कुलं च शीलं कुटिलगति:
कुटिला लक्ष्मी
कुमुदवन
कुस्थानस्य
कुसुमानां यथा
कुसुमस्तबक
कूलच्छाया
कून कूटं धमं
कूपेषु
कूटसाक्षी
कृतो हि संग्रहो
कृष्णमुखी न
कृशः काण:
कृतकर्म
कृपणेन समो
कृपण कोथळी
केवलं गहरी
केनादिष्टौ
केचिन्निद्रा
केचिदज्ञानतो
केयूरा न कैवर्तीगर्भ
( १९८ )
१०८
१३१
१४८
१६१
१६९
१८०
१८२
५९
८२
८३
१०३
३४
४७
६६
१०८
१७९
१८८
६६
१३४
१४६
१७८
१८५
२८
कैवर्त कर्कश -
कोऽयं नाथ
कोकिलानां
को निर्दग्ध
कोहो पी
कोटं च बूटं
कोहाभिभूया
कोऽयं द्वारि
कोऽतिभारः
कोन याति
क्षीराब्धेरमृतं
क्षत्राणां हय
क्षणं तुष्टः
क्रोधः कृपा
क्रोधो
मूल
चौरं मज्जन
क्षमा खड्गं
क्षाम्तं न क्षमया
वाहं बुद्धि
क्षीरिण्यः सन्तु
क्षणे तुष्टाः क्षणे
क्रोशन्तः शिशवः
क्षणशः कणश
९७
२८
४५
९३
१०२
१२९
१३०
१४०
१७५
१७८
४
२३
३५
३६
४६
५४
१०६
१०९
११६
१३२
१३६
१४५
१९२
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________________
१६२
१४७
१४७
و
و
س
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م
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( १९९) १५६ गतास्ते दिवसा १५६ गात्रं संकुचितं १६० गात्रं कण्टक१६९ गिरिगह्वरेषु १७७ . गीतशास्त्र१७९ गुणैरुमत्ततां
६० गुरुं विना ९९ गुणा गुणशेषु १३४. गुणेषु यत्नः १४१ गुरुणापि समं १६४ गुरुवो यत्र १६७ गुरुत्यागे २७ गुर्वेकवाक्या
५ गुणग्रामा२६ गुरोर्यत्र परी४७ गुणो भूषयते ७८ गुणवजन
गुणाः सर्वत्र १२१ गुणी गुणं वेत्ति १३६ गुरुशुश्रूषया १३८ गुणानामन्तरं १४० गुणैर्गौरव१५१ गुणेन स्पृहणीयः
क्वचिद् वीणा क्वचिद् भूमौ क्षते प्रहारा क्षमा बलसारं जलं वारिक्षमापरं तपो खल्वाटो खलः सक्रियखल: सर्षपखलानां धनुषां खद्योतो द्योतते खलः करोति खादन्न गच्छामि गवाशनानां गतेऽपि वयसि गते शोको न गन्तव्यं नगरगर्भगः गतानुगतिको गर्गो हि पादगच्छ सूकर गवीशपत्रो गगनं गगना
ل
१३२
لله
१३३ १५२
१६५
८२
१७१ १७१ १७२ १७४ १७५
१७६
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गुणवन्तः क्लिश्यन्ते
गृहीत्वा तुलसी
गृह्णात्येष रिपोः
गौरवं प्राप्य
ग्रामो नास्ति ग्रासोद्गलित-
घटं भिवा
घटं भिन्द्यात्
घर घर बाजा
घर नहि तो
ਏਂ ਲਈ
घोरे कलियुगे
चक्रे तीर्थकरैः
चतुर्दश्यष्टमी
चक्रवर्त्यप्य
चत्वारो नरक
चन्द्रे लाञ्छन
चतुरः सखि
चक्री त्रिशूली
चन्दनं शीतलं
चलत्येकेन
चाद्यपि यदि
चातकस्य मुख
(200)
१८३
१११
१३९
१७१
८०
१५८
११४
१५२
१८८
१८९
१३३
४०
२०
५०
५८
७८
८६
१३८
१४३
१७९
१८०
४४
१४६
चाञ्चल्यमुच्चैः
चाण्डालश्च दरिद्र
चित्तं रागादिभिः
चिन्तातुराणां चित्तमन्तर्गतं
चिन्तया नश्यते
चिता चिन्ता समा
चिकीर्षिते कर्मणि
चिन्तनीया हि
चितां प्रज्वलितां
चित्ते भ्रान्ति
चौराणां वञ्चका
चौरचौरा
च्युता दन्ताः
छणं भत्तेणं
बटुं छट्ठे
छिन्नोऽपि रोहति
छिद्यन्ते कृपणाः
जन्मना ब्राह्मणो
जन्मना जायते
जं चिय विहिणा जले विष्णुः
जनकश्चोप
१९७
१७२
२९
१०३
१२४
१४५
१६२
१७३
१८२
१८५
७६
८१
१७१
९६
१०३
१७७
१८६
२५
३८
४९
६६
७८
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________________
जागी जम्म
जले तैलं
जम्मंतीए
जन्मिनां प्रकृति
-जगन्मात
जनस्थाने भ्रान्तं
जम्बूफलानि
जटा नेयं
जनिता चोपनेता
जननी जन्म
जबराईका पेंडा
जब तक तेरे
जातिर्यातु
जानन्ति यद्यपि
जायं सतगुणं
जाता लता हि
जातापत्या
जातेति शोको
जामाता कृष्ण-
जाता शुद्ध कुलं
जानामि नागेन्द्र
जायते नरकः
जानन्ति पशवो
( २०१ )
९८
१०२
१०३
१२९
१३३
१४२
१४४
१६०
१६६
१.६६
१८८
१८९
ε
३१
४५
९४
हद
१०९
१२२
१४२
१९०
१६७
१७४
जातीयात् सङ्गरे
जाड्यं धियो
जिनभवनबिम्ब
जिणसासणस्स
जिनभक्ति
जिहे प्रमाणं
जिसका काम
जिनप्रतिमा
जवितोsu
जीवन्ति सुधियः जीवोऽनादि
जीभीमें अमृत
जुगुप्साभया
जूए पसन्त
जूवारी घर जे माणस जैनागारसहस्र
जैनो धर्मः
नो गुणइ
ज्वरोष्णदाह
-
ज्ञानस्य ज्ञानि
ज्ञातिभिर्भज्यते
झटिति पराशय
नियमेण
१८१
१८४
२१
१००
१०९
१५२
१८८
१९०
३५
८०
११२
१८७
७२
१३०
१९०
१९०
३
१०९
१२
३९
९२
१७०
४२
२३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१८७०
.
१२३
"
१७३. १८६
w
७४
w
६६
( २०२) तमाखु-भंग
३९ तिणि सल्ला तं तं नमति
६० तिन्नेव य लत् श्रुतं यातु ५६ तीर्थस्नानतत्र वारिचराः
तीक्ष्णधारण तत्र दायक
६. तीक्ष्णैरसिमितस्मिन्नेका
६६ तुष्यन्ति भोजनैसत्र तस्य
तुष्टो हि राजा तस्मिन् पद्मे
तृणं ब्रह्मविदः तव निर्वाण
७१ तृष्णां छिन्धि तन्नेत्रिभि
तृतीयं लोचनं तरुणं सर्षप
९९ तृणादपि लघुतव प्रेष्योऽस्मि ११९ तेजोमयोऽपि तथापि चित्र- १२७ ते केचिदतरुमूलादिषु १३४ तैलस्त्रमिांसतनुप्रासे स १४१ तैलाद्रक्षेद् तस्वं किमपि १५९ त्रिदशा अपि त? धनुस्त
१६३ त्यजन्त्यसूतमाखुपत्रं १६३ त्रिशला सर्वताकञ्चन्द्र
९४ त्रैलोक्यवशतावद् गजः १०९ त्रिषु श्थामा वारुण्यं द्रुम- १२३ त्यजन्ति मित्राणि तिलसिक्तेन ६३ त्वया हता तित्थभरा गणहारी १८७ त्रयः स्थानं
११५ ११९
१२०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ซะ * *
१०३
त्यजन्ति शूर्पस्वयि वर्षति त्यजेदेकं त्याग एको दया दामं च दर्शने हरते दशम्यां यस्य दरिद्राधिगमे दलस्तेन दयैव धर्मेषु . दग्धं खाण्डवदसणधयदश धर्म न दशशूनादश व्याघ्रा दरिद्रोऽपि . दमयंती नल दायादाः स्पृहदानेन पाणिदानं वित्ताद् दानं भोगो दातव्यं भोक्त- . दारिद्र्यनाशनं
(२०३) १३५ दानं सुपात्रे १४७ दानक्षणे १८० दानं तपस्तथा १८२ दानेन भूतानि १४ । दानं सिद्धि५६ दारियाकुल७१ दानं पूजा
७९ दानेन लक्ष्मी१०१ . दानेन प्राप्यते १०४ दाने तपसि
दानं दरिहस्स १११ दानार्थिनो मधु१२१ दारेषु किंचित् १२२ दारिद्रान् भर १३८ दानोपभोग१६७ दानाय लक्ष्मी १६० दिवा काकरवा
दिधक्षन्मारुते दिवा निरीक्ष्य
दिव्यज्ञानयुता ११ दिवा पश्यति
दिव्यं चूतरसं १५ दीर्घायुः स्वस्ति
. ११५ १२० १२८ १३० १४६ १५३ १६७ १८२
०
०
१००
१०२
०
०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
१२८
(२०४) .५ देवपूजा गुरू२१ देवपूजा दया २७ देवगुरुप्रसा६८ देवनिन्दा च ७२ देवानन्दोदरे
देशाटनं १०३
देयं भोज
देवा देवी १२३
देहीति वचनं दैत्येन दानवे
द्वौ हस्ती १६६ द्यूतकारस्तला१६९ द्यूतं सर्वापदां १७९ द्यूतं च मांसं १८१ द्यूताद् राज्य
६२ द्यूतासक्तस्य १५८ द्वन्द्वो द्विगु४४ द्वाविमौ पुरुषो ८४ द्वाविमौ पुरुषो १५१ द्वाविमौ पुरुषो
९ धर्मः पर्वगतः १० धर्मारम्भे १४ धर्मों यस्य
दुर्भिक्षोदयदुग्धं देयादुर्चलानादुर्जनः परिदुह्यं हृदयं दुर्जयोऽयमदु:ख स्त्री दुष्टस्य दण्डः दुष्टानां दुर्जनदूषितदुष्टा भार्या दुर्बलस्य बलं दुर्मन्त्री राज्यदुर्जनेन समं दुर्जनो जीयते दूपणेभ्यो विनि-- दूरस्थाः पर्वता दृश्यं वस्तु दृष्टानपि दृष्ट्वा यतियति देवा विसयदेहे द्रव्ये देवद्रव्येण
१६६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मभ्रष्टा हि धर्मार्थकाम
धर्महीनो द्विज
धर्महीनाः कृमयः
धर्मोपदेशेन
धनाढ्यता
धर्मोऽयं धन
धन्यानां गिरि
धर्मार्थकाम
धनानि भूमौ
धनुषि धनुधनिकः श्रोत्रियो
धर्म करत धिगस्तु
धीराणां भूषणं धूम्रपानरतं धूमः पयोधर
ध्येयस्त्वं
ध्यानं दुःखन सा दीक्षा
नमस्कारसमो
नवकार इक्क
नरयगइ
( २०५ )
३९
४५
५८
५८
६३
७९
६४
१०५
१०६
१५७
१६५
१६८
१८६
११६
१६७
४०
७ह
११८
१२९
१२
१३
१५
न विद्यया
म देवपूजा
न ते नरा
न कयं दीणु
न चौरहार्य
न जातु कामः
न तेषां ब्राह्मणी
नमस्तुभ्यं
नसा जाई नमस्यामो देवान्
न चादौ मुग्ध -
नरखे निर्जिते
न नर्मयुक्तं
न मांसभक्षणे
नथियसि कोइ
नराणां नापितो
न निर्मितं
न कार्या
न याचे गजा
न पश्यति
न स्वर्धुनी
नरत्वं दुर्लभं
न स्नेहेन
१८
१८
२२
२२.
२६
२६
२८
३२
३४
३६
४६
५१
५१
५६.
१७
६४
८५
८८
८९.
१०२
१०२
१०७
११०.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०६)
१८३
१८३
११७
१२९
२८
.
।
न वासयोग्या न धर्मशास्त्रं नमस्तुभ्यं न विश्वसेत् न दातुं न स्वादु न सेवियव्वा नयास्तव नलिकागतमपि न देवाय न न तज्जलं नवनीतमयं न विप्रमादोन विषं विषनक्रः स्वस्थाननमस्कारसहस्रन स्थातव्यं न तेन स्थविरो न सन्ध्या नरस्याभरणं नष्टं नैव मृतं न कश्चिदपि न यस्य चेष्टितं
११६ न मातरि न ११७ न पण्डिताः
नयन श्रवण १२१ नाणं नियम१२२ नारी-नदी
नाहं स्वर्गफलो१३० नानाशास्त्र- १३० नाभ्यस्ता भुवि १३५ नात्यन्तसरले१३५ नानुद्योग१४. नाभ्यर्थये १४४ नाणाविहाई १४५ नाहं जानामि १४५ नास्ति तुधासमं १४८ नास्ति विद्यासमं १५१ . नालिकेरसमाना १५४ नाऽसत्यवादिनः १६२ नारी कपटकी १६४ निर्वीर्या पृथिवी १६६ निर्ममो. नगर१६८ निरन्तरं यथा १७४ निर्विवेका मरु१७५ निन्दन्तु नीति
११७ ११९ १२४ १६१
१७०
• • ง ' * * *
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--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्दन्त: करटी
निर्द्रव्यो धननिषिद्धमप्या
निरर्थकं जन्म
निजदोषावृत
निर्वनो बध्यते
निर्वाणदीपे
निद्राप्रियो
निर्विषेणापि
निष्णातोऽपि हि
निःसारस्य
निपतन्त उत्प
निम्बो वातहरः गोsपि
नूनं हि ते
-
नेच्छन्ति प्राकृतं
नैकपुष्पं
नैवाकृतिः फलति
नैवाहुतिर्न
नो सत्येन
न्यस्तो हन्त
न्यक्कारो ह्यय
पश्य संगस्य
(2009)
६५
१०४
१२६
१३९
१५०
१५४
१५७
१६४
१६८
१७३
१७४
१८६
१८७
३७
२४
पदे पदे
पञ्चेन्द्रियाणि
४०
१५
ઈંટ
८२
२४
पक्षपातो न मे
पत्यौ प्रत्रजिते
पचविंशति
पण्डितोऽपि वरं
पङ्गं मूकं च
पञ्चमो लोक
पचैतानि
पश्य लक्ष्मण
पश्यन्नपि
पत्नी प्रेम
पचैते पाण्डु
पानं दाडि
पदे पदे
परान्नं प्राप्य
परोपकारः
पञ्चापि मम
पत्रं नैव यदा
७०
१०७ पतिश्वशुरता
५
परिचरितव्याः
पञ्चाश्रवाद्
पश्चाद्दत्तं
१०
२९
३३
३७
४४
६७
७४
७९
८५
८६
८६
९३
९३
९५
११०
११२
११६
११७
१२३
१२३
१३८
१४४
११२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०८)
१४८ १७१ १७७ १५५
१८६
पठतो नास्ति १५३ पिपासुता पो वन्द्य- १५९ पिबन्ति नद्यः पण्डिते हि १६७ पिण्डे पिण्डे पण्डिते चैव मूर्ख १७० पिपीलिकार्जितं परोपकाराय फलन्ति १७२ पिबन्ति मधु . पञ्चमेऽहनि वा १७६ पीतोऽगस्त्येन परोक्षे हन्ति १७७ पीतनीरस्य फरोपकारंशून्य- १७९ पुरुषस्य दर्शपरोऽपि हितवान् १८० पुरुषस्य जरा पञ्चाशत्पश्च- १८७ पुत्रश्च मूर्यो पंडित भये १९० पुष्पं दृष्ट्वा . पाने धर्म
६ पुत्रमांसं . पावकोच्छिष्ट- ७३ पुण्यं कीर्तिपातुं न प्रथम ७५ पुरा गर्भादिपाकं किं न
८९ पुष्पेषु माता पा जे धन . ९७ पुरीषस्य च पासा वेश्या
१०२ पुण्यस्य फलपानीयस्य रसः १०५ पुष्पेषु चम्पा पादाहतः ११० पुस्तकं येन पानीयं पातु- १४२ पुस्तकस्था हि पादपानां भयं १६६ पूर्व न मन्त्रो पापानिवारयति १७८ पूमा पञ्चपापी दृष्टि
१८९ पूर्वोपार्जित
१६२
१७२ १८०
१३
.
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________________
( २०९)
१५४ १६५ १७१ १७३ १७६
२०
. १९०
१४९ १७३
पूज्यते यदपूज्यो- पूर्वेषां यः . पूगीफलानि पूर्वजन्मनि पृथुकातप्रभास्वं प्राणान्तेऽपि प्रशमरसप्रियवाक्यप्रथमं उम्बरं प्रकृतेमहांप्रस्तावसदृशं । प्राया द्वि-त्रिमारभ्यते न प्रवर्धमानः प्राकृत एव प्राक् पादयोः प्राणसन्देहप्रदानं प्रच्छन प्रायः प्राप्तप्राप्तुं पारमपा- प्रातःर्थत
२६ प्राप्तव्यमर्थ ५१ प्रथमे नार्जिता ९५ प्रदोषे दीपक११७ प्रियवाक्य ११७ प्रत्यहं प्रत्य१४ प्रभुभिः पूज्यते
फूट नाशका ३१ बद्धा येन ३४ बन्धनानि खलु ३४ बहूनामल्प
बालाण रवो
बालादपि ४५ बालोऽपि चौरः ६३ विडालव्याल
विभेमि चिन्ता८९ बीजेनेव ९३ बुद्धः फलं १०२ बुद्धिपूर्वक ११३ बोषितोऽपि १२४ ब्रह्मकुले च १२६ ब्राह्मणाः क्षत्रिया १२७ अक्ते हि
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________________
( २१०)
.
१६२
१२० १४०
१८६
१५५
ब्राह्मणानां धनं ब्रह्मचारियतीभवणं जिणस्स भत्ती जिणेसु भवबीजाकुरभङ्गोऽभूद् भक्तिं तीर्थभक्खणे देवभग्गो णट्ठो भवित्री रम्भोरुमतद्वषो जडभद्रं कृतं कृतं भकारो कुम्भभये महति . मवन्ति नम्राभंग वेची थी भाग्याधिक भावना मोक्षदा मावण भावे भावेषु विद्यते भाविकार्यानुभाग्यं फलति भार्यावियोगः
६१ भारं स वहते १२७ भिक्षाशनं १८ भिक्षुर्विलासी ४९ मिक्षो कन्था .७२ भीमं वनं
মুৰিমামা ।
भृज्ज्यन्ते ज्वल- १०१
भेदानां परि११३ भोगे रोग१३९ भो भाद्रपक्ष १४२ भौमे मङ्गलनाम . १४५ मन एव
मणमरणेदिय मन्त्रे देवे
मचंगा भिंगंगा १८८
मलं विसयमहाव्याधिमहात्मगुरुमर्मवाग् दास
महतोऽपि कुसं४२ ममैव शाकेन ५७ मनुष्याणां पशूनां १४५ मया परिजन
१८१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मद्यतूर्य - महाकुल
मत्स्यः कूर्मो मत्तेभकुम्भ
मद्यमांसा
महानुभाव
महाजनाचार
मय्येव जीर्णतां
मत्तस्तु
मर्कटस्य सुरा
मज्जन्ति मुनयः
मद्यपस्य कुतः
महाजनस्य
मनसा चिन्तितं
मातापितृ
माता यदि विषं
मातङ्गी प्रथमे
मा मतिः परदारेषु
मातृ-स्वसृ
मातः शैल
मालवे पञ्च रत्नानि
मांसासृग
मांसास्वादन -
( २११ )
५०
५८
६५
६९
७१
७८
९१
११३
१२२.
१६१
१६५
१७०
१७३
१८०
४
३४
४०
४६
५०
५५
६२
७६
१२१
मान्धाता स
मार्गे मार्गे
मातरं पितरं
मातृवत् पर
मातेव रक्षति
माठो धोरी
मित्रद्रोही
मुण्डं शिरो
मुक्तिसौख्यं
मुक्त्वा निःश्रीक
मुखं पद्मदला
मुक्ताफलैः किं
मूर्खस्तपस्वी
मूत्रयन्ति
मूर्खाणामप्र
मूर्खस्य प
मृगा मृगैः
मृच्यालनी
मौने मौनी
मौनं काल
मौखर्य लाघव
मेघां पिपीलिका
मौने मौनी
१९८
१६२
१६८
१७०
१७८
१८८
५९
६८
११८
१३३
--
१३५
१८४
१८
१०
८१
१३६
३१
१२४
१३४
१४९
१६४
८१
१३४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१२)
१०८
११३ १३६ १३७
१४४
मौनं कालमौर्य लाघवयस्कल्याणकरो यस्यास्ति वित्तं यत्नानुसारिणी यदेतत्पूर्णे यस्तमा यद् भग्नं यदि नामाऽस्य यत्राकतिस्तत्र यद् दुर्गामटवीयत्र नास्ति मनः यत्र जीवः शिवयथामृतरसायस्याद्ययं शैवाः यस्य बुद्धियदि स्वभावायः संसारयन्य नास्ति यस्य दृष्टियः कौमारयस्यानीयत
१४९ यः प्राप्य .१६४ यः सर्वमूलोत्तर
१ यत्त्ववेत्र११ यस्यास्ति १५ यः सुन्दर२४ यस्य षष्ठी ४० यदि रामा ४१ यत्र नास्ति
यस्तु संचरते ४३ यः पठति १८ यथा देशस्तवा ५४ यत्र विद्वज्जनो
यत्रात्मीयो. यथा खरश्चन्दन
ययोरेव समं ७२ यदि नाम देव
यदि वा याति ययाऽऽमिषं । यस्मिन् देशे न
यथा गजपतिः १०६ यश्च संचरते
यस्यास्तस्य १०. यस्य मित्रेण
१४८
१४८ . १४८
१४८ १४९ ११९ १५३ १६१
१६४
१०२
१६७ १७१ १७६ १७७ १७९
१५९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१३ )
७२
८१
ये
.
-
१४१ १४८
यः पृष्ट्वा कुरुते यथा चित्तं तथा यथा परोपकारेयस्य नास्ति यः स्वभावो यश्चिन्तितं यानपात्रसमं यावन्ति रोमयास्याम्यायतनं यात्येकतो यास्यत्यद्य या देवे देवतायावत्स्वस्थयां चिन्तयामि या मतिर्जायते यास्यति जलधरयावज्जीवं सुखं यावत् स्वस्थो याचना हि युद्धं च प्रातयुध्यन्ते पतिये रात्रौ सदा । ये पिबन्ति
१८१ येषां न विद्या १८१ ये रामरावणा
ये पाताल८२ ये गायनमें ८३ यो लचं १८८ यो दद्यात्काञ्चनं १२ - योगेन योगी १५ यो यथा येन
यो रात्रिंचर
यो न संचरते ७५ यो वर्तते ७७ यो नात्मजे
योजनानां सहस्रं १०४
यौवनं जरया १२९
यौवनं सफल यौवनं धनरविचरियं रजोजुषे जन्मनि रथस्यैकं
रत्याप्तप्रिय१७६ रत्नेन काञ्चन१६ रक्तः शब्देन ४० रसातलं यातु
१७८
१८२
२७
१०१
४४
» GAGGxce
११४
११९ १२५ १२५
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१४)
.१४६
१०१
१११
१२६ १३२
ar
०
५०
.
११८
or
रविरपि न रत्नाकरः किं रक्तत्वं कमलारागो द्वेषराजंस्त्वं राजा राजानराज्यं यातु रामस्य ब्रजनं राजानः खेचरेन्द्राश्च राज्यं निःसचिराजा कुलवधूरात्रिर्गमिष्यति रागाद्यै रिपु-. राज्ञि धर्मिणि राजाभिषेके रामो राजमणिः राजंस्त्वत्कीर्तिराजपत्नी गुरोः राजाके घर रांड गुरु पैसा रिक्तपाणिन रुधिरमांसरेरे चातक
१३५ रे रे रासभ १७७ लक्ष्मीस्तं १८३ लज्जा दया २९ लज्जायौवन५९ लङ्केशोऽपि ६१ लक्ष्मीः कौस्तुभ- ६८ लबने ये गुणाः ७० लालने बहवो ७६ लिखिता चित्र९५
लुब्धो न लुद्धा नरा
लोके कलङ्क१५९ लोभश्वेदगुणेन १२१ लोकाचारानु१४३ लोकेभ्यो नृपति१६३ लोकः पृच्छति १६४ लोभमूलानि १७० लोभात् क्रोधः १९० लोभाविष्टो नरो १९० वरबालामुह
९८ वनकुसुमं १३२ वर्ष मेघ १४५ वसुधाभरणं
.
०
०
०
०
०
०
०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१५)
१३१
१४९
वहिज्वालावञ्चकत्वं वरं प्राणपरिवरं न राज्यं वरं वृन्दावने वयोवृद्धाबनेऽपि सिंहा वस्त्रं पात्रं वरं पर्वतवरं मौनं वरं भिक्षाशिवरं वनं
. १५६
१६५ . १७८
१
१
२५ वापी कापि .३६ वापी वप्र३८ वाली जोइड ४६ . वामस्वरा शिवा ५२ वारिदस्तृप्ति६५ वार्ता च कौतुफ७० वाङ्माधुर्या७० . वाहने ये गुणाः ७८ वासो वल्कल८३ वाणी रसवती ८३ विना गुरुभ्यो ८३ विश्वामित्रपराशर(७ विद्वत्ता वसुधा ८८ विदलयति
विणश्रो सासणे ९९
विहाय जम्बूको १०४ विरला जानन्ति १०८ विश्वसेन्नहि १३२
विधुकरपरि१५९
विवेकः संयमः विश्वासप्रति
विना कार्येण ८ विद्या नाम
वश्यौषधं
९४
वरं गर्भस्रावो वस्त्रहीनमलबने रणे वरं रेणुवनेऽपि दोषाः वणिक्पण्याजना वरमेको गुणी बनानि दहतो वसीकरण यह वाताहारतया
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१६)
. १७९
८२
१८७
. १४३
१२४
विनामूलं च विभूतिस्त्यागविलग्नश्च विद्युल्लता विजेतव्या विद्या नाम विलम्बो नैव विजयापत्रविद्यादम्भः विरोधो नैव विनयेन विद्या विषयव्याकुलविवेको न विषस्य विषयाविप्राऽस्मिन् विना गोरसं विशाखान्तं गता विद्या मित्रं वित्त त्यागः विद्या विनयोविदेशेषु धनं विवेकः सह विदुषां वदनाद्
६४ विहाय पौरुषं ७९ वीतरागं स्मरन्
वीरिएणं तु
वृक्षच्छाया ९८ वृथा चैकादशी १०१ वृक्ष क्षीणं१०९ वृक्षाप्रवासी १११ वृथा वृष्टिः ११६ वेश्या रागवती १२० वेश्यासो मदन
वेश्याका वेश्यासक्तस्य
वेपथुमलिनं १२९
वैद्या वदन्ति
वैद्यराज नम१४.
वैद्यो गुरुश्च १४६
वैरवैश्वानर१६५
वैकल्यं धरणीव्यादीर्पण व्यर्थ दानं व्यापारे वाङ्
व्याजे स्याद् १७५ व्याघ्र च
१३९
१६७
१६९
१७१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१७)
११९
७३
.
११९
शतेषु जायते शशकीगर्भसंभूतः शठं प्रति शक्यो वारयितुं शशिनि खलु शक्रं वनशत्रूणां सपन: शरण्यस्त्वं शत्रुजयशिरोशकटात् पञ्च शम्भुस्वयंभू- शत्रुजयः शिवशरदिन शशिदिवाकरशमीगर्भस्य शतं विहाय - शनैः पन्थाः शय्या वखं
.. शाले निष्प्रतिभशाव्येन धर्म शास्त्रं बोधाय शाने सुनिश्चित- शिष्टे संगः
२२ शिशूनां जननी
५३. शिरसः स्फुर५४ शिला बाला जाता ७१ शिरसा धार्यते
शीलं नाम शुचि भूमिगतं
. २० शुक्लत्रयोदश्यां ११७ शुश्रूषस्व गुरुन् । ७६
शुद्धान्तसंभोग- .. १२५ १२१ शुचित्वं त्यागिता १७० १२३ शूद्रोऽपि शील- २४ १२६ शूरेषु विघ्नेक
. ४९ शून्यं वासगृहं १३७ शूली जातः
१४१ १४२
शृगालोऽपि १५२ शोभते विद्यया
श्रमणस्तुरगो १५९
श्रीशांतिनाथादपरो श्रीतीर्थपान्थ- १०९६ भीमन्नेमि
श्वानचर्मगता १२१ श्वपाकीगर्म
५ प्रधालुतां
१३५
५१ मामभाम
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१८
भोत्रं श्रुतेनैव ६० सर्वज्ञमीश्वरश्रीशजयभूषणं- ६२ संसारपाशो श्रीशत्रुजयशक्रवारण ८७ सती सुरूपाश्वेताम्बरधरा
१०६ सपत्नीदर्शनं श्रुतिविभिन्ना १५३ सत्कारयन्ति श्लोको
१७५ सहजान्धदृशः अषणसवनं १८५ सन्मार्गे तावषट्पदः पुष्प-.-., ३ सर्वामिरपि पष्टिमिनके १०९ सतीव्रतेऽग्नो षट्को भियते १२६ सत्त्वेषु मैत्री षड् दोषाः
१६८: सहवासी हि संती कुंथू भ
१ सद्धर्मवीमसत्रागारशतानि
३ संपदि यस्य सत्यपूर्व
७. सत्येनाग्निसंग्रामसागर- १२ सन्तः सञ्चरितोस. बट:
१४ सयः प्रीतिकरो सत्यं शोचं १८ सतिका ढेकरा संसाराभ्भोधि- २२ संवत्सरेण यत् सयं पमञ्जणे २२ सत्येन धार्यते स कि सखा २४ संपल्याहिसम्पदि यस्य २६ समेषु शौर्य संसाम्मि असारे
सच्छिद्रो सत्यं ब्रह्म ....३८ सदा वक्रः सदा
m cocm
१३१
.
१३१ १३६ १४४
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
संप्रामे सुभटेसद्यः फलति
सहते शरशत
सत्सङ्गाद्
सत्यं ब्रूयात् समत्वाकाङ्क्षिणी
सरसो विपरीतसहसा विदधीत
सर्पदुर्जन
सर्वनाशे
सत्येन धार्यते
सर्पाणां च
सर्पः क्रूरः सत्यं वपो
स जीवति
सद्भिरेव
सद्भिः संबोध्य
सद्विद्या यदि
सजना एव
सन्ति स्वादुफला
संभिन्नतालु
समकित श्रद्धा साकारोऽपि
( २१९ )
१४९
१५०
१५०
१५०
१५४
१५७
१६३
१६४
१६७
१६८
१६९
१.७०
१७१
१७२
१७२
१७४
१७५
१७५
१७५
१८५
१८६
१८९
११
सायर जलस्स
सारङ्गी सिंह
साबधयोग
साधुत्रीबाल
साधारणतरु
साधूनां दर्शनं
सा भार्या या
सा श्रीर्यान
सासु तीरथ
सिंहो बली सिद्धार्थराजा
सीदन्ति सन्तो
सीह सउण न
सीवाचिन्ताकुले
सुगुणं विगुणं
सुजनो न याति
सुखस्य दुःखस्य
सुराहिं सुर
सुतं पततं
सुलभाः पुरुषा
सुभाषितेन गीतेन
सुखं हि
सुखार्थी च
१३.
१५
४१
५६
१४७
१
१७४.
१७४
१९०
9
३३.
८.
१०५
१६३.
३९
४६
७४
१०६
१४३
१९०
१९१
१६४
१७३
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सुहको मातयः सूर्य भर्तारसचिमुखे दुराचारे सेतुं गत्वा सेवया धन- सौमित्रिर्वदति सौवर्णानि सरो- स्त्रीणां श्रीणां खर्गतस्य स्वश्लाघा . स्त्रीणां चरित्रं बीणां द्विगुणस्वामिद्रोही स्वकार्यपरस्वपति या स्त्रीजातौ दाम्मि- स्त्रीणां गुह्यं खष्टा यन्त्र स्त्रीचरित्रं प्रेम- स्थितिं नो रे स्वगृहे पूज्यते स्थानभ्रष्टा
( २२०) १७९ स्त्रीणां स्पर्शात् . ११ ५५ स्थान एव ८० स्मृरामपि गजो १९ स्वमा नैव १७७ हन्ता पलस्य १६० हंसा दूरनिवासिन्ते १६५ हसन्तो हेलया . ७९ १७ हरिहरचउराणण २३ हसम्ती पृथिवी
हस्तादपि न १५० हरेः पदाहतिः . हस्तमुक्षिप्य १५६ हस्ती स्थूलतनुः
हस्वस्य भूषणं १६६ १.२ हर्म गोचरं
१७८ १२० हास्वादिषट्कं १२२ हाको मुख
१२१ १२४ हितकर मूढ १३१ हेमनुधरा १४६ हे दाहिन्य
२६ १४५ हे सद्रत्न १५२ हेलान्दोलित
१०६ १६१ हेलया राज
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नंबर.
१
विषयानुक्रमणिका.
6 ू
श्री नवकार मन्त्र
सप्त स्मरण
२
३
बृहद् अजितशांति नामक प्रथम स्मरण लघु अजितशांति नामक द्वितीय स्मरण ४ नमिऊण नामक तृतीय स्मरण ५. गणधरदेव स्तुतिरूप चतुर्थ स्मरण ६ गुरु पारतन्त्र्य नामक पंचम स्मरण
ह
सिग्घमवहरउ नामक षष्ठ स्मरण
८ उवसग्गहरं नामक सप्तम स्मरण
भक्तामर स्तोत्र
१०
श्री वृद्ध शांति
११ जिनपञ्जर स्तोत्र
....
विषय.
....
....
ऋषिमंडल स्तोत्र....
१२
१३ गोडी पार्श्वजिन वृद्ध स्तवन
....
10.0
....
....
....
....
....
....
....
....
....
....
....
....
....
....
पृष्ठ.
.१-६
६-८
९-१०
१०-१३
१३-१४
१५-१६
An
१७-२२
२२-२६
२६-२८
२९-३४
३४-४०
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________________
नंबर.
१४ श्रीगौतम स्वामीनो रास ११ श्री शत्रुंजयमो रास १६ कल्याणमन्दिर स्तोत्र
१७ तिजयपहुत्त स्तोत्र ....
१८
जय तिहुण स्तोत्र
१६ गौतमाष्टक
२० पद्मावती आराधना
1000
नव ग्रह शान्ति स्तोत्र
२१
२२ तावनो छन्द
२३ श्री सरस्वती स्तोत्र
विषय.
:
÷
.....
....
....
....
....
....
Joo
....
पृष्ठ.
४०-४९
५०-६०
६१-६६
६६-६७
६७-७१
७१-७२
- ७२-७५
७५–७७
७७-७९
७९-८०
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नित्यस्मरण पाठ |
नवकार मंत्रः ।
णमो अरिहंताणं ॥ १ ॥ णमो सिद्धाणं ॥ २ ॥ णमो आयरियाणं || ३ || णमो उवज्झायाणं ॥ ४ ॥ णमो लोए सव्वसाहूणं || ५ || एसो पंच मुकारो ॥ ६ ॥ सव्वपात्रपणासणो ॥ ७ ॥ मंगलाणं च सव्वेसिं ॥ ८ ॥ पढमं इवइ मंगलं || है |
श्रीसत स्मरणानि प्रारभ्यन्ते ॥
तत्र प्रथमम्
श्री बृहद् - अजितशांति स्मरणम् ।
"
अजिजि सव्वभयं संतिं च पसंत सव्वगयपावं ॥ जयगुरु संति गुणकरे, दोवि जिणवरे पणिवयामि ॥ १ ॥ गाहा ॥ ववगय मंगुल भावे, ते इं विउल तवनिम्मल सहावे ॥ निरुत्रम महष्पभावे, थोसामि सुदिट्ठ सब्भावे || २ || गाहा ॥ सव्व दुक्ख पसंतीणं, सव्व पावप्पसंतिं ॥ सया अजिय संतीणं, नमो अजिम संतिणं ॥ ३ ॥ सिलोगो || अजिय जिरा सुहृप्पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम नामकित्तणं ॥ तह य धि
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(२) श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. मइप्पवत्तणं, तव य जिणुत्तम संति कित्तणं ॥ ४ ॥ मागहिमा ॥ किरिश्राविहि संचित्र कम्म किलेसविमुक्खयरं, अजिअं निचिनं च गुणेहिं महामुणि सिद्धिगयं ॥ अजिअस्स य संति महा मुणिणो वित्र संतिकरं, सययं मम निव्वुइ कारणयं च नमसणयं ॥ ५ ॥ प्रालिंगणयं ॥ पुरिसा जइ दुक्खवारणं, जइ भ विमग्गह सुक्खकारणं ॥ अजिभं संतिं च भावो, अभयकरे सरणं पवजहा ।।६॥मागहिया ।। अरह रइ तिमिर विरहिअमुवरय जरमरणं, सुर असुर गरुल भुयगवइ पयय पणिवइयं ॥ भजियमहमविश्र सुनय नय निउणमभयकरं, सरणमुवसरित्र भुवि दिविजमहिअं सययमुवणमे ।। ७॥ संगययं ।। तं च जिणुत्तममुत्तम नित्तम सत्तधरं, अञ्जव मद्दव खंतिविमुत्ति समाहि निहिं ॥ संतिकरं पणमामि दमुत्तमतित्थयरं, संतिमुणी मम संतिसमाहिवरं दिसउ ॥ ८॥ सोवाणयं ।। सावस्थिपुव्वपत्थिवं च वरहस्थि मत्थय पसत्थ वित्थिन्न संथिअं, थिर सरिच्छ वच्छं मयगल लीलायमाण वर गंधहत्थि पत्थाण पत्थियं संथवारिहं । इथिहत्थबाहुं धंतकणग रुअग निरुवहय पिंजरं पवर लक्खणोवचित्र सोमचारुरूवं, सुइ सुहमणाभिराम परम रमणिज वरदेव दुंदुहि निनाय महुरयर सुहगिरं ॥ ६ ॥ वेड्डओ ।। अजिअं जिारिगणं, जिन सबमयं भवोहरि ॥ पणमामि अहं पयो , पावं पसमेउ मे भयवं ॥ १० ॥ रासालुद्धमओ ।। कुरु जणवय हस्थिणार नरीसरो पढमं तो महाचकव
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श्री बृहद - प्रजितशांति स्मरणम् ।
( ३ )
ट्टिभोए महप्पभावो, जो बावतार पुरवर सहस्स वर नगर निगम जणवयवई बत्तीसारायवर सहस्साणुत्राय मग्गो । चउदस वर रयण नव महानिहि चउसठ्ठि सहस्स पवर जुवईण सुंदर वई, चुलसी इय गय रह सय सदस्स सामी नव गामकोडि सामी सीजो भारहंमि भयवं ॥ ११ ॥ डुयो । तं संतिं संतिकरं, संतिष्णं सव्वभया । संतिं थुणामि जिणं, संतिं विउ मे ।। १२ ।। रासानंदियं ॥ इक्खाग विदेह नरीसर, नरवसहा मुणिवसहा || नव सारय ससि सकलागण, विगय तमा विहुचरया || अजिउत्तम वेअ गुणेहिं महामुखि, अमिय बला विउल कुला || पणमामि ते भवभयमूरण, जग सरणा मम सरणं ।। १३ ।। चित्तलेहा ॥ देव दाविंद चंद सूरवंद हठ तुठ्ठ जिह परम, लठ्ठ रूव धंत रूप्प पट्ट से सुद्ध निद्ध घवल || दंतपंति संति सत्ति कित्ति मुत्ति जुत्ति गुत्ति पवर, दित्त अवंद घेअ सव्वलो अभावि
+
भावणेय पइस मे समाहिं || १४ || नारायओ || विमल ससिकला इरेअसोमं वितिमिरसूर कलाइरे तेत्रं । तियसवइगणाइरे रूवं, धरणिधरप्पवराहरेअ सारं ॥ १५ ॥ कुसुमलया || सत्ते य सया- अजिअं, सारीरे अबले अजि ॥ तव संजय अजि, एस थुणामि जिणं अश्रिं ॥ १६ ॥ अगपरिरंगिश्रं ॥ सोमगुणेहिं पावद्द न तं नवसरय ससी, तेय गुणेहिं पावइ न तं नवसरय रवी । रूवगुणेहिं पावइ न तं तिसगणवइ, सारगुणेहिं पावइ न तं धरणिधरवई ॥ १७ ॥ खिज्जियं | वित्थवर पवतयं तमरयर हिचं, धीर
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________________
( ४ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
जण थुचि चुत्र कलिकलुषं ॥ संतिसुहष्पवत्तयं तिगरण पयो, संतिमहं महा मुणि सरणमुवणमे || १ || ललिअयं ॥ विणश्रणय सिर रइ अंजलि, रिसिंगण संधुचं थिमि । विवाहिव धणवइ नरवह, थुअ नहियच्चित्रं बहुसो ॥ अइ
गय सरय दिवायर, समहित्र सप्पभं तवसा : गयणंगण वियरण समुझ्य, चारण वंदि सिरसा ।। १९ ।। किसलयमाला ॥ असुर गरुल परिवंदिअं, किन्नरोरग नमसि || देव को डिसयसंथुचं, समण संघ परिवंदि ॥ २० ॥ सुमुहं ॥ अभयं अणहं, अरयं अरुयं । अजि अजिनं, पयचो पणमे ||२१|| विज्जुविलसि । आगया वरविमाण, दिव्ध कणग रह तुरय पहकर सएहिं हुलिश्रं ॥ ससंभमोअरण खुभित्र, लुलि चल कुंडलं गय तिरीड सोहंत मउलिमाला ॥२२॥
यो || जं सुरसंघा सासुर संघा, वेर विउत्ता भत्ति सुजुत्ता आयर भ्रूसिय संभम पिंडि, सुसुविम्हिय सव्वबलोघा || उत्तम कंचण रयण परुविय, भासुर भूमण भासुरिअंगा गाय समोणय भत्तिवसागय, पंजलिपेसिअमीस पणामा || २३ || रयणमाला || वंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं ।। पण मिऊण य जिणं सुरासुरा, पमुइया सभवणाई तो गया || २४ ॥ खित्तयं ॥ तं महासुमिहंपि पंजली, राग दोस भय मोह वज्जियं ॥ देवदाणव नरिंद वंदि संतिमुत्तम महातवं नमे || २५ || खित्तयं ॥ अंबरंतरवियारिणिहिं, ललि हंसबहुगामिशिश्रहिं || पीण सोयिथण सालिखिहिं, सकल कमलदललोअणि
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श्री बृहद्-अजितशांति स्मरणम्.
प्राहि ॥ २६ ॥ दीवयं ।। पीण निरंतर थणभरविणमिय गायलयाहिं, मणिकंचण पसिढिलमेहल सोहिअ सोणितडाहिं ।। वरखिंखिणिनेउर सतिलय वलय विभूसणियाहिं, रहकर चउर मणोहर सुंदर दंसणियाहिं ॥२७॥ चित्तक्खरा ॥ देवसुंदरीहिं पाय बंदिअाहिं वंदिआ य जस्स ते सुविकमा कमा, अप्पणो निडालएहिं मंडणोडणप्पगारएहि केहि केहि वि । अवंगतिलय पत्तलेह नामएहिं चिल्लएहिं संगयं गयाहिं, भत्ति सन्निविड वंदणागयाहिं हुंति ते वंदिया पुणो पुणो ॥ २८ ॥ नारायओ ॥ तमहं जिणचंद, अजिअं जिनमोहं ।। धुअसव्वकिले सं, पयो पणमामि ॥२९॥ नंदिअयं ।। थुअवंदिस्सारिसिगण देवगणेहिं, तो देववहूहिं पयो पणमियस्सा ॥ जस्स जगुत्तमसासणयस्सा, भत्तिवसागयपिंडिअयाहिं ॥ देव वरच्छरसा बहुअाहिं, सुरवररइगुण पंडिअयाहिं ।। ३० ॥ भासुरयं ।। वंस सद्द तंति ताल मेलिए तिउक्खराभिराम सद्दमीसए कए अ, सुइसमाणणे सुद्ध सज गीअ पाय जालघंटिहिं ॥ वलय मेहलाकलाव नेउराभिराम सद्द मीसए कए य, देवनट्टिाहिं हाव भाव विन्भमप्पगारएहिं नच्चिऊणभंग हारएहिं वंदिप्राय जस्स ते सुविक्कमाकमा । तयं तिलोय सव्व सत्त संतिकारयं, पसंत सव्व पाव दोस मेसहं नमामि संतिमुत्तमं जिणं ।। ३१ ॥ नारायो। छत्त चामर पडागजून जव मंडिया, झयवर मगर तुरग सिरिवच्छ सुलंछणा।। दीव समुद्द मंदरदिसागयसोहिमा, सत्थिय वसह सीह रहचकवरंकिया ॥३२॥ ललि
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
अयं ॥ सहावलठा समप्पइष्ठा, प्रदोस दुठा गुणेहिं जिहा ॥ पसायसिहा तवेण पुढा, सिरीहिं इटा रिसीहिं जुट्ठा ॥ ३३ ॥ वाणवासिया ॥ ते तवेण धुप सव्व पावया, सव्वलोअहिर मूल पावया ॥ संथुप्रा अजियसंति पायथा, हुंतु मे सिव सुहाण दायया ॥३४॥ अपरांतिका ॥ एवं तव बल विउलं, थुनं मए अजिअ संति जिणजुयलं ॥ ववगय कम्म रयमलं, गई गयं सासयं विउलं ॥ ३५ ॥ गाहा ॥ तं बहुगुणप्पसायं, मुक्ख सुहेण परमेण अविसायं ॥ नासेउ मे विसायं, कुणउ अ परिसाविन प्पसायं ॥ ३६ ॥ गाहा ॥ तं मोएउ अनंदि, पावेउ अ नंदिसेणमभिनंदि । परिसा विअ सुहनंदि, मम य दिसउ संजमे नंदि ॥ ३७ ॥ गाहा || पक्खि चाउम्मासे, संवच्छरिए अवस्स भणियो । सोअव्वो सव्वेहि, उवसग्ग निवारणो एसो ॥ ३८ ॥ जो पढइ जो अनिसुणइ, उभो कालंपि अजिय संतिथयं ॥ न हु हुँति तस्स रोगा, पुव्वुप्पन्ना वि नासंति ॥ ३६ ॥ जइ इच्छह परम पयं, अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे ॥ ता तेलुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ॥ ४०॥
द्वितीयं लघु अजितशांति स्मरणम् ।
उल्लासिकमनक्ख निग्गयपहा दंडच्छलेणं गिणं, वंदारूण दिसंत इव्व पयर्ड निव्वाणमग्गावलि ॥ कुंदिंदुजल दंतकति मिसओ नीहंत नाणंकुरू, केरे दोवि दुइज सोलस
१ संवच्छर राईए अदिअहे अ, इति पाठान्तरम् ।
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द्वितीयं लघु अजितशांति स्मरणम. जिये थोसामि खेमंकरे ॥१॥ चरम जलहिनीरं जो मिणिअंजलीहिं, खय समय समीरं जो जिणिजा गईए ॥ सयल नहय लंबा लंघए जो पएहिं, अजियमहव संतिं सो समत्थो धुणेउं ॥ २ ॥ तहवि हु बहुमाणुल्लास भत्तिब्भरेण, गुणकणमिव कित्तिहामि चिंतामणि व्य । अलमहव अचिंता णंतसामत्थओसिं, फलिहइ लहु सव्वं वंल्लिअं णिच्छिअं मे ॥३॥ सयलजयहिआणं नाममित्तेण जाणं, विहडइ लहु दुछानिछदोघट्टथहं ॥ नमिरसुर किरीग्घिष्ठ पायारविंदे, सययमजिम संती ते जिणिदेभिवंदे ॥ ४ ॥ पसरइ वरकित्ती वड्दए देहदित्ती, विलसइ भुवि मित्ती जायए सुप्पवित्ती।। फुरइ परमतित्ती होइ संसारछित्ती, जिणजु पयभत्ती होम चिंतोरुसत्ती ।। ५ ।। ललिअपयपयारं भूरिदिव्यंगहारं, फुडघणरसभावो दारसिंगारसारं ॥ अणमिसरमणिज्ज इंसणच्छे अभीया, इव पुणमणि बंधा कासि नट्टोवधारं ॥ ६ ॥ थुणह अजिअसंती ते कया सेस संति, कणयरयपसंगा छजए जाणिमुत्ती ॥ सरभसपरिरंभा राभिनिव्वाणलच्छी, घणथणघुसि णिक्कु प्पंकर्षिगीकयव्य ॥ ७॥ बहुविहनयभंगं वत्थुणिचं, मणिचं, सदसदणभिलप्पा लप्पमेगं अगं । इय कुनय विरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसि, वयणमवयणिजं ते जिणे संमरामि ॥८॥ पसरइ तियलोए ताव मोहंधयारं, ममइ जय मसन्नं ताव मिच्छत्तछन्नं । फुरइ फुडफलंता गंतणाणं सुपूरो, पयडमजियसंती झाणसरो न जाव ।। ६ ॥ अरि करि हरि तिण्हू ण्हंबु चोराहिवाही, समर डमर मारी रुद्द खुद्दोवसरगा ॥ पलय
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--annow
(८) श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. मजिनसंती कित्तणे झत्ति जंती, निविडतरतमोहा भक्खरालुंखिअव्व ।। १० ॥ निचिअदुरिअदारु दित्तझाणग्गिजाला, परिगय मिव गोरं, चिंतिधे माण रूवं ।। कणय निहसरेहा कंतिचोरं करिजा, चिरथिरमिह लच्छि गाढ संथंभिमव्व ॥ ११ ॥ अडवि निवडियाणं पत्थिवुत्तासिाणं, जलहि लहरि हीरं ताण गुत्ति ठियाणं ॥ जलिअ जलण जाला लिंगिाणं च झाणं, जणयइ लहु संति संतिनाहाजियाणं ॥१२॥ हरि करि परिकिण्णं पक पाइक्कपुण्णं, सयलपुहवि रजं छड्डिअं आणसजं । तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्गं, चरणमणुपवना हुंतु ते मे पसन्ना ॥ १३ ॥ छणससिवयणाहिं फुल्लनित्तुप्पलाहिं, थणभरनमिरीहिं मुट्ठिगिजोदरीहिं ॥ ललिअ भुअलयाहिं पीण सोणित्थलीहि, सयसुर रमणीहिं बंदिश्रा जेसि पाया ॥ १४ ॥ अरिस किडिभकुछ गंठि कासाइसार, खय जर वण लूा साससोसोदराणि ।। नहमुह दसणच्छी कुच्छिकण्णाइरोगे, मह जिणजुन पाया सुप्पसाया हरंतु ॥ १५ ॥ इन गुरुदुहतासे पक्खिए चाउमासे, जिणवर दुग थुत्तं वच्छरे वा पवित्तं ।। पढइ सुणइ सिज्झाएह झाएह चित्ते, कुणह मुणह विग्धं जेण घाएह सिग्धं ॥ १६ ॥ इय विजयाजियसत्तुपुत्त सिरिअजियजिणेसर, तह प्रइराविससेण तणय पंचम चक्कीसर । तित्थंकर सोलसम संति जिणवल्लह संथुम, कुरु मंगल मम हरसु दुरियमखिलंपि थुणंतह ॥ १७ ।
-~
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श्री नमिऊणनामकं तृतीयं स्मरणम् .
श्री नमिऊणनामकं तृतीयं स्मरणम् ।
नमिऊण पणय सुरगण, चूडामणि किरणरंजियं सुणिणो ॥ चलणजुअलं महाभय, पणासणं संथवं वुच्छं ॥ १ ॥ सडिय कर चरण नह मुह, निबुडु नासा विवन्न - लावण्णा || कुछ महारोगानल, फुलिंग निद्दढ सव्वंगा ||२|| ते तुह चलणा राहण, सलिलंजलिसे वढिय च्छाया || वण दवदढ्ढा गिरिपायव व्व, पत्ता पुणो लच्छि ॥ ३ ॥ दुव्वाय खुभिय जलनिहि, उब्भड कल्लोल भीसणारावे || संभंत भय विसंठुल, निज्जामय मुक्कवावारे || ४ || अविद लिय जाणवत्ता, खणेण पावंति इच्छित्रं कूलं ॥ पासजिण चलजुअलं, निच्चं चित्र जे नमंति नरा || ५ || खर पवशुद्धय वादव, जालावलि मिलिय सयल दुम गहणे || जंत मुद्ध मिय बहु, भीसणरव भसिमि वणे ॥ ६ ॥ जगगुरुणो कमजुचलं, निव्वाविय सयल तिहुणा भोयं ॥ जे संभरंति मणुआ, न कुणइ जलगो भयं तेसिं ॥ ७ ॥ विलसंत भोग भीसण, फुरिअरुण नयण तरल जीहालं ॥ उग्ग भुअंगं नवजलय, सत्यहं भीसणायारं || मन्नंति कीड सरिसं, दूर परिच्छूढ बिसम विसवेगा || तुह नामक्खर फुडसिद्ध, मंत गुरुआ नरा लोए ॥ ६ ॥ अडवी भिल्ल तक्कर, पुलिंद - सद्दल सद्दभीमासु || भयविहुर बुन्नकायर, उल्लूरि पहि सत्थासु || १० || अविलुत्तविहवसारा, तुह नाही पणाममवावारा || ववगय विग्धा सिग्धं, पत्ता हिय इच्छियं ठाणं ॥ ११ ॥ पञ्जलि आनलनयणं, दूरविधारियमुहं महाकायं ॥
( ९ )
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( १० )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
नह कुलिसघायविलि, गइंदकुंभत्थलाभो ॥ १२ ॥ पणय ससंभम पत्थिव, नहमणिमाणिक्क पडि पडिमस्स || तुह वयण पहरणधारा, सीहं कुद्धंपि न गति ॥ १३ ॥ ससिधवल दंतमुसलं, दहिकरुल्लाल बुट्टिउच्छाहं ॥ महुपिंग नयणजुअलं, ससलिल नवजलहरारावं ॥ १४ ॥ भीमं महाइंदं, अच्चासनंपिते नवि गणंति || जे तुम्ह चलण जुभलं, मुणिव तुंगं समल्लीणा || १५ || समरम्मि तिक्ख खग्गा, भिघाय पविद्ध उद्धयकबंधे || कुंतविणिभिन्न करि कलह, मुक्कसिकार पउरम्म ।। १६ ।। निजिय दप्पुद्धर रिउ, नरिंदनिवहा भडा जसं धवलं || पार्वति पाव पसमिय, पासजिण तुपभावेण || १७ || रोग जल जला विसहर, चोरारि, मईंद गय र भयाई || पास जिणनाम संकित्तणेण पसमंति सव्वाई ॥ १८ ॥ एवं महा भयहरं, पास जिगिदस्स संथवमुरं । भविय जणाणंदयरं, कल्ला परंपरनिहाणं ॥ १६ ॥ राय भय जक्ख रक्खस, कुसुमिण दुस्सउ रिक्ख पीडासु ॥ संकासु दो पंथे, उवसग्गे तह य रयणीसु ॥ २० ॥ जो पढइ जो अनिसुराइ, ताणं कइयो य माणतुंगस्स || पासो पावं पसमेउ, सयल भुवणच्चिश्र चलणो ॥ २१ ॥
-
श्री गणधरदेव स्तुतिरूपं चतुर्थं स्मरणम् । तं जयउ जए तित्थं, जमित्थ तित्थाहित्रेण वीरेण ॥ सम्मं पवत्तियं भव्व, सच संताय सुहजणयं ॥ १ ॥
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श्री गणधरदेव स्तुतिरूपं चतुर्थ स्मरणम् . (११) नासिय सयलकिलेसा, निहयकुलेसा पसत्थ सुहलेसा ॥ सिरिवद्धमाण तित्थस्स, मंगलं दितु ते अरिहा ॥२॥ निहडकम्मबीआ, बीना परमेठिणो गुणसमिद्धा ॥ सिद्धा तिजय पसिद्धा, हणंतु दुस्थाणि तित्थस्स ॥ ३॥ आयारमायरंता, पंचपयारं सया पयासंता ॥ आयरिश्रा तह तित्थं, निहय कुतित्थं पयासंतु ॥४॥ सम्मसुम वायगा वायगा य, सिवाय वायगा वाए ।। पवयण पडणीय कए, वर्णितु सबस्स संघस्स ॥ ५ ॥ निव्वाणसाहणुज्जुय, साहूणं जणि सव्व साहला ॥ तित्थप्पभावगा ते, हवंतु परमेठिणो जइणो ।। ६ ॥ जेणाणुगयं णाणं, निव्वाणफलं च चरणमवि हवइ ॥ तित्थस्स दंसणं तं, मंगुलमवणेउ सिद्धियरं ॥ ७ ॥ निच्छम्मो सुयधम्मो, समग्ग भव्वंगिवग्ग कयसम्मो ॥ गुणसुठिअस्स संघस्स, मंगलं सम्ममिह दिसउ ॥ ८ ॥ रम्मो चरित्तधम्मो, संपावित्र भव्वसत्त सिवसम्मो ।। नीसेस किलेसहरो, हवउ सया सयल संघस्स ।।६।। गुणगण गुरुणो गुरुणो, सिवसुहमइणो कुणंतु तित्थस्स । सिरिवद्धमाणपहुपय-डिअस्स कुसलं समग्गस्स ॥ १० ॥ जियपडिवक्खाजक्खा, गोमुह मायंग गयमुह पमुक्खा ॥ सिरि बंभ संति सहिआ, कय मयरक्खा सिवं दितु ॥११॥ अंबा पडिहयडिंबा, सिद्धा सिद्धाइया पवयणस्स ।। चक्केसरि वहरुट्टा, संति सुरा दिसउ सुक्खाणि ॥ १२ ॥ सोलस. विजादेवीओ, दितु संघस्स मंगलं विउलं ॥ अच्छुत्ता सहिआमओ, विस्सुम सुयदेवयाउ समं ॥ १३ ॥ जिण सासण
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(१२)
श्री सप्त स्मरणा दि नित्यस्मरण.
कय रक्खा, जक्खा चउवीस झासणसुरा वि | सुहभावा संतावं, तित्थस्स सया पणासंतु ॥ १४ ॥ जिणपवयणम्मि निरया, विरया कुपहाउ सयहा सव्वे । वेशावच्च करावित्र, तित्थस्स हवंतु संतिकरा ॥ १५ ॥ जिणसमय सुद्धसमग्ग, विहिय भन्बाण जयणि साहजो॥ गीयरई गीअजसो, सपरि. वारो सिवं दिसउ ॥ १६ ॥ गिहगुत्त खित्त जल थल, वण पव्वयवासि देव देवीओ ॥ जिण सासणठिाणे, दुहाणि सव्वाणि निहणंतु ॥ १७ ॥ दस दिसिवाला सक्खित्तवालया नवग्गहा सनक्खत्ता ॥ जोइणि राहुग्गह काल-पास कुलिअद्ध पहरेहि ॥ १८ ॥ सहकाल कंटएहिं, सविष्ठिवत्थेहिं कालवेलाहिं । सव्वे सव्वत्थ सुह, दिसंतु सव्वस्त संघस्स ॥१६ ।। भवणवइ वागामंतर, जोइस वेमाणिआ य जे देवा ।। धरणिंद सक सहिमा, दलंतु दुरिआई तित्थस्स ।। २० ॥ चकं जस्स जलंतं, गच्छइ पुरो पणासियतमोहं ।। तं तित्थस्स भगवओ, नमो नमो वद्धमाणस्स ।। २१ ॥ सो जयउ जिणो वीरो, जस्सजवि सासणं जए जयइ । सिद्धिपह सासणं कुपह, नासणं सव्वभय महणं ।। २२ ॥ सिरि उसभसेण पमुहा, हयभय निवहा दिसंतु तित्थस्स ।। सन्न जिणाणं गणिहारिणो णहं वंछियं सव्वं ॥ २३ ॥ सिरि वद्धमाण तित्थाहिवेण तित्थं समप्पियं जस्स ॥ सम्मं सुहम्म सामी, दिसउ सुहं सयल संघस्स ।। २४ ।। पयइए भदिया जे, भद्दाणि दिसंतु सयलसंघस्स ।। इयरसुरा विहु सम्म, जिणगणहर कहिय कारिस्स ॥ २५ ॥ इय जो पढइ तिसंझ,
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श्री गुरुपारतंत्र्यनामकं पंचमं स्मरणम् । (१३) दुस्सझं तस्स नत्थि किंपि जए ॥ जिणदत्ताणाए ठिो, संनिहिअठो सुही होई ॥ २६ ॥
श्री गुरुपारतंत्र्यनामकं पंचमं स्मरणम् । मयरहियं गुणगण रयण, सायरं सायरं पणमिऊणं ॥ सुगुरुजण पारतंतं, उवहिव्व थुणामि तं चेव ॥ १ ॥ निम्महिय मोह जोहा, निह य विरोहा पण संदेहा ॥ पणयंगि वग्ग दावि, सुह संदोहा सुगुण गेहा ॥ २ ॥ पत्तसुजइत्त सोहा, समत्त परतित्थ जणि संखोहा । पडिभग्ग मोह जोहा, दंसिप सुमहत्थ सत्थोहा ॥३॥ परिहरि सत्थवाहा, हय दुहदाहा सिवंबतरुसाहा ॥ संपाविप सुहलाहा, खीरोदहिणुव्व अग्गाहा ॥ ४ ॥ सुगुणजण जणिय पुजा, सजोनिरुवज गहिअ पयजा । सिवसुह साहण सजा, भवगिरि गुरु चूरणे वजा ॥ ५॥ अजसुहम्मप्पमुहा, गुणगण निवहा सुरिंद विहिन महा ! ताण तिसंझं नाम, नामं न पणासइ जियाणं ॥ ६ ॥ पडिवजिय जिण देवो, देवायरित्रो दुरंत भवहारी ॥ सिरि नेमचंद सूरी, उज्जोमण सूरिणो मुगुरु ॥ सिरि वद्धमाण सूरी, पयडीकथ सूरि मंत माहप्पो ॥ पडिहय कसाय पसरो, सरयससंकुव्व सुह जणो ॥८॥ सुहसील चोर चप्परण, पञ्चलो निचलो जिणमयंमि । जुगपवर सुद्धसिद्धत, जाणो पणय सुगुण जणो ॥ ६ ॥ पुरओ दुल्लहमहिवल्लहस्स, अणहिल
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(१४)
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
वाडए पयर्ड ।। मुकाविआरिऊणं, सीहेण व दवलिंगिय गया ॥ १० ।। दसमच्छेरयनिसिविप्फुरंत सच्छंद सूरिमय तिमिरं ॥ सूरेण व मूरि जिणे,-सरेण हयमहिम दोसेण ॥११॥ सुक्कइत्त पत्त कित्ती, पयडि गुत्ती पसंत सुहमुत्ती ॥ पहय परवाइ दित्ती, जिणचंद जईसरो मंती ॥ १२ ॥ पयडिन नवंग सुत्तत्थ, रयणुक्कोसो पणासि पओसो ॥ भवभीय भवित्र जणमण, कयसंतो सो विगय दोसो ॥१३॥ जुग पवरागम सार, परूवणा करणबंधुरो धणिअं । सिरि अभयदेव सूरी, मुणिपवरो परम पसमधरो ॥ १४ ॥ कय सावय संतासो, हरिव्य सारंग भग्ग संदेहो ।। गय समय दप्प दलणो, आसाइअ पवरं कबरसो ॥ १५ ॥ भीम भव काणणंमि अ, दंसिप गुरुवयण रयण संदेहो ॥ नीसेस सत्त गुरुओ, सूरी जिणवल्लहो जयह ॥१६॥ उवरिटिअ सच्चरणो, चउरणुप्रोगप्पहाण सचरणो ॥ असम मयराय महणो, उनुमुहो सहइ जस्स करो ॥ १७ ॥ दंसिप निम्मल निचल, दंतगणो गणिय सावोत्थ भो ॥ गुरुगिरि गरुओ सरहुव्व, सूरि जिणवल्लहो होत्था ॥ १८ ॥ जुग पवरागम पीऊस-पाण पीणिय मणाकया भव्या ।। जेण जिणवल्लहेणं, गुरुणा तं सव्वहा वंदे ॥ १६ ॥ विप्फुरिय पवर पवयण, सिरोमणी बूढ दुबह खमोय ॥ जो सेसाणं से सुब्ब, सहइ सत्ताण ताणकरो ॥ २० ॥ सच्चरिमाण महीणं, सुगुरूणं पारतंत मुव्वहइ ।। जयइ जिणदत्त सूरी, सिरि निलयो पणय मुणितिलो ।। २१ ।।
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सिग्धमवहरउ नामकं षष्ठं स्मरणम् ।
सिग्धमवहरउ नामकं षष्ठं स्मरणम् ।
सिranars विग्धं, जिणवीराणाणुगामि संघस्स । सिरि पास जिणो थंभण, पुरट्टिभो निट्ठिआनिट्ठो ॥ १ ॥ गोयम सुहम्म पमुद्दा, गणवइणो विहित्र भव्य सत्तसुहा ॥ सिरि वद्धमाण जिण तित्थ, सुत्थयं ते कुणंतु सया ॥ २ ॥ सकाइयो सुराजे, जिण वेयावच्च कारिणो संति || अवहरिय विघ संघा, हवंतु ते संघ संतिकरा | ३ || सिरि थंभणय हिय पास, सामि पयपउम पणय पाणीणं ॥ निद्दलिय दुरिय विंदो, धरणिदो हरउ दुरियाई || ४ || गोमुह पमुक्ख जक्खा, पडिय पडिवक्ख पक्ख लक्खा ते ॥ कयसगुण संघ रक्खा, हवंतु संपत्त सिव सुक्खा ॥ ५ ॥ अप्पडिचक्का पमुहा, जिंणसास देवयावि जिणपणया || सिद्धाइमा समेया, हवंतु संघस्स विग्घहरा || ६ || सक्काएसा सच्चउर, - पुरडिओ वद्धमाण जिणभत्तो । सिरि बंभसंति जक्खो, रक्खउ संघ पयत्तेण ॥ ७ ॥ खित्तगिह गुत्त संताण, देस देवाहिदेवया ताओ || निव्वुद पुर पहिचाणं भव्वाण कुणंतु सुक्खाणि ॥ ८ ॥ चक्केसरि चक्कधरा, विहिपहरिउछिन्न कंधरा धणियं ॥ सिवसरण लग्ग संघस्स, सव्वहा हरउ विश्वाणि ॥ ६ ॥ तित्थवइ वद्धमाणो, जिसरो संग सुसंघेण । जिणचंदो भयदेवो, रक्खउ जिणवल्लहो पहुमं ।। १० । सो जयउ वद्धमाणो, जिणेसरो सरुव्व हयतिमिरो || जिण चंदा भयदेवा, पहुणो जिणवल्लहा जे अ ।। ११ ।। गुरु जिणवल्लह
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(१५)
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( १६ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण,
पाए, भयदेव पहुत्त दायगे वंदे || जिणचंद जिणेसर वद्धमाण तित्थस्स बुकिए || १२ || जिणदत्ताणं सम्मं मन्नंति कुणंति जे य कारंति || मणसा वयसा वउसा, जयंतु साह - मिश्रा वि ।। १३ ।। जिणदत्त गुणे नाणा - इणो, सया जे धरंति धारंति ॥ दंसि सिवाय पए, नमामि साहम्मिश्रा तेवि ॥ १४ ॥
उवसग्गहरं नामकं सप्तमं स्मरणम् ।
उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कमघणमुक्कं । विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्ला आवासं ॥ १ ॥ विसहर फुलिंग मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्स गह रोग मारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं || २ || चिट्ठउ दूरे मंतो, तुझ पामो वि बहुफलो होइ । नर तिरिएस वि जीवा, पावंति न दुक्ख दोहग्गं || ३ || तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि कप्पपाय व भहिए | पावंति अविग्घेणं, जीवा श्रयरामरं ठाणं ॥ ४ ॥ इ संधु महायस, भत्तिभर निन्भरेण हिश्रएण । ता देव दिज बोहिं भवे भवे पास जिणचंद ॥ ५ ॥
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॥ इति सप्त स्मरणानि ॥
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श्री मक्तामर स्तोत्रम् ।
(१७) श्री भक्तामर स्तोत्रम् । भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा-मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् ।। सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ १ ॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबोधा,-दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥ स्तोत्रैर्जगत्रितयचित्तहरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथम जिनेन्द्रम् ॥ २ ॥ युग्मम् ।। बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ !, स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् ।। बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब-मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥ ३॥ वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांककांतान , कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।। कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रं, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !, कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥ प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥ ५ ॥ अन्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥ यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरोति, तच्चारुचूतकालिकानिकरैकहेतुः ॥ ६॥ त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसंनिबद्धं, पायं घणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ॥ आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥ मत्वति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद,-मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥ चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युति
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(१८) श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. मुपैति ननूदबिन्दुः ॥ ८॥ आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ॥ दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि ॥ 8 ॥ नात्यद्भुतं भुवनभूषणभूत नाथ, भूतैगुणैभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ।। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ १० ॥ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥ पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ॥ ११ ॥ यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुमिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत ! ॥ तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२॥ वक्त्रं क्य ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम् ॥ बिम्बं कलङ्कमलिनं क्ष निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकन्पम् ॥ १३ ॥ संपूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप,-शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति ।। ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं, कस्तानिवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि-नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् ।। कन्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ निधूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः, कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटीकरोषि ॥ गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ १५ ॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपजगन्ति ।। नाम्भोधरो
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श्री भक्कामर स्तोत्रम् । दरनिरुद्धमहाप्रभावः सूर्यातिशायिमाहमासि मुनीन्द्र लोके ॥ १७॥ नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहुबदनस्य न वारिदानाम् ॥ विभ्राजते तव मुखाजमनल्पकान्ति, विद्योतयजगदपूर्वशशांकबिंबम् ॥१८॥ किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सु नाथ! ॥ निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियजलधरैर्जलभारनः ॥१९॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ।। तेजः स्फुरन्माणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥ किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥ २१ ॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् , नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥ सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥ २२ ॥ त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस,-मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ।। त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ।। २३ ।। त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाचं, ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम् ॥ योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित बुद्धिबोधात , त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् ॥ धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनानिहराय
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(२०)
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥ तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन भवोदधिशोषणाय ॥ २६ ॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेष-स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! ॥ दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः, स्वमान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ उच्चैरशो. कतरुसंश्रितमुन्मयूख-माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।। स्पष्टोत्रसत्किरणमस्ततमोवितानं, बिम्ब रवि पयोधरपार्श्ववर्ति !॥ २८ ॥ सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥ बिम्बं विद्विलसदंशुलतावितानं, तुंगोदयादिशिरसीव सहस्ररश्मेः ।। २९ ।। कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥ उद्यच्छशांकशुचिनिझरवारिधार,-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिख शातकौम्भम् ॥ ३० ॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त,-मुचैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् ॥ मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभ, प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥ ३१ ।। उनि. द्रहेमनवपङ्कजपुञ्जकान्ती, पर्युन्नसन्नखमयूखशिखाभिरामौ ।। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३२।। इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र , धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥ यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३३॥ श्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल,- मत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपम् ॥ ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्त, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥ ३४ ॥ भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशो
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श्री भक्तामर स्तोत्रम् ।
(२१)
णिताक्त,-मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः।। बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥ ३५ ॥ कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्प, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्फुलिङ्गम् ॥ विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतन्तं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥ ३६ ॥ रक्तक्षणं समदकोकिलकएठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् ।। आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्क,-स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥ ३७ ॥ वल्गत्तुरंगगजगर्जित भीमनाद-माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् ।। उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं, त्वत्की.
र्चनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥ ३८ ॥ कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह,-वेगावतारतरणातुरयोधभीमे । युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा,-स्त्वत्पादपङ्कजवनायिणो लभन्ते ॥ ३६ ॥ अम्भोनिधौ चुभितभीषणनक्रचक्र,-पाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ ।। रङ्गत्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्रा,-स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥ ४० ॥ उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताच्युतजीविताशाः ॥ त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मयों भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥ ४१ ॥ आपादकंठमुरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गा, गाढं बृहनिगडकोटिनिघृष्टजंघाः ॥ त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगतबंधभया भवन्ति ॥४२ मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि,-संग्रामवारिधिमहोदरबंधनोत्थम् ॥ तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३॥ स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र ! गुखैर्निवद्धां,
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(२२)
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् ।। धत्ते जनो य इह कएठगतामजलं, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥
श्री वृद्धशान्तिः । भो भो भव्याः शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतद् , ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोराहता भक्तिभाजः ॥ तेषां शान्तिर्भवतु भवतामहदादिप्रभावा-दारोग्यश्रीधृतिमतिकरी क्लेशविध्वंसहेतुः ॥१॥ भो भो भव्यलोका! इह हि भरतैरावतविदेहसंभवानां, समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासनप्रकम्पानन्तरं अवधिना विज्ञाय, सौधर्माधिपतिः सुघोषाघण्टाचालनानन्तरं सकलसुरासुरेन्द्रैः सह समागत्य सविनयमईद्भट्टारकं गृहीत्वा, गत्वा कनकादिशृङ्गे, विहितजन्माभिषेकः शान्तिमुद्घोषयति, ततोऽहं कृतानुकारमिति कृत्वा, महाजनो येन गतः स पंथा, इति भव्यजनैः सह समागत्य, स्नानपीठे स्नानं विधाय, शान्तिमुद्घोषयामि ॥ तत्पूजायात्रास्त्रात्रादिमहोत्सवानन्तरमिति कृत्वा कर्ण दवा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा ॥ ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रीयन्तां भगवन्तोऽर्हन्त: सर्वज्ञाः. सर्वदर्शिनः ॥ त्रैलोक्यनाथाः, त्रैलोक्यमहिता, त्रैलोक्यपूज्याः, त्रैलोक्येश्वराः, त्रैलोक्योद्योतकराः । ॐ श्रीकेवलज्ञानी १, निर्वाणी २, सागर ३, महायश ४, विमल ५, सर्वानुभूति ६, श्रीधर ७, दत्त ८, दामोदर ९, सुतेजा १०, स्वामी ११, मुनिसुव्रत १२, सुमति १३,
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श्री वृद्धशान्तिः
( २३ )
शिवगति १४, अस्ताग १५, नमीश्वर १६, अनिल १७, यशोधर १८, कृतार्थ १६, जिनेश्वर २०, शुद्धमति २१, शिवकर २२, स्यन्दन २३, संप्रति २४, एते अतीतचतुर्विशति तीर्थंकराः ।।
ॐ श्री ऋषभ १, अजित २, संभव ३, अभिनन्दन ४, सुमति ५, पद्मप्रभ ६, सुपार्श्व ७, चंद्रप्रभ ८, सुविधि ६, शीतल १०, श्रेयांस ११, वासुपूज्य १२, विमल १३, अनन्त १४, धर्म १५, शान्ति १६, कुंथु १७, अर १८, मलि १९, मुनिसुव्रत २०, नमि २१, नेमि २२, पार्श्व २३, वर्धमान २४, एते वर्त्तमानजिनाः ॥
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ॐ श्रीपद्मनाभ १, शूरदेव २, सुपार्श्व ३, स्वयंप्रभ ४, सर्वानुभूति ५, देवश्रुत ६, उदय ७, पेढाल ८, पोट्टिल ६, शतकीर्ति १०, सुव्रत ११, अमम १२, निष्कषाय १३, निष्पुलाक १४, निर्मम १५, चित्रगुप्त (प्ति) १६, समाधि १७, संबर १८, यशोधर १६, विजय २०, मल्ल (लि) २१, देव २२, अनन्तवीर्य २३, भद्रंकर २४ ॥ एते भावितीर्थंकरा जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु ॥ ॐ मुनयो मुनिप्रवरा, रिपुविजयदुर्भिक्षकान्तारेषु दुर्गमार्गेषु रचंतु वो नित्यम् ॥ ॐ श्रीनाभि १, जितशत्रु २, जितारि ३, संवर ४, मेघ ५, धर ६, प्रतिष्ठ ७, महासेननरेश्वर ८, सुग्रीव ९, दृढरथ १०, विष्णु ११, वसुपूज्य १२, कृतवर्म १३, सिंहसेन १४, भानु १५, विश्वसेन १६, सूर १७ सुदर्शन १८, कुंभ १६, सुमित्र २०,
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(२४) श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. विजय २१, समुद्रविजय २२, अश्वसेन २३, सिद्धार्थ २४ ॥ इति वर्तमानचतुर्विंशतिजिनजनकाः ॥ ___ॐ श्रीमरुदेवा १, विजया २, सेना ३, सिद्धार्था ४, सुमंगला ५, सुसीमा ६, पृथिवीमाता ७, लक्ष्मणा ८, रामा 8, नन्दा १०, विष्णु ११, जया १२, श्यामा १३, सुयशा १४, सुव्रता १५, अचिरा १६, श्री १७, देवी १८, प्रभावती १६, पद्मा २०. वप्रा २१, शिवा २२, वामा २३, त्रिशला २४ ॥ इति वर्तमानजिनजनन्यः॥
ॐ श्रीगोमुख १, महायक्ष २, त्रिमुख ३, यवनायक ४, तुम्बुरु ५, कुसुम ६, मातङ्ग , विजय ८, अजित ६, ब्रह्मा १०, यक्षराज ११, कुमार १२, षण्मुख १३, पाताल १४, किन्नर १५, गरुड १६, गंधर्व १७, यक्षराज १८, कुबेर १६, वरुण २०, भृकुटि २१, गोमेध २२, पार्श्व २३, ब्रह्मशांति २४, ॥ इति वर्तमानजिनयक्षाः ॥
ॐ चक्रेश्वरी १, अजितबला २, दुरितारि ३, काली ४, महाकाली ५, श्यामा ६, शान्ता ७, भृकुटि ८, सुतारका ६, अशोका १०, मानवी ११, चंडा १२, विदिता १३, अंकुशा १४, कंदर्पा १५, निर्वाणी १६, बला १७, धारिणी १८, धरणप्रिया १६, नरदत्ता २०, गांधारी २१, अम्बिका २२, पद्मावती २३, सिद्धायिका २४, इति वर्चमानचतुर्विंशतितीर्थकरशासनदेव्यः ॥
ॐ ही श्री धृति, मति, कीर्ति, कांति, बुद्धि, लक्ष्मी,
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श्री बृद्धशांतिः । मेधा, विद्या, साधन, प्रवेशनिवेशनेषु, सुगृहीतनामानो जयंतु ते जिनेन्द्राः ॥ ॐ रोहिणी १, प्रज्ञप्ति २, वज्रशृंखला ३, वज्रांकुशा ४, चक्रेश्वरी ५, पुरुषदत्ता ६, काली ७, महाकाली ८, गौरी 8, गांधारी १०, सर्वास्त्रमहाज्वाला ११, मानवी १२, वैरोख्या १३, अच्छुप्ता १४, मानसी १५, महामानसी १६, एताः षोडश विद्यादेव्यो रक्षन्तु मे स्वाहा ॥ ॐ प्राचार्योपाध्यायप्रभृतिचातुर्वर्णस्य श्रीश्रमणसंघस्य शांतिर्भवतु । ॐ ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्वरराहुकेतुसहिताः सलोकपालाः सोमयमवरुणकुबेरवासवादित्यस्कन्दविनायकोपेता ये चान्येऽपि ग्रामनगरक्षेत्रदेवतादयस्ते सर्वे श्रीयन्तां प्रीयन्ताम् । अतीणकोशकोष्ठागारा नरपतयश्च भवन्तु स्वाहा ॥ ॐ पुत्रमित्रभ्रातृकलत्रसुहृत्स्वजनसंबन्धिबंधुवर्गसहिता नित्यं चामोदप्रमोदकारिणो भवंतु ॥ मसिंश्च भूमंडले आयतननिवासिनां साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणां, रोगोपसर्गव्याधिदुःखदौर्मनस्योपशमनाय शांतिभवतु ॥ ॐ तुष्टिपुष्टिऋद्धिवृद्धिमाङ्गन्योत्सवा भवन्तु ॥ सदा प्रादुर्भूतानि दुरितानि पापानि शाम्यन्तु, शत्रवः परामुखा भवंतु स्वाहा । श्रीमते शांतिनाथाय, नमः शांतिविधायिने ।। त्रैलोक्यस्यामराधीश,-मुकुटाभ्यर्चिताये ॥१॥ शांतिः शांतिकरः श्रीमान् , शांतिं दिशतु मे गुरुः ।। शांतिरेव सदा तेषां, येषां शांतिगृहे गृहे ॥ २ ॥ ॐ उन्मृष्टरिष्टदुष्ट, प्रहगतिदुःस्वमदुर्निमिचादि ॥ संपादितहितसंपद् , नामग्रहणं जयति शांतः ॥ ३॥ श्रीसंघपौरजनपद-राजा
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( २६ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
धिपराजसंनिवेशानाम् || गोष्ठिकपुरमुख्यानां व्याहरणैर्व्याहरेच्छांतिम् ॥ ४ ॥ श्रीश्रमण संघस्य शांतिर्भवतु, श्रीपौरलोकस्य शांतिर्भवतु || श्रीजनपदानां शांतिर्भवतु, श्रीराजाधिपानां शांतिर्भवतु, श्रीराजसंनिवेशानां शांतिर्भवतु, श्रीगोष्ठिकानां शांतिर्भवतु, ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा, ॐ
श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा ॥ एषा शांतिः प्रतिष्ठायात्रास्त्राश्रावसानेषु, शांतिकलशं गृहीत्वा कुंकुमचंदनकर्पूरागरधूपवासकुसुमांजलिसमेतः, स्नात्रपीठे श्रीसंघसमेतः, शुचिः शुचिवपुः पुष्पवस्त्रचन्दनाभरणालंकृतः, चन्दनतिलकं विधाय पुष्पमालां कंठे कृत्वा, शांति मुद्घोषयित्वा शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमिति ॥ नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्ष, सृजन्ति गायन्ति च मंगलानि ।। स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मंत्रान्, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके ॥ १ ॥ श्रहं तित्थयरमाया, सिवादेवी तुम्ह नयरनिवासिनी ॥ श्रम्ह सिवं तुम्ह सिवं,
सुहोवसमं सिवं भवतु स्वाहा || १ || शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ २॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः || मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ||३||
श्री जिनपंजरस्तोत्रम् |
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॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्रहँ अहँदुभ्यो नमो नमः । ॐ ह्रीं श्री आई सिद्धेभ्यो नमो नमः ॥ ॐ ह्री श्री श्रई श्राचार्येभ्यो
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श्री जिनपंजर स्तोत्रम् |
(२७)
नमो नमः ॥ ॐ ह्रीं श्री अर्ह उपाध्यायेभ्यो नमो नमः ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्रई श्रीगौतमस्वामिप्रमुख सर्व साधुभ्यो नमो नमः ॥ १ ॥ एष पञ्च नमस्कारः, सर्वपापचयंकरः || मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं भवति मंगलं ॥ २ ॥ ॐ ह्री श्री जये विजये,
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परमात्मने नमः ॥ कमलप्रभसूरीन्द्रो, भाषते जिनपंजरम् || ३ || एकभक्तोपवासेन, त्रिकालं यः पठेदिदं । मनोऽभिलषितं सर्वे, फलं स लभते ध्रुवम् ॥ ४ ॥ भूशय्या ब्रह्मचयें, क्रोधलोभविवर्जितः । देवताग्रे पवित्रात्मा, षण्मासैर्लभते फलम् || ५ || अर्हन्तं स्थापयेन्मूर्ध्नि, सिद्धं चक्षुर्ललाटके || आचार्य श्रोत्रयोर्मध्ये, उपाध्यायं तु घ्राण ||६|| साधुवृन्दं मुखस्याग्रे, मनःशुद्धिं विधाय च ॥ सूर्यचन्द्रनिरोधेन, सुधीः सर्वार्थसिद्धये ॥ ७ ॥ दक्षिणे मदनद्वेषी, वामपार्श्वे स्थितो जिनः ॥ अंगसन्धिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवंकरः ॥ ८ ॥ पूर्वाशां श्रीजिनो रक्षे, दायीं विजितेन्द्रियः ॥ दक्षिणाशां परं ब्रह्म, नैर्ऋतिं च त्रिकालवित् ॥ ६ ॥ पश्चि माशां जगन्नाथो, वायवीं परमेश्वरः ।। उत्तरां तीर्थकृत् सर्वा - मीशानीं च निरंजनः ।। १० ।। पातालं भगवानई, - नाकाशं पुरुषोत्तमः ॥ रोहिणीप्रमुखा देव्यो, रक्षन्तु सकलं कुलम् ||११|| ऋषभो मस्तकं रक्षे- दजितोऽपि विलोचने ॥ संभवः कर्णयुगलं, नासिकां चाभिनन्दनः ॥ १२ ॥ श्रोष्ठौ श्रीसुमती रक्षेद्, दंतान् पद्मप्रभो विभुः ॥ जिह्वां सुपार्श्वदेवोऽयं, तालु चन्द्रप्रभो विशुः ॥ १३ ॥ कंठं श्रीसुविधी
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( २८ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
रक्षेद्, हृदयं श्रीसुशीतलः ॥ श्रेयांसो बाहुयुगलं, वासुपूज्यः करद्वयम् ||१४|| अंगुलीर्विमलो रक्षे- दनन्तोऽसौ स्तनावपि ॥ सुधर्मोऽप्युदरास्थीनि श्रीशान्तिर्नाभिमंडलं ॥ १५ ॥ श्री कुंथुर्गुकं रक्षे- दरो रोमकटीतटं || मल्लरुरू पृष्ठिवंशं, जंघे च मुनिसुव्रतः ।। १६ ।। पादांगुलीर्नमी रक्षेत्, श्रीनेमि - श्ररणद्वयम् ॥ श्रीपार्श्वनाथः सर्वाङ्ग, वर्द्धमानचिदात्मकम् || १७ || पृथिवी जलतेजस्क- वाय्वाकाशमयं जगत् ॥ रचेदशेषपापेभ्यो, वीतरागो निरंजनः ॥ १३ ॥ राजद्वारे श्मशाने वा, संग्रामे शत्रुसंकटे ॥ व्याघ्र चौरानिसर्पादि-भूतप्रेतभयाश्रिते ।। १६ ।। अकाले मरणे प्राप्ते, दारिद्र्यापत्समाश्चिते ॥ पुत्रत्वे महादोषे, मूर्खत्वे रोगपीडिते ।। २० ।। डाकिनीशाकिनीग्रस्ते, महाग्रहगणार्दिते ॥ नद्युत्तारेऽध्ववैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ॥ २१ ॥ प्रातरेव समुत्थाय यः स्मरेजिनपंजरम् । तस्य किंचिद्भयं नास्ति, लभते सुखसंपदम् ॥ २२ ॥ जिनपंजरनामेदं यः स्मरत्यनुवासरं ॥ कमलप्रभराजेन्द्र-श्रियं स लभते नरः || २३ || प्रातः समुत्थाय पठेत् कृतज्ञो, यः स्तोत्रमेतज्जिनपंजराख्यम् || आसादयेत्स कम लप्रभाख्यां, लक्ष्मीं मनोवांछित पूरणाय ।। २४ ।। श्रीरुद्रपलीवरेण्यगच्छे, देवप्रभाचार्यपदाब्जहंसः ॥ वादीन्द्रचूडामणिरेष जैनो, जीयाद् गुरुः श्रीकमल प्रभाख्यः ॥ २५ ॥
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श्री ऋषि मंडल स्तोत्रम् |
श्री ऋषिमंडल स्तोत्रम् |
आद्यन्ताक्षरसंलक्ष्य - मक्षरं व्याप्य यत् स्थितम् । अग्निज्वालासमं नाद - बिंदु रेखासमन्वितम् ॥ १ ॥ अग्निज्वालासमाक्रान्तं, मनोमलविशोधकम् । देदीप्यमानं हृत्पद्मे, तत्पदं नौमि निर्मलम् ॥ २ ॥ श्रहमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे ॥ ३ ॥ ॐ नमोऽर्हृद्भ्य ईशेभ्यः, ॐ सिद्धेभ्यो नमो नमः । ॐ नमः सर्वसूरिभ्यः, उपाध्यायेभ्य ॐ नमः ||४|| ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः, ॐ ज्ञानेभ्यो नमो नमः । ॐ नमस्तत्त्वदृष्टिभ्य-श्चारित्रेभ्यस्तु ॐ नमः ॥ ५ ॥ श्रेयसेऽस्तु श्रियस्त्वेत, -दईदाद्यष्टकं शुभं । स्थानेष्वष्टसु विन्यस्तं पृथग्वीजसमन्वितम् ॥६॥ आद्यं पदं शिखां रक्षेत्, परं रचेत्तु मस्तकं । तृतीयं रक्षेनेत्रे द्वे, तुर्य रक्षेच्च नासिकाम् ॥ ७ ॥ पंचमं तु मुखं रक्षेत्, षष्ठं रक्षेच्च घंटिकाम् । नाभ्यं तं सप्तमं रक्षेद्, रक्षेत्पादांतमष्टमम् ॥ ८ ॥ पूर्वप्रणवतः सांतः, सरेको द्वयब्धिपंचषान् । सप्ताष्टदशसूर्यकान् श्रितो बिंदुस्वरान् पृथक् ||६|| पूज्यनामाचरा श्राद्याः, पंचैते ज्ञानदर्शने ।
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चारित्रेभ्यो नमो मध्ये, ही सांतः समलंकृतः ॥ १० ॥
( २९ )
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(३०)
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
ॐ हाँ ही हुँ हूँ है हैं ह्रौं । असिमाउसा-ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो ही नमः ॥ जंबूवृक्षधरो द्वीपः, क्षारोदधिसमावृतः । अर्हदायष्टकैरष्ट-काष्ठाषिष्ठरलंकृतः ॥ ११॥ तन्मध्ये संगतो मेरुः, कूटलबैरलंकृतः। उच्चैरुच्चैस्तरस्तार,-स्तारामंडलमंडितंः ॥ १२ ॥ तस्योपरि सकारांत, बीजमध्यास्य सर्वगम् । नमामि बिम्बमार्हन्त्यं, ललाटस्थं निरजनम् ॥ १३ ॥ अक्षयं निर्मलं शांतं, बहुलं जाड्यतोज्झितम् । निरीहं निरहंकारं, सारं सारतरं धनम् ॥ १४ ॥ अनुद्धतं शुभं स्फीतं, सात्विकं राजसं मतम् । तामसं चिरसंबुद्धं, तैजसं शर्वरीसमम् ॥ १५ ॥ साकारं च निराकारं, सरसं विरसं परम् । परापरं परातीतं, परं परपरापरम् . ॥१६ ।। एकवर्ण द्विवर्ण च, त्रिवर्ण तुर्यवर्णकम् ।। पंचवर्ण महावर्ण, सपरं च परापरम् ॥ १७ ॥ सकलं निष्कलं तुष्टं, निवृतं भ्रांतिवर्जितम् । निरंजनं निराकारं, निर्लेपं वीतसंश्रयम् ॥ १८ ॥ ईश्वरं ब्रह्मसंबुद्धं, बुद्धं सिद्धं मतं गुरुम् । ज्योतीरूपं महादेवं, लोकालोकप्रकाशकम् ॥ १६॥ अहंदाख्यस्तु वर्णातः, सरेफो बिंदुमंडितः । तुर्यस्वरसमायुक्तो, बहुधा नादमालितः ॥ २० ॥
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श्री ऋषि मंडल स्तोत्रम् । (५) अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे, वृषभाधा जिनोत्तमाः। वर्णेनिजैनिजैर्युक्ता, ध्यातव्यास्तत्र संगताः ॥ २१॥ नादश्चन्द्रसमाकारो, बिंदुर्नीलसमप्रभः। कलारुणसमासांतः, स्वर्णाभः सर्वतोमुखः ॥ २२ ॥ शिरःसंलीन ईकारो, विनीलो वर्णतः स्मृतः। वर्णानुसारसंलीनं, तीर्थकुन्मंडलं स्तुमः ॥ २३ ॥ चंद्रप्रभपुष्पदंतौ, नादस्थितिसमाश्रितौ । बिन्दुमध्यगतौ नेमि,-सुव्रतौ जिनसत्तमौ ॥ २४ ॥ पद्मप्रभवासुपूज्यौ, कलापदमधिष्ठितौ । शिरईस्थितिसंलीनौ, पार्श्वमल्ली जिनेश्वरौ ॥२५॥ शेषास्तीर्थकृतः सर्वे, हरस्थाने नियोजिताः । मायाबीजाक्षरं प्राप्ता,श्चतुर्विंशतिरहताम् ।। २६ ॥ गतरागद्वेषमोहाः, सर्वपापविवर्जिताः । सर्वदा सर्वकालेषु, ते भवंतु जिनोत्तमाः ॥ २७ ॥ देवदेवस्य यच्चक्रं, तस्य चक्रस्य या विभा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिनस्तु डाकिनी ॥२८॥ देवदेवस्य० । मा मां हिनस्तु राकिनी ॥ २६ ॥ देवदे० । मा मां हिनस्तु लाकिनी ॥ ३०॥ देव० । मा मां हिनस्तु काकिनी ॥ ३१ ॥ देवदे । मा मां हिनस्तु शाकिनी ॥ ३२ ॥ देव० । मा मां हिनस्तु हाकिनी ॥ ३३ ॥
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(३२)
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
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देव० । मा मां हिनस्तु याकिनी ॥ ३४ ॥ देव० । मा मां हिंसन्तु पन्नगाः ।। ३५ ।। देव० । मा मां हिंसन्तु हस्तिनः || ३६ | देव । मा मां हिंसन्तु राक्षसाः || ३७ || देव । मां मां हिंसन्तु वह्नयः ॥ ३८ ॥ देव० । मा मां हिंसन्तु सिंहकाः || ३६ || देव० । मा मां हिंसन्तु दुर्जनाः ॥ ४० ॥ देव० । मा मां हिंसन्तु भूमिपाः ॥ ४१ ॥ श्री गौतमस्य या मुद्रा, तस्या या भुवि लब्धयः । ताभिरभ्युद्यतज्योति, -रहं सर्वनिधीश्वरः ॥ ४२ ॥ पातालवासिनो देवा, देवा भूपीठवासिनः । स्वसिनोsपि ये देवाः सर्वे रक्षंतु मामितः ॥ ४३ ॥ asaलिब्धय ये तु परमावधिलब्धयः । ते सर्वे मुनयो देवा, मां संरक्षतु सर्वदा ॥ ४४ ॥ दुर्जना भूतवेतालाः पिशाचा मुद्गलास्तथा । सर्वेऽप्युपशाम्यंतु, देवदेवप्रभावतः || ४५ ।। ॐ ह्री श्रीश्च धृतिर्लक्ष्मी - गौरी चंडी सरस्वती । जयाम्बा विजया नित्या, क्लिन्ना जिता मदद्रवा ॥ ४६ ॥ कामांगा कामबाणा च, सानंदा नंदमालिनी । माया मायाविनी रौद्री, कला काली कलिप्रिया ॥४७॥ एताः सर्वा महादेव्यो, वर्तन्ते या जगत्रये । मह्यं सर्वाः प्रयच्छंतु, कांर्ति कीर्त्तिं धृतिं मतिम् ||४८ ||
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श्री ऋषिमंडल स्तोत्रम् ।
दिव्यो गोप्यः सुदुष्प्राप्यः, श्रीऋषिमंडलस्तवः । भाषितस्तीर्थनाथेन, जगत्राणकृतेऽनघः ॥ ४६॥ रणे राजकुले वह्नौ, जले दुर्गे गजे हरौ । श्मशाने विपिने घोरे, स्मृतो रक्षति मानवम् ॥५०॥ राज्यभ्रष्टा निजं राज्यं, पदभ्रष्टा निजं पदम् । लक्ष्मीभ्रष्टा निजां लक्ष्मी, प्राप्नुवन्ति न संशयः॥५१॥ भार्यार्थी लभते मायाँ, पुत्रार्थी लभते सुतम् ।। वित्तार्थी लभते वित्तं, नरः स्मरणमात्रतः ॥५२॥ स्वर्णे रूप्ये पटे कांस्ये, लिखित्वा यस्तु पूजयेत् । तस्यैवाष्टमहासिद्धिर्गृहे वसति शाश्वती ॥ ५३॥ भूर्जपत्रे लिखित्वेदं, गलके मूनि वा भुजे । धारितं सर्वदा दिव्यं, सर्वभीतिविनाशकं ॥ ५४॥ भृतैः प्रेतैर्ग्रहर्यक्षः, पिशाचैर्मुद्गलैर्मलैः । वातपित्तकफोद्रेकै-मुच्यते नात्र संशयः ॥ ५५ ॥ भूभुवःस्वस्त्रयीपीठ-वर्तिनः शाश्वता जिनाः। तैः स्तुतैर्वन्दितैदृष्टै-र्यत् फलं तत्फलं श्रुतौ ॥ ५६ ॥ एतद् गोप्यं महास्तोत्रं, न देयं यस्य कस्यचित् । मिथ्यात्ववासिने दत्ते, बालहत्या पदे पदे ॥ ५७ ॥ आचाम्लादि तपः कृत्वा, पूजयित्वा जिनावलिम् । अष्टसाहनिको जापः, कार्यस्तत्सिद्धिहेतवे ॥५॥
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
शतमष्टोत्तरं प्रात-र्ये पठंति दिने दिने । तेषां न व्याधयो देहे, प्रभवन्ति न चापदः ।। ५६ ॥ अष्टमासावधि यावद, प्रातः प्रातस्तु यः पठेत् । स्तोत्रमेतन्महातेजो, जिनबिम्ब स पश्यति ॥ ६ ॥ दृष्टे सत्यस्तो बिबे, भवे सप्तमके ध्रुवम् । पदं प्राप्नोति शुद्धात्मा, परमानंदनंदितः ॥ ६१ ॥ विश्ववंद्यो भवेद् ध्याता, कल्याणानि च सोऽश्नुते । गत्वा स्थान परं सोऽपि, भूयस्तु न निवर्तते ॥ ६२ ॥ इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं, स्तुतीनामुत्तमं परं । पठनात्स्मरणाजापा-लभ्यते पदमुत्तमं ॥६३ ॥
॥ इति श्रीऋषिमंडलस्तोत्रम् ॥ चेपकश्लोकानिराकृत्य मूलमंत्रकन्यानुसारेण लिखितं गणिश्रीक्षमाकन्याणोपाध्यायैः, तस्योपरि
मयापि लिखितमिदं स्तोत्रम् ।।
॥ श्री गोडी पार्श्वजिन वृद्ध स्तवन ॥
॥ दुहा ॥ वाणी ब्रह्मावादिनी, जागै जग विख्यात । पास तणा गुण गावतां, मुज मुख वसज्यो मात ॥१॥ नारंगै अणहलपुरै, अहमदाबादै पास । गौडीनो धणी जागतो, सहुनी पूरे भाश ॥२॥
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श्री गोडी पार्श्वजिन वृद्ध स्तवन ।
शुभ वेला शुभदिन घडी, मुहुरत एक मंडाण । प्रतिमा ते इह पासनी, थई प्रतिष्ठा जास
३५
॥ ३ ॥
( ढाल )
गुहिं विशाला मंगलीक माला, वामानो सुत साचोजी । भ्रूण कण कंचण मणी माणक दे, गौडीनो धणी जाचौजी ॥ गु० भणहलपुर पाटण मांहे प्रतिमा, तुरक त घर हुंती जी । अश्वनी भूमि अश्वनी पीडा, अश्वनी वाल विगूती जी ॥ गु० जागतो जक्ष जेहने कहिये, सुहणो तुरकने पैजी । पास जिनेश्वर केरी प्रतिमा, सेवक तुझ संतापै जी ॥ गु० ग्रह ऊठीने परगट करजे, मेघा गोठीने देजे जी । अधिको म लेजे ओछो म लेजे, टक्का पांचसै लेजेजी ॥ गु० नहिं पीस तो मारीस मुरडीस, मोरबंध बंधास्ये जी । पुत्र कलत्र धन हय हाथी तुझ, लच्छी घणी घर जास्यै जी ॥ गु० मारग पहिलो तुझ्ने मिलस्यै, सारथवाह जे गोठीजी । निलबट टीलो चोखा चढ्यो, वस्तु वहै तसु पोठी जी ॥ गु० ( दूहा )
मनसुं बहनो तुरकडो, मांर्ने वचन प्रमाण ।
बीबीने सुहगा तो, संभलावै सहि नाण ॥ १० ॥ बीवी बोले तुरकने, बडा देव है कोय |
अब सताब परगट करो, नहींतर मारै सोय ।। ११ ।। पाछली रात परोडीयै, पहली बंधै पाज । सुहणा मांहें सेठने, संभलावे जचराज
॥ १२ ॥
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
( ढाल ) एम कही जक्ष आयो राते, सारथवाहने सुहणे जी । पास तणी प्रतिमा तुं लेजे, लेतो सिर मत धूणे जी; एम०१३ पांचसै टक्का तेहने आपे, अधिको म आपिस वारू जी । जतन करी पहुंचाडे थानिक, प्रतिमा गुण संभारै जी; एम०१४ तुझने होसी बहु फलदायक, भाई गोठी सुणजे जी। पूजीस प्रणमीश तेहना पाया, प्रह ऊठीने थुणजे जी; एम०१५ सुहणो देईने सुर चान्यो, अपने थानक पहुतो जी । पाटण माहे सारथबाहु, हीडे तुरकने जोतोजी; एम० १६ तुरकै जातां दीठो गोठी, चोखा तिलक लिलाडै जो। संकेत पहुतो साचो जाणि, बोलावै बहु लाडै जी; एम० १७ मुझ घर प्रतिमा तुझनें आपुं, पास जिणेसर केरी जी। पांचसै टक्का जो मुझ आप, मोल न मांगु फेरी जी; एम०१८ नाणो देई प्रतिमा लेई, थानक पहुतो रंगै जी । केसर चंदन मृगमद घोली, विधिसुं पूजा रंगे जी; एम० १६ गादी खडी रूनी कीधी, ते मांहि प्रतिमा राखै जी। अनुक्रम आव्या परिकरमांहे, श्रीसंघ ने सुर साखै जी; एम०२० उच्छव दिन दिन अधिको थावे, सत्तर भेद सनात्रो जी। ठाम ठामना दरसण करवा, आवै लोक प्रभातो जी; एम० २१
( दुहा ) इंक दिन देखै अवधिसुं, परिकर पुरनो भङ्ग । . ...जतन करूं प्रतिमा तणो, तीरथ अछे अभंग ॥ २२ ॥
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श्री गोडी पार्श्वजिन वृद्ध स्तवन ।
सुहणो आपै सेठने, थल अटवी उजाड । महिमा थास्यै अति घणी, प्रतिमा तिहां पहुंचाड ॥ २३ कुशल खेम तिहां अछे, तुझनें मुझनें जाणि । शंका छोडी काम करि, करतो म करि संकाणि ॥ २४
पास मनोरथ पूरा करै, वाहण एक वृषभ जोतरै । परिकरथी परियाणों करै, एक थल चढ़ि बीजो उतरे ॥२५॥ चारै कोस आव्या जेतलै, प्रतिमा नवि चालै तेतलै । गोठी मनह विमासण थई, पास भुवन मंडावं सही ॥२६॥ आ अटवी किम करूं प्रयाण, कटको कोइ न दीसै पाहाण । देवल पास जिनेसर तणो, मंडावं किम गरथै विना ॥२७॥ जल विन श्रीसंघ रहस्यै किहां, सिलावटो किम आवै इहां । चिंतातुर थयो निद्रा लहै, जक्षराज आवीने कहै ।। २८ ।। गुंहली ऊपर नांणो जिहां, गरथ घणो जाणीजे तिहां । स्वस्तिक सोपारीने ठाणि, पाहण तणी उलटस्यै खाणि ॥२६ श्रीफल सजल तिहां किल जुओ, अमृत जलनी सरसी कूत्रो। खारा कूवा तणो इह सैनांण, भूमि पड्यो छै नीलो छाण ॥३० सिलावटो सीरोही वसै, कोढ परामवियो किस मिसै । तिहां थकी तुं इहां आणजे, सत्य वचन माहरो मानजे ॥३१॥ गोठीनो मन थिर थापियो, सिलावटैने सुहणो दियो । रोग गमीने पूरुं आस, पास तणो मंडे आवास ॥३२॥
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. सुपन माहे मान्यो ते वेण, हेम वरण देखाड्यो नेण । गोठी मनह मनोरथ हुआ, सिलावटैने गया तेडवा ॥३३।। सिलावटो आवै सूरमो, जीमें खीर खांड घृत चूरमो । घडै घाट करै कोरणी, लगन भलै पाया रोपणी ॥ ३४ ॥ थंभ थंभ कीधी पूतली, नाटक कौतिक करती रली । रंग मंडप रलियामणो रचै, जोतां मानवनो मन वसे ॥३॥ नीपायो पूरो प्रासाद, स्वर्ग समो मंडे आवास । दिवस विचारी इंडोघड्यो, ततखिण देवल उपर चड्यो।।३६॥ शुभ लगन शुभ वेलावास, पव्वासण बैठा श्री पास । महिमा मोटी मेरु समान, एकल मिल वगडे रहै वान ॥३७॥ वात पुराणी में सांभली, स्तवन मांहि सूधी सोकली। गोठी तणा गोतरीया अछ, यात्रा करीने परने पछै ॥३८॥
दुहा. विधन विडारन यक्ष जगि, तेहनो अकल सरूप । प्रीत करै श्री संघने, देखाडै निज रूप ॥ ३९ ॥ गिरुओ गोडी पास जिन, आपै अरथ भंडार । सांनिध करै श्रीसंघने, आशा पूरणहार ।। ४० ॥ नील पला? नील हय, नीलो थइ असवार । मारग चूका मानवी, बाट दिखावण हार ॥४१॥
ढाल. वरण अढार तणो लहै भोग, विधन निवारै टालै रोग । पवित्र थइ समरै जे जाप, टाले सघला पाप संताए ।॥४२॥
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श्री गोडी पार्श्वजिन वृद्ध स्तवन ।
निरधननइं घरि धननो सूत, आपै अपुत्रीयाने पुत्र । कायरने सूरापण धरै, पार उतारे लच्छी वरै ॥ ४३ ॥ दौर्भागीने दै सौभाग, पग विहूणाने आपै पग । ठाम नहीं तेहने चै ठाम, मन वंछित पूरै अभिराम ॥४४॥ निराधारने चै आधार, भवसायर ऊतारै पार । भारतीयानी आरत भंग, धरै ध्यान ते लहै सुरंग ॥४॥ समयों सहाय दीयै यक्षराज, तेहना मोटा अछे दिवाज । बुद्धि होणने बुद्धि प्रकाश, गूंगाने वचन विलास ॥४६॥ दुखियाने सुखनो दातार, भय भंजण रंजण अवतार । बंधन तूटै बेडी तणा, श्रीपार्श्व नाम अक्षर समरणा ॥४७॥
दुहा.
श्रीपार्श्व नाम अक्षर जपै, विश्वानर विकराल । हस्तियूथ दूरे टलै, दुद्धर सिंह सियाल ॥४८॥ चोर तणा भय चूकवै, विष अमृत उडकार । विषधरनो विष ऊतरै, संग्रामे जय जयकार ॥ ४९ ॥ रोग सोग दालिद्र दुःख, दोहग दूर पलाय । परमेसर श्री पासनो, महिमा मन्त्र जपाय ॥ ५० ॥
कडखानी चाल. उंजितु उंजितु उंज उपसम धरी, ॐ ही श्री श्रीपार्श्व भचर जपते । भूत ने प्रेत झोटिंग व्यंतर सुरा, उपसमै वार इकवीस गुणते । उंजितु.॥५१॥
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
दुद्धरा रोग सोगा जरा जंतने, ताव एकांतरा दुत्तपत गर्भबंधन व्रणं सर्प बिच्छू विर्षि, चालिका बालमेवा झखते.
साइणी डाइणी रोहणी रंकणी, फोटका मोटका दोष हुते । दाढ उंदर तणी कोल नोला तणी, श्वान सीयाल विकराल दंते. धरणेंद्र पद्मावती समर शोभावती,
।
जितु० ॥५२॥
अष्ट महाभय हरै कान पीडा टलै, ऊतरै मूल सीसग भतै ।
रंजितु० ॥ ५३ ॥
वाट घाट अटवी लखमी लोंदु मिलै सुजस वेलाउलै,
सयल आशा फलै मन हसंते. उंजितु० ॥५४॥
वदत वर प्रीतसुं प्रीतिविमल प्रभु,
श्रीपास जिस नाम अभिराम मन्तै. उंजितु० ॥ ५५ ॥
श्री गौतम स्वामीनो रास ।
बीर जिणेसर चरण कमल, कमलाकय वासो । पण मवि पणिशुं सामी साल, गोयम गुरु रासो ॥ मण तणु वयण एकंत करवि, निसुखो भो भविया । जिम निवसे तुम देह गेह, गुणगण गहगहिया ॥ १ ॥
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श्री गौतमस्वामीनो रास ।
जंबूदीव सिरि भरहखित्त, खोणीतल मंडण । मगह देस सेणिय नरेस, रिउदल बल खंडण || धणवर गुव्वर गाम नाम, जिहां गुणगण सज्जा । विप्प वसे वसुभूइ तत्थ, तसु पुहवी भजा ॥ २॥
ताण पुत सिरि इंदभूइ, भूवलय पसिद्धो । चउदह विजा विविध रूप, नारी रस लुद्धो ॥ विनय विवेक विचार सार, गुण गगह मनोहर । सात हाथ सुप्रमाण देह, रूवहि रंभावर ॥ ३॥
नयण वयण कर चरण, जिणवि पंकज जले पाडिय. । तेजहिं तारा चंद सूर, आकाश भमाडिय ||
रूहि मयण अनंग करवि, मेल्यो निरघाडिय । धीरमें मेरु गंभीर सिंधु चंगम चयचाडिय ॥ ४ ॥
खवि निवम रूव जास, जग जंपे किंचिय | एकाकी कलि भीत इत्थ, गुण मेन्या संचिय ॥ अहवा निश्चय पुव्व जम्म, जिणवर इस श्रंचिय । रंभा पउमा गौरी गंग, रति हा विधि वंचिय ॥ ५ ॥
नव बुध नवि - गुरु कवि न कोय, जसु श्रागल रहियो । पंच सया गुणपात्र छात्र, हींडे परवरियो ॥ करे निरंतर यज्ञ कर्म, मिथ्या मति मोहिय । अणचल होसे चरम नाग, दंसह विसोहिय ॥ ६ ॥
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४१
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण ।
वस्तु छन्द. जंबूदीवइ जंबूदीवइ भरह वासंमि ॥ खोणीतल मंडण मगह देस, सेणिय नरेसर । वर गुव्वर गाम तिहां, विप्प वसे वसुभूइ सुंदर ॥ तसु भन्जा पुहवी सयल, गुणगण रूव निहाण । ताण पुत्त विजा निलो, गोयम अतिहि सुजाण ॥७॥
भाषा. चरम जिणेसर केवलनाणी, चउबिह संघ पइट्ठा जाणी ।। पावापुरी स्वामी संपत्तो, चउविह देव निकायहि जुत्तो ॥८॥ देव समवसरण तिहां कीजे, जिण दीठे मिथ्यामति छीजे ॥ त्रिभुवन गुरु सिंहासन बेठा, ततखिण मोह दिगंत पइट्ठा ।।६।। क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाठा जिम दिन चौरा ।। देव दुंदुभि आकाशे बाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी।१० कुसुम कृष्टि विरचे तिहां देवा, चौसठ इंद्र जसु मागे सेवा । चामर छत्र शिरोवरि सोहे, स्वहि जिनवर जग सहु मोहे ।११॥ उपसम रस भर वरसंता, जोजन वाणी वखाण करंता ।। जाणवि वर्द्धमान जिण पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया १२ कांति समूहे झलझलकंता, गयण विमाणहि रणरणकंता॥ पेखवि इंदभूइ मन चिंते, सुर आवे अम यज्ञ हुवंते ॥१३॥ तीर तरंडक जिम ते वहता, समवसरण पुहता गहगहता ॥ तो अभिमाने गोयम जंपे, इण अवसर कोपे तणु कंपे॥१४॥ मूढा लोक अजाण्यु बोले, सुर जाणंता इम कांइ डोले । मूभागल को जाण भणीजे, मेरु अवर किम उपमा दीजे ॥१५॥
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श्री गौतमस्वामीनो रास ।
वस्तु छन्द.
वीर जिणवर वीर जिणवर, नाण संपन्न || पावापुरी सुरमहिय पतनाह संसार तारण । तिर्हि देवेहिं निम्मविय, समवसरण बहु सुख कारण || जिणवर जग उज्जोय करे, तेजहिं करी दिनकार | सिंहास सामी ठव्यो, हुआ सुजय जयकार ॥ १६ ॥
भाषा.
तो चढियो घण मान गजे, इंदभूह भूदेव तो । हुंकारो करी संचरिय, कवणसु जिगावर देव तो ॥ जोजन भूमि समोसरण, पेखवि प्रथमारंभ तो || दह दिसि देखे विबुध वधू, आवंती सुररंभ तो ॥ १७ ॥ मणिमय तोरण दंड ध्वज, कोसीसे नव घाट तो । वैर विवर्जित जंतुगण. प्रातिहारिज आठ तो ॥ सुर नर किन्नर असुरवर, इंद्र इंद्राणी राय तो । चित्त चमक्किय चिंतवे ए, सेवंतां प्रभु पाय तो ॥ १८ ॥ सहस किरण सम वीरजिण, पेखिय रूप विशाल तो । एह असंभव संभवे ए, साचो ए इंद्रजाल तो ॥ तो बोलावह त्रिजग गुरु, इंदभूह नामेण तो । श्रीमुख संशय सामि सवे, फेडे वेद पण तो ॥ १६ ॥ मान मेली मद ठेली करी, भगते नाम्यो सीस तो । पंचसयाशुं व्रत लियो ए, गोयम पहिलो सीस तो ॥ बंधव संजम सुखवि करे, अगनिभूह आवेय तो ॥ नाम लेई आभास करे, ते पस प्रतिबोधेय तो ॥ २० ॥
ર
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: ४४
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण ।
इण अनुक्रमे गणधर रयण, थाप्या वीर अग्यार तो । तो उपदेशे भुवन गुरु, संयमशुं व्रत बार तो ॥ बिहुं उपवासें पार ए, आपण विहरंत तो । गोयम संयम जग सयल, जय जयकार करत तो ||२१||
वस्तु छन्द.
इंदभूह इंदभूह, चढिश्रो बहु मान || हुंकारो करी कंपतो, समवसरण पहुतो तुरंत । जे संसासामि सवे, चरम नाह फेडे फुरंत || बोधि बीज सज्झाय मर्ने, गोयम भवह विरत्त । दिक्ख लेई सिक्खा सहिय, गणहर पय संपत्त ।। २२ ।।
भाषा,
श्राज हुआ सुविहाण, आज पचेलिमा पुण्य भरो । दीठा गोयम सामि, जो निय नयरों अमिय झरो ॥ सिरि गोयम गणहार, पंच सया मुनि परिवरिय । भूमिय करीय विहार, भवियण जन पडिबोह करे || समवसरण मझार, जे जे संसा उपजे ए । ते ते पर उपगार, कारण पूछे मुनि पवरो || २३ | जीहां जीहां दीजे दक्खि, तीहां तीहां केवल उपजे ए । आप कनें हुत, गोयम दीजें दान इस ॥
-गुरु उपर गुरुभक्ति, सामी गोयम ऊपनिय । इ छल केवलनाण, रागज राखे रंग भरे ॥ २४ ॥
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श्री गौतमस्वामीनो रास.
जो अष्टापद शैल. वंदे चंढी चवीस जिण । श्रातम लब्धि वसेण, चरम सरीरी सोइ मुनि ॥ इय देखणा निसुणेइ, गोयम गणहर संचलियो । तापस पन्नर सए, जो मुनि दीठो भावतो ए ॥ २५ ॥ तप सोसियनिय अंग, अम्ह संगति न ऊपजे ए । किम चढसे दृढकाय, गज जिम दीसे गाजतो ए ॥ गिरु एणे अभिमान, तापस जो मन चिंतवे ए । तो मुनि चढियो वेग, आलंबवि दिनकर किरण ||२६|| कंचण मणि निष्पन्न, दंड कलस ध्वज वड सहिय । खवि परमाणंद, जिणहर भरहेसर महिय ।।
निय निय काय प्रमाण, चिहुं दिसि संठिय जिगह बिंब | पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ||२७|| वयर सामीनो जीव, तिर्यकजृंभक देव तिहां । प्रतिबोधे पुंडरीक, कंडरीक अध्ययन भणी ॥ वलता गोयम सामि, सवि तापस प्रतिबोध करे । लेह आपण साथ, चाले जिम जूथाधिपति ॥ २८ ॥ खीर खांड घृत आणी, श्रमीय वूठ अंगुठ ठवे । गोयम एकण पात्र करावे पार सवे ॥ पंच सयां शुभ भाव, उज्जल भरियो खीर मिसे । साचा गुरु संयोग, कवल ते केवलरूप हुआ || २६ ॥ पंच सयां जिणनाइ, समवसरण प्राकार त्रय । पेखवी केवल नाण, उप्पन्नो उज्जोय करे ||
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
जाणे जिणवि पीयूष, गाजंती धन मेघ जिम । जिनवाणी निसुणेइ, नाणी हुया पंचसया ॥ ३० ॥
वस्तु छन्द. इणे अनुक्रमे इणे अनुक्रमे, नाण संपन्न । पन्नरह सय परिवरिय, हरिय दुरिय जिणनाह वंदई । जाणेवी जगगुरु वयण, तिह नाण अप्पाण निदइ ।। चरम जिनेसर इम भणे, गोयम म करिस खेदं । छेही जइ आपण सही, होस्यां तुल्ला बेउ ॥ ३१ ।।
भाषा.
सामियो ए वीर जिणंद, पूनम चंद जिम उल्लसिय । विहरियो ए भरहवासंमि, वरस बहुत्तर संवसिय ।। ठवतो ए कणय पउमेसु, पाय कमल संघे साहय । प्रावियो ए नयणाणंद, नयर पावापुरी सुरमहिय ।।३२॥ पेखियो ए गोयम सामि, देवशर्मा प्रतिबोध करे ।
आपणो ए त्रिशलादेवी, नंदन पुहतो परम पए ॥ वलतो ए देव आकाश, पेखवि जाणीय जिण समे ए। तो मुनि ए मन विखवाद, नादभेद जिम ऊपनो ए ॥३३॥ इण समो ए सामिय देखि, आप कनाझं टालियो ए। जाणतो ए तिहुअण नाह, लोक विवहार न पालियो ए॥ अति भलु ए कीधलुं सामि, जाण्युं केवल मागसे ए। चितवीयु ए बालक जिम, अहवा के. लागसे ए ॥३४॥
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श्री गौतमस्वामीनो रास. हुं किम ए वीर जिणंद, भगतिहिं भोलो मोलण्यो ।
आपणो ए अविहड नेह, नाह न संपे साचव्यो ए ॥ साचो ए वीतराग, नेह न जेणे लालियो ए । तिण समे ए गोयम चित्त, राग वैरागें वालियो ए ॥३॥
आवतो ए जो उल्लट्ट, रहितो रागे साहियो ए। केवल ए नाण उप्पन, गोयम सहिज उमाहियो ए ॥ तिहुअण ए जय जयकार, केवल महिमा सुर करे ए। गणधरु ए करय वखाण, भवियण भव इम निस्तरे ए ॥३६॥
वस्तु छन्द. पढम गणहर पढम गणहर, वरस पच्चास ॥ गिहवासें संवसिय, तीस वरस संजम विभूसिय । सिरि केवलनाण पुण, बार वरस तिहुअण नमंसिय ॥ राजगृही नयरी ठग्यो, बाणवइ वरसाओ । सामी गोयम गुणनिलो, होसे सिवपुर ठाओ ॥ ३७॥
भाषा.
जिम सहकारे कोयल टहुके, जिम कुसुमत्रने परिमल महके,
जिम चंदन सुगंध निधि ॥ जिम गंगाजल लहिरयां लहके, जिम कणयाचल तेजें झलके,
तिम गोयम सोभाग निधि ॥ ३८॥ जिम मान सरोवर निवसे हंसा, जिम सुरवर सिरि करणय वतंसा,
जिम महुयर राजीव वने ॥
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५८
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
जिम रयणायर रयणे विलसे, जिम अंबर तारागण विकसे,
तिम गोयम गुण केलि वने ॥ ३६ ॥ पूनम निसि जिम ससियर सोहे, सुरतरु महिमा जिम जग मोहे,
पूरव दिसि जिम सहसकरो ॥ पंचानन जिम गिरिवर राजे. नरवइ घर जिम मयगल गाजे,
तिम जिनशासन मुनिपवरो ।। ४० ॥ जिम सुरतरुवर सोहे शाखा, जिम उत्तम मुख मधुरी भाषा,
जिम वन केतकी महमहे ए॥ जिम भूमीपति भुयबल चमके, जिम जिनमंदिर घंटा रणके,
तिम गोयम लब्धे गहगह्यो ए ॥४१॥ चिंतामणि कर चढीयो आज, सुरतरु सारे वंछित काज,
___ कामकुंभ सहु वश हुमा ए॥ कामगवी पूरे मन कामिय, अष्ट महा सिद्धि आवे धामिय,
सामिय गोयम अणुसरो ए ॥ ४२ ॥ पणवक्खर पहिलो पभणीजे, मायावीज श्रवण निसुणीजे ।।
श्रीमती शोभा संभवे ए॥ देवह धुरि अरिहंत नमीजे, विनय पहु उवझाय थुणीजे,
इण मंने गोयम नमो ए ॥ ४३ ॥
१ प्राचार्य श्रीनिनकुशलसूरिजी महाराज के शिष्य श्रीविनय. प्रभ उपाध्यायनीने अपना संसारी भाई दरिद्र था उसके लिये यह गौतम स्वामीका रास बनाया है, इस रासके प्रभावसं वह धनवान हुमा । .
(ले० प्रवर्तक सुखसागरजी.)
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श्री गौतम स्वामीनो रास.
पुर पुर वसतां कांई करीजे, देश देशांतर काई ममीजें,
कवण काज आयास करो। प्रह ऊठी गोयम समरीजे, काज समग्गल ततखिण सीझे,
नव निधि विलसे तिहां घरे ए ॥४४॥ चउदह सय बारोत्तर वरसे, गोयम गणहर केवल दिवसे
कीयो कवित्त उपगार परो। आदहिं मंगल ए पभणीजे, परव महोच्छव पहिलो दीजे,
ऋद्धि वृद्धि कल्याण करो ॥ ४५ ॥ धन्य माता जिणे उयरे धरिया,धन्य पिता जिण कुल अवतरिया
धन्य सुगुरु जिणे दिक्खिया ए । विनयवंत विद्या भंडार, तसु गुण पुहवी न लम्भे पार,
. वड जिम शाखा विस्तरो ए। गोयम स्वामीनो रास भणीजे, चउविह संघ रलियायत कीजें,
__ ऋद्धि वृद्धि कल्याण करो ॥ ४६ ।। कुंकुम चंदन छडो दिवरावो, माणक मोतीना चोक पूरावो,
- रयण सिंहासण बेसणो ए। तिहां बेसी गुरु देशना देसी, भविक जीवनां काज सरेसी,
. नित नित मंगल उदय करो ॥ ४७ ।। . ॥ इति श्रीगौतमस्वामीनो रास संपूर्ण ॥
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण ।
राग-प्रभाती. राग प्रभाती जे करे, प्रह ऊगमते सूर । भूख्यां भोजन संपजे, कुरला करे कपूर. ॥ १॥ अंगुठे अमृत वसे, लब्धि तणा भंडार । जे गुरु गौतम समरिये, मनवंछित दातार. ॥२॥ पुंडरीक गोयम पमुहा, गणधर गुण संपन्न ! प्रह ऊठीनें प्रणमतां, चवदेसें बावन. ॥ ३ ॥ खंतिखमं गुणकलियं, सुविणीयं सव्वलद्धिसंपन। वीरस्स पढमसीसं, गोयमसामि नमंसामि. ॥ ४ ॥ सर्वारिष्टप्रणाशाय, सर्वाभीष्टार्थदायिने । सर्वलब्धिनिधानाय, गौतमस्वामिने नमः ॥ ५ ॥
श्री शत्रंजयनो रास. .
॥ दोहा. ॥ श्री रिसहेसर पाय नमी, आणी मन आनंद । रास भएं रलियामणो, शत्रुजय सुखकंद ॥१॥ संवत् चार सत्योतरें, हुवा धनेसर सूरि । तिणे शत्रुजय महातम कह्यु, शीलादित्य हजूर ॥ २ ॥ वीर जिणंद समोसा, शत्रुजय उपर जेम । इंद्रादिक आगल कह्यु, शत्रुजय महातम एम ॥३॥ शत्रुजय तीरथ सारिखं, नहिं छे तीरथ कोय । स्वर्ग मृत्यु पाताल में, तीरथ सघलां जोय ॥ ४ ॥ नामे नव निधि संपजे, दीठे दुरित पलाय । भेटतां भवभय टले, सेवंतां सुख थाय ॥ ५॥ जंबूनामे द्वीप ए, दक्षिण भरत मझार । सोरठ देश सोहामणो, तिहां के तीरथ सार ॥ ६ ॥
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श्री शत्रुंजयनो रास.
ढाल पहेली. नयरी द्वारामती, ए देशी. राग - रामग्री.
शत्रुंजय ने श्रीपुंडरीक, सिद्धक्षेत्र कहुं तहकीक । विमलाचलने करूं प्रणाम, ए शत्रुंजयनां एकवीश नाम ॥ १ ॥ ए श्रकणी ॥ सुरगिरि महागिरि ने पुण्यराशि, श्रीपद पर्वतेंद्र प्रकाश । महातीरथ पूरवे सुखकाम, ए शत्रुंजयनां एकवीश नाम ||२|| शाश्वत पर्वत ने दृढशक्ति, मुक्तिनिलो तेणें कीजे भक्ति | पुष्पदंत महापद्म सुठाम, ए शत्रुंजयनां एकवीश नाम ॥ ३ ॥ पृथ्वीपीठ सुभद्र कैलास, पातालमूल अकर्मक तास । सर्वकाम कीजें गुणग्राम, ए शत्रुंजयना एकवीश नाम ॥ ४ ॥ शत्रुंजयना एकवीश नाम, जपे जे बेठा आपणे ठाम । शत्रुं - जय यात्रानुं फल लहे, महावीर भगवंत एम कहे. ए० ॥ ५ ॥ ॥ दोहा ॥
५१
शत्रुंजय पहेले अरे, एंसी जोयण परिमाण । पहोलो मूले उंचपणे, छब्वीश जोयण जाण ॥ १ ॥ सीत्तेर जोयण जाणवो, बीजे आरे विशाल | वीश जोयण उंचो कह्यो, मुज वंदन ऋण काल || २ || साठ जोयण श्रीजे अरे, पहोलो तीरथराय । सोल योजन उंचो सही, ध्यान धरूं चित्त लाय ॥ ३ ॥ पचास जोयण पहोलपणे, चोथे आरे मझार | उंचो दश जोयण अचल, नित्य प्रणमे नर नार ॥ ४ ॥ बार योजन पंचम अरे, मूल तपो विस्तार । दोय योजन ऊंचो कह्यो, शत्रुंजय तीरथ सार ||५|| सात हाथ छड्डे अरे, पहोलो पर्वत एह । उंचो होशे सो धनुष, शाश्वतुं तीरथ एह ॥ ६ ॥
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
ढाल बीजी. जिनवरशुं मेरो मन लीनो, ए देशी. राग माशावरी. केवलज्ञानी प्रथम तीर्थंकर, अनंत सिद्धा इण ठामरे । अनंत वली सिद्धशे इण ठामें, तिणे करुं नित्य प्रणाम रे ॥१॥ शāजय साधु अनंता सिद्धा, सिद्धशे वलीय अनंत रे। जेणे शत्रुजय तीरथ नहिं भेट्यो, ते गर्भावास लहंत रे ॥ श० ॥२॥ फागण शुदि आठमने दिवसे, ऋषभदेव सुखकार रे । रायण रूख समोसर्या स्वामी, पूरव नवाणुं वार रे ॥ श० ॥३॥ भरत पुत्र चैत्री पूनम दिन, इण शत्रुजय गिरि आय रे। पांच कोडिशुं पुंडरीक सिद्धा, तेणें पुंडरीक कहाय रे ॥ श० ॥४॥ नमि विनमि राजा विद्याधर, बेबे कोडी संघात रे। फागुण शुदि दशमी दिन सिद्धा, तेणें प्रणमुं प्रभात रे ॥ श० ॥५॥ चैतर मास वदि चौदशने दिन, नमिपुत्री चोसठ रे । अणसण करी शत्रुजय गिरि उपर, ए सहु सिद्धा एकट्ट रे॥ श० ॥ ६ ॥ पोतरा प्रथम तीर्थंकर केरा, द्राविड ने वारिखिल्ल रे ॥ कार्तिक शुदि पूनम दिन सिद्धा, दश कोडी मुनि निःशल्य रे ।। श० ॥ ७ ॥ पांचे पांडव इण गिरि सिद्धा, नव नारद ऋषिराय रे। शांव प्रद्युम्न गया तिहां मुक्ते, आठे कर्म खपाय रे ।। श० ॥ ८॥ नेम विना त्रैवीश तीर्थकर, समोसर्या गिरिग रे । अजित शांति तीर्थकर बेहु, रह्या चोमासुं रंग रे ॥ श० ॥६॥ सहस्स साधु परिवार संघाते, थावच्चा सुत साधरे ॥ पांचशे साधु शुं शैलंग मुनिवर, शर्बुजये शिवसुख लाध रे ॥ श० ॥१०॥ असंख्याता मुनि
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श्री शत्रुजयनो रास ।
शत्रुजय सिद्धा, भरतेसरने पाट रे ॥ राम भने भरतादिक सिद्धा, मुक्ति तणी ए वाट रे ॥ श० ॥ ११॥ जालि मयालि ने उवयालि, प्रमुख साधुनी कोडि रे ॥ साधु अनंता शत्रुजय सिद्धा, प्रणमुंबे कर जोडी रे ।। श० ॥ १२ ॥
__ ढाल त्रीजी.
चोपाइनी देशी. शत्रुजयना कहुं सोल उदार, ते सुणजो सहु को सुविचार । सुणतां आनंद अंग न माय, जन्म जन्मनां पातक जाय ॥ १॥ ऋषभदेव अयोध्या पुरी, समोसर्या स्वामी हित करी । भरत गयो वंदनने काज, ए उपदेश दियो जिनराज ॥ २ ॥ जगमा महोटो अरिहंत देव, चोसठ इंद्र करे जसु सेव । तेहथी महोटो संघ कहाय, जेहने प्रणमे जिनवर राय ॥ ३॥ तेहथी महोटो संघवी कह्यो, भरत सुणीने मन गहगह्यो । भरत कहे ते किम पामीये, प्रभु कहे शत्रुजय यात्रा किये ॥ ४ ॥ भरत कहे संघवीपद मुझ, ते आपो हुँ अंगज तुज ।। इंद्रे आण्या अक्षत वास, प्रभु आपे संघवीपद तास ॥५॥ इंद्रे तेणी वेला तत्काल, भरत सुभद्रा बेहुने माल । पहेरावी घर संप्रेडीया, सखर सोनाना रथ आपिया ॥६॥ ऋषभदेवनी प्रतिमा वली, रत्न तणी कीधी मन रली । भरते गणधर घर तेडीया, शांतिक पुष्टिक सहु तीहां किया ।। ७ ।। कंकोतरी मूकी सहु देश, भरते तेड्यो संघ भशेष । प्राव्यों संघ अयोध्या पुरी, प्रथम तीर्थकर यात्रा करी ॥ ८ ॥ संघभक्ति कीधी प्रति घणी, संघ चलायो
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
श@जय भणी । गणधर बाहुबलि केवलि, मुनिवर कोडी साथे लिया वली ॥ 8 ॥ चक्रवर्तीनी सघली ऋद्धि, भरते साथे लीधी सीद्धि । हय गय रथ पायक परिवार, ते तो कहेता नावे पार ।। १० । भरतेश्वर संघवी कहेवाय, मार्गे चैत्य उद्धारतो जाय । संघ आव्यो शत्रुजय पास, सहुनी पूगी मननी आश ।। ११ । नयणे निरख्यो शत्रुजय राय, मणि माणिक मोतीशु वधाय । तीणे ठामे रही. महोत्सव कियो, भरते आणंदपुर वासियो ॥ १२ ॥ संघ शत्रुजय उपर चड्यो, फरसंतां पातक जडपड्यो । केवलज्ञानी पगलां तिहां, प्रणम्यां रायण रुख के जिहाँ ॥ १३ ॥ केवलज्ञानी स्नात्र निमित्त, ईशानेन्द्रे प्राणी सुपवित्त । नदी शत्रुजी सोहामणी, भरते दीठी कौतुक भणी ।। १४ ॥ गणधर देव तणे उपदेश, इन्द्रे वली दीघो आदेश । आदिनाथ तणो देहरो; भरते कराव्यो गिरि सेहरो ॥ १५ ॥ सोनानो प्रासाद उत्तंग, रत्न तणी प्रतिमा मनरंग। भरते श्री आदीश्वर तणी, प्रतिमा स्थापी सोहामणी ॥ १६ ॥ मरुदेवीनी प्रतिमा वली, माही पूनम थापी रली । ब्राह्मी सुंदरी प्रमुख प्रासाद, भरते थाप्या नवले नाद ॥ १७॥ एम अनेक प्रतिमा प्रासाद, भरते कराव्या गुरु प्रसाद ॥ एह भण्यो पहेलो उद्धार, सघलो ही जाणे संसार ॥ १८ ॥
ढाल चोथी.
राग-आशावरी. भरत तणे पाट आठमे, दंडवीर्य थयो रायो जी । भरत
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श्री शत्रुंजयनो रास.
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तणी परे संघ कीयो, शत्रुंजय संघवी कहायो जी ॥ १ ॥ शत्रुंजय उद्धार सांभलो, सोल महोटा श्रीकारो जी । श्रसंख्याता बीजा वली, ते न कहुं अधिकारों जी; श० ॥ २ ॥ चैत्य कराव्यं रूपा तणुं, सोनानां बिंब सारो जी । मूलगां बिंब भंडारीयां, पश्चिम दिशि तेणी वारो जी; श० ॥ ३ ॥ शत्रुंजयनी यात्रा करी, सफल कियो अवतारो जी । दंडवीर्य राजा तणो, ए बीजो उद्धारो जी; श० ॥ ४ ॥ सो सागरोपम व्यतिक्रम्या, दंडवीर्यथी जे वारो जी । ईशानेन्द्रे करावियो, ए त्रीजो उद्धारो जी; श० ।। ५ ।। चोथा देवलोकनो धणी, महेंद्र नाम उदारो जी । तिथे शत्रुंजयनो करावियो, ए चोथो उद्धारो जीः श० ।। ६ ।। पांचमा देवलोकनो धणी, ब्रह्मेन्द्र समकित धारो जी । तिणे शत्रुजयनो करावियो, ए पांचमो उद्धारो जी; श० ॥ ७ ॥ भवनपति इन्द्र तणो कियो, ए छट्टो उद्धारो जी । चक्रवर्ती सगर तोकियो, ए सातमो उद्धारो जी; श० ॥ ८ ॥ अभिनंदन पासे सुण्यो, शत्रुंजयनो अधिकारो जी । व्यंतरेन्द्रे करावियो, ए आठमो उद्धारो जी; श० ॥ ९ ॥ चंद्रप्रभ स्वामीनो पोतो, चंद्रशेखर नाम मल्हारो जी । चंद्रयश राये करावियो, ए नवमो उद्धारो जी; श० ॥ १० ॥ शांतिनाथनी सुखी देशना, शांतिनाथ सुत वारो जी । चक्रधर राय करावियो, ए दशमो उद्धारो जी; श० ॥ ११ ॥ दशरथ सुत जग दीपतों, मुनिसुव्रत सुवारो जी । श्रीरामचंद्रे करावियो, ए इग्यारमो उद्धारो जी श० ।। १२ ।। पांडव कड़े
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण ।
अमे पापिया, किम छूटुं मोरी मायो जी। कहे कुंती शत्रुजय तणी, जात्रा कियां पाप जायो जी; श० ॥ १३ ॥ पांचे पांडव संघ करी, शत्रुजय भेट्यो अपारो जी । काष्ठ चैत्य बिंब लेपनो, ए बारमो उद्धारो जी; श० ॥ १४ ॥ मम्माणी पाषाणनी, प्रतिमा सुंदर सरूपो जी । श्रीशत्रुजयनो संघ करी, स्थापी सकल सरूपो जी; श० ॥ १५ ।। अठोत्तर सो वरसां गयां, विक्रम नृपथी जि वारोजी । पोरवाड जावड करावियो, ए तेरमो उद्धारो जी; श० ॥ १६ ॥ संवत बारतेरोत्तरे, श्रीमाली सुविचारो जी । बाहडदे मुहूते करावियो, ए चौदमो उद्धारो जी; श० ॥ १७ ॥ संवत तेर एकोत्तरें, देसलहर अधिकारो जी। समराशाहे करावियो, ए पंदरमो उद्धारो जी; श० ॥ १८ ॥ संवत पनर सत्याशीय, वैशाख वदि शुभ वारो जी । करमे दोशी करावियो, ए सोलमो उद्धारो जी; श० ॥ १६ ॥ सांप्रत काले सोलमो, ए वरते के उद्धारो जी । नित्य नित्य कीजे वंदना ने, पामीजे भवपारो जी; श० ॥२०॥
॥ दोहा ॥ वली शत्रुजय महातम कहुं, सांभलो जिम के तेम । मूरि धनेसर इम कहे, महावीरे कयुं एम ॥ १ ॥ जेहवो तेहवो दर्शनी, शत्रुजे पूजनिक । भगवंतनो भेख मानतां, लाम होवे तहकीक ॥ २ ॥ श्री शजय उपरे, चैत्य करावे जेह । दल परिणाम समुं लहे, पन्योपम सुख तेह ॥ ३ ॥ शत्रुजय उपर देहरु, नवं नीपावे कोय । जीर्णोद्धार करावतां, आठ
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___ श्री शत्रुजयनो रास.
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गणुं फल होय ॥ ४ ॥ शिर उपर गागर धरी, स्नात्र करावे नार । चक्रवर्तीनी स्त्री थइ, शिवसुख पामे सार ॥५॥ कार्तिक पूनम शत्रुजय, चडीने करे उपवास । नारकी सो सागर तणो, करे कर्मनो नाश ॥ ६ ॥ कार्तिक पर्व महोटुं कमु, जिहां सिद्धा दश कोडी। ब्रह्म स्त्री बालक हत्या, पापथी नाखे छोडी ॥७॥ सहस्र लाख श्रावक भणी, भोजन पुण्य विशेष । शत्रुजय साधु पडिलाभतां, अधिको तेहथी देख ॥ ८॥
ढाल पांचमी.
धन्य धन्य गजसुकुमारने, ए देशी. शत्रुजे गया पाप छूटिये, लीजे आलोयण एमो जी। तप जप कीजे तिहां रही, तीर्थकर कडं तेमो जी; श० ॥१॥ जिण सोनानी चोरी करी, ए आलोयण तासो जी । चैत्री दिन शत्रुजय चडी, एक करे उपवासो जी; श० ॥ २ ॥ रत्नतणी चोरी करी, सात प्रांबिल शुद्ध थाय जी । काती सात दिन तप कियां, रत्नहरण पाप जाय जी; श० ॥३॥ कांसा पीचल तांबा रजतनी, चोरी कीधी जेण जी । सात दिवस पुरिमड्ड करे, तो छूटे गिरि एण जी; श० ॥ ४ ॥ मोती प्रवाला मुगिया, जेणे चोयाँ नर नारो जी। आंबिल करी पूजा करे, त्रण टंक शुद्ध आचारो जी; श० ॥ ५ ॥ धान्य पाणी रस चोरीयां, जे भेटे सिद्धखेत्रो जी । शत्रुजय तलहटी साधुने, पडिलामे शुद्ध चित्तो जी; श० ॥ ६ ॥ वस्त्राभरण जेणे हाँ, ते छूटे इणे मेलो जी। आदिनाथनी
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
पूजा करे, प्रह ऊठी बहु वहेलो जी; श० ॥ ७ ॥ देव गुरुर्नु धन जे हरे, ते शुद्ध थाये एमो जी । अधिकुं द्रव्य खरचे तीहां, पात्र पोषे बहु प्रेमो जी; श० ॥८॥ गाय भैस गोधा मही, गज ग्रह चोरणहारो जी। छूटे ते तप तीरथे, अरिहंत ध्यान प्रकारो जी; श. 18 पुस्तक देहरां पारकां, तीहां लखे आपणां नामो जी। छूटे छमासी तप कियां, सामायिक तीण ठामो जी; श० ॥ १० ॥ कुंवारी परिव्राजिका, सधव विधव गुरुनारो जी। व्रत भांजे तेहने कडं, छमासी तप सारो जी; श० ॥ ११ ॥ गो विप्र बालक ऋषि, एहना घातक जेहो जी। प्रतिमा आगे आलो. चतां, छूटे तप करी एहो जी; श० ॥ १२ ॥
___ ढाल छट्ठी।
ऋषभ प्रभुजीये, ए देशी । संप्रति काले सोलमो ए, वरते के उद्धार । शत्रुजय यात्रा करूं ए, सफल करूँ अवतार; श० ।। १ ।। छहरि पालता चालीये ए, शत्रुजय केरी वाट । पालीताणा पहोंचीये ए, संघ मळ्या बहु थाट । श० ॥ २ ॥ ललित सरोवर देखीये ए, वली सतानी वाव । तीहां विसामो लीजिये ए, वडने चोतरे आव; श० ॥ ३ ॥ पालीताणे पावडी ए, चढिये ऊठी प्रभात । शत्रुजी नदी सोहामणी ए, दूर थकी देखात श० ॥ ४ ॥ चढिये हिंगलाजने हडे ए, कलिकुंड नमिये पास । बारी माहे पेसीयें ए, प्राणी अंग उल्लास; श० ॥ ५॥ मरुदेवी टुंक मनोहरु ए, गज चढी मरुदेवी
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श्री शत्रुंजयनो रास्त्र ।
माय । शांतिनाथ जिन सोलमा ए, प्रणमीजे तसु पाय; श० || ६ || वंश पोरवाडे परगडो ए, सोमजी शाह मलार । रूपजी संघवी करावीयो ए, चोमुख मूल उद्धार; श०||७|| चोमुख प्रतिमा चरिचीयें ए, भमति मांहे भलां बिब | पांचे पांडव पूजियें ए, अदभुत आदि प्रलंब; ॥ ८ ॥ खरतर
सहि खांशुं ए, बिंच जुहारुं अनेक । नेमिनाथ चोरी नमुं ए, टालुं अलग उद्वेग श० ॥ ६ ॥ धर्मद्वार मांहे निसरु ए, कुगति करूं प्रति दूर । श्रावुं आदिनाथ देहरे ए, कर्म करुं चकचूर; श० ॥ १० ॥ मूलनायक प्रणमुं मुदा ए, आदिनाथ भगवंत | देव जुहारुं देहरे ए, भमती मांहे भगवंत; श० ॥ ११ ॥ शेत्रुंजा उपर कीजिये ए, पांचे ठामे स्नात्र । कलश श्रट्ठोत्तर सो करी ए, निर्मल नीरशुं गात्र; श० ॥ १२ ॥ प्रथम आदीश्वर आगले ए, पुंडरीक गणधार । रायण तल पगलां नमो ए, शांतिनाथ सुखकार; श० || १३ || रायतले पगलां नमुं ए, चोमुख प्रतिमा चार । बीजी भूमें बिंबवली ए, पुंडरीक गणधार; श० ॥ १४ ॥ सूरजकुंड निहालीयें ए, अति भली उलखाजोल । चेलग तलाई सिद्धशिला ए, अंगे फरसुं उल्लोलः श० ॥ १५ ॥ आदिपुर पाजें उतरुं ए, सिद्धवड लहुं विश्राम । चैत्यप्रवाडी इणी परे करी ए. सीध्यां वांछित कामः श० ॥ १६ ॥
* श्री जिनराज सूरीश्वरु ए, खरतर गच्छ गणधार ।
स्वाथे जेणे प्रतिष्ठा करी ए, शुभ दिवस शुभ वार ॥ श० ॥ इति प्रत्यन्तरेऽधिकः पाठः
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
जात्रा करी शत्रुजा तणी ए, सफल कीयो अवतार । कुशल क्षेमशुं श्रावीया ए, संघ सहु परिवार; श० ॥ १७ ॥* शत्रुजय रास सोहामणो ए. सांभलजो सहु कोय । घर बेठां भणे भावशुं ए, तसु जात्रा फल होय; श० ॥ १८ ॥+ संवत सोल छयाशीयें ए, श्रावण शुदि सुखकार । रास भण्यो शत्रुजा तणो ए, नगर नागोर मझार; श० ॥ १६ ॥ गिरओ गच्छ खरतर तणो ए, श्रीजिनचंद सूरीश । प्रथम शिष्य श्रीपूज्यना ए, सकलचंद सुजगीश; श० ॥ २० ॥ तास शिष्य जग जाणीये ए, समयसुंदर उवझाय ॥ रास रच्यो तेणें रूपडो ए, सुणतां आनंद थाय; श० ॥ २१ ॥
॥ इति श्री शत्रुजय रासः संपूर्णः ॥
* शगुंजय महातम सांभली ए, रास रच्यो अनुसार । जे भावे गावे भावशुं ए, मानंद होय अपार ॥ श० ॥
इति प्रत्यन्तरेऽधिकः पाठः
x भणशाली थिरु प्रति भलो ए, दयावंत दातार ।
शत्रुजय संघ करावियो ए, जेसलमेर मझार ॥ श० ॥ शत्रुजय महात्म्य ग्रन्थथी ए, रास रच्यो अनुसार । भाव भक्ते भणतां थकां ए, पामीजे भवपार ॥ श० ॥
इति प्रत्यन्तरेऽधिकः पाठः
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श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्र.
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् । कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीताभयप्रदमनिन्दितमविपनम् । संसारसागरनिमज्झदशेषजन्तु,-पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो,-स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥ २॥ (युग्मम्) सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप,-मसादृशाः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिकशिशुयदि वा दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मः ॥ ३ ॥ मोहक्षयादनुभव. मपि नाथ मर्यो, नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यसान् , मीयेत केन जलधेननु रत्नराशिः।।४॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ।।५।। ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश, वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः, | जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं, जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६। आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनानिदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति । जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः। सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग,मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥ मुच्यन्त एव
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દર
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. मनुजाः सहसा जिनेन्द्र, रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे, । चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ।। ६ ॥ त्वं तारको जिन कथं भविनां त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यजलमेष नून,-मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ १० ॥ यसिन् हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाऽथ येन, पीतं न किं तदपि दुर्द्धरवाडवेन ॥ ११ ॥ स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्ना,-स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन, चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ॥ १२ ॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तास्तदा बत कथं किल कर्मचौराः । प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके, नीलगुमाणि विपिनानि न कि हिमानी ।। १३ ।। त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूप-मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे। पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्य,दक्षस्य संभवि पदं ननु कर्णिकायाः ॥ १४ ॥ ध्यानाजिनेश ! भवतो भविनः चणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ १५ ।। अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् । एतत् स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि, यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या, ध्यातो जिनेन्द्र भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं, किं नाम
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श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्र.
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नो विषविकारमपाकरोति १ ॥ १७ ॥ त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । किं काच कामलिभिरीश ! सितोऽपि शङ्खो, नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ? ॥ १८ ॥ धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा, - दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । श्रभ्युद्गते दिन पतौ समहीरुहोऽपि किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ? ॥ १६ ॥ चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव, विष्वक् पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !, गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥ २० ॥ स्थाने गभीर हृदयोदधिसंभवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसंमदसंगभाजो, भव्या व्रजन्ति तरसाध्यजरामरत्वम् ॥ २१ ॥ स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः । येऽस्मै न विद्यते मुनिपुङ्गवाय ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ।। २२ ।। श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न, - सिंहासनस्थमिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै, - चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥ २३ ॥ उगच्छता तव शितिद्युतिमण्डलेन, लुप्तच्छदच्छावरशोकतरुर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तत्र वीतराग !, नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ॥ २४ ॥ भो भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन -मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव ! जगत्रयाय, मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते || २५ || उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ |, तारान्वितो वि
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
धुरयं विहताधिकारः । मुक्ताकलापकलितोच्वसितातपत्र,व्याजात् त्रिधा धृततनुर्बुवमभ्युपेतः ॥ २६ ॥ स्वेन प्रपूरितजगत्रयपिण्डितेन, कान्तिप्रतापयशसामिव संचयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥ २७ ॥ दिव्यस्रजो जिन ! नमत्रिदशाधिपाना-मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८ ॥ त्वं नाथ ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि, यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् । युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो! यदसि कर्मविपाकशून्यः ।। २६ ।। विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं, किं वाऽक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ।। अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः ।। ३० ॥ प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि रोषा,-दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायाऽपि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१॥ यदर्जदुर्जितधनौघमदभ्रभीमं, भ्रश्यत्तडिन्मुशलमांसलघोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे, तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥ ३२ ॥ ध्वस्तोकेशविकृताकृतिमय॑मुण्ड,-. प्रालम्बभृद्भयदवक्त्रविनियंदग्निः । प्रेतवनः प्रति भवन्तमपीरितो यः, सोऽस्याभवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥ ३३ ॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य-माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः, पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्ममाजः ॥ ३४ ॥ असिन्नपारभव
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श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्रम् |
(६५) वारिनिधौ मुनीश !, मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्र पवित्रमन्त्रे, किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति ? ॥ ३५ ॥ जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव !, मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्था:, प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते ? ।। ३७ ।। कर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या | जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः || ३८ ॥ त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य !, कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य ! | भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय, दुःखाकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ।। ३९ ।। निःसङ्ख्यसारशरणं शरणं शरण्य-मासाद्य सादितरिपु प्रथितावदातम् । त्वत्पाद - पङ्कजमपि · प्रणिधानवन्ध्यो, वध्योऽस्मि चेद् सुत्रनपावन ! हा इतोऽस्मि ॥ ४० ॥ देवेन्द्रवन्द्य विदिताखिलवस्तुसार 1, संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ ! | त्रायस्व देव करुणाइद ! मां पुनीहि सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥ ४१ ॥ यद्यस्ति नाथ ! भवदङ्घ्रिसरोरुहाणां, भक्तेः फलं किमपि संततिसंचितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥ ४२ ॥ इत्थं समा
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श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
हितधियो विधिवजिनेन्द्र !, सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकिताङ्गभागाः । त्वबिम्बनिर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्ष्या, ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः ॥ ४३ ।। जननयनकुमुदचन्द्र !, प्रभास्वराः स्वर्गसंपदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ ४४ ।।
श्री तिजयपहुत्त स्तोत्रम् । तिजयपहुत्तपयासय,-अट्टमहापाडिहेरजुत्ताणं । समयखित्तठिाणं, सरेमि चकं जिणिंदाणं ॥१॥ पणवीसा य असीया, पनरस पन्नास जिणवरसमूहो । नासेउ सयलदुरिअं, भविषाणं भत्तिजुत्ताणं ॥२॥ वीसा पणयाला विश्र, तीसा पनत्तरी जिणवरिंदा । गहभूअरक्खसाइणी-घोरुषसग्गं पणासेउ ॥३॥ सत्तरि पणतीसा विश्र, सट्ठी पंचे जिणगणो एसो । वाहिजलजलणहरिकरि,-चोरारिमहाभयं हरउ ॥४॥.पणपण्णा य दसेव य, पण्णट्ठी तहय चेव चालीसा । रक्खंतु मे सरीरं, देवासुरपणमिया सिद्धा ॥ ५॥ ॐ हरहुंहः सरसुंसः, हरहुंहः तहय चेव सरसुंमः। आलिहियनामगन्मं, चकं किर सम्बोभदं ॥६॥ ॐ रोहिणि पण्णत्ति, वजसिंखला तह य वज्ज अंकुसिया । चक्केसरि नरदत्ता, कालि महाकालि तह गोरी ॥७॥ गंधारि महज्जाला, माणवि वहरुट्ट तह य अच्छुत्ता । माणसि महामाणसिआ, विजादेवीओ रक्खंतु ॥८॥ पंचदसकम्मभूमिसु, उप्पानं सत्तार जिणाण सयं । विविहरयणाइवण्णो,-वसोहिअं हरउ दुरिमाई
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गयमाहा गयषणसान।।११।।
श्री तिजयपहुत्त अने जय तिहुमण. (६७)
.xxxxrammarrrrrrrrrrrrrrrrrr ॥९॥ चउतीसअइसयजुआ, अट्ठमहापाडिहेरक्यसोहा । तित्थयरा गयमोहा, झाएअव्वा पयत्तेणं ॥ १० ॥ ॐ वरकणयसंखविदुम, मरगयषणसंनिहं विगयमोहं । सत्चरिसयं जिणाणं, सव्वामरपूइअं वंदे । स्वाहा ॥ ११॥ ॐ भवणवइवाणवंतर,-जोइसवासी विमाणवासी । जे केवि दुट्ठदेवा, ते सव्वे उवसमंतु ममं । स्वाहा ॥ १२ ॥ चंदणकप्तरेणं, फलए लिहिऊण खालिअं पीअं । एगंतराइगहभूत्र,-साइणिमुग्गं पणासेइ ॥ १३ ॥ इय सत्तरिसयजंतं, सम्मं मंतं. दुवारि पडिलिहिअं । दुरिमारिविजयवंतं, निभंतं निचमच्चेह ॥१४॥
श्री जय तिहुअण स्तोत्रम् । . जय तिहुअण वरकप्परुक्ख जय जिणधनंतरि, जय तिहुअणकलाणकोस दुरिअकरिकेसरि । तिहुअणजणअविलंधियाण भुवणत्तयसामिप्र, कुणसु सुहाइ जिणेस पास थंभणयपुरद्विअ ॥१॥ तइ समरंत लहंति झत्ति वरंपुत्तकलत्तइ, धण्णसुवण्णहिरण्णपुण्ण जण मुंजइ रजह । पिक्खइ मुक्खअसंखसुक्ख तुह पास पसाइण, इय तिहुअणवरकप्परुक्ख सुक्खइ कुण मह जिण ॥२॥ जरजजर परिजुण्णकण्ण नहट्ट सुकुट्टिण, चक्खुक्खीण खएण खुण्ण नर सनिम सलिण । तुह जिण सरणरसायणेण लहु हुँति पुणण्णव, जयधन्वंतरि पास मह वि तुह रोगहरो भव ॥ ३॥ विजाजोइसमंतप्तसिद्धिउ अपयत्तिण, भुवणन्भुउ अट्ठविह सिद्धि सिजहि तुह नामिण । तुह नामिण अपवित्तमो वि जण
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(६८)
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
होइ पवित्तउ, तं तिहुअणकल्लाणकोस तुह पास निरुत्तर ॥ ४ ॥ खुद्दपउत्तइ मंत-तंत-जंताइ विसुत्तइ, चरथिरगरलगहुग्गखग्गरिउवग्ग विगंजइ । दुत्थियसत्थ अणत्थपत्थ नित्थारइ दय करि, दुरियइ हरउ स पासदेउ दुरियकरिकेसरि ॥५।। तुह आणा थंभेइ भीमदप्पुरद्धरसुरवर,-रक्खस -जक्ख-फणिंदविंद-चोरा-नल-जलहर । जलथलचारि रउद्दखुद्दपसुजोइणिजोइअ, इय तिहुअण अविलंधिप्राण जय पास सुसामिय ॥ ६ ॥ पत्थियअत्थ अणत्थतत्थ भत्तिब्भरनिन्भर, रोमंचंचित्र चारुकाय किन्नरनरसुरवर । जसु सेवहि कमकमलजुअल पक्खालिसकलिमलु, सो भुवणत्तयसामि पास मह मद्दउ रिउबलु ।। ७॥ जय जोइअमणकमलभसल भयपंजरकुंजर, तिहुअणजणाणंदचंद भुवणत्तयदिणयर । जय महमेइणिवारिवाह जय जंतुपियामह, थंभणयट्टिा पासनाह नाहत्तण कुण मह ।।८।। बहुविहवण्णु अवण्णु सुन्नु वण्णिउ छप्पन्निहि, मुक्खधम्मकामस्थकाम नर नियनियसस्थिहिं । जे झायहि बहुदरिसणस्थ बहुनामपसिद्धउ, सो जोइअमणकमलभसल सुहु पास पवद्धउ ।। ६ ॥ भयविन्भल रणझणिरदसण थरहरिप्रसरीरय, तरलिअनयण विसण्ण सुन्न गग्गरगिर करुणय । तइ सहसत्ति सरंत हुंति नर नासिअगुरुदर, मह विज्झवि सज्झसइ पास भयपंजरकुंजर ॥ १० ॥ पई पासि विअसंतनित्तपत्तंतपवित्तिय,-वाहपवाहपवूढरूढदुहृदाह सुपुलइय । मन्नइ मन्नु सउन्नु पुन्नु अप्पाणं सुरनर, इय तिहुअणआणंदचंद जय पास जिणेसर ॥११॥
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श्री जय तिहुअण स्तोत्रम् | ( ६९ ) तुह कल्ला महेसु घंटटंकारवपिलि, वल्लिरमल्ल महल्लभत्ति सुरवर गंजुलि । हन्लुप्फलिअ पवत्तयंति भवणे वि महूसव, इय तिहुणभाणंदचंद जय पास सुहुन्भव ॥ १२ ॥ निम्मल केवल किरण नियर विहुरियतमपहयर, दंसि असयल पयत्थसत्थ वित्थरि पहाभर । कलिकलुसियजण धूलोयलोह गोयर, तिमिरइ निरु हर पासनाह भुवणत्तयदियर ||१३|| तुह समरणजलवरिससित्त माणवमइमेइणि, अवरावर सुहुमत्थवोह कंदलदलरेहणि । जायइ फलभरभारिय हरियदुदाह प्रणवम, इय महमेहणिवारिवाह दिस पास मई मम ॥ १४ ॥ कय अविकलकल्लाणवल्लि उल्लूरिय दुहवणु, दाविय सग्गपवग्गमग्ग दुग्गहगमवारणु । जयजंतुह जणएग तुल्ल जं जणिय हियावहु, रम्मु धम्मु सो जयउ पास जयजंतुपियामहु ।। १५ ।। भुवणारण्णनिवास दरिय परदरिसंणदेवय, जोइणि- पूयण - खित्तवाल खुद्दासुरपसुवय । तुह उत्तट्ठ सुनट्ठ सुट्टु अविसंटुलु चिट्ठहि, इय तिहुप्रणवणसीह पास पावाइ पणासहि ।। १६ ।। फणिफणफारफुरंत - रयणकररंजियनहयल. फलिणीकंदलदल - तमालनीलुप्पलसामल । कमठासुरउवसग्ग वग्ग संसग्गागंजिअ, जय पच्चक्खजिणेस पास थंभणयपुरट्टि | १७ || मह मणु तरलु पमा नेय वायावि विसंठुलु, नय तणुरवि प्रविणय सहावु आलसविहलं खलु । तुह माहप्पु पमाणु देव कारुण्ण पवित्त, इस मह मा अवहरि पास पालिहि विलवंतउ ।। १८ ।। किं किं कप्पिउ न य कलुणु किं किं व न जंपिउ, किं व न
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(७०) श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. चिद्विउ किट्ठ देव दीणयमवलंबिउ । कासु न किय निष्फल्ल लल्लि अम्हेहिं दुहत्तिहि, तहवि न पत्तउ ताणु किंपि पइ पहुपरिचत्तिहि ॥१६॥ तुहु सामिउ तुहु माय-वप्पु तुहु मित्त पियंकरु, तुहुँ गइ तुहु मह तुहु जि ताणु तुहु गुरु खेमंकरु । हउँ दुहभरभारिउ वराउ राउ निब्भग्गह, लोणउ तुह कमकमलसरणु जिण पालहि चंगह ॥ २० ॥ पइ किवि कय नीरोय लोय किवि पावियसुहसय, किवि मइमंत महंत केवि किवि साहियसिवपय । किवि गंजियरिउवग्ग केवि जसधवलियभूयल, मइ अवहीरहि केण पास सरणागयवच्छल १॥ २१ ॥ पच्चुवयारनिरीह नाह निप्पन्नपोयण, तुह जिण पास परोवयारकरणिकपरायण । सत्तुमित्तसमचित्तवित्ति नयनिंदयसममण, मा अबहीरि अजुग्गो वि मइ पास निरंजण ॥ २२ ॥ हउँ बहुविहदुहतत्तगत्त तुह दुहनासणपरु, हउँ सुयणह करुणिकठाण तुह निरु करुणायरु । हउँ जिण पास असामिसालु तुहु तिहुअणसामित्र, जं अवहीरहि मइ झखंत इय पास न सोहिय ॥ २३ ।। जुग्गाजुग्गविभाग नाह नहु जोअहि तुह सम, भुवणुवयारसहावभाव करुणारससत्तम । समविसमई किं घणु नियइ भुवि दाह समंतउ, इस दुहिबंधव पासनाह मइ पाल थुणंतउ ॥ २४ ॥ न य दीणह दीणयु मुयवि अन्नुवि किवि जुग्गय, जं जोइवि उवयारू करहि उवयारसमुन्जय । दीणह दीणु निहीणु जेण तइ नाहिण चत्तउ, तो जुग्गउ अहमेव पास पालहि मह चंगउ ॥ २५ ॥ अह अन्नुवि जुग्गयविसेसु किवि मन्नहि दीणह,
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श्री जय तिहुअण स्तोत्र अने गौतमाष्टक ।
( ७१ ) जं पासिवि उवयारु करइ तुह नाह समग्गह । सुच्चिय किलकल्लाणु जेण जिण तुम्ह पसीयह, किं अनि तं चैव देव मा मह वीरह || २६ || तुह पत्थण नहु होइ विहलु जिण बाणउ किं पुरा, हउं दुक्खिय निरु सत्तचत्त दुक्कहु उस्सुयमण । तं मन्नउ निमिसेण एउ एउ वि जइ लब्भइ, सच्चं जं क्खियवसेण किं उंबरु पच्चइ ॥ २७ ॥ तिहुअणसामित्र पासनाह मई अपु पयासिउ, किज्जउ जं नियरूवसरिसु न
उ बहु जंपिउ । अन्नु न जिय जग तुह समो वि दक्खिण्ण- दयासउ, जइ अवगण्णसि तुह जि श्रहह कह होसु हयासउ ॥ २८ ॥ जइ तुह रूविण किवि पेयपाइण बेलविउ, तु वि जाणुं जिण पास तुम्हि छउँ अंगीकरिउ । इय मह इच्छिउ जं न होइ सा तुह ओहावखु, रक्खंतह नियकित्ति य जुञ्जइ भवहीर ॥ २६ ॥ एह महारिय जत देव इहु न्हवण महूसउ, जं ऋण लियगुणगहण तुम्ह मुणिजणणिसिद्धउ | एम पसीह सुपासनाह थंभणयपुरट्ठिय, इय मुणिवरु सिरिअभयदेउ विण्णव दिय ॥ ३० ॥ ॥ इति श्रीस्तम्भनकतीर्थराजश्रीपार्श्वनाथस्तवनम् ॥
श्रीगौतमाष्टकम् ।
श्रीइन्द्रभूर्ति वसुभूतिपुत्रं, पृथ्वीभवं गौतम गोत्ररत्नम् । स्तुवन्ति देवासुरमानवेन्द्राः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ १ ॥ श्रीवर्द्धमानात् त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्त्तमात्रेण कृतानि
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( ७२ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
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येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशापि, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ २ ॥ श्रीवीरनाथेन पुरा प्रणीतं मन्त्रं महानन्दसुखाय यस्य | ध्यायन्त्यमी सूरिवराः समग्राः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे || ३ || यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षाभ्रमणस्य काले । मिष्टान्नपानाम्बरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ ४ ॥ अष्टापदाद्रौ गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ ५ ॥ त्रिपञ्चसंख्याशततापसानां, तपःकृशानामपुनर्भवाय । अक्षीण लब्ध्या परमान्नदाता, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ ६ ॥ सदक्षिणं भोजनमेव देयं, साधर्मिकं संघसपर्ययेव । कैवल्यवस्त्रं प्रददौ मुनीनां, सगौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ ७ ॥ शिवं गते भर्त्तरि वीरनाथे, युगप्रधानत्वमिव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रैः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ ८ ॥ श्री गौतमस्याष्टकमादरेण, प्रबोधकाले मुनिपुङ्गवा ये । पठन्ति सूरिपदं सदैव, नन्दं लभन्ते नितरां क्रमेण ॥ ६ ॥
श्री पद्मावती आराधना ।
हवे राणी पद्मावती, जीवराशि खमावे । जाणपणुं जगते भलुं, इण वेळा आवे || १ || ते मुज मिच्छामि दुक्कडं, अरिहंतनी शाख । जे में जीव विराधीया, चउराशी लाख ॥ ते मुज० ॥ २ ॥ सात लाख पृथ्वी तया, साते अपकाय । सात लाख ते कायना, साते वाउकाय || ते मुज० ॥ ३ ॥
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श्री पद्मावती आराधना ।
(७३)
दश प्रत्येक वनस्पति, चउदह साधारण । बी त्रि चउरिंद्रि जीवना, वे बे लाख विचार ॥ ते मुज० ॥ ४॥ देवता तियेच नारकी, चार चार प्रकाशी । चउदह लाख मनुष्यना, ए लाख चोराशी ॥ ते मुज० ॥ ५॥ इण भव परभव सेविया, जे पाप अढार । त्रिविध त्रिविध करी परिहरु, दुर्गतिना दातार ॥ ते मुज० ॥ ६ ॥ हिंसा कीधी जीवनी, बोन्या मृषावाद । दोष अदत्तादानना, मैथुन उन्माद ॥ ते मुज० ॥७॥ परिग्रह मेन्यो कारमो, कीधो क्रोध विशेष । मान माया लोभ में कीया, वळी राग ने द्वेष ॥ ते मुज. ॥८॥ कलह करी जीव दुहव्या, कीधां कूडा कलंक । निंदा कीधी पारकी, रति अरति निःशंक ॥ ते मुज० ॥३॥ चाडी कीधी चोतरे, कांधो थापण मोसो । कुगुरु कुदेव कुधर्मनो, भलो प्राण्यो भरोसो ॥ ते मुज० ॥ १० ॥ खाटकीने भवे में कीया, जीव नानाविध घात । चीडीमार भवे चरकलां, मायाँ दिन रात ॥ ते मुजः ॥ ११ ॥ काजी मुलांने भवे, पढी मंत्र कठोर । जीव अनेक जम्भे कीया, कीधां पाप अघोर ॥ ते मुज० ॥१२।। माछीने भवे माछलां, शान्यां जळवास । धीवर भील कोळी भवे, मृग पाड्या पाश ॥ते मुज० ॥ १३ ॥ कोटवाळने भवे में कीया, प्राकरा कर दंड। बंदीवान मरावीया, कोरडा छडी दंड ॥ ते मुज. ॥ १४ ॥ परमाधामीने भवे, दीधां नारकी दुःख । छेदन मेदन वेदना, ताडन अति तिक्ख ॥ ते मुजः ॥ १५ ॥ कुंभारने भवे में कीया, नीमाह पचाव्या । तेली भवे तिल
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( ७४ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
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पीलिया, पापे पींड भराव्यां ॥ ते मुजः ॥ १६ ॥ हाली भवे हळ खेडीयां, फाड्यां पृथ्वीनां पेट । सुड निदान घ कीधां, दीघां बळद चपेट ! ते मुज० ॥ १७ ॥ माळीने भवे रोपीयां, नाना- विध वृक्ष | मूळ पत्र फळ फूलनां, लाग्यां पाप ते लक्ष || ते मुज० ॥ १८ ॥ अधोवाइयाने भवे, भर्यां अधिक भार । पोठी पुंठे कीडा पंड्या, दया नाणी लगार ।। ते मुज० ।। १९ ।। छीपाने भवे छेतर्या, कीधा रंगण पास । अनि आरंभ कीधा घणा, धातुवाद अभ्यास || ते मुज० || २० || शूरपणे रण झूझतां, मार्या माणस वृंद | मदिरा मांस माखण भख्यां, खाधां मूळ ने कंद || ते मुज० ॥ २१ ॥ खाण खणावी धातुनी, पाणी उलेच्यां । आरंभ कीधा अति घणा, पोते पाप ज संच्या || ते सुज० || २२ || कर्म अंगार कीया वळी, घर में दव दीधा । सम खाधा वीतरागना, कूडा कोस ज कीधा || ते मुज० || २३ || बील्ली भवे उंदर लिया, गीरोली इत्यारी । मूढ गमार तणे भवे में जू लीख मारी || ते मुज• ॥ २४ ॥ भाडभुंजा तणे भवे, एकेन्द्रिय जीव । ज्वारी चणा गहुं शेकीया, पाडंता रीव ॥ ते मुज० ॥ २५ ॥ खांडण पीसण गारना, आरंभ अनेक | रांधण इंधण अग्निनां कीधां पाप उदेक || ते मुज० ॥ २६ || विकथा चार कीधी वळी, सेव्या पांच प्रमाद । इष्ट वियोग पाब्या कीया, रुदन विवाद || ते मुज० ।। २७ ।। साधु अने श्रावक तणां व्रत लहीने भांग्यां । मूळ अने उत्तर तणां, मुज दूषण लाग्यां ॥ ते मुज० ॥ २८ ॥ साप वींछी सिंह
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श्री पद्मावती आराधना भने नव ग्रह शान्ति ।
(७५)
चीवरा, शकरा ने समळी । हिंसक जीव तणे भवे, हिंसा कीधी सबळी ॥ ते मुजः ॥ २९ ॥ सुवावडी दूषण घणां, वळी गर्भ गळाव्या । जीवाणी घोळयां घणां, शीलवत भंजाव्या ॥ ते मुजः ॥ ३० ॥ भव अनंत भमतां थकां, कीधा देह संबंध । त्रिविध त्रिविध करी वोसिरुं, तिणशुं प्रतिबंध ॥ ते मुज० ॥ ३१ ॥ भव अनंत भमतां थकां, कीधा परिग्रह संबंध । त्रिविध त्रिविध करी वोसिहं, तिणशं प्रतिबंध ॥ ते मुज० ॥ ३२ ॥ भव अनंत भमतां थकां, कीधा कुटुंब संबंध । त्रिविध त्रिविध करी वोसिलं, तिणशुं प्रतिबंध ॥ ते मुज० ।। ३३ ।। एणी परे इह भव परभवे, कीधां पाप अखत्र । त्रिविध त्रिविध करी वोसिरुं, करुं जन्म पवित्र ।। ते मुज० ॥ ३४ ॥ एणी विधे ए आराधना, भवि करशे जेह । समयसुंदर कहे पापथी, वळी छूटशे तेह ॥ ते मुज० ॥ ३५ ॥ राग वेराडी जे सुणे, एह त्रीजी ढाळ । समयसुंदर कहे पापथी, छूटे तत्काळ ।। ते मुज० ॥ ३६ ।।
श्री चतुर्विशति जिन गर्भित
नव ग्रह शान्ति स्तोत्रम् । जगद्गुरुं नमस्कृत्य, श्रुत्वा सद्गुरुभाषितम् । ग्रहशान्ति प्रवक्ष्यामि, लोकानां सुखहेतवे ॥१॥ जिनेन्द्राः खेचरा ज्ञेयाः, पूजनीया विधिक्रमात् । पुष्पैर्विलेपनैधूप, नैवेद्यैस्तुष्टिहेतवे ॥२॥ पनप्रभस्य मार्तण्ड,-श्चन्द्रश्चन्द्रप्रमस्य च ।
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(७६) श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण. वासुपूज्ये भूमिपुत्रो, बुधोऽप्यष्टजिनेषु च ॥ ३॥ विमलाऽनन्त-धर्मा-Sराः, शान्तिः कुन्थु मिस्तथा । वर्द्धमानो जिनेन्द्राणां, पादपद्मे बुधं न्यसेत् ॥ ४ ॥ ऋषभा-ऽजितसुपार्धा-श्वाऽभिनन्दन-शीतलौ । सुमतिः सम्भवः स्वामी, श्रेयांसश्च बृहस्पतिः ।। ५ ।। सुविधेः कथितः शुक्रः, सुव्रतस्य शनैश्चरः । नेमिनाथे भवेद् राहुः, केतुः श्रीमल्लि-पार्श्वयोः ॥ ६ ॥ जनॉल्लग्ने च राशौ च, पीडयन्ति यदा ग्रहाः । तदा संपूजयेद्धीमान् , खेचरैः सहितान् जिनान् ॥ ७॥ पुष्पं गन्धादिभिधूपैः, फल-नैवेद्यसंयुतैः । वर्णसदृशदानैश्च, वासोभिर्दक्षिणान्वितैः ॥ ८ ॥ आदित्य-सोम-मङ्गल, बुधगुरु-शुक्राः शनैश्चगे राहुः । केतुप्रमुखाः खेटा, जिनपतिपुरतोऽवतिष्ठन्तु ॥ ६ ॥ जिननामकृतोच्चारा, देश-नक्षत्रवर्णकैः । स्तुताश्च पूजिता भक्त्या, ग्रहाः सन्तु सुखावहाः ॥ १० ॥ जिनानामग्रतः स्थित्वा, ग्रहाणां सुखहेतवे । नमस्कारशतं भक्त्या, जपेदष्टोत्तरं शतम् ॥ ११॥ भद्रबाहुरुवाचेदं, पञ्चमः श्रुतकेवली । विद्याप्रभावतः पूर्वाद् , ग्रहशान्तिविधिर्मतः ॥ १२ ॥
१ सूर्यग्रह क्रूर होय तो--पद्मप्रभ स्वामीना नामनी माला फेरववी । २ चन्द्रग्रह क्रूर होय तो-चन्द्रप्रभ स्वामीना नामनी माला फेरववी । ३ मंगलग्रह क्रूर होय तोचासुपूज्य स्वामीना नामनी माला फेरववी । ४ बुधग्रह क्रूर होय तो-विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, भरनाथ, नमिनाथ अने श्रीमहावीर स्वामीना
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श्री नव ग्रहशान्ति स्तोत्र अने तावनो छन्द. ( ७७ )
नामनी माला फेरववी । ५ बृहस्पतिग्रह क्रूर होय तोश्री ऋषभदेव, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ ने श्रेयांसनाथना नामनी माला फेरववी । ६ शुक्रग्रह क्रूर होय तो - सुविधिनाथना नामनी माला फेरववी । ७ शनैश्वर ग्रह क्रूर होय तोमुनिसुव्रत स्वामीना नामनी माला फेरववी । ८ राहु ग्रह क्रूर होय तो - श्री नेमिनाथना नामनी माला फेरववी । ९ केतुग्रह क्रूर होय तो- श्री मल्लिनाथ तथा पार्श्वनाथस्वामीना नामनी माला फेरववी ।
रंग मुजब सुपात्रने दान देवुं, गुरुभक्ति करवी, माला पूर्वोक्त फेरववी, द्रव्य अने भावथी जिनेश्वरनी पूजा करवी । तावनो छन्द ।
ॐ नमो आनंदपुर, अजयपाल राजान | माता अजया जनमियो, ज्वर तुं कृपानिधान || १ || सातरूप शक्ते हुवो, करवा खेल जगत | नाम धरावी जूजूवा, पसर्यो तुं इत उत || २ || एकांतरो बेलांतरो, तीओ चोथो नाम । सीत उष्ण विषमज्वरो, ए साते तुज नाम || ३ |
छंद मालदाम.
ए साते तुज नाम सुरंगा, जपतां पूरे कोडि उमंगा । ते नाम्या जे जालिमजुंगा, जगमां व्यापी तुज जस गंगा ॥ ४ ॥ तुज आगे भूपति सवि रंका, त्रिभुवनमें वाजें तुज डंका । माने नहिं तु केहने निशंका, तुं तूठो आपे सोवन टंका || ५ || साधक सिद्ध तणा मद मोडे, असुर सुरा तुज
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( ७८ )
श्री सप्त स्मरणादि नित्यस्मरण.
भागल दोडें । दुष्ट विष्टना कंधर तोडें, नमि चाले तेहने तुं छोडें ॥ ६ ।। आवंतो थरहर कंपावे, डाह्याने जिम तिम atra | पहेलो तुं कडिमांथी आवे, सौ सीरख पन सीत न जावे ॥ ७ ॥ ही ही हुं हुं कार करावें, पांसलियां हाडां करडावें । ऊनाले पण अमल जगावें, तापे पहिरणमां मृतरावे ॥ ८ ॥ आसो कार्तिकमां तुज जोरो, हठ्यो न माने धागो दोरो । देश विदेश पडावें सोरो, करे सबल तुं तातो दोरो || || तुं हाथीनां हाडां भांजे, पापीने तोड़े कर पंजे । भगत वच्छल भक्त जो रंजे, तो सेवकने कोई न गंजे ॥ १० ॥ फोडे तुं डक डमरु डार्क, सुरपति सरिखा माने हाकं । धमके धुंसड धीसड धाकं, चडतो चाले चंचल चाकं ॥ ११ ॥ पिसुण पछाडण नहिं को तोथी, तुज जस बोल्या जाय न कोथी । स विलंब करो ए थोथी, महिर करी अलगा रहो मोथी || १२ || भगत थकी एवडी कां खेडो, अबल मीना छांटा रेडो । राखो भगतनो ए निवेडो, महाराज मूको मुज केडो || १३ || लाजवसो मा अजया राणी, गुरु आणा मानो गुणखाणी । घरे सीधावो करुणा आणी, कहुँ धुं नाके लीटि ताणी ॥ १४ ॥ मंत्र सहित ए छन्द जे पढसे, तेहने ताव कदि नहिं चढसे । कान्ति कमला देहे नीरोगं, लहेसे नवला लीला भोगं ।। १५ ।।
कलश.
ॐ नमो धरी आदि बीज, गुरु नाम वदीजे । आनंदपुर अवनीश, अजयपाल आखीजे ||
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श्री सरस्वती स्तोत्रम्.
अजया जात अढार, वांची साते बेटा । जपतां एहीज जाप, भगतसुं न करे मेटा ॥ उतरें अंग चढीया, पलमें तारी वयणे मुदा । कहे कान्ति रोग नावे कदे, सार मंत्र गणीहं सदा ॥ १६ ॥
(७९)
श्री सरस्वती स्तोत्रम् |
द्रुतविलम्बित छन्दः ।
कलमरालविहङ्गमवाहना, सितदुकूलविभूषणभूषिता । प्रणत भूमिरुद्दामृतसारणी, प्रवरदेहविभाभरधारिणी ॥ १ ॥ अमृतपूर्ण कमण्डलुधारिणी, त्रिदश-दानव-मानवसेविता । भगवती परमैव सरस्वती, मम पुनातु सदा नयनाम्बुजम् ॥२॥ जिन पतिप्रथिताखिलवाङ्मयी, गणधराननमण्डपनर्तकी । गुरुमुखाम्बुजखेल नहंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता ||३|| अमृतदीधितिविम्ब समाननां त्रिजगतीजननिर्मित माननाम् । नवरसामृतवीचिसरस्वतीं, प्रमुदितः प्रणमामि सरस्वतीम् ॥४॥ विततकेत कपत्रविलोचने, विहितसंसृतिदुष्कृतमोचने । धवलपचविहङ्गमलाञ्छिते, जय सरस्वति । पूरितवाञ्छिते ॥ ५ ॥ भवदनुग्रहलेश तरङ्गिता, - स्त्वदुचितं प्रवदन्ति विपश्चितः । नृपसभासु यतः कमलाबलात्, कुचकलाललनानि वितन्वते ॥६ गतधना अपि हि त्वदनुग्रहात्, कलितकोमलवाक्य सुधोर्म्मयः । चकितबालकुरङ्गविलोचना, जनमनांसि हरन्तितरां नराः ॥७॥ करसरोरुहखेलनचञ्चला, तव विभाति वरा जपमालिका । श्रुत पयोनिधिमध्यविकस्वरो-ज्ज्वलतरङ्गकाग्र हसाग्रहा ||८||
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श्री जात स्मरणादि नित्यस्मरण.
द्विरद-केसरि-मारि-भुजङ्गमा,-ऽसहनतस्कर-राज-रुजां भयम्। तव गुणावलिगानतरङ्गिणां, न भविनां भवति श्रुतदेवते ॥९॥
नग्धरा वृत्तम्. ॐ ही की ब्लूँ ततः श्री तदनु हसकल ड्रीमथो ऐं नमोऽन्ते, लक्षं साचाजपेद् यः किल शुभविधिना सत्तपा ब्रह्मचारी। निर्यान्ती चन्द्रबिम्बात् कलयति मनसा त्वां जगचन्द्रिका, सोऽत्यर्थं वह्निकुण्डे विहितघृतहुतिः स्याद्दशांशेन विद्वान् १०
शार्दूल विक्रीडित वृत्तम्, रे रे लक्षण-काव्य-नाटक-कथा-चम्पूसमालोकने, क्वायासं वितनोषि बालिश ! मुधा किं नम्रवक्ताम्बुजः। भक्याऽऽराधय मन्त्रराजमहसा तेनाऽनिशं भारती, येन त्वं कवितावितानसविताऽद्वैतः प्रबुद्धायसे ॥११॥ चश्चच्चन्द्रमुखी प्रसिद्धमहिमा स्वच्छन्दराज्यप्रदा,ऽनायासेन सुरासुरेश्वरगणैरभ्यर्चिता भावतः । देवी संस्तुतवैभवा मलयजा लेपाङ्गरागद्युतिः, सा मां पातु सरस्वती भगवती त्रैलोक्यसंजीवनी ॥ १२ ॥
द्रुत विलम्बित. स्तवनमेतदनेकगुणान्वितं, पठति यो भविकः प्रमुदा प्रगे। स सहसा मधुरैर्वचनामृत,-नूपगणानपि रञ्जयति स्फुटम् ॥१३॥
॥ इत्यनुभूतसरस्वतीस्तवनम् ॥
समाप्त.
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तत्त्व
इतिहास
महोदधि
KUMAR PRINTERY, AHMEDABAD
जैनाचार्य
श्री विनयेन्द्रसरि ..
शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर इतिहास तत्त्व महोदधि जैनाचार्य
श्रीमद् विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
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शास्त्रविशारद जैनाचार्य
श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजके पट्टधरइतिहास तत्त्व महोदधि, आचार्य, श्रीमद् विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजके शिष्य मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज
हाँस
KUMAR PRINTERY, AHMEDABAL
ॐ न
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मुनिराज श्रीभावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
पूर्व परिचय.
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आपणे जे महात्माना जीवननो परिचय करवानो छे ते मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं पूर्वावस्थानुं नाम जादवजी हतुं. कर्मनी थियरी अने शास्त्रीय सिद्धांत आपणने बोधपाठ आपे छे के, पूर्वजन्मना पुण्यकर्मना उदयथीज उत्तम भूमि, उच्च ज्ञाति अने खानदान कुटुंबमां जन्म थाय छे. भाई जादवजी माटे पण एमज बन्युं तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजयना हस्तगिरि नामना शिखरनी शीतल छायामां वसेला अने पालीताणाथी पांच गाउ दूर आवेला हाथसणी नामना गाममां, वीसा श्रीमाळी ज्ञातिना मेघा कन्नाना नामथी मशहुर थयेला आबरुदार कुटुंबमां तेमनो जन्म विक्रम संवत् १९४४ ना महा शुदि पांचमना रोज शुभ चोघडीये थयो हतो. तेमना पितानुं नाम डुंगरशी अने मातानुं नाम दीवाळी. श्रीयुत डुंगरशी शेठने भाणजी, माधवजी अने जादवजी; ए प्रमाणे त्रण पुत्रो अने अचरत नामे एक पुत्री थइ. आ चार
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२ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.. भाई-व्हेनोमां जादवजी सौथी न्हाना हता. . पहाडी प्रदेश- नैसर्गिक विशुद्ध वातावरण, ग्राम्य जीवननी निर्दोष मझा, मात-पिता, अपूर्व वात्सल्य, वडिल बंधुओनी अतुल चाहना, अने बहोळा कुटुंबना सुखी जीवन वच्चे भाई जादवजीनी बाळवय रम्मत-गम्मतमांज पसार थवा लागी. सातमे वरसे पिताजीए तेमने घणाज ठाठमाठथी दरबारी गुजराती स्कूलमा भणवा बेसाड्या. कुशाग्र बुद्धिशाली भाई जादवजी खंतथी भणवा लाग्या. भाई जादवजीनी बुद्धि अने विनयथी मास्तर विशेष खुशी रहेता, अने तेथी बीजा विद्यार्थीओ करतां तेमनो नंबर उंचो रहेतो. पिताश्रीनो स्वर्गवास अने पालीताणामां आगमन. - आवी रीते आ अविभक्त कुटुंब पूर्ण सुखी जींदगी गाळी रयुं हतुं, तेवामां ए सुखनी ईयाथी जाणे संवत् १९५६ नी सालमां पिताश्रीने भयंकर मांदगी आवी, अने ए जीवलेण दरदने लीधे तेमनो स्वर्गवास थयो. एक तरफथी पिताश्रीतुं परलोक गमन अने बीजी तरफथी आ छप्पननी सालना भयंकर दुष्काळने लीधे खेडुतोने धीरेलां नाणां खोटां थयां. आवी रीते बने बाजुथी आ कुटुंब उपर आपत्तिनुं वादळ घेराइ वळ्यु; छतां वडिल बंधुओए हिंमत राखी अट्ठावननी साल सुधी पोतानो व्यवहार हाथसणीमांज चालु राख्यो, अने भाई जादवजीने पांचमी चोपडी पूर्ण करावी.
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पूर्व परिचय, अभ्यास माटे काशी गमन.
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परंतु जोइए तेटला प्रमाणमां धंधो न चालवाथी ए आ कुटुंब संवत् १९५९ ना फागणु शुदि १ ना रोज पालीताणा आव्यु. तडका पछी छाया, अंधकार पछी प्रकाश, अने दुःख पछी सुख, ए नियम पालीताणामां आव्या पछी धीरे धीरे वडिल बंधुओ नोकरीमा दाखल थई गया; अने कुटुंब निर्वाह सुख-पूर्वक चालवा लाग्यो. अहीं पण भाई जादवजीए पोतानो अभ्यास जारी राख्यो, अने सातमी गुजराती पास करवा साथे धार्मिक अभ्यास पंच प्रतिक्रमण सुधी कर्यो.
संस्कृत अभ्यास माटे काशी गमन.
अतिशय तरस्याने पावलं पाणी मळेथी तेनी तरस छीपती नथी, अने वधारे पाणी मेळववा प्रयास करे छे तेम भाई जादवजीने अभ्यासनी वृद्धि करवा तमन्ना लागी रही हती. आगळ अभ्यास वधारवा तेओ जुदे जुदे स्थळे प्रयत्न करी रह्या हता, तेवामां तेमणे सांभळयु के, “काशीबनारसमां पूज्यपाद श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजना वरद हस्ते स्थपायेल श्री यशोविजय संस्कृत पाठशाळामां संस्कृत अने प्राकृत भाषा भणवानुं सारं साधन छे. खुद आचार्य महाराजनी देखरेख नीचे दिग्गज पंडितो द्वारा जैन विद्यार्थीओने संस्कृत भाषानी दरेक प्रकारनी तालीम अपाय छे, तथा खावा-पीवा अने रहेवानी उत्तम सगवडवाळु आलेशान मकान छे. जैनोने माटे संस्कृत भणवानुं आई बीजुं स्थान
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४ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. नथी." निर्धनीयाने पैसो मेळववानुं उत्तम साधन मळे तो ते हर्षघेलो थइ जाय, तेम भाई जादवजीने आ समाचार सांभळतां आनंदनी अवधि रही नहिं. तेमणे बनारस पत्रव्यवहार शरु कर्यो, अने बनारसथी संमति आवतां विना विलंबे जवानी तैयारी करवा मांडी. ज्यारे वडिल बंधुओने आ हकीकत जणावी, त्यारे जो के तेओ पोताना वहालसोया लघु बांधवनो थोडा वखतने माटे वियोग थवानो जाणी भाया, परंतु भणशे तो कुटुंबने तारशे एवी आशाथी तेमणे संमति आपी. त्यार पछी मातुश्रीने आ हकीकतथी वाकेफ कां, परंतु पोतानी नजर आगळ्थी एक क्षण पण जुदा न करे होवाथी सरल-हृदयी माताजीए कथु के-" ना भाई ! काशी जेटले दूर जवू नथी, त्यां तो ब्राह्मणो जाय, अने संस्कृत भाषा तो ब्राह्मणो भणे. आपणे आटलं भण्या तो जाडो-पातळो वेपार करीने निर्वाह थइ रहेशे." परंतु भाई जादवजीए कह्यु के-" पूज्य माताजी ! संस्कृत भाषा ब्राह्मणोज भणे ए आपणा बिन केळवायेला देशनी खोटी मान्यता छे. ब्राह्मणो करतां आपणे वैश्योनी बुद्धि वधारे सतेज होय, अने तेथी जलदी भणी शकीए. डाह्या दिकरा परदेश वेठे ए शीखामणना संस्कार तमे मने तमारी गोदमां रमतो हतो त्यारथी आप्या छे. विवेकशील बन्ने वडिल बंधुओ तमारी सेवामां हाजर छे. मारी उम्मर हजु नानी छे, बे अक्षर भणीश तो आपणो गरीब
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अभ्यास करी बनारसथी पालीताणा आगमन.
संसार - व्यवहार सुधारा उपर आवशे अने सुखी थइशुं. वळी आपणी नजीकना महुवा शहेरमां जन्म लइ अत्यारे जैन आलममां मोखरे गणाता श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजनी देखरेख नीचे पाठशाळा चाले छे. आवी रीते दरेक प्रकारे सानुकूलता होवाथी आशिष आपो, जेथी भणीने वेलासर आवुं. " आवी रीते विवेक, सरलता अने युक्तिपूर्वक मातुश्रीने समजाववाथी तेमणे पण बनारस जवाने संमति आपी. आ प्रमाणे मातुश्री अने बंधुओनी विदाय लइ भाई जादवजी संस्कृत अभ्यास माटे संवत् १९६१ मां काशी - बनारस गया.
बनारसमां करेलो अभ्यास, अने त्यांथी पालीताणा आववुं.
बनारस आव्या बाद श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजनी शीतल छायामां तेमनी अमीदृष्टि नीचे संस्कृत अभ्यास शरु कर्यो. भाई जादवजीनी बुद्धि पहेलेथीज तीक्ष्ण हती, तेमां वळी अभ्यासनी दरेक प्रकारनी सामग्री मळी; पछी पूछवं शुं ? तेओ रात्रि - दिवस एकाग्र चित्ते अभ्यासमां गुंथाया, अने संस्कृत शब्द रूपावलीथी शरुआत करी सारस्वत, चन्द्रिका, सिद्धहैम लघुवृत्ति तथा सिद्धहैम बृहद्वृत्ति सुधीनो व्याकरणनो कोर्स पूरो कर्यो. त्यार बाद रघुवंश, किरातार्जुनीय, भट्टि, माघ अने नैषध ए पंच महाकाव्मनो
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६ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. अभ्यास कर्यो. पोते समजता हता के, एकलु भणी जवाथी ज्ञान खुलतुं नथी, तेथी पोताथी उतरती कक्षाना विद्यार्थीओने भणाववानुं काम पण करता हता. आवी रीते अध्ययनअध्यापनमां मशगुल बनेल भाई जादवजीए विचार्यु के, आत्मिक विकास माटे धार्मिक अभ्यासनी तो खास आवश्यकता छ, तेथी तेओए संस्कृत अभ्यास करतां थोडो टाईम फाजल पाडी धार्मिक अभ्यास पण जारी राख्यो; अने पंचप्रतिक्रमण, नवस्मरण, जीवविचार, नवतत्त्व, दंडक अने लघु संग्रहणि सुधीनो अर्थ सहित अभ्यास कर्यो. हजु तेमने न्यायनो अभ्यास शरु करवानी तैयारी हती, तेवामा देशमा तेडाववा माटे वडिल बंधुओना उपरा-उपरी पत्र आववाथी तेमने देशमां आववानी फरज पडी, अने संवत् १९६६ नी सालमां बनारसथी पालीताणा आव्या.
व्यवहार ग्रंथिमा जोडावं. कच्छ-नळीयामां अध्यापक तरीकेनुं बजावेलं काम, यतिजी पासेथी मळेली ज्योतिष विद्या,
मान पत्र, वेविशाळ अने लग्न. पालीताणामां आव्या बाद पोताना कुटुंबनी आर्थिक निर्बल स्थिति लक्ष्यमा लेतां, तेमने कोइ सारी जग्या मळे तो नोकरी करवानी इच्छा थइ अने अध्यापक तरीकेनी शोध करता हता, तेवामां कच्छ-नळीयाथी पत्र आव्यो के त्यांनी
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व्यवहार ग्रन्थिमां जोडावू, लग्न.
पाठशाळा माटे एक सारा संस्कृत अने धार्मिक अध्यापकनी जरूर छे. भाई जादवजीए आ नोकरी स्वीकारी, अने कच्छ -नळीया तरफ प्रयाण कयु, अने पाठशाळामां भणाववानुं सरस काम बजावतुं शरु कयु. आ पाठशाळामा अगाडी आवेला शिक्षको करतां पंडित जादवजीना अध्यापन कार्यथी पाठशाळाना ट्रस्टीओने विशेष संतोष थयो. विद्यार्थीओ अने विद्यार्थिनीओने आवो बुद्धिशाळी अने सुशील शिक्षक मळवाथी तेओए पोताना अभ्यासमां कदि न अनुभवेलो एवो वधारो को. भाई जादवजीए संस्कृत तथा धार्मिक अभ्यास सारो करेलो होवाथी पंडित तरीके प्रसिद्धि पाम्या, छतां तेमनामां एक एवो उत्तम गुण हतो के जे आजकालना युवान वर्गमां जवल्लेज दृष्टिगोचर थशे. तेमणे “ बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम् " ए नीतिवाक्यने पोताना हृदयमां कोतरी राख्युं हतुं, अने तेथी नूतन विद्या गमे त्यांथी मेळववा कायम उत्कंठ रहेता. भाग्यशाळीओने सानुकूल संयोगो मळे छे, तेम पंडित जादवजीने अहीं एक अतिशय वृद्ध थयेला अनुभवी यतिजीनो मेळाप थयो. यतिजी पासे परंपराथी चाली आवेली ज्योतिष संबंधी विद्या हती. विनयथी विद्या मळे, ए न्याये पंडित जादवजीए सेवा-शुश्रूषाथी यतिजीनुं मन हरी लीधु, अने सुपात्र जाणी पोतानी पासे रहेली ज्योतिष-विद्या भाई जादवजीने शीखवी. कहे छे के, मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजमां ज्योतिष संबंधी जे झळक छ ते आ यतिजी महाराजनी कृपादृष्टिर्नु ज परिणाम छे.
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८ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
भाई जादवजी अध्यापक तरीकेनी सारी लाइन उपर चडी जवाथी अने उम्मर लायक थवाथी वडिल बंधुओए दाठा पासेना वालर गामना गांधी हेमचंद नानजीनी दीकरी अजवाळी साथे संवत् १९६८ ना मागशर शुदि १० ना रोज वेविशाळ कयु, अने भाई जादवजीने खबर आप्या. संवत् १९६९ मां लग्न थवाना होवाथी भाई जादवजीए पाठशाळाना ट्रस्टीओ पासे रजा मागतां तेओए भाई जादवजीना पंडित तरीकेना कार्यथी संतोष पामेला होकाथी सभा भरी मानपत्र आप्यु. आ प्रमाणे त्यांथी विदाय लइ भाई जादवजी देशमां आव्या, अने संवत् १९६९ ना महा वदि २ ना रोज लग्न थयु. पालीताणा अने हिम्मतनगरमा बजावेल
नोकरी, मळेल मानपत्र. .... आ अरसामां पालीताणाना श्रीसिद्धक्षेत्र जैन बाला मना विद्यार्थीओने भणाववा माटे धार्मिक शिक्षकनी अने अंग्रेजी उंचा क्लासना विद्यार्थीओ माटे संस्कृत शिक्षकनी ज़रूर हती. पंडितजीमां आ बन्ने ज्ञाननी संपूर्ण योग्यता होवाथी तेमने बहार गाम न जवा देतां पालीताणामांज रोकवानी बालाश्रमना मेनेजर तरफथी पेरवी थतां ते नोकरी स्वीकारी. बाल ब्रह्मचारी निर्दोष विद्यार्थीओने पंडितजीना बहोळा ज्ञाननो लाभ मळ्यो, अने पंडितजीए संवत् १९६९
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पालीताणा अने हिम्मतनगरमां बजावेल नोकरी.
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थी १९७१ ना चैत्र मास सुधीमां धार्मिक तथा संस्कृत टीचर तरीके अच्छं काम बजाव्यु. ___ त्यार बाद पंडितजी हिम्मतनगरनी पाठशाळामा जोडावाने संवत् १९७१ ना वैशाख शुदि ६ ना रोज पालीताणाथी रवाना थया. हिम्मतनगरनी पाठशाला साधारण गणाती, परंतु पंडितजी आव्या बाद आसपासना पण गामोमां प्रसिद्धि पामी, अने उंची कक्षानी गणावा लागी. पोते खंतथी अध्यापकनुं कार्य करता हता, वळी फुरसद मळती त्यारे गामना श्रावक भाईओ अने श्राविका व्हेनोने सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा, पञ्चक्खाण, अने तपस्यादि धार्मिक कार्यमां उपदेशद्वारा प्रेरणा करवानुं तथा तेमा जोडवानुं भूलता नहीं अने तेथी गाममां धार्मिक श्रद्धा विशेष दृढ थवा लागी. हिम्मतनगरमां बे वरस पूर्ण थतां पंडितजीनी इच्छा देशमा आववानी थइ, अने तेथी संघना आगेवानोने आ हकीकत निवेदन करी. आवा सुशील अध्यापकथी गामनी रहेणी-करणी तथा पठन-पाठन सुधरेलु होवाथी हिम्मतनगरना आगेवानो पंडितजीने छूटा करवा नाराज हता, परंतु ज्यारे पंडितजीए आग्रह को त्यारे' आवा सुशील पंडितजीनी कदर करवी ए आपणी फरज छे' एम विचारी मानपत्र आपवानो निर्णय कयों. अने संवत् १९७४ ना वैशाख वदि छठना रोज सभा बोलावी. शेठ डोसलचंद हाथीचंद विगेरे संघना आगेवानोनी सहीथी मानपत्र आपी हार-तोरा अर्पण कर्या.
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१० मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. शिहोरमां धार्मिक शिक्षक तरीके बजावेली उत्तम सेवा, अने मळेली संपत्तिनो करेलो सदुपयोग.
हिम्मतनगरथी संघना आगेवानोनी अमीभरी विदाय लइ पालीताणा आव्या. मातुश्री वृद्ध होवाथी, पोताना लघुपुत्रने देशमा पोतानी दृष्टि आगळ राखवानी तेमनी उत्कट इच्छा हती; वडिल भाईओनी पण एज अभिलाषा हती, अने तेथी विनयशील पंडितजीए आप्तजनोनी इच्छाने मान आपी देशमांज थोडो वखत रहेवानो निर्णय कर्यो. परंतु आर्थिक स्थिति अतिशय निर्बल होवाथी तेमने नोकरी कर्या वगर छूटको नहोतो. एवामां शिहोरनी पाठशालामां शिक्षकनी जग्या खाली हती. पंडितजीए आ जग्यानी मागणी करतां तुरत संवत् १९७४ नी सालमा धार्मिक शिक्षक तरीके गोठवाया; अने राबेता मुजब पाठशाला चालु करी दीधी.
पूर्वपुण्यना उदयथी केटलाएक मालेतुझार बनी मळेली संपत्तिने अमन-चमन अने मोज-मझामां उडावे छे, अने तेमांज पोताने मळेल लक्ष्मीनी सार्थकता माने छे. केटलाक धनिको मळेल लक्ष्मीने यथाशक्ति धार्मिक कार्योमां वापरी पोताना मनुष्य-जन्मने भाग्यशाली बनावे छे. परंतु जेमनी पासे एवी संपत्ति नथी, मांड-मांड कुटुंब निर्वाह चलावी शके एवी आर्थिक स्थिति निर्बल होय; छतां
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शिहोरमां धार्मिक शिक्षक, संपत्तिनो करेल सदुपयोग.
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एवा माणसो ज्यारे धार्मिक कार्यमां पोताना गजा उपरांत पैसो वापरे त्यारे तेमनी धार्मिक श्रद्धा अने भावना केटली उत्कट हशे ? ए चर्मचक्षु मनुष्योनी कल्पनातीत वात छे. महाराजा कुमारपाल पूर्वभवमा तद्दन निधन हता, परंतु ए निर्धन स्थितिमां पण पोतानी बधी लक्ष्मी-पांच कोडीना पुष्प लइ ए पुष्प परमात्मानी प्रतिमाने शुभ भावनापूर्वक चडाव्यां त्यारेज शास्त्रो अत्यारे तेमनां भारोभार वखाण करे छे. एकज रूपियानी मूडीवाळो ए बधी रकम धार्मिक कार्यमां खरची नाखे त्यारे दुनियादारीमां रची-पची रहेला माणसो तेने हंबक के मूर्ख कही हसी काढे छे, परंतु खरी रीते तो ए तेमनीज नरी भूल छे. ए वीर पुरुषे तो लाखो रूपिया • खर्चनार करतां पण विशेष लाभ मेळव्यो होय छे. पंडितजी माटे पण एम ज बन्यु. तेमनी पासे एवो लक्ष्मीनो संग्रह नहोतो, छतां " थोडामांथी थोडं, अने शक्ति तेवी भक्ति" ए कहेवत मुजब धार्मिक कार्यमा यथाशक्ति खर्चवा तेमनी उत्कट भावना रह्या करती, अने खर्चता पण खरा.
संवत् १९७६ ना कार्तिक शुदि पांचमना रोज ज्ञानपंचमीनुं महान् पर्व आववानुं हतुं, अने तेथी कार्तिक शुदि चोथनी सांजे ज्ञानपंचमीना पोसातीने अतरवारणानो अने शुदि छठनी सवारे पारणानो शुभ दिवस हतो. _ 'ए अवसर आववानो हतो ते अगाउ थोडा दिवस पहेलां पंडितजीए एक खानगी व्यापार करेलो, तेमां भाव
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
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वधता जता होवाथी सारो लाभ मळवानी संभावना हती. ए लाभ आ शुभकार्यमां वपराय तो महान् पुण्यनुं काम छे एम विचारी पंडितजीए पोसातीने अतरवारणा तथा पारणा कराववानो निर्णय को. वळी कार्तिक शुदि छठनी सांजे साधर्मिक वात्सल्य करी संघनी भक्ति करी लहावो लेवानी पण उत्कट भावना जागृत थइ. पंडितजी स्वात्मश्लाघा के पोतानी वाह-वाह कहेवराववाथी बहु दूर रहेता. पोतानाज आत्मानी साक्षीए बने ते शुभ कार्य करवू एवी तेमनी प्रथमथीज खासीयत हती, तेथी तेमणे आ कार्यमां पण आमंत्रण पोताना नामर्नु नहिं देवरावतां बीजाना नाम- देवराववा विचार कर्योः शिहोरनां वतनी एक बहेनने आ हकीकत जणावी, अने संमति मळतां ए बहेननां नामनां नोतरां देवायां, अने गाममांथी माल उधारे मंगावी पोसाती तपस्वीओने अतरवारणां तथा पारणां कराव्यां, तथा सांजना साधर्मिक-वात्सल्य करी परमपूज्य श्रीसंघनी भक्ति करी. परंतु आ प्रसंग पंडितजीना धैर्यनी कसोटीनो बन्यो. व्यापारमा जे लाभ मळ्वानो हतो ते भाव घटी जवाथी न मळ्यो, अने व्यापारीओना उधारे आणेला मालना पैसा उभा रह्या. उघराणी थवा लागी. पंडितजीए विचार्यु के-" अवश्यंभाविभावानां, प्रतीकारो न विद्यते." जो के धारेलो आर्थिक लाभ न मळ्यो, परंतु पुण्यकार्यनो अमूल्य लाभ मळ्यो छे अने धारेलुं शुभकार्य फत्तेहमंदीथी
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मुंबईमां पुत्ररत्ननी प्राप्ति, पत्नीनो स्वर्गवास.
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पार पडयुं, एज आ अल्पजीवननी सार्थकता थई. पंडितजीना पत्नी व्यवहारदक्ष, सुशील अने विनयशील हता; तेमणे पोताना पतिदेव उपर संकट आवेढं जाणी पोतानी पासेनां घरेणां वेचावी लेणदारोना पैसा चूकते अपावी दीधा. मुंबईमां कच्छी वीसा ओसवाल पाठशाळानी बजावेली उत्तम सेवा, अने पुत्ररत्ननी प्राप्ति.
शिहोरथी पंडितजीए संवत् १९७६ मां मुंबई तरफ प्रयाण कयु, अने मुंबईमां कच्छी वीसा ओसवाल पाठशाकामां धार्मिक शिक्षक तरीके जोडाया. केळवणीना केन्द्रभूत मुंबई जेवी अलबेली नगरीना संस्कारी विद्यार्थीओने पंडितजी पोताना विशाळ ज्ञाननो लाभ आपवा लाग्या. संवत् १९८० ना कार्तिक शुदि ३ अने रविवारना रोज पंडितजीने पुत्ररत्ननी प्राप्ति थइ, जेनुं नाम भूपतराय उर्फे बाबु राखवामां आव्यु. आवी रीते पुत्र-जन्मथी आ दंपती विशेष सुखचेनमा दिवसो गुजारवा लाग्या. पत्नी, परलोक गमन, फरी वखत थयेटु वेविशाळ,
___ वैराग्य भावना. . . मुंबईमां आ सुखी जोडं पोताना व्यावहारिक जीवन साथे धार्मिक जीवन व्यतीत करतुं हतुं, तेवामां संवत्
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१४ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. १९८३ मां पंडितजीना सुशील पत्नी सौभाग्यवंता. बाई अजवाळीने जीर्ण ज्वरनो भयंकर रोग लागु पडयो. मुंबईना काबेल डॉक्टरोनी घणी दवा करी, परंतु ' टूटी तेनी बूटी नहिं ' ए कहेवत मुजब कोइ पण दवा अनुकूल न पडी. आखरे ए जीवलेण दरदथी सौ० व्हेन अजवाळी संवत् १९८३ ना जेठ वदि ३ शनिवारना रोज पंचत्व पाम्या. ___ आवा सुशील, समजु अने प्रेमाळ पत्नीना परलोक गमनथी पंडितजीना हृदयने सख्त आघात लाग्यो. पुत्रने हजु चार वर्ष पूरां थयां नहोतां, तेवामां तेने पोतानी वहाली मातानो वियोग थयो ! शोकग्रस्त हृदये पंडितजी पोताना नानकडा बाळकने लइ देशमां आव्या. __पंडितजी- चित्त हवे वैराग्य तरफ वळ्युं. आ असार संसारमा कडवा-मीठा अनेक प्रसंगो अनुभवाई चूक्या हता, तेथी तेमणे फरी वखत संसार-व्यवहारमा न जोडावानो पोतानो विचार निखालस हृदये मातुश्री अने बंधुओने जणाव्यो. परंतु मातुश्री अने बंधुओए कह्यु के-" भाई ! तमारी उम्मर हजु मोटी न गणाय, वळी दिकरो बहु न्हानो छे, माटे बीजी वखत लग्न करो तो दिकरो मोटो थइ जाय; अने तमारो संसार-व्यवहार कोइनी पराधीनता वगर चालु रहे." पोतानी अनिच्छा छतां पंडितजी वडिलोने काइ विशेष न कही शक्या, अने पालीताणा ताबेना परवडी गामना कामदार शा रणछोड केशवजीनी पुत्री कंचन साथे
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वैराग्य, दीक्षा लेवानी उत्कट भावना.
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संवत् १९८३ ना असाड शुदि एकमना रोज वेविशाळ थयुं. संसारमां आसक्त मनुष्यो पोतानुं वेविशाळ थतां लग्नना दिवसो माटे तलपापड थइ रहे छे, पोतानी भाविपत्नी साथेना संसार - लहावाना घोडा घडे छे; परंतु पंडितजीमां तेथी उलडुंज देखायुं. तेओ तो मोहपाशथी छूटवा इच्छता हता, अने तेथी उदासीन भावे रहेता. तेमनो अंतरात्मा शृंगार अने सांसारिक वासनाने बदले वैराग्य तरफ अधिक झोक खावा लाग्यो. तेओ कोइ कोइ वखत एकांतमां बेसी विचार श्रेणिमां चडता के
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आयुः पताकाचपलं, तरङ्गचपलाः श्रियः । भोगिभोगनिभा भोगाः, संगमाः स्वप्नसन्निभाः ||
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" ध्वजानी जेम आयुष्य चपळ छे, समुद्रना तरंगनी माफक संपत्तिओ अति चंचळ छे, भोगो सर्पनी फणानी माफक भयंकर छे, तेमज संगमो स्वम सरखा छे. "
" विषयेष्वतिदुःखेषु, सुखमानी मनागपि । नाऽहो ! विरज्यते जनो - ऽशुचिकीट इवाशुचौ ॥
""
“ विष्टानो कीडो विष्टामां ज सुख मानतो छतो, जरा पण कंटाळो पामतो नथी; तेमज अति दुःखदायक विषयोमां सुख मानीने माणस पण, आश्चर्य छे के जरा पण विराग पामतो नथी. "
“
आपात्तमात्रमधुरैर्विषयैर्विषसन्निभैः ।
""
आत्मा मूच्छित एवास्ते, स्वहिताय न चेतते ॥
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१६ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. __" मात्र भोगवती वखतेज मधुर, परंतु परिणामे विष तुल्य विषयो वडे करीने आ आत्मा मूर्छित थयेलो रहे छे, परंतु स्वहितने माटे चेततो नथी." मोरबाडमां धामधूम अने अट्ठाइ महोत्सव, कुटुंबी जनोनी हाजरी वच्चे पंडितजी जादवजीभाईए आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी पासे लीधेली दीक्षा, गुरुदेवे दीधेलं
भावविजयजी नाम. संवत् १९८४ मां बंधुओए लग्न माटेनी तडामार तैयारी करवा मांडी, नव पुत्रवधू आववानी आशाथी वृद्ध मातुश्रीने हर्षनो पार नहोतो; परंतु पंडितजीनुं हृदय तो वैराग्यमां ओतप्रोत थइ चूक्युं हतुं. तेओ समजवा लाग्या के, मोहजाळ एवीज होय छे. मातुश्री अने भाइओ मने संसारव्यवहारमा जोडी सुखी करवा इच्छे छे, परंतु खरं सुख शेमा छे ? तेथी तेओ अजाण छे. आवी स्थिति वच्चे एकाएक दीक्षानी वात कदाच आप्तवर्गमां अरुचिकर थशे, तेथी पोते मुंबइ जवानो विचार दर्शावी मुंबई तरफ प्रयाण कयु. अने त्यांथी पत्रद्वारा पोताने लग्नमां जोडावानी मुद्दल इच्छान होवाथी करेल सगपणथी छूटा थवाने कुटुंबी माणसोने समाचार आप्या.
लाग्या के, मोह
र छ. मातुश्री
व्यवहारमा
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आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी पासे लीवेली दीक्षा. १७ आ वखते धर्मधुरंधर शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर अने विद्वान शिष्य इतिहास तत्व महोदधि आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज पोताना गुरुभाईओ अने शिष्य मंडळ साथे मोरवाडमां बिराजता हता. पंडितजी विद्वान् अने चारित्रपात्र गुरुनी शोधमां हता. तेमने श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजनो बनारसथी परिचय हतो, अने तेथी तेमणे तेमनी पासे जवानो निर्णय कर्यो. तुरत मोरबाड तरफ प्रयाण कर्यु, अने आचार्यजी महाराजने मळी पोतानी शुभ भावना व्यक्त करी. आचार्यजी महाराजने पण पंडितजीनी शांतप्रकृति, सरलता अने पात्रतानो परिचय हतो; तेथी तेमने विशेष पूछपरछ के ओळखाणनी जरुर नहोती. वळी आवो विद्वान्, सुपात्र अने हार्दिक वैराग्यथी रंगायेल पुरुष दीक्षित थई शासननी शोभामां वृद्धि करशे एवी पोताने खात्री होवाथी हर्ष प्रदर्शित कर्यो. परंतु कुटुंबी जनोनी संमतिथी अने तेमनी राजीखुशीथी दीक्षा लेवाय तो ठीक, एम बिचारी तेणे पंडितजीने ए हकीकत निवेदन करी. पंडितजीने ए बात रुची, अने तुरत पालीताणा तार करी कुटुंबी जनोने तेडाव्या. तेमने पोतानी दीक्षा लेवानी भावना अडग होवानी हकीकत जणावी, अने घणीज शांतिधी समजाव्या. छेवटे आ कार्यमा पंडितजीए विजय मेळव्यो. आवी रीते
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
कुटुंबी जनोनी राजी-खुशीथी संमति मळी चूकी. मोरबाडमां आ महान् शुभकार्य निमित्ते श्री संघ तरफथी अट्ठाइ महोत्सव शरु थयो. श्रद्धालु श्रीमंत श्रावकोए आ भावसाधुनी विविध प्रकारे भक्ति अने सन्मान करवामां मणा न राखी. संवत् १९८४ ना महा वदि आठमना रोज दबदबाभर्यो वरघोडो नीकळ्यो, अने पंडितजी जादवजी भाईए श्रीसंघ तथा कुटुंबी जनोनी हाजरीमां हजारो माणसोनी मेदनी वच्चे मोरबाडमां आसोपालवना वृक्ष नीचे आचार्यजी महाराज श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज पासे दीक्षा लीधी. तेमनी शुभ भावना वृद्धि पामती जोई आचार्यजी महाराजे तेमनुं 'मुनि भावविजयजी' ए प्रमाणे शुभ नाम आप्यु. मुनिराज श्री भावविजयजीए गुरुदेवनी संमतिथी तुरत वडी दीक्षाना जोग शरु करी दीधा, अने संवत् १९८४ ना फागण शुदि पांचमना रोज गुरुदेव श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज पासे मोरबाडमां वडी दीक्षा लीधी. गुरुदेव श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी साथे आकोला, मद्रास अने बेंगलोरमां करेलां चतुर्मास,आगमो
विगेरेनुं करेलु अध्ययन. मोरबाडथी आचार्यजी महाराज, उपाध्यायजी श्री मंगलविजयजी महाराज तथा साधु-मंडळ साथे ग्रामानुग्राम
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आकोला विगेरे शहेरोमां चतुर्मास, आगमादिनुं अध्ययन. १९ विचरता मुनिराज श्री भावविजयजी आकोला आव्या. अने संवत् १९८४ नी सालमां आकोला चतुर्मास कयु. पोते संसारी अवस्थामा ज संस्कृत व्याकरण अने काव्योनो सारो अभ्यास करी पंडित बन्या हता, वळी धार्मिक अभ्यास पण ठीक को हतो, तेथी तेमने साधु-अवस्थामा संस्कृत व्याकरण विगेरे करवापणुं नहोतुं. परंतु पोते आगमो देख्यां नहोता, तेथी आचार्यजी महाराजने विनंति करी के, “गुरुदेव ! जो आप मारामां योग्यता देखता हो, अने आपनी आज्ञा होय तो आगमोनो अभ्यास करवानी मारी पूर्ण अभिलाषा छे. ए महेच्छा आपनी कृपादृष्टि होय अने आज्ञा आपो तोज पार पडे." आचार्यजी महाराजे मुनि भावविजयजीमां आगम जेवो गहन विषय समजवानी योग्यता अने ए ज्ञानने पचाववानी पूर्ण ताकात जोइ घणीज खुशीथी अनुमति आपी. अने गुरुदेवनी आज्ञाथी न्यायविशारद, न्यायतीर्थ, उपाध्यायजी महाराज श्री मंगळविजयजी महाराज पासे दशवकालिक सूत्र तथा उत्तराध्ययन सूत्रनुं अवलोकन कर्यु. पठन-पाठनशील विद्याप्रेमी उपाध्यायजी महाराजे घणाज प्रेमथी सूत्रोमां आवतां गूढ तत्वो बहुज सरलताथी समजाव्या. चतुर्मास पूर्ण थतां आचार्यजी महाराज विगेरे साथे आकोलाथी विहार कॉ. रस्तामां आवतां शहेरो अने गामडाओमां अनेक शुभ कार्यो थतां हतां, आवी रीते विहार करता करता मद्रास आव्या, अने संवत् १९८५ नी सालमां
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
गुरुदेव विगेरे साथे मद्रासमां चतुर्मास कयु. अहीं पण मुनिराज श्री भावविजयजीए उपाध्यायजी महाराज श्री मंगळविजयजी महाराज पासे भगवतीजी सूत्रनुं अवलोकन कयु. चतुर्मास पूर्ण थतां मद्रासथी गुरुदेव विगेरे साथे विहार करता करता बेंगलोर आव्या, अने संवत् १९८६ नी सालमां बेंगलोरमां चतुर्मास कयु. अहीं पण योग वहन कर्या, अने अवशेष केटलाक आगमोनुं उपाध्यायजी श्री मंगळविजयजी महाराज पासे अवलोकन कर्यु, तथा उपाध्यायजी महाराज पासे न्यायनो अभ्यास शरु कयों, जेमा सटीक तर्क संग्रह पूर्ण कर्यो. बेंगलोरथी करेलो विहार, मैसुरमां चतुर्मास, मैसुर नरेशने करावेलु उपदेशामृत, पान, पोताना राज्यमां गौवध अटकाववानुं नरेन्द्रे आपेलं वचन, मैसुर शहेरमां
बंध थयेल गौवध. चातुर्मास पूर्ण थतां मुनिराज श्री भावविजयजीए बेंगलोरथी विहार को. आ तरफ मांस अने मदिरा-पाननो प्रचार विशेष होवाथी मुनिश्रीए रस्तामां आवतां शहेरो अने गामडाओमा जाहेर लेक्चर देवां शरु काँ. तेमनो उपदेश सांभळी हजारो मनुष्योए मांस-मदिरानो त्याग कयों. अनु
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मैसुरमां चातुर्मास, मैसुर नरेशनी मुलाकात. २१ क्रमे मुनिराज श्री मैसुर पधार्या, अने श्रीसंघनी आग्रहभरी विनतिथी १९८७ नुं चतुर्मास मैसुरमांकयु. मुनिवर्यनी ख्याति सांभळी दूर-दूरथी मनुष्यो वंदनार्थ आववा लाग्या, अने मैसुरना श्रीसंघे ए दरेकनी योग्य आदर-सत्कार साथे अपूर्व व्यवस्था करी हती. अहींना श्री संघे आ चोमासामां सवारना पोतानो धंधो बंध करी मुनिराजश्रीना व्याख्याननो लाभ लेवा नियम राख्यो हतो. हमेशां प्रभावना थती हती. मैसुरना चतुर्मास दरम्यान मुनि महाराजना पवित्र ज्ञान अने दिव्य तपोबलना प्रभावथी अनेक कल्याणकारी कार्यों थयां. मैसुरना जैनोमा जे परस्पर क्लेश हतो तेने मुनिराजश्रीए उपदेशद्वारा दूर कराव्यो. तेमणे मैसुर शहेरमा जाहेर व्याख्यानो पण देवां शरु काँ, हजारो मनुष्योनी मेदनी बच्चे तेमनो वैराग्यमय अने नीतिमय अमोघ उपदेश सांभळी संख्यावंध मनुष्योने अहिंसा, सत्य अने नीतिमय पवित्र जीवन गुजारवा. रुचि प्रगटी.
पोताना शहेरमां आवा एक तपोमूर्ति ज्ञानी गुरु पधार्या छे, ए वात ठेठ मैसुर-नरेशना कान सुधी पहोंची. तेमने आ ज्ञानी मुनिराजनी मुलाकात लेवानी उत्कंठा थई, अने सन्मान-पूर्वक आमंत्रण देवायु. दुनियानुं भलं ज करवानी अहोनिश भावनावाळा मुनिराजे मुकरर करेला टाइमे मैसुरमहाराजानी मुलाकात लीधी. विवेकी नरेन्द्र ज्ञानी मुनिरा
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२२ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. जनो योग्य आदर-सत्कार करी विनय-पूर्वक उपदेश श्रवण करवा बेठा. मुनिराजे जैन सिद्धांतनी शैलि मुजब हिंसा त्यागवानो, दया राखवानो, नीतिपूर्वक राज्य चलाववानो, अने रामचन्द्र तथा युधिष्ठिर विगेरे अगाउना नरपति माफक प्रजा उपर पोताना संतान पेठे वात्सल्यभाव राखवानो उपदेश संभळाव्यो. मुनिराजना उपदेशनी मैसुर-नरेशना अंत:करणमां उंडी छाप पडी, अने वैष्णव संप्रदायना अनेक साधु-संन्यासीना मुखथी जे तत्त्वो नहोता समजाया ते आ ज्ञानी मुनिराजना मुखथी समजाया. नरेशनी केटलीक शंकाओनां समाधान मुनिराजे घणी ज सारी रीते करी आप्यां, तेथी मैसुर-महाराजाए फरी वखत उपदेश सांभळवानी तत्परता बतावी. आवी रीते अवार-नवार पांच वखत मुलाकात थइ. मैसुर महाराजाने आवा ज्ञानी महात्मानो सत्कार करवा अभिलाषा थइ, अने एक किंमती दुशालो ( कामळ ) मंगावी भेट धों. महात्माश्रीए कह्यु के, “ महाराजा ! आपनी भावना अनुमोदना करवा योग्य छे, आवेला साधुसंतनो सत्कार करवो ए खरा राजवीनुं भूषण छ; परंतु जैन तीर्थकरोनी आज्ञामां विचरता मुनिओने राजपिंड न कल्पे." आ प्रमाणे कही मुनिवर्य जैन-साधुओनो आचार समजाव्यो. आवी निःस्पृहता जोई मैसुर-नरेश आश्चर्यमां गरकाव थई गया. तेओ विचारवा लाग्या के-" आदरसत्कार, आजीविका अने किंमती उपहारो माटे पोताना
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मुनिवर्यना सदुपदेशथी मैसुर - नरेशे मैसुर शहरमां बंध करावेलो गौवध. २३ राज- दरबारमां भटकता साधु-संन्यासी अने फकिरो क्या ? अने आ निःस्पृही निरभिमानी अने सरल हृदयना जैन मुनिवर्यो क्यां ? " पोताने देशनानी अमूल्य भेट आपी आ महात्माने खाली हाथे जता जोइ नृपति मुंझाया, दीर्घ विचार करी बोल्या के, 'महात्मन् ! शुं आप मारी कांड पण चीज नहिं स्वीकारो ?' समयना जाण मुनिराजे कां के, “ नरेन्द्र ! आपनी मने कांइक भेट धरवानी इच्छा छे, तो मारी एकज मागणी छे के, आप जेवा संस्कारी, दयाळु अने भाविक आर्य महाराजाना राज्यमां गौवध बंध थवो जोइए " मैसुर नरेशे सरलताथी उत्तर आप्यो के, “ आपे तस्दी लई अत्रे पधारी आपना अमूल्य समयनो भोग आपी मने अमोघ उपदेशामृतनुं पान कराव्यं, ते बदल आपनो ओशींगण छं. मारा राज्यमां गौवध अटकाववानी आपे जे सूचना करी, ए हिंदुधर्मी तरीकेनी मारी पोतानी फरज छे, अने ए सूचना आपी मने जागृत कर्यो ते बदल आभार मानुं छं. हवेथी हुं मारा आंखा राज्यमां गौवध बंध कराववा माराथी बनतुं जरुर करीश. " पाछळथी मुनिवर्ये पत्र-व्यवहार शरु कर्यो, . तेनुं शुभ परिणाम ए आव्युं के, मैसुर शहेरमां जे पहेलां गौवध थतो हतो ते तद्दन बंध कर्यो अने मैसुर नरेशे जणान्युं के, “ हालमां तो मैसुर शहेरमां गौवध बंध करवामां आव्यो छे. जो के हिंदुधर्मी तरीके आखा राज्यमां गौवध अटकाववा मारी उत्कट इच्छा छतां राज्यमां वसती
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
बीजी प्रजानां दिल विशेष दूभाय छे, अने तेथी हाल तुरतमां आखा राज्यमां गौवध बंध न थवाथी मने खेद थयो छे. परंतु बधी प्रजा तरफ सम-दृष्टि राखवी ए पण राजाओनी फरज छे. ए लक्ष्य उपर लेतां हालमा आखा राज्यमां गौवध बंध करी शकायो नथी, परंतु ते तरफ मारु लक्ष्य अवश्य रहेशे, अने समय आवतां ए पण कार्य थई रहेशे." ___धर्मनिष्ठ मैसुर-नरेश कैलासनी महान् यात्राए पधार्या, अने यात्रा करी मैसुर आवतां तेमने भिन्न भिन्न समाज तरफथी अभिनंदन आपवा तैयारी थई रही. आवा प्रजापालक दयालु राजवीने श्री संघ तरफथी पण अभिनंदन पत्र अपाय तो तेमां शासननी शोभा छे, एम विचारी श्रीसंघे मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजने अभिनंदन-पत्र तैयार करी आपवा विनति करी. मुनिराजश्रीए श्रीसंवनी विनतिथी विद्वत्ता पूर्ण संस्कृत-श्लोकोमा अभिनंदन पत्र तैयार करी आप्यु, तेने श्री संघ तरफथी उंचा कागळो उपर मनोहर मोटा टाइपथी छपाववामां आव्यु, अने मैसुर नरेशने घणाज मान-पूर्वक आपवामां आव्यु. अभिनंदन-पत्रनी नकल नीचे मुजब छे
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मैसुरना श्रीसंघ तरफथी मैसुर नरेशने अपायेल अभिनन्दन पत्रिका २५
॥ अहिंसा परमो धर्मः ॥ श्रीमन्महिसुरमहीराजाधिराजराजपरमेश्वराणाम् श्रीमच्चामराजेन्द्रतनुजानां जि. सि. एस्. आइ. इत्याद्यनेकबिरुदाङ्कितानां श्रीकृष्णराजानां महिसुरपुरस्थजैन श्वेताम्बरसंघविज्ञस्या
श्रीजैनसाधुना भावविजयमुनिना
कृत भिनन्दनपत्रिका विजयतेतराम् श्रीमद्भारतभूषणो गुणगणैर्गाम्भीर्यरत्नाकरः,
आार्तेर्हरणे हरः प्रतिदिनं राष्ट्रोदये भास्करः । श्रीदोषाकरवत् तमश्छिदपि यश्चित्रं न दोषाकरः,
जीयाछीमहिरपूनरपतिः श्रीकृष्णराजस्सदा ॥१॥ नित्यं लब्धोदयो यो विकसयति कलोद्योगपद्माकरान् कौ, भूयो दानायं काले वसुचयमपि यः स्वैः करैः स्वीकरोति । शंयुर्भास्वत्प्रतापस्तपन इव तपत्यन्धतां नन् प्रजानां, जीयाच्द्रीकृष्णरूपो महिसुरपुरपः कृष्णराजेन्द्रभूपः ॥२॥ कांश्चिद्यो बालचन्द्रो भुवि बहुलयशा नामयत्यात्मशक्त्या, प्रीत्या नीत्या च नीत्वा जनकुमुदगणान् नन्दयत्यात्मकान्त्या। पूर्णः पूर्णप्रभाभिर्मुदयति मनुजान पूर्णिमापूर्णचन्द्रः जीयात् सत्पुत्रपौत्रैः सह चिरमवनौ कृष्णराजेन्द्रभूपः ॥३॥
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
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यदीयराष्ट्रोदधिरत्नरूपाः, प्रजाः प्रजानाथहितानुरूपाः। सुकर्मधर्माचरणे रता मता, धर्मज्ञसर्वज्ञपदे सदा नताः ॥४॥ प्रजाः प्रजाः स्वा इव पात्यपापः, सदा सदानः प्रतपत्प्रतापः। दुःखैविहीनः सुगुणैरहीनः, तमोहरो यो जगतां पथेन ॥५॥ कृत्वा कैलासयात्रां कलिमलदहनां क्षीणपुण्यैरगम्यां, जित्वाऽजेयात्मशत्रून् हृदि यमनियमैर्धर्मधेर्ये च धृत्वा । नीता नित्यं सुनीत्या निखिलनिजजना नीतिमार्ग च येन जीयात् स श्लाघ्यवंश्यो महिसुरपुरपः कृष्णराजेन्द्रभूपः॥६॥ समाप्य यात्रां ससुखं समागतं, महीमहेन्द्र महिमूरभूपतिम् । पायादपायादिति जैनसंघो, महीसुरस्थोऽर्थयते जिनेश्वरम् ॥७॥ इति श्रीचामराजेन्द्र कुमारस्याभिनन्दनम् । श्रीसंघप्रेरितो वक्ति, श्रीभावविजयो मुनिः ॥८॥
॥श्रीशुभम् ॥
मैसुरथी दावणगिरि तरफ विहार.
आवी रीते मैसुरना चतुर्मास दरम्यान मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे अनेक प्रकारे शासननी प्रभावना करी, ए ख्याति दावणगिरिना श्रीसंघे सांभळी. आ सालमां दावणगिरिना तैयार बनेला देरासरजीनी प्रतिष्ठा कराववानो निर्णय त्यांना श्री संघे को हतो, अने तेथी कोई प्रभावशाली महात्मानी तेओ शोध करी रह्या हता. तेमनी दृष्टि मुनिराज
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मैसुरथी दावणगिरि तरफ विहार.
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श्री भावविजयजी उपर ठरी. तुरत दावणगिरिना श्रीसंघ तरफथी मुख्य-मुख्य आगेवानो मैसुर पहोंच्या, तेमणे मुनिराजने दावणगिरि पधारवा अने प्रतिष्ठानुं कार्य पार उतारवा आग्रहभरी विनति करी. ज्ञानी मुनिराजे लाभy कारण जाणी चातुर्मास पूर्ण थतां मैसुरथी दावणगिरि तरफ विहार कर्यो. रस्तामां बाहुबलि विगेरे गाम थई अलसीखेरा पधार्या. अहीं जैन भाईओमां घणा समयथी परस्पर कुसंप हतो, मुनिराजे पोतानी प्रभावशाली देशनाथी ए कुसंप दूर कराव्यो. अहींना जैनो सारी संख्यामां अने साधन-संपन्न होवा छतां देरासरजी नथी, तेथी मुनिराजे देरासरजी माटे उपदेश आप्यो, अलसीखेराना भाविक श्री संघने आ महापुरुषनो उपदेश रुच्यो, अने नवीन जिनचैत्यनो आरंभ करी दीधो.
त्यांथी मुनिराजे विहार को हमेशां पंदरथी वीश माइल विहार करता हता, अने गामडाना लोकोने पण पोतानी अमोघ देशनानो लाभ देता हता. रस्तामां बाणावार, कडुर, बीलुर, हजामपुर, हेलरखेडा, चिकजाजुर विगेरे गामोमां ज्यां ज्यां जैनोनी संख्या अधिक हती त्यां त्यां मुनिराजनुं बेंड विगेरेथी स्वागत थतुं हतुं. रस्तामां आवता शहरो अने गामडाओमां ज्यां ज्यां जैनोमां कुसंप हतो, ते मुनिराजे पोताना वैराग्यमय उपदेशथी दूर कराव्यो. वळी केटलेक ठेकाणे धर्मादा-रकमोनो गोटाळो घणा वखतथी चाल्यो आवतो हतो, ते परिश्रमपूर्वक दरेकने समजावी दूर कराव्यो,
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
अने धर्मादा रकमोनी व्यवस्था सुंदर रीते कराववा उपरांत मां वृद्धि करावी. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजने आदेशमां विचरवाथी कनडी भाषा उपर सारो काबू आवी गयो छे, पोते कनडी भाषामां सारी रीते बोली शके छे, तेथी मार्गमां आवता शहेरो अने गामडाओमां ज्यां पोते मुकाम करता त्यां अन्य दर्शनी हजारो माणसोनी मेदनी बच्चे कनडी भाषामा जाहेर लेक्चरो आपी हिंसा करवाथी, मांस खावाथी अने दारु पीवाथी केटला केटला अनर्थ थाय छे अने पाप बंधाय छे ते समजावता, तेथी मुनिराज श्रीना उपदेशथी प्रतिबोध पामी संख्याबंध मनुष्योए मांस न खावानी अने दारु नहिं पीवानी प्रतिज्ञा करी हती. दावणगिरि प्रवेश महोत्सव
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज विहार करता करता दावणगिरि नजीक पहोंच्या, अने ए खबर श्रीसंघने मळी त्यारे दावणगिरिना श्रावकोए पोतानो व्यापार रोजगार बंध करी महात्मा मुनिराजना दर्शन - वंदन करवा अने तेमने शहेरमा पधराववा सामा आव्या; अने घणा ज सत्कारपूर्वक ठाठमाठथी सामैयुं करी वाजते - गाजते शहेरमां प्रवेश कराव्यो.
दावणगिरिनुं न देरासर.
आ शहरमा बडा बझारमां मारवाडी श्रीमंत व्यापारी
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दावणगिरिमां प्रतिष्ठा - महोत्सव.
ओनी मोटी मोटी दुकानो छे. सोळ वरस पहेलां आ व्यापारी समाजना अग्रेसर शाह रतनाजी लखमाजी, भीखाजी कपूरचंद, अचलाजी जगताजी, तथा जेताजी नथमलजी विगेरे महाशयोने अहीं एक जिनमंदिर बंधाववानी इच्छा थई, तेथी आ जैन लत्तामां ज एक सुंदर जग्या पसंद करी, श्री संघ तरफथी खरीदी लीधी. तत्काल देरासरजी बंधाववानुं काम शरु करी दीधुं वचमां घणां विघ्नो आव्यां; परंतु शासनदेवनी कृपाथी पोताने माथे लीधेलुं आ शुभ कामं दावणगिरिना धैर्यशील श्रीसंघे संपूर्ण कर्यु. आ भव्य देरासरजी बंधाववामां पांत्रीश हजार रूपियानो खर्च थयो.
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देरासरजीमां पधराववा माटे मूळनायक श्री सुपार्श्व - नाथजी, श्री गौडीजी पार्श्वनाथ, श्री चन्द्रप्रभ स्वामी अने श्री सुपार्श्वनाथ; ए प्रमाणे चार भव्य प्रतिमाजी मारवाडथी मळी गई. प्रतिमाजी पधराववा माटे सिंहासन बनाववा जोधपुर राज्यना मकराणा नामना स्थळेथी सफेद संगमरमर पत्थर मंगाव्यो, अने सिंहासननी रचना माटे मारवा थी सोमपरा गंगारामजी नामना कुशल कारीगरने बोलावी अनुपम सिंहासन तैयार कराव्युं. आ मनोहर देरासरजीथी दावणगिरिनी शोभामां ओर वधारो थयो .
दावणगिरि प्रतिष्ठा महोत्सव.
मुनिराज श्री भावविजयजी दावणगिरिमां प्रवेश करी देरासरजीमां दर्शन करवा पधार्या, आवुं भव्य देरासर अने
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३० मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. भाववाही प्रतिमाजीनां दर्शन करी तेमनो आत्मा अलौकिक आनंद-मग्न बन्योः अने पोतानी आगेवानी नीचे प्रतिष्ठानुं शुभ कार्य थवानुं जाणी पोताना आत्माने धन्य मान्यो. त्यार पछी तेमणे श्रीसंघने एकठो करी घणाज उत्साह साथे प्रतिष्ठा महोत्सव करवानो उपदेश आप्यो. ज्ञानी अने त्यागी मुनिराजना सदुपदेशथी प्रेरित थयेला श्रीसंघे प्रतिष्ठानी तैयारी करवा मांडी. मुनिवर्य श्री भावविजयजी महाराजे पोताना ज्योतिष संबंधी विशाळ ज्ञानथी जोइने प्रतिष्ठानु शुभ मुहूर्त संवत् १९८८ ना वैशाख शुदि सातम गुरुवारनुं बताव्यु. श्रीसंघे तेनी विशेष खात्री करवा माटे आचार्य श्री विजयभूपेन्द्र सूरीश्वरजीने पूछाव्यु, तेमणे पण एज दिवस प्रतिष्ठा माटे उत्तम कह्यो. त्यार बाद योगी मुनिराज श्री धीरविजयजी महाराजने पण पूछाव्युं, तेमणे पण संपूर्ण तपास करीने वैशाख शुदि सातमनो दिवस सर्वोत्तम कह्यो. आ प्रमाणे मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना बताव्या मुजबज अन्यान्य स्थळेथी पण एज दिवस उत्तम होवानुं जणातां दावणगिरिना श्रीसंघने आ त्यागी महात्माना निर्मळ ज्ञान तरफ अनहद मान थयु, अने प्रतिष्ठाना मुहूर्त संबंधमां मतभेद न पडवाथी विशेष श्रद्धा-पूर्वक डब्बल उत्साहथी काम शरु कयु. अट्ठाइ
१ मारवाडी संवत् १९८९ ।
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दावणगिरिमां प्रतिष्ठा - महोत्सव.
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૧
महोत्सव चैत्र' वदि तेरशथी शरु करवानुं नक्की ठर्यु. आमन्त्रण - पत्रिका हिन्दी भाषामां सुशोभित रीते छपावी देश-देशांतरना श्रीसंघ उपर मोकली देवामां आवी. आ प्रतिष्ठा महोत्सव उपर आवनार महेमानोना सत्कार माटे स्टेशन उपर स्वयं सेवको हाजर रहेता, अने पधारेला अतिथिओने उतारानी, खावा- पीवानी, तथा बीछाना विगेरेनी उत्तम सगवड राखी हती.
संवत् १९८८ ना चैत्र वदि तेरशथी अट्ठाइ महोत्सव शरु थयो, प्रभुभक्ति निमित्ते मुंबईथी गायनमंडली बोलावी हती. हमेशां मनोहर राग-रागणीमां भिन्न भिन्न पूजाओ भणावाती, अने प्रतिदिन उदार महाशयो तरफथी विविध पकवानोथी नवकारशीं करवामां आवी हती. बेंगलोर, मद्रास, मैसुर, चितोरदुर्ग, राणीबिन्नुर, हरीयाळ, बेडगी, हवेली हुबली. गंधक, आदवाणी, रायचूर, सीमोगा, भद्रावती, कडुर, बाणावार, बिलुर, हजामपुर, हेलरखेडा, चिकजाजुर, बोरींगपेट, कोल्हापुर, बारसी, पूना, मुंबई, सांगली विगेरे शहेरोमांथी तथा मारवाड अने बरार जेवा दूर-दूरना देश-देशांतरथी श्रावक - गृहस्थो मोटी संख्यामां आव्या हता. हमेशां सवारे अने सांझे ठाठ - माठथी वरघोडो नीकळतो, तेमां मठ तरफथी त्रण हाथी, छ घोडा,
१ मारवाडी वैशाख वदि तेरश ।
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
मीरजनुं सुप्रसिद्ध बेंड, मुंबइनी संगीत मंडली, अने सुंदर पालखी विगेरे सामग्रीथी वरघोडानी शोभा अनौखी देखाती हती. मुनि महाराज श्री भावविजयजी महाराजनी देशनाथी आ महोत्सवमां दिगंबरी भाईओ पण सामेल थया हता, अने तेथी श्वेतांबर अने दिगंबर भाईओना संप तथा अजोड उत्साही थयेलो आ महोत्सव शासन - शोभामां वृद्धि करतो हतो; अने संवत् १९८८ ना वैशाख शुदि ७ गुरुवारना प्रात:काले शुभ योगे हजारो मनुष्योना भारे आनंद बच्चे प्रतिष्ठानुं कार्य थयुं. आ प्रमाणे रतलाम निवासी यतिवर्य श्रीमान् नेमविजयजीना शुभ हस्ते मुनि महाराज श्री भावविजयजी महाराजना नेतृत्वमां प्रतिष्ठा - विधिनुं शुभ कार्य निर्विघ्न समाप्त थयुं.
राणीबिन्नूरमां शांतिस्नात्र महोत्सव, हुबलीमां चतुर्मास.
आवी रीते प्रतिष्ठानुं महान कार्य आ प्रतापी महात्मानी आगेवानी नीचे निर्विघ्ने पूर्ण उत्साह साथै खतम थयुं, तेथी मुनिवर्यना प्रभाव माटे सौ कोइने उंचुं मान थयुं. दावणगिरिना श्री संघे तथा प्रतिष्ठा - प्रसंगे आवेला जुदा जुदा गामना प्रतिनिधिओए पोत - पोताना गाममां चतुर्मास करवा माटे विनति करी, परंतु मुनिराजे कह्युं के, " भव्यो ! क्षेत्र फर
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राणीविन्नुरमां शान्ति-स्नात्र, हुबलीमां चतुर्मास. ३३
सना हशे अने ज्ञानी महाराजे दीढुं हशे त्यां चतुर्मास थशे, अत्यारे तो विहारनो बखत छे. "
अहींथी मुनिराजे विहार कर्यो. राणीचिन्नुर पधारतां त्यांना श्रीसंघे भव्य स्वागत कयुं मुनिवर्यनी वैराग्यमय देशना सांभळी राणीविन्नुरना श्रीसंघे पोताना शहेरमां शांतिस्नात्र महोत्सव करवानी पोतानी इच्छा प्रगट करी. मुनिराजे आ शुभ कार्य माटे अनुमोदना करी. परिपूर्ण विधि साथे शांतिस्नात्र थयुं. जैन - जैनेतर पुष्कळ माणसोनी मेदनी बच्चे aणा ज ठाठमाठथी वरघोडो नीकल्यो, अने जैनशासननी
प्रभावना थइ.
अहींथी ग्रामानुग्राम विहार करता मुनिवर्य हुबली पधार्या. हुबलीना श्रीसंघे भव्य स्वागत कर्यु. आ महात्मानी वैराग्यमय अमृत-वाणी सांभळी हुबलीना श्रीसंघे चतुर्मास माटे आग्रहभरी विनति करी. चोमासुं बेसवाना दिवस नजीक आवी गया हता, वळी श्रावकभाईओनी भावना उत्कट हती, थी लाभनुं कारण जाणी मुनिराजे विनति स्वीकारी, अने संवत् १९८८ नुं चतुर्मास हुबलीमा करवानुं ठर्यु.
हुबलीना भाविक श्रीसंबे घणा ज आदर-पूर्वक आ महात्मानी सेवानो लाभ उठान्यो, सवारना व्यापार - रोज - गार बंध करी व्याख्यान - वागीनो लाभ लीधो, व्याख्यान
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
बाद अवार-नवार श्रीफल विगेरेनी प्रभावनाओ थती. मुनिवर्यनी वैराग्यमय देशनाथी श्रावकभाईओ अने श्राविका बहेनोए व्रत-पच्चक्वाण अने विविध तपस्याओ करी आत्मसाधन कयु. वळी आ महापुरुषना शुभ हस्ते हुबलीना श्रीसंघ तरफथी शांतिस्नात्रनो महोत्सव अपूर्व उजवायो. वंदन-दर्शन माटे संसारी कुटुंबीओनुं आगमन. ___मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजने दीक्षित थयाने चार वर्ष पूर्ण थवा आव्या, छतां दूर-दूर प्रदेशमा विचरता होवाथी कुटुंबीओने आटला समय दरम्यान एके वखत दर्शननो संजोग मळ्यो नहिं; अने तेथी तेमनां संसारी मातुश्री विगेरेने वंदन-दर्शन करवानी भावना थइ. संवत् १९८९ ना कार्तिक वदि त्रीजना रोज मुनिवर्यनां संसारी वृद्ध मातुश्री बाइ दीवाळी, बांधव भाणजीभाई, तेमना पुत्र भीखालाल अने प्रभुदास, मुनिराजश्रीना संसारी पुत्र भूपतराय उर्फे बाबु, बहेन अचरत, तथा तेमना पुत्र भोगीलाल पालीताणाथी रवाना थया; अने मुंबई थइ कार्तिक वदि पांचमना रोज हुबली पहोंच्या. पोताना एक वखतना संसारी संबंधी तरीके जन्मेला आ आत्मानी संयममां लीनता, तथा शांत अने वैराग्यमय मुद्रा देखी तेमणे हर्षाश्रु वरसाव्या. तेमणे हुबलीना बन्ने देरासरजीमां ठाठ-माठथी पूजा भणावी, अने व्याख्यान समये व्याख्यान पूर्ण थतां श्रीफलनी प्रभा
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संसारी कुटुंबीओनो मेळाप, धारवाड तरफ विहार.
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वना करी ल्हावो लीधो. हुबलीना विवेकी श्रीसंघे पण आ मोंघेरा महेमानोनो आदर सत्कार करवामां मणा न राखी. चतुर्मास पूर्ण थवाथी मुनिराजश्रीए धारवाड तरफ विहार करतां पहेलो मुकाम गोळकवाडा कर्यो, हुबलीथी केटलाएक भाविक श्रावको साथे आव्या हता; त्यां श्रीयुत भाणजीभाई तरफथी साधर्मिक-वात्सल्य करवामां आव्यु.
प्रभावक मुनिराजनुं शुभागमन. संवत् १९८९ ना मागशर शुदि छह शनिवार धारवाडमां एक उत्सवनो दिवस हतो.शहेरना मुख्य-मुख्य रस्ताओ उपर घजा--पताकादिथी सजावट थइ रही हती. सवारथी ज लोकोनी दोडधाम शरु थइ गइ हती. ए दिवसे धारवाडना श्रीसंघना परम सौभाग्यथी मुनि महाराज श्री भावविजयजी हुबलीथी ग्रामानुग्राम विहार करता धारवाड पधार्या हता. आप जगत्पूज्य, शास्त्र विशारद, जैनाचार्य, श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर-इतिहास तत्त्व महोदधि आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य छो, आप चारित्रपात्र अने विद्वान् छो, मैसुर अने हुबलीना चातुर्मास दरम्यान आपनी प्रभावशाली देशनाथी अनेक धार्मिक कार्यों थयां हतां, वळी दावणगिरिनो प्रतिष्ठा महोत्सव आपनी ज आगेवानी नीचे उत्साह-पूर्वक पूर्ण थयो हतो; इत्यादि आपना प्रभाव अने गुणोनी सुगंध धारवाडना श्रीसंघमां
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३६ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
अगाउथी प्रसरी चूकी हती. पोताने आंगणे पधारेला आ महा पुरुषनुं धारवाडना श्रीसंघे घणा ज ठाठ - माठथी सामैयुं कर्यु.
मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना पधारवाथी धारवाडनी जैन - जनतामां धार्मिक जागृति आवी. महाराज - श्री पोतानी ओजस्विनी अने प्रभावशाळी भाषामां व्याख्यान देवुं शरु कर्यु. आ महात्माना पधारवाथी आसपासना शहेरो अने गामडाओना अनेक मनुष्यो दर्शन - वंदनार्थ आववा लाग्या, ए दूर-दूरथी आवेला भाविक मनुष्योने उतरवा तथा भोजन विगेरे माटे धारवाडना श्रीसंघ तरफथी सर्व प्रकारे उत्तम बंदोबस्त करवामां आव्यो. आ महा पुरुषना पधारवाथी धारवाड शहेर जाणे तीर्थ जेवुं बनी गयुं.
धारवाडनुं देरासर.
धारवाडनी मुख्य मुख्य बझारोमां मारवाडी श्रीमंत व्यापारीओनी मोटी-मोटी दुकानो छे. आ व्यापारी समाजना अग्रेसर शाह पुनमचंदजी अमीचंदजी, शाह धुराजी उमाजी, शाह रायचंद जेकरणजी, शाह श्रीचंदजी अनोपचंद, शाह केशाजी उमाजी, तथा शाह जोराजी परतापजी विगेरे भाविक श्रावकोने आ शहेरमां एक जैन देरासर बंधाववानी इच्छा थइ. तेमणे जैन लत्तामां ज श्रीसंघ तरफथी एक नवं मकान खरीदी लीधुं. अने कुशल कारीगरो बोलावी तेमनी
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धारवाडना देरासरजी माटे शत्रुजय उपरथी त्रण प्रतिमाजी, लावबु. ३७ पासे देरासरजीनुं कार्य पूरु कराव्यु. आ देरासरजी तैयार करवामां आशरे तेर हजार रूपियानो खर्च थयो. प्रतापी महात्मानो प्रभाव, प्रतिष्ठा माटेनी तडामार तैयारी, श्री सिद्धाचलजी उपरना भव्य त्रण प्रतिमाजीने लाव
वामां मळेली सफळता. आवी रीते धारवाडनुं देरासर तैयार थवा आव्युं हतुं, एवामां महात्मा मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज हुबलीथी विहार करता करता धारवाड पधार्या. महाराजश्रीए श्रीसंघने उत्साह-पूर्वक प्रतिष्ठा-महोत्सव करवानो उपदेश आप्यो, परंतु हजु अहीं प्रतिष्ठा माटेनी कांइ पण तैयारी नहोती; एटलं ज नहिं, पण देरासरजीमां पधराववा माटे प्रतिमाजी पण लाव्या नहोता, तेम प्रतिष्ठा माटेनी कोइ प्रकारनी सामग्री पण नहोती. प्रभावशाली मुनिराजे ओजस्विनी देशना वडे धारवाडना श्रीसंघने जागृत कयों. तत्काल श्रीसंघे प्रतिमाजी लाववा माटे शेठ उमेदमलजी तथा शेठ धुराजी उमाजीने मुंबई, अमदावाद अने पालीताणा विगेरे स्थळे तपास करवा मोकल्या. ए बन्ने महाशयो मुंबई अने अमदावाद एक-एक दिवस रोकाइ प्रतिमाजीनी तपास करी, परंतु तेमने पोताना शहेरना देरासरजीने योग्य प्रतिमाजी मळ्या नहिं. त्यांथी बन्ने महाशयो तुरत पालीताणा आव्या.
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३८ मुनिरज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनी तथा धारवाडना श्रीसंघनी खास इच्छा हती के, बीजा स्थळ करतां तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय उपरना परोणा-दाखल प्रतिमाजी मळी जाय तो वधारे सारं. मोटानां भाग्य मोटां ज होय, आखरे महाराजश्रीनी अने श्रीसंघनी इच्छा पार पडी. श्री शत्रुजय उपरनी शेठ नरशी केशवजीनी टुंकमांथी श्रीपार्श्वनाथ प्रभुना भव्य प्रतिमाजी फणावाळा मळी गया; वळी शेठ मोतीशानी टुंकमांथी श्री मुनिसुव्रत स्वामी तथा श्री नेमिनाथ प्रभुना सुंदर प्रतिमाजी मळी गया. एक तरफथी तपोमृति प्रभावक मुनिराजश्रीनी अखंड प्रेरणा अने बीजी तरफथी धारवाडना श्रीसंघनी उत्कट भावनाथी आ शुभ कार्य त्रण ज दिवसमा फत्तेहमंदीथी पार उतयु. __ छ-छ महिने पण जे कार्य बनवामां अनेक मुश्कलीओ उपस्थित थाय, ते त्रणज दिवसमां थइ जवाथी पालीताणा आवेला बन्ने महाशयोए मुनिराजश्रीना प्रभावनी अनुमोदना करी, अने शासनदेवनो उपकार मान्यो. आवी रीते धारवाडना देरासरजीने योग्य आ त्रणे तेजस्वी भव्य प्रतिमाजीने लइ तेओ धारवाड पहोंच्या. धारवाडनी जनतामां आनंदनो अवधि न रह्यो, हजारो पुरुषो अने स्त्रीओ प्रतिमाजीनां दर्शन करवा शहेर बहार आव्या, अने श्रीसंघे हाथी, घोडेस्वार, पायदळ, बेंड तथा विविध प्रकारनां वाजिंत्रो साथे घणाज ठाठ-माठथी सामैयुं करी त्रणे प्रतिमाजीने शहेरमा प्रवेश कराव्यो.
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श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभु, श्री मुनिसुव्रत स्वामी और श्री नेमिनाथ जिनेन्द्रकी
प्रतिमाजीका धारवाड शहरमें प्रवेश-महोत्सव
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धारवाडमां प्रतिष्ठा-महोत्सवनी तैयारी, बे भाग्यशालीने उपजेलो वैराग्य. ३९
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__ प्रतिमाजीने पधराववा माटे सिंहासन बनाववा खास हुबलीथी काबेल कारीगरने बोलाव्यो, तेणे घणीज खंतथी नमुनेदार सिंहासन बनाव्युं. वळी जुदे जुदे स्थळे हुशियार माणसो मोकली प्रतिष्ठा माटे दरेक सामग्री मंगावी तैयार राखी. आवी रीते आ प्रभावशाळी महात्मानी देशना अने प्रेरणाथी धारवाडना श्रीसंघे प्रतिष्ठा माटेनी तडामार तैयारी करी. प्रतिष्ठानो दिवस संवत् १९८९ ना फागण शुदि ३ सोमवारनो नक्की करवामां आव्यो.
बे भाग्यशालीओनी वैराग्य-भावना. प्रतिष्ठा-महोत्सव साथेज दीक्षा-महोत्सव.
प्रभावशाली मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना सदुपदेशथी आवी रीते आ धारवाड शहेर प्रतिष्ठा माटेनी तैयारीमां गुंजी रयुं हतुं. वळी हमेशां सवारना व्याख्यानमां वैराग्यमय देशनानो प्रवाह अप्रतिबद्ध चालु हतो, ए देशना सांभळी तखतगढवाळा साकरीया गोत्रना शा परतापजी धुराजीना सुपुत्र भाई साकरचंदने वैराग्य-भावना जागृत थइ. वळी जोजावरवाळा शा खीवराजजी संचेतीना सुपुत्र भाई जीवराज तेरापंथी मतना होवा छतां महात्माश्रीनुं व्याख्यान सांभळवा आवता, तेमने महाराजश्रीनी देशना सांभळी खात्री थइ के, वीतराग प्रभुना प्रतिमाजीने वंदन-पूजन कर, ए शुभ भावनानी वृद्धि करनारुं अने
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
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संसारथी पार उतरवार्नु अद्वितीय साधन छे. तेमणे प्रतिमाजी उपर अडग श्रद्धा थवाथी देरासरजीमां हमेशां प्रतिमाजीने वंदन-पूजन माटे आववानुं शरु करी दीg, अने मुनिवर्यना सदुपदेशथी वैराग्य-भावना जागृत थइ. आवी रीते आ बन्ने बाल ब्रह्मचारी भाग्यशालीओने आ असार संसार उपरथी विरक्त-भाव थवाथी भागवती दीक्षा अंगीकार करवानी शुभ भावना उत्पन्न थइ, अने शांतमूर्ति चारित्रशील मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजने तेओ बन्ने जणाए पोतानी शुभेच्छा जणावी. मुनिवर्ये तेमनी धर्म उपरनी अडग श्रद्धा, अखंड वैराग्य-भावना अने संसार उपर निमोह जोइ उपदेश आप्यो के, “ संसारभीरु भव्यात्माओ ! तमारी उच्च भावना अनुमोदवा योग्य छे. आबालगोपाल समस्त मनुष्यो बलके समस्त जीवो सुखनी इच्छावाळा होय छे. शेठ, शाहुकार, राजा, महाराजा, देव के देवेन्द्र दरेक सुखने माटेज वलखां मारे छे; परंतु वास्तविक सुख के अपूर्व आनंद कोण भोगवे छे ? तेने माटे एक महाशये कयुं छे के
" न चेन्द्रस्य सुखं किञ्चिद्, न सुखं चक्रवर्तिनः ।
सुखमस्ति विरक्तस्य, मुनेरेकान्तवासिनः ॥”
" एकान्तमा रहेनारा अने संसारथी विरक्त बनेला मुनिराजने जेवं सुख छ, तेवू सुख देवेन्द्रने के चक्रवर्तीने पण होतुं नथी." इत्यादि मुनिपणाना महत्त्वनी देशनाथी
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मुनिवर्यनो उपदेश, दीक्षा लेव ने बैयार थयेला बे नरवीरो. ४१ बन्ने महाशयोनो वैराग्य दृढ थयो. मुनिवर्य माने छे के, कोइने खवर आप्या वगर दीक्षा अपाइ होय, अने पछीथी जो कांइ वांधो के झघडो उपस्थित थयो होय तो तेथी दीक्षा आपनार अने लेनार बन्नेना आत्मा कलुषित थाय छे, अने क्लेश उत्पन्न थतां श्रीसंघमां पण कुसंपनां झेरी बीज रोपाय छे. आम थवाथी श्रीसंघनी सेवाने बदले आशातना थवानो वधारे संभव छ. एम विचारी तेमणे श्रीसंघने एकठो करी आ हकीकत जणावी. धारवाडना श्रीसंघे बन्ने भव्यात्माओनी पात्रता जोइ घणाज मान साथे अनुमति आपी; एटलुंज नहिं, पण ए दीक्षामां संपूर्ण साथ आपवा अने पोताथी बनतुं करवा वचन आप्यु. वळी आ बन्ने ब्रह्मचारीओनी दीक्षा माटे कोइने काइ वांधा जेवू होय तो ते जणाववा भावनगरना जैन पत्रमा पण मुनिवर्ये पोतानी सहीथी जाहेर-खबर आपी दीधी, तथा दीक्षातिथि जणाववामां आवी. परंतु देश-परदेशमाथी पण कोइ तरफथी आ दीक्षा माटे वांधो लेवामां आव्यो नहिं, अने दीक्षानुं मुहूर्त पण फागण शुदि त्रीजनुं नक्की करवामां आव्युं. ___उपर मुजब प्रतिष्ठा-महोत्सव अने दीक्षा-महोत्सवनक्की थतां धारवाडना श्रीसंघ तरफथी अने मारवाड-सेवाडीवाळा शाह पुनमचंद अमीचंदनी सहीथी हिंदी भाषामां सुशोभित रीते सुंदर टाइपथी आमन्त्रण पत्रिका छपाववामां आवी. तथा आ शुभ प्रसंगना. दिवसोनो नित्य कार्य-क्रम
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
पण निश्चित करवामां आव्यो. आमन्त्रण - पत्रिका अने कार्यक्रमनी नकल नीचे मुजब छे
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श्री वीतरागाय नमः ।
परमगुरुदेव शास्त्रविशारद - जैनाचार्य - श्रीमद्विजयधर्मसूरिभ्यो नमः ॥
श्री कर्णाटकदेशे धारवाड नगरे प्रतिष्ठा महोत्सवे श्री संघामन्त्रण पत्रिका
श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभु,
श्री नेमिनाथ स्वामी और श्री मुनिसुव्रत स्वामी
प्रतिष्ठा - महोत्सव.
फ्र 品卷
फ्र
甌
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमः प्रभुः ।
मंगलं स्थूलभद्राद्या, जैनो धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ १ ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ||२||
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धारवाडना श्रीसंघ तरफथी प्रतिष्ठा महोत्सवनी आमन्त्रण पत्रिका. ४३
स्वस्ति श्री सिद्धक्षेत्र श्री चिंतामणि पार्श्वजिनं प्रणम्य, तत्र श्री नगरे, महाशुभस्थाने, बिराजमान, पंचपरमेष्ठिमहामंत्रस्मारक, देवगुरुभक्तिकारक, सम्यक्त्वमूल द्वादशव्रतधारी, जिनशासनशोभाकारी, चतुरसुजान, परमबुद्धिनिधान, जिनाज्ञाप्रतिपालक, इत्यादि सर्वे शुभोपमालंकृत परमपूज्य श्री सकलसंघ समस्त सपरिवार योग्य तत्र श्री धारवाड नगर से श्रीजैन सकलसंघ समस्त शाह पुनमचंद अमीचंद, फूलचंद मोतीलाल, चंपालाल हस्तिमल सोलंकी मारवाडमें गाम सेवाडीवाला, तथा भागीदार शा डुंगरचंद सूरजमल, केसरिमल आसुलाल, मीठालाल भगवानदासजी ललवाणी मारवाडमें ग्राम कोसीलाववाला, तथा शा कालुराम गेनमलजी बालीवाला, तथा लाधुराम वजेचंदजी सादरीवाला, भीकमचंद हीराचंद जसराजजी गांधी सारणवाला, आदिका सविनय जयजिनेन्द्र वांचियेगा. यहां पर श्रीदेवगुरु कृपासें कुशल है, आपका सदा शुभ कुशलमंगल चाहते हैं ।
यहां पर हमारे पूर्ण पुण्योदयसे यहांके श्रीसंघकी तरफसें नवीन जिनमंदिर ( देरासरजी ) तैयार हुआ है, उसकी प्रतिष्ठा तथा मूलनायक श्रीसिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथजी, श्री नेमिनाथजी, तथा श्री मुनिसुव्रत स्वामीजी भगवानकी मूर्तियोंको तखत पर विराजमान करनेका, और इस रीतिसें ध्वजादंड, कलशकी स्थापना करनेका शुभमुहूर्त शुभ मिति वीर संवत् २४५९ विक्रमाब्द १९८९ का फागण शुदि ३
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
( तृतीया ) सोमवार शुभयोगे ता. २७-२-३३ को शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री श्री श्री १००८ श्री पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय आचार्यवर्य श्री विजयधर्म सूरीश्वरजीके पट्टधरइतिहासतत्त्व महोदधि आचार्य श्री श्री श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजके शिष्यरत्न-शान्त, दान्त, पंडित शिरोमणि, शान्तमूर्ति मुनिमहाराज श्री भावविजयजीके मदुपदेशसे श्री संघने निश्चय किया है. कार्यक्रम नीचे मुजब
१ फागण वदि-११ सोम ( गुजराती महा वदी ११) को कुंभ स्थापना, दीप स्थापना, चैत्य पूजन, जवारा वाववा, तथा जलयात्राका वरघोडा वगैरह क्रियाएँ होगी। उस दिन शाह उमेदमल जुहारमल, फोजमल, सेनमल, हीराचंद उमेदमल, जुहारमल कालुराम, चुनीलाल गंगाराम, जीवराज वीरचंदजी सोलंकी, मारवाडमें गाम सेवाडीवालोंकी तरफसें नवकारसी होगी, तथा पंच कल्याणककी पूजा पढाई जायगी.
२ फागण वदि १२ मंगल, (गु. महा वदि १२) मंडप पूजा, तथा शा. वरधीचंद थानमल, रूपचंद वरधीचंद, चंदणभाण सेसमल, साहेबचंद गणेशमल, प्रेमराज मेघराज, चंपालाल मीश्रीमल, सुखराज मांगीलाल, घेवरचंद मोहनलाल, मीठालाल गांधी, मारवाडमें केसरिसिंहजीका गुडावाला; तथा शा जीवराज जसराज, भूरमल थानमल, चोथमल मीठालाल, जांवतराज मांगीलाल, रामचंद नानालाल मेता,
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धारवाडना श्रीसंघ तरफथी प्रतिष्ठा महोत्सवनी आमन्त्रण पत्रिका. ४५
मारवाडमें गाम जोजावरवालोंकी तरकसें नवकारसी होगी, तथा नवाणुं प्रकारकी पूजा पढाइ जायगी.
३ फागण वदि १३ बुध ( गु. महा वदि १३ ) को वेदी पूजा, नव ग्रह, दश दिक्पाल, अष्ट मांगलिक, घंटाकर्ण आदिका स्थापन होगा. उस दिन शाह केशाजी, उमाजी धुराजी, कपूरचंद हीराचंद, मकनलाल मेघराज, चमनमल रूपचंद, फूलचंद सेसमल, सोनमल सेसमल, जसराज उमाजी कनीया राठोड सातावत, गाम तखतगढवालोंकी तरफसें नवकारसी होगी. तथा बारा व्रतकी पूजा, और वरघोडा निकलेगा.
४ फागण वदि १४ गुरु ( गु. महा वदि १४) को नंदावर्त पूजन होगा । उस दिन शा वालचंद अनोपचंदजी, हरखचंद श्रीचंद, वालचंद लालचंद, जीवराज वीरचंद, पुखराज उमेदमल, वक्तावरमल उदेचंद, राजमल जुगराज, केसरिमल नगराज तेलेसरा, मारवाडमें गाम सादरीवालोंकी तरफसें नवकारसी होगी, तथा नंदीश्वर द्वीपकी पूजा पढाइ जायगी.
५ फागण वदि ० ) ) शुक्रवार ( गु. महा वदि ० ) ) ) को कलश दंड पूजन होगा। उस दिन शा गुलाबचंद तेजाजी, इंदाजी केसरिमल, सेसमल हीराचंद, गमनाजी मूलचंद, वरधीचंद चंदुलाल, रतनचंद भीकमचंद, गणेशमल तेजाजी, मारवाडमें गाम तखतगढवाले; तथा भागीदार शा डासुमल मगनलाल, छोगमल जुहारमल चमनाजी, मारवाडमें गाम
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४६ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. वीरवाडावालोंकी तरफसें नवकारसी होगी. तथा सत्तरभेदी पूजा पढाई जायगी, और वरघोडा निकलेगा.
६ फागण शुदि १ शनिवारको शा. रायचंद जैकरणजी, रायचंद अनोपचंद, फुलचंद लालचंद, केसरिमल थानमल, पुखराज हस्तीमल, दलीचंद जैकरणजी भगवानजी का परिवार संघी मारवाडमें गाम सादरीवालोंकी तरफसे वीश स्थानककी पूजा पढाई जायगी; नवकारसी होगी, और वरघोडा निकलेगा.
७ फागण शुदि २ रविवार को जल यात्रा का वरघोडा निकलेगा। और उस दिन शा धुराजी उमाजी, धुराजी कपूरचंद, हीराचंद मकनलाल, मेघराज चमनलाल, रूपचंद फुलचंद, शेषमल सोनमल, शेषमल जसराज, उमाजी कनीया राठोड सतावत, मारवाडमें गाम तखतगढवालोंकी तरफसे नवकारसी होगी; तथा एकवीस प्रकार की पूजा पढाइ जायगी, और वरघोडा निकलेगा.
८ फागण शुदि ३ सोमवार सुबह ( प्रातःकाले ) ७॥ से ८। तक शुभयोगे श्री जिनबिंब स्थापना, ध्वजा बंध, और कलशारोपण होगा । तथा उस दिन शा पुनमचंद अमीचंद, फूलचंद मोतीलाल, चंपालाल हस्तिमल सोलंकी, मारवाडमें गाम सेवाडीवाले, तथा भागीदार शा. डुंगरचंद सूरजमल, केसरिमल आसुलाल, मीठालाल ललवाणी, मारवाडमें गाम कोसीलाववाले; तथा कालुराम गेनमलजी, मारवाडमें गाम
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धारवाडना श्रीसंघ तरफथी प्रतिष्ठा-महोत्सवनी आमन्त्रण पत्रिका. ४७
बालीवाला, तथा शा. लाधुराम वजेचंदजी, मारवाडमें गाम सादरीवाला, तथा शा. भीकमचंद हीराचंद, जसराजजी, मारवाडमें गाम सारणवालों की तरफसें पंच कल्याणककी पूजा पढाइ जायगी। तथा उस दिन भाई साकरचंद तथा भाई जीवराजकी भागवती दीक्षा क्रिया होगी, तथा दीक्षा महोत्सवका बडी धामधूमसें वरसीदानका वरघोडा निकलेगा,
और दीक्षा होगी; और शा. पुनमचंद अमीचंदकी तरफसे नवकारसी होगी।
९ फागण शुदि ४ मंगलवार, शा. श्रीचंद अनोपचंदजी, हरखचंद श्रीचंद वालचंद, लालचंद जीवराज, वीरचंद पुखराज, उमेदमल बक्तावरमल, उदेचंद राजमल जुगराज, केसरिमल नगरांज तेलेसरा, मारवाडमें गाम सादरीवालोंकी तरफसें नवकारसी होगी, तथा उस दिन बृहत् शांति स्नात्र पढाया जायगा । और गाममें शांति जलधारा दी जायगी, और देव देवीयोंकी विसर्जन क्रिया होगी । __ उपर मुजब के दिन हमेशां भिन्न भिन्न पूजायें; तथा हाथी, घोडा, पालखी, मोटर और सुप्रसिद्ध गवर्नमेन्ट बाजाके साथ बोम्बेसे बुलाइ हुइ मंडली, रागरागणीके साथ हमेशां प्रभुभक्ति करेगी। सो इस शुभ प्रसंग पर आप मित्रमंडल कुटुम्ब परिवार के साथ पधार कर शासनकी शोभामें तथा हमारे आनन्दमें वृद्धि करनाजी. एज विनंति. संवत् १९८९ का फागण वदि १ शनिवार ता. ११-२-३३.
उस समय प्रतिष्ठा संबंधी समस्त क्रिया इतिहास तत्त्व
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४८ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. महोदधि आचार्यवर्य श्री श्री श्री १००८ श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजके शिष्यरत्न-शान्त, दान्त, पंडित शिरोमणि, शान्तमूर्ति, समग्र कर्णाटकके उपकारी, मुनिराज श्री १००८ श्री भावविजयजी महाराजके नेतृत्वमें सांगली निवासी श्रीयुत सुश्रावक भाई फकीरचंदजी कराएंगे ।
विशेष-इस प्रसंग पर श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथजी की भव्य मूर्तिका दर्शन, संघ दर्शन, और दो नवीन दीक्षा लेनेवाले भाग्यशालियों के दर्शन तथा शांतमूर्ति मुनि महाराज श्री भावविजयजी महाराजका अमोघ उपदेशका लाभ प्राप्त होगा। सो आप जरूर जरूर कृपा करके पधारेंगे ऐसी हमारी आग्रहपूर्वक प्रार्थना है.
नोट-पधारनेवाले साधर्मिक भाईयोंको सूचना है कि. सदर्न मराठा रेलवे, धारवाड स्टेशन, शहरसे देंढ माईल पर है: इस लिये हरेक गाडी के टाइम पर हरहमेश वोलिंटियर तथा मोटर वगैरहका इन्तजाम रहेगा.
ता. क.-सरदी के दिन है, इस लिये पधारनेवाले महाशय अपने बिस्तर साथमें रखनेकी कृपा करें. ली. आपका दर्शनाभिलापी जैन श्वेतांबर संघ समस्त
शाह पुनमचंद अमीचंद मारवाडमें गाम सेवाडीवालाका सविनय प्रणामपूर्वक
जय जिनेंद्र वांचीयेगाजी ली. शा. डुंगरचंद भगवानदासजीका जय जिनेंद्र
वांचीयेगाजी.
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धारवडमां प्रतिष्टः-महोत्सवनी धामधूम.
धारवाडमां प्रतिष्ठा महोत्सवनी धामधूम
एक तरफ उक्त निमन्त्रण-पत्रिका उंचा कागळो उपर छपावीने तैयार करवामां आवी; अने देश-देशान्तरना श्रीसंघने, संमानित सद्गृहस्थोने, साक्षर वर्गने, तथा ज्यां ज्यां मोकलवानी आवश्यकता हती त्यां दरेक ठेकाणे रवाना करवामां आवी. बीजी तरफ बहार गामथी आवनार महाशयोने उतारवा माटे, भोजन माटे, तथा पागरण विगेरे माटे तैयारी थइ रही. बहार गामथी आवनार महेमानोने सत्कार-पूर्वक लाववा माटे उत्साही युवकोनी एक उपसमिति नीमवामां आवी. धारवाड स्टेशन उपर ट्रेनोने आववाने टाइमे अतिथिओने यथायोग्य सत्कार करी तेमने उतारे पहोंचाडवा विगेरेनी व्यवस्था करवी, ए बधुं एमर्नु कर्तव्य हतुं. आ कार्य माटे मुकरर करेला सज्जनो, उत्सवमां पधारेला महाशयोनी जरुरतोने पहोंची वळवाना कार्यमां गुंथाइ गया. स्टेशनथी शहेर दोढ माइल दूर छे, त्यां सुधी महेमानोने लाववा माटे मोटरो तथा घोडा-गाडीओनी व्यवस्था प्रथमथी करी राखी हती.
देरासरजीनी नजीकमांज महोत्सव-समारंभ माटे एक विशाळ सामियानो उभो करवामां आव्यो हतो. ए सामियानो आसोपालवना तोरणो, ध्वजा-पताकाओ, तरेहवार
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५० मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
भाववाही चित्रो, सुन्दर-सुन्दर मुद्रालेखो, वीजळी लाइट, हांडीओ, झुम्मरो, अने मोटा-मोटा अरीसाओथी अद्भुत रीते शणगार्यो हतो. अंदरना भागमां त्रण हजार माणसो आरामथी वेसी शके एवो ए आलीशान सामियानो हतो.
प्रतिष्ठा - महोत्सव समये देरासरजी तथा मंडपमां रात्रिना पूर बहारथी रोशनी करवामां आवी हती, अने तेथी चारे तरफ झगमगाट थइ रह्यो हतो. शहेरमां पण दीपावली करवामां आवी हती. देरासरजीमां प्रतिदिवस परमात्मानी प्रतिमाजीने नवी - नवी आंगी करवामां आवती हती. गुलाव, जाई, जुई, चंपो, चमेली अने केवडो विगेरे सुगंधी पुष्पोना हार अने रचनाथी देरासरजीनुं गर्भगृह सुगंधथी बहेकी उठ्युं हतुं. अत्तर, कस्तूरी, अगर विगेरे बहुमूल्य उत्तम वस्तुओनी सुगंध देरासरजीनी आसपास प्रसरी रही हती. हारमोनियम, तबला, नोबत, नगारा, नागस्वरम् विगेरे वाजंत्रोना मीठा-मीठा स्वरो सूर्योदयथी शरु थइ अर्धरात्र पर्यन्त धारवाडनी जनताने उत्साहित करी रह्या हता.
प्रतिष्ठा - महोत्सवनो शुभ दिवस आवतांज वेंगलोर, मद्रास, मैसुर, चितोरदुर्ग, राणीविन्नुर, हरीयाल, बेडगी, हवेली, हुबली, गंधक, आदवाणी. रायचूर, सीमोगा, भद्रावती, कडर, बाणावार, बीलुर, हजामपुर, हेलरखेडा, चिकजाजुर, बोरींगपेट, कोल्हापुर, बारसी, पूना, मुंबई, सांगली,
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धारवाडमां प्रतिष्टा-महोत्सवनी धामधूम, अजोड संप.
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बेलगाम, नवगुद, अनगिरि विगेरे स्थळेथी तथा मारवाडथी पण श्रावक-गृहस्थो मोटी संख्यामां आवी पहोंच्या. आसपासना शहेरो तथा गामडाओना पधारेला हजारो जैन भाईंओ उपरांत वराड तथा मारवाड आदि दूर प्रांतोथी पण एक हजार प्रतिनिधि-महाशयो आ महोत्सवमां आव्या हता. प्रतिष्ठा-महोत्सव तथा दीक्षा-महोत्सव प्रसंगनी शोभा-वृद्धि माटे सुप्रसिद्ध गवर्नमेंट बेंड संपूर्ण साज साथे हाजर राखवामां आव्युं हतुं. यति-समुदाय पण ठीक-ठीक संख्यामां उपस्थित हतो.
अजोड संप. महा वदि ११ सोमवारथी वाजिंत्रोना गंभीर गडगडाट वच्चे प्रतिष्ठा-महोत्सवनो प्रारंभ थयो. आज-काल श्वेतांबरो अने दिगंबरोना झघडा ठेक-ठेकाणे लागी रह्या छे; परंतु परमात्माना अतिशयथी, शासनदेवनी कृपाथी, अने महात्मा मुनिवर्यना पुण्य-प्रभावथी आ ठेकाणे ए कुसंप अदृश्य थइ गयो हतो. एटलुंज नहिं, पण आ समये दिगंबर भाईओए आ महोत्सवमा संपूर्ण भाग लीधो हतो. अने तेमणे देशदेशांतरना एकठा थयेला हजारो जैनोने आ अजोड-संपर्नु ज्वलंत दृष्टांत आप्युं हतुं. श्वेतांबर अने दिगंबर, जैन-शासनना बन्ने महान् समुदायना लोको कोई पण प्रकारनो भेदभाव राख्या विना एकठा थइ आ मांगलिक कार्यमा सामेल थया हता.
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
बोली बोलीने लाभ लेवावाळा सद्गृहस्थोनां
शुभ नाम. १ शा जसाजी खुमाजी, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम वाधावाळा तरफथी रूपिया २२०१) बे हजार बसो एक आपी ध्वजा चडाववामां आवी; अने मूळ नायक श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनेन्द्रनो भंडार पूर्यो.
२ शा धुराजी उमाजी. गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम तखतगढवाळा तरफथी रूपिया ११२५) एक हजार एकसो पच्चीश आपी मूळ-नायकजीने इं९ चडाववामां आव्यु, अने भंडार पूर्यो.
३ शा पुनमचंद अमीचंद, गाम धारवाड, मारवाडमा गाम सेवाडीवाळा तरफथी रूपिया ५५१) पांचसो एकावन आपी मूळ-नायकजीना दंडनो चडावो बोली भंडार पूर्यो.
४ शा गजीगजी त्रिलोकचंदजी, गाम होलीआलुरवाळा तरफथी रूपिया १०५१) एक हजार एकावन आपी मूळनायक श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभुने गादी उपर बिराजमान कर्या, अने भंडार पूर्यो.
५ शा हजारीमलजी जीवराजजी, गाम मद्रासवाळा तरफथी रूपिया ५५१) पांचसो एकावन आपी श्री नेमिनाथ प्रभुने गादी उपर बिराजमान कर्या, भने भंडार पूर्यो.
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बोली बोलीने लाभ लेवावाळा सद्गृहस्थोनां शुभ नाम. ५३
६ शा पुनमचंद अमीचंद, गाम धारवाड, मारवाडमां गाम-सेवाडीवाळा तरफथी रूपिया ३०१) त्रणसो एक आपी श्री मुनिसुव्रत स्वामीने गादी उपर विराजमान कर्या, अने भंडार पूर्यो.
७ शा पुनमचंद अमीचंद, गाम धारवाड, मारवाडमां गाम सेवाडीवाळा तरफथी रूपिया २७५) बम्रो पंचोतेर आपी श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्रने ध्वजा चडाववामां आवी, अने भंडार पूर्यो.
८ शा छोगमल दानाजी, गाम धारवाड, मारवाडमां गाम तखतगढवाळा तरफथी तोरण बांधवाना रूपिया २१२). बसो बार बोली भंडार पूर्यो.
९ शा परतापजी मगनीराम, गाम-बेलगामवाळा तरफथी श्री नेमिनाथ प्रभुजीने इंडं चडाववामां आव्युं, अने भंडार पूर्यो.
१० शा जुहारमलजी परतापजी, गाम-धारवाडवाळा तरफथी श्री पद्मावती देवीने बिराजमान करवामां आव्या.
११ शा अमीचंदजी चुनीलाल, गाम-बेलगामवाळाए ' श्रीमाणिभद्रजीने बिराजमान कर्या.
१२ शा भेराजी वरधीचंद, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम सेवाडीवाळाए श्रीपार्श्व यक्षने बिराजमान कर्या.
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
१३ शा. परतापजी मगनीरामजी, गाम-बेलगामवाळा तरफथी श्री मुनिसुव्रत स्वामीने ध्वजा चडाववामां आवी.
१४ शा गुलाबचंद तेजाजी, गाम-धारवाडवाळा तरफथी श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने दंड चडाववामां आव्यो.
१५ शा श्रीचंद अनोपचंद, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम सादरीवाळा तरफथी श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने इं९ चडाववामां आव्यु.
१६ शा जुवानमल हांसाजी, गाम-धारवाडवाळाए दंड चडाव्या.
१७ शा उमेदमल हेमराज, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम सादरीवाळा तरफथी श्री नेमिनाथ प्रभुने दंड चडाव्यो. .. १८ शा रायचंद जेकरणजी, गाम धारवाड, मारवाडमां गाम सादरीवाळा तरफथी तोरण वधाववामां आव्युं.
१९ शा वालचंद अनोपचंद, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम सादरीवाळा तरफथी पंचतीर्थी-श्री पार्श्वनाथ बिराजमान करवामां आव्या.
२० शा जुवानमल हांसाजी, गाम-धारवाडवाळा तर· फथी चोवीशी बिराजमान करवामां आव्या.
२१ शा उमेदमल जुहारमल, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम सेवाडीवाळा तरफथी शान्ति जलधारा देवामां आवी.
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भाई जीवराज और भाई साकरचन्दका दीक्षा महोत्सव
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भाई साकरचंद तथा भाई जीवराजनो दीक्षा-महोत्सव.. ५५
आवी रीते आ प्रसंग उपर तमाम बोली बोलनार अने लाभ लेनार महाशयो तरफथी आशरे पंदर हजार रूपियानी आवक थइ. उत्सव आराधनाना दिवसोमां तरेहवार पकवानोथी नवकारशीओ थइ हती, सायंकाले दिगंबर भाईओने निमंत्रण दइ भोजन कराववामां आवतुं हतुं. हमेशां सवारसांज मोटा ठाठ-माठथी वरघोडो नीकळतो हतो; तेमां हाथी, घोडेस्वारो, गवर्नमेंटनुं सुप्रसिद्ध बेंड, मुंबईनी गायन मंडळी अने पालखी विगेरे सामग्रीथी अद्वितीय शोभा थइ रही हती. धारवाडना वोलींटियरोनो परिश्रम प्रशंसा-पात्र हतो. आखा धारवाड शहेरनी अंदर उत्सवना दिवसोमां आनंद-आनंद छवाइ रह्यो हतो. आ प्रमाणे सांगली निवासी सुश्रावक फकीरचंदभाईना शुभ हस्ते मुनि महाराज श्रीभावविजयजी महाराजना नेतृत्व नीचे प्रतिष्ठा-विधिनुं कार्य संपूर्ण थयु. भाई साकरचंद तथा भाई जीवराजनो वरसी
दाननो वरघोडो, बन्ने मुमुक्षुओनी धारवा- डना राणी-बगीचामां श्रीसंघ समक्ष
थयेली धामधूमथी दीक्षा. - प्रतिष्ठाना महान् उत्सवमां भाव-साधु वैरागीभाई साकरचंद तथा भाई जीवराजे पण उत्साह-पूर्वक संपूर्ण लाभ लीधो.
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५६ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. ए बन्ने भव्यात्माओनी शुभ भावना दिन-प्रतिदिन वृद्धि ज पामती गइ. श्रद्धाळु अने भाविक श्रावकोए आ बन्ने भाग्यशाळीओनो आदर-सत्कार करवामां मणा न राखी. आ बन्ने मुमुक्षुओने पोताने आंगणे पधरावी पोतानुं घर पावन करता हता. संवत् १९८९ ना फागण शुदि ३ सोमवारनो शुभ दिवस हतो. ए पवित्र दिवसे प्रतिष्ठा-विधिनुं कार्य खतम थतां आ बन्ने मुमुक्षुओनो वरसीदाननो वरघोडो मोटी धामधूमथी चड्यो. प्रतिष्ठा प्रसंगे पधारेला हजारों स्त्री-पुरुषो आ वरघोडामा सामेल थया. आ बन्ने मुमुक्षुओना दर्शन माटे आखा धारवाड शहेरनी मानव-मेदनी उलटी हती, बहुमूल्य आभूषणो अने सुंदर वस्त्रोथी सज्ज थयेली सौभाग्यवंती स्त्रीओ दीक्षा-प्रसंगनां धवल-मंगल गाइ भाव--साधु
ओनी भावनाने अनुमोदती हती. चारे तरफ श्रीपार्श्वनाथ प्रभुनी, जैन शासननी, अने महात्मा मुनिराज श्रीभावविजयजी महाराजनी जयघोषणाना नाद गुंजी रह्या हता; तेमां वरसीदान देता आ बन्ने भाग्यशाळीओ वरघोडामां दरेक स्त्रीपुरुषोनी दृष्टि खेंची रह्या हता. वरघोडो धीमे धीमे आगळ वधतो हतो, अने धारवाडना राणी बगीचामां उतो. परम प्रभावशाळी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे गंभीर अने शांत नादथी दीक्षानी क्रिया कराववी शरु करी, सौ कोई पोत-पोताने स्थाने बेसी गया, अने दीक्षा-क्रिया स्वस्थ चित्ते सांभळवा लाग्या. राणी--बगीचाना घटादार
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भाई साकरचंद तथा भाई जीवराजनो दीक्षा महोत्सव.
आसो - पालवना वृक्ष नीचे आ बने मुमुक्षुओने शुभ चोघडिये मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना शुभ हस्ते दीक्षा देवामां आवी, अने सकल संघ समक्ष बन्ने भव्यात्माओने मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना शिष्य तरीके जाहेर करवामां आव्या. भाई साकरचंदनुं नाम मुनि सत्यविजयजी अने भाई जीवराजनुं नाम मुनि जीवविजयजी राखवामां आव्युं. शुभ भावना उपर आरूढ थला आ बने मुमुक्षुओने रजोहरण ( ओघो ) अर्पण थतां जाणे भवसमुद्री तरवाने उत्तम वहाण प्राप्त थयुं होयनी ! एवी रीते रजोहरण हस्तमां लइ बहुज खुशी थतां सुंदर नृत्य कर्यु ! नजरे जोनारा भाई बहेनो आ अपूर्व दृश्य जोइ तेमनी चडती भावनानी मुक्तकंठे प्रशंसा करवा लाग्या, अने जैन - शासननी जय - घोषणा गाजी रही.
भाई साकरचंद उर्फे मुनि सत्यविजयजी महाराजने तेमना भाई मगराजजी तरफथी रजोहरण अर्पण करवामां आव्युं, अने तेमना बनेवी शा. धुराजी उमाजी, गाम- धारवाड, मारवाडमां गाम तखतगढवाळा तरफथी पात्रां विगेरे वहोराववामां आव्या. भाई जीवराज उर्फ मुनि जीवविजयजी महाराजने धारवाडना श्रीसंघ तरफथी रजोहरण अर्पण करवामां आव्युं, अने शा पुनमचंद अमीचंद, गाम- धारवाड, मारवाडमां गाम सेवाडीवाळा तरफथी पात्रां विगेरे अर्पण करवामां आव्युं. दीक्षा थया बाद बन्ने नव-दीक्षितो ने
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
निरतिचार संयम पाळवा, वैराग्य भावनाने दृढ करवा, अने वीतराग प्रभुना शासनने शोभाववा माटे गुरुदेव श्री भावविजयजी महाराजे बहुज शांतिथी उपदेश आप्यो हतो. उपकरणनी जुदी जुदी बोलीना आशरे पांचसो रूपियानी आवक थइ हती; अने शा. धुराजी उमाजी, गाम-धारवाड, मारवाडमां गाम-तखतगढवाळा तरफथी श्रीफळनी प्रभावना करवामां आवी. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज बन्ने शिष्य-रत्नो साथे ए रात्रि त्यांज रह्या. बीजे दिवसे श्रीसंघ तरफथी हाथी, घोडेस्वारो, अने बेंड विगेरे वाजिंत्रो साथे घणाज ठाठ-माठथी सामैयुं करवामां आव्यु, अने बन्ने नव-दीक्षित शिष्यो साथे मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज वाजते-गाजते अने जयोद्घोषणा बच्चे धारवाड शहेरना उपाश्रयमां पधार्या. पदवी प्रदान माटे श्रीसंघनो आग्रह, निरभिमानी महात्मा मुनिवर्ये देखाडेली
पोतानी लघुता अने निःस्पृहता.
आवी रीते प्रतिष्ठानुं महान् कार्य आप्रभावशाली महात्मानी आगेवानी नीचे घणीज धामधूमथी उत्साह-पूर्वक उजवायुं, वळी आ संयमशील शांतमूर्ति मुनिराजने सुपात्र अने वैरागी बे शिष्यरत्नो थया. तेथी तेमना गुणोथी आकर्षाइ प्रतिष्ठा अने दीक्षा-महोत्सव प्रसंगे पधारेला
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पदवी प्रदान माटे श्री संघनो आग्रह, मुनिवर्ये देखाडेली पोतानी लघुता. ५९
आशरे बसो गामना प्रतिनिधिओए एकठा थइ मुनिवर्यने विनति करी के, “महात्मन् ! आप जेवा ज्ञानी, प्रखर वक्ता, अने संयमशील महापुरुषो आ भारतभूमिमां विचरी रह्या छो, तेथी जैन शासन जयवंतु वर्ते छे. अनार्य जेवा क्षेत्रने आपे आर्यक्षेत्र जेवू बनावी दीधुं छे. धर्मथी अजाण कर्णाटक देशनो आपे उद्धार को छे, अने तेथी आपना अमे अनुगृहीत छीए. परिश्रम लइ आपना उपदेशनो लाभ आपी तथा जाहेर लेक्चरो आपीने आपे आ देशना हिंसक हजारो स्त्री-पुरुषोने मांस-मदिरानो त्याग कराव्यो छे. वळी वधारे आनंदनी वात ए छे के, आपने सुपात्र बे शिष्यो थया छे; तेथी आपने अमारी नम्र विनति छ के, आप श्री संघ समक्ष पंन्यास पदवी स्वीकारो, अने त्यार पछी थोडा ज दिवसोमां आचार्य पदवी स्वीकारवा कृपा करो. आ महान् पदवी आपनार तथा लेनार बन्नेने शिरे केटली जवाबदारी रहे छे ए अमो समजीए छीए; परंतु आपना समागमथी अमोने खात्री थइ छ के, ए महान् पदवीने आप पूरेपूरा लायक छो." मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे जवाब आपतां कडं के, " भव्यो ! मारा जेवा साधारण मुनिमां श्रीसंघे आटली योग्यता जोई ए पूज्य श्रीसंघनी गुणग्राहिता छे. मारे हजु संयम माटे विशेष केळवावानी जरुर छे. हुं मानुं हुंके, मुनिधर्मने यथास्थित पाळनारा प्राचीन के अर्वाचीन मुनिवर्योना चारित्रनी अपेक्षाए हजु हुं
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. वास्तविक मुनिपदी पण घणो दूर लुं. श्रीसंघनो आशीर्वाद मागुं हुं के, श्रीसंघ मारामां जेवा गुण देखे छे तेवा गुणो प्राप्त थवा माटे मने आत्म- जागृति थाय. " आ प्रमाणे मुनिवर्यनी लघुता, निरभिमानीपणुं, अने हार्दिक सरलता जोइ श्रीसंघ दंग थइ गयो. छतां कर्णाटकमां घणा मनुष्यो तो मुनिवर्यनो प्रभाव जोड़ आचार्य महाराज कहीने ज बोलावे छे.
श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभुनुं प्रतिष्ठा - महोत्सव प्रसंग गर्भित स्तवन.
[ राग - देखोरी जिगंदा प्यारा, मुणिंदा प्यारा. ] समकिती देवी पद्मावती सोहे, पद्मावती सोहे, सुर नर सेवे पाय;
देखोरी जिणंदा प्यारा, मुणिंदा प्यारा. देखोरी जिणंदा पार्श्वनाथ,
देखोरी जिणंदा प्यारा, मुणिंदा प्यारा ॥ ए आंकणी || मनसा पूरे साहेब सारी, साहेब सारी, माणिभद्र महाराज; देखो० जि० मु०, देखोरी जिणंदा पार्श्वनाथ, दे० जि०, मु० ॥ १ ॥ संघ मली एक चोवटे रे, चो, कीधो एकज मन्न, दे०; प्रतिष्ठा पार्श्वनाथनीजी, पा०, तेडावो सारोय संघ, दे० ॥ २ ॥
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श्री सिद्धक्षेत्र चिन्तामणि पार्श्वनाथनुं प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंगनुं स्तवन. ६१ लखी कागद कंकुपत्री आजे, कं०, देश विदेशरे मांय, दे० धारवाडनगरे ओच्छव भारी, ओ०, आइजोरे संघ तमाम, दे०३ देश विदेशथी आवियोरे, आ०, नर-नारीनो परिवार, दे० द्रव्य खरचियो उमंगथी रे, उ०, भरियो पुण्य भंडार, दे०४ भेटो भवी तुमे भावथी रे, भा०, भेटत भव दुःख जाय, दे०; ओच्छव तणी रचना कहुं रे, र०, सुणजो चित्त लगाय, दे० ५
हस्ती घोडा पालखी रे, पा०, सूर्य ने चन्द्रनी जोड, दे०; मोटर बगियां मोकली रे, मो०, बेन्ड घणो हुशियार, दे० ६ मंडप ती शोभा कहुं रे, शो०, पीठिका तणो मंडाण, दे०; समवसरण शोभा घणी रे, शो०, नाटक विध विध होय, दे० ७ झळके लाईट विजळी रे, वि०, रचनानो नहिं पार, दे० रंग दुरंगी धजा बावटा रे, वा०, घर घर मंगलाचार, दे० ८ दल देखी बादल चढियां, बा०, आव्या इन्द्र महाराज, दे०; रचना देखी चित्त उलसियां, चि०, वरसीने गया निज ठाम, दे०९ भावविजयजीना प्रतापथी रे, प्र०, शान्ति घणी सराय, दे०; प्रतिष्ठा विधि पूरण कीनी, पू०, फकीरचंद भल भाय, दे० १० ओगणीसें नव्यासीए रे, न०, फाल्गुण मास मोझार, दे०; शुदि बीज सोमवारने रे, सो, तखत बिराजे महाराज, दे० ११ भावविजयजी बोधिया रे, बो०, साकरचंद जीवराज, दे०;
हीज दिवसे दीक्षा दीनी, दी०, सत्य जीब मुनिमहाराज, दे०१२
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६२ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र. केशव मंडली अति भली रे, अ०, संघ दियो सोभाग, दे०; सद्गुरुना उपदेशथी रे, उ०, उमेद सभामां गाय रे
देखोरी जिणंदा प्यारा, मुणिंदा प्यारा;
देखोरी जिणंदा पार्श्वनाथ, दे० जि० मु० ॥ १३ ॥ धारवाडथी बेलगाम, भिन्न भिन्न शहेरो तरफथी
आवेली चतुर्मास माटे विनति. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज धारवाडथी पोताना बन्ने शिष्यो साथे ग्रामानुग्राम विहार करता बेलगाम पधार्या. तेमणे रस्तामा पोताना ज्ञान-ध्यान उपरांत बन्ने नव-दीक्षितोने अध्ययन कराववानुं चालु करी दीधुं. कळी आ देशना वतनी लोकोने कनडी भाषामां जाहेर लेक्चरो आपी तेमने मांस-मदिरानो त्याग करावी सन्मार्गे दोरवानुं पोतानुं मुख्य ध्येय पण चालु राख्युं. अहीं चैत्र मासनी ओळीनो समय नजीक होवाथी व्याख्यानमां नवपद आराधनानुं माहात्म्य वांच्युं, मुनिवर्यनी देशनानी सचोट असर थवाथी बेलगामना घणा भाविक श्रावको अने श्राविकाओए नवपद-आराधनमा उत्साहभर्यो भाग लीधो, अने प्रतिवर्ष करतां आ वरसे अहीं आयंबिलनी तपस्या विशेष प्रमाणमां थइ. ____ ओळी पूर्ण थतां धारवाडना श्री संघ तरफथी चातुर्मास माटे विनति आवी, वळी बेलगामना श्री संघने थोडाज
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बेलगाम अने वीजापुर तरफ विहार, चतुर्मास माटेनी विनति. ६३ समयमां विशेष लाभ मळवाथी आ महात्माश्रीने चातुर्मास माटे पोताना शहेरमां रोकवा उत्कट इच्छा थइ, अने तेथी तेमणे आग्रहभरी विनति करी. वळी कर्णाटकमां आ प्रभावशील मुनिवर्ये ज्या ज्यां विचरी पोतानी अमृतमय-देशनानो अमूल्य लाभ आप्यो हतो ते ते आसपासना पुष्कळ गामो अने शहेरो तरफथी विनति करवा माटे अग्रेसरो आववा लाग्या, अने पोताना गाममां पधारी चतुर्मास करवा नरमाशथी विनति करी, परंतु हजु चतुर्मासने विशेष टाइम होवाथी जेवी क्षेत्र फरसना कही मुनिवर्ये जवाब आप्यो.
बेलगामथी बीजापुर. . बेलगामथी विहार करी अनुक्रमे निपाणी पधार्या, त्यां थोडा दिवस स्थिरता करी व्याख्यान-वाणीनो अच्छो लाभ आप्यो. निपाणीना भाविक श्रावकोए पण त्रणे मुनिवर्यनी यथाशक्ति भक्ति करी. त्यांथी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज पोताना बन्ने शिष्यरत्नो साथे मुधोळ पधार्या, अहीं जैन भाईओनी वस्ती ठीक छे, वळी सुखी छे तेथी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे भव्य देरासरजी कराववानो उपदेश आप्यो, मुधोळना भाविक श्रावकोए आ हकीकत लक्ष्यमां लीधी. त्यांथी बीजापुर तरफ विहार कर्यो, अने संवत् १९८९ ना जेठ शुदि १३ ना रोज बीजापुरना उत्साही श्री संघ तरफथी करायेला भव्य स्वागत अने धामधूमपूर्वक बीजापुर, शहेरमा प्रवेश कर्यो.
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६४ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजतुं जीवन चरित्र.
बीजापुरमां चतुर्मास.
बीजापुरना श्री संघना अग्रेसरो धारवाड - प्रतिष्ठा महोत्सव वखते आव्या हता, तेमणे मुनिवर्यनो प्रभाव, शांत मुद्रा, शुद्ध संयम अने विद्वत्ता ए बधुंय नजरे जोयुं तथा अनुभवयुं हतुं. आवा सुपात्र मुनिराजोना ऋण ठाणा पोताना शरमां पधारेला होवाथी श्री संघने अनहद आनंद थयो, अने श्री संघे एकठा थइ चतुर्मास माटे आग्रह -भरी विनति करी. हवे चतुर्मासना दिवसो नजीकमां ज हता, श्रावक भाईओ तथा श्राविका बहेनोनी धर्म तरफनी अद्वितीय श्रद्धा जोड, आवा भाविक अने उत्साही श्री संघने चतुर्मासमां विशेष लाभ थशे, एम विचारी ज्ञानी महात्मा श्रीए चतुर्मास माटे संमति आपी. जेथी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजकी जय ए प्रमाणे जयोद्घोषणा वच्चे बीजापुरना भाविक श्रावको मुनिवर्यनो उपकार मान्यो.
संवेगरंगी यतिजीनुं बीजापुरमां आगमन.
धारवाडना प्रतिष्ठा - महोत्सव प्रसंगे यति वर्ग ठीक-ठीक संख्यामां जमा थयो हतो ए हकीकत अगाडी जणावी गया छीए. आ समये डीसा केम्पना यतिजी भक्तिविजयजीना शिष्य यतिजी श्री केसरविजयजी पण पधार्या हता. आ महोत्सव प्रसंगे वे भाग्यशालीओने उपजेलो वैराग्य, तेमनी अस्खलित शुभ
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बीजापुरमा चतुर्मास निर्णय, वैर गी यतिजी- आगमन अने दीक्षा. ६५ भावना, अने तेमनो दीक्षा-महोत्सव तेमणे नजरे जोयो हतो. वळी मुनिवर्य श्री भावविजयजी महाराजनो प्रभाव, शांत मुद्रा, अने पवित्र चारित्रे तेमना हृदयमां उंडी छाप पाडी हती. तेथी एज वखते तेमने यतिवेषना शिथिलाचार तरफ अरुचि थइ. पोते यतिपणामां धार्मिक ज्ञान सार्क मेळव्युं हतुं, तेथी भिन्न भिन्न कर्म केवी रीते संसारना प्राणीओने नचावी रहेल छे, ए तेओ जाणता ज हता; तेमां उपरनां कारणो मळवाथी तेमने संवेगी दीक्षा अंगीकार करवानी शुभ भावना जागृत थइ. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजने तेमणे एज वखते पोतानी भावना जणावीने संवेगी दीक्षा आपवा अरज करी, त्यारे ज्ञानी मुनिवर्ये कर्वा के, “ तमारी भावना अनुमोदवा योग्य छ, चारित्र आदरणीय छ, अने तमारा जेवा वैरागीने संवेगी दीक्षा आपवी ए मारी फरज छे. परंतु तमारा गुरुजीनी राजीखुशीथी रजा लीधा पछी संवेगी दीक्षा लेवाय तो वधारे ठीक." आ हकीकत तेमने पण योग्य जणाइ. तुरत तेओ डीसाकेम्प आव्या, अने बहु ज शांतिथी यतिजी श्री भक्तिविजयजीने समजाव्या. सरल स्वभावी यतिजी श्री भक्तिविजयजीए पोताना शिष्यनी उंची भावना जोइ बहुज प्रसन्न-चित्ते रजा आपी. आ प्रमाणे पोताना गुरुजीनी रजा मेळवी तेओ बीजापुर पधार्या, अने पोताने संवेगी-दीक्षा अंगीकार करवानो पोतानो निर्णय श्री संघ समक्ष मुनिवर्य श्री भावविजयजी महाराज पासे व्यक्त कर्यो.
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
यतिवर्य श्री केसरविजयजीनी संवेगी दीक्षा.
बीजापुरना श्री संघे आवा वैरागी यतिवर्य पोताना शहेरमां संवेगी दीक्षा लेवाने तत्पर थया जाणी घणो ज आनंद प्रदर्शित करवा साथे संमति आपी, अने दीक्षानुं शुभ मुहूर्त जेठ वदि दशमनुं नक्की करवामां आव्यु. भाविक श्रावकोए आ भाग्यशाळी भव्यात्माने पोत-पोताने घेर आदर-सत्कार पूर्वक निमन्त्रण करी भावपूर्वक भक्ति करी. दीक्षाने दिवसे बेंड विगेरे वाजिंत्रो साथे ठाठमाठथी वरघोडो चड्यो, अने शुभ मुहूर्ते मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना पवित्र हस्ते संवेगी दीक्षा देवामां आवी, अने मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजना शिष्य तरीके श्री संघ समक्ष जाहेर करवामां आव्या. तेमनुं यतिपणानुं जे नाम हतुं एज नाम मुनि केसरविजयजी राखवामां आव्युं. रजोहरण, पात्रां विगेरे उपकरणोनी बोलीना रूपिया एक हजारनी आवक थइ.
त्रणे शिष्योने अपायेली वडी दीक्षा.
आ नव-दीक्षित त्रणे शिष्य-रत्नोने संयममां दृढ अने सुपात्र जाणी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे वडीदीक्षाना योगोद्वहननी क्रिया शरु करावी, अने बीजापुरना उत्साही श्री संघे करेली धामधूम-पूर्वक त्रणे मुनिओने संवत् १९८९ ना असाड शुदि ११ अने सोमवारना रोज वडी दीक्षा देवामां आवी. आ त्रण मुनिवर्यामां मुनिराज श्री केसरविजयजीने मोटा करवामां आव्या. तेमनाथी नाना जीववि
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बीजापुरमा त्रणे शिष्योने अपायेली वडी दीक्षा.
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जयजी महाराजने करवामां आव्या, अने सौथी नाना मुनिराज श्री सत्यविजयजीने करवामां आव्या. . ___ आ प्रमाणे पोताना त्रण शिष्यरत्नो साथे मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे संवत् १९८९ नुं चतुर्मास बीजापुरमां कर्यु. हमेशां सवारमा व्याख्यान वांचवानुं शरु कयु. व्याख्यानमां श्री भगवती सूत्र, तथा भावनाधिकारे अभिधान राजेन्द्र कोष अने वर्धमान देशना वांचवामां आवी. निष्पक्षपात अने वैराग्यमय व्याख्यान चालु थतां अन्यमतावलंबीओ पण आकर्षाया, अने श्वेतांबर भाई-व्हेनो उपरांत दिगंबर भाईव्हेनो तथा लिंगायत ब्राह्मण विद्वानो पण व्याख्यानमां नियमसर हाजर रहेवा लाग्या. व्याख्यानमां केटलाक विषयो चर्चाता, ते उपरांत बपोरना पण शंकाओ पूछवा ब्राह्मणो विगेरे आवता. दरेक शंकानां समाधान मुनिवर्य तरफथी खुलासावार थतां होवाथी तेमने आज सुधी जैन धर्म विषे जे भ्रान्ति हती ते दूर थई. खरा वैरागी, परोपकारी अने वन्दनीय जैन साधुओ छे, एवो तेमणे उत्तम अभिप्राय बांध्यो. कयु छ के
" वदनं प्रसादसदनं, सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः ।
करणं परोपकरणं, येषां केषां न ते वन्द्याः ? ॥ १॥" " जेमर्नु मुख प्रसन्नतानुं घर छे, जेमनुं हृदय दयालु छे, अमृत झरती जेमनी वाणी छे, अने परोपकार एज
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६८ मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
जेमनुं मुख्य कर्तव्य छे, एवा संत पुरुषो कोने वन्दनीय नथी होता ? "
महापुरुषो ज्यां विचरे त्यां धार्मिक उद्योत थाय ज, तेम अहीं पण बन्युं, आ चोमासामां श्रावक भाईओ तथा श्राविका व्हेनोए सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा अने तपस्यादि धार्मिक कार्योंमां विशेष प्रमाणमां भाग लीधो. मुनिवर्याने वन्दन करवा माटे बहार गामथी आवता साधर्मिक भाईओनो आदर-सत्कार बीजापुरमा रहेता भाग्यशाळी शेठ गणपत - चंदजी पदमचंदजी तरफथी पूर्ण भाव-भक्तिथी आखा चतुमसमां करवामां आव्यो हतो.
मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे पोताना ज्ञानध्यान उपरांत त्रणे शिष्योने भणाववानुं चालु कर्यु. वळी तेमने संस्कृतनुं उंचुं ज्ञान आपवा माटे बीजापुरना भाविक श्री संघना खर्चे तेमनी विनतिथी व्याकरण - तीर्थ बनेला एक जैन पंडितने बोलाववामां आव्या, अने त्रणे शिष्य - रत्न रात्रि - दिवस पठन-पाठनमां दत्त - चित्त रही पोतानो अभ्यास आगळ वधारवा लाग्या.
बीजापुरमा प्लेगनो उपद्रव, शान्तिस्नात्रना प्रभावथी थयेली प्लेगनी शान्ति.
चतुर्मास पूर्ण थवाने थोडा दिवस अवशेष रह्या,
तेवामां
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बीजपुरमा शान्तिस्नात्रथी थयेल प्लेगनी शान्ति.
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बीजापुरमा प्लेगनो उपद्रव चालु थयो. दिवसे दिवसे ए कारमा रोगे जोर पकडयुं, अने संख्याबंध मनुष्योनो संहार थवा लाग्यो . आ हृदयद्रावक दृश्यथी व्याकुल बनेला श्रीसंघना आगेवान श्रावको एकठा थई मुनिराजश्रीने तेनी शान्ति माटे क्रिया करवा विनति करी. त्यारे दयाळु मुनिवर्ये जणाव्युं के - " महाप्रभाविक शान्ति - स्नात्र भणावो, शासनदेवनी कृपाथी रोगनी शान्ति थई जशे . " प्लेगथी विळ बनेला श्रीसंघे आ वचन सांभळी तुरत शान्ति - स्नात्र संबन्धी सामग्री तैयार करी, अने मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनी आगे - वानी नीचे शान्ति - स्नात्र भणाववामां आव्युं. ए पवित्र क्रियाना प्रभावथी, शासनदेवनी कृपाथी, अने महात्मा मुनिराजना अतिशयथी ए कारमा रोगनी शान्ति थई; तेथी जैनेतरो पण जैन - शासननी उत्तमता विषे मुक्त कंठे प्रशंसा करवा लाग्या.
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बीजापुरी विहार.
आवी रीते बीजापुरमा कुशल - शान्ति पूर्वक चतुर्मास पूर्ण कर्यु, अने संवत् १९९० ना कार्तिक वदि सातमना रोज श्री संघ-समुदाय साथै सवारना आठ बजे विहार कर्यो. विहार दरम्यान रस्तामां आवता हाथणी, सांगली, विगेरे गामोमां जैन तथा जैनेतरोने उपदेश आपता, भाविक श्रावकश्राविकाओने व्रत उच्चरावता, केटलाक मांसाहारी अने दारुडीयाओने प्रतिबोधी मांस, शिकार अने दारु विगेरेनी प्रतिज्ञा करावता कराड पधार्या.
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
मुनिराज श्री भावविजयजी पोताना शिष्य-समुदाय साथे पधारतां कराडना श्री संघे सारो सत्कार को. पोताना शहेरमां आवा वैरागी अने संयमशील मुनिवर्योनो लाभ मळवाथी कराडना श्री संघे वधारे स्थिरता करवा जणाव्युं, अने तेम न बनी शके तो छेवटे फागण चोमासा सुधी रोकावा विनति करी. परंतु गुरुदेव आचार्यजी महाराज श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजे पोतानी भेगा थवानुं फरमावेलं होवाथी रोकाया नहिं. त्यांथी विहार करी रहिमतपुर पधार्या, अने श्री संघना आग्रहथी त्यां फागण चोमासा सुधी स्थिरता करी. त्यांथी विचरता विचरता लुणद गाम आव्या. आ वखते चैत्री ओळी नजीकमां आववानी होवाथी लुणदना श्री संघे विनति करी के “ महाराज साहेब! जो आप ओळी सुधी स्थिरता करो तो आपना सदुपदेशथी ओळीनी पवित्र क्रियामां घणा भाई-बहेनो जोडाशे, आयंबिलनी तपस्या विशेष प्रमाणमां थशे, अने नवपदनुं आराधन सक्रिय थशे."
आ प्रमाणे श्री संघनी विनति थवाथी, अने तपस्यादि विशेष लाभर्नु कारण जाणी चैत्री ओळी सुधी लुणदमां स्थिरता करी. . त्यांथी ग्रामानुग्राम विचरता अने गुरु-सेवामां लाभ मानता दीवाघाटनी तलेटीमां पधार्या. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज पोताना शिष्य-समुदाय साथे नजीकमां पधार्या छे, एवा समाचार फेलातां पूना शहेरना श्री संघ वती श्रीयुत कान्तिलालभाई विगेरे गृहस्थो सामा आव्या,
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गुरुदेव तरफ मुनिवर्यनी अनन्य भक्ति. ७१ अने सत्कार-पूर्वक पूना शहेरमां भवानी पेंठने उपाश्रये लई गया. पूनाना श्री संघनी चतुर्मास माटे विनति, गुरुदेव तरफथी विहार करवानी आज्ञा.
अहीं पधारी मुनिवर्ये व्याख्यान आप्यु, अने तेमनी अमृततुल्य देशनाथी आकर्षाइ श्री संघे चतुर्मास करवानी विनति करी. मुनिवर्ये कयु के-" श्री संघनी विनति हुँ शिरोमान्य मानतो आव्यो छु. परंतु आ वर्षनुं चतुर्मास अहीं थवं मुश्केल छे, कारण के, मारा गुरुदेव आचार्यजी महाराज श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज मुरबाडमा बिराजे छे, अमारे गुरुदेवनी भेगा थवा उत्कट भावना छे. वळी गुरु महाराजनी पण आज्ञा छे के, अमारे विना विलंबे तेमनी साथे थq. छतां गुरु महाराज अहीं चतुर्मास करवानुं फरमावे, तो अमारे साधुओए तो कोई पण स्थळे धार्मिक उन्नति थाय त्यां चतुर्मास करवानुं छे. परंतु गुरुदेवनी आज्ञा विहार करवानी होवाथी चोमासु रोकाई शकाय तेम नथी." आ प्रमाणे गुरुमहाराजनी सेवा अने दर्शन माटे अभिलाषा राखता मुनिवर्ये विहार करवानी तत्परता बतावी. कयुं छे के" धन्नो सो जीअलोए, गुरवो निवसन्ति जस्स हिअयम्मि। धन्नाण वि सो धन्नो, गुरूण हियए वसइ जो उ ॥ १ ॥”
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
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आ जीवलोकमां ते पुरुष भाग्यशाली छे, के जेना हृदयमां गुरु- महाराज वसी रहेला छे. परंतु जे पुरुष गुरु महाराजना हृदयमां वसी रहेलो छे, ते मनुष्य तो भाग्यशाळीओमां पण विशेष भाग्यशाळी छे. "
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे सूचवेली हकीकतथी पूनाना श्रीसंघने जणायुं के, पधारेला मुनिराजोने आपणे चतुर्मास राखवा होय, तो तेमना गुरु- महाराजनी आज्ञानी खास जरुर छे. तेथी श्री संघे विचार करी जणाच्युं के - " अमारे आ चतुर्मासमां आपना सदुपदेशनो लाभ लेवा उत्कट भाव छे, आपे गुरु- महाराजनी आज्ञा मळे तो ज रोकावा जणान्युं, तो ए हकीकत पण अमे योग्य मानीएं छीए. माटे असे आचार्यजी महाराज पासे जई तेमनी आज्ञा लावी त्यां सुधी कृपा करी आप स्थिरता करो." मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे ए वात कबूल राखी, अने पूनाथी श्रीसंघना केटलाएक संभावित गृहस्थो मुरबाड पहोंच्या. त्यां आचार्यजी महाराज श्री विजयेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज पासे जई वन्दन कर्यु, अने तेमनी पासे मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजने पूनामां चतुर्मास करवा माटे आज्ञा आपका विनति करी. आचार्यजी महाराजे जणाव्यं के- “ आ वरसनुं चतुर्मास मुंबई करवानुं नक्की थई गयुं छे, वचन आपी चूक्या छीए, तेथी मुनि भावविजयजीने पूना चतुर्मास करवानी आज्ञा आपी शकाय तेम नथी. माटे तेमने विशेष न रोकशो. "
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मुरबाडमां गुरुदेवनां दर्शनथी थयेलो आह्लाद.. ७३ पूनाथी मुरबाड, मुरबाडमां गुरुदेवनां दर्शनथी
__थयेलो अत्यानंद. आ प्रमाणे आज्ञा न मळवाथी पूनानो श्रीसंघ हतोत्साह थयो, अने नाराज चित्ते विहार करवानी अनुमति आपी. पूनाथी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज पोताना शिष्यरत्नो साथे विहार करी मुरबाड आव्या, गुरुदेवने भक्तिभीनुं वन्दन कर्यु, अने घणा वखते गुरु-महाराजनां दर्शन करी अवर्णनीय हर्ष पाम्या.
मुरबाडथी मुंबई, मुंबईमां चतुर्मास. - मुरबाडथी मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज, गुरुदेव आचार्यजी महाराज श्री विजयेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साथे विहार करता करता भायखाला पधार्या. अहींथी श्री आदीश्वरजीनी धर्मशालामां चतुर्मास करवा माटे पधारवा आगेवान श्रावको तरफथी विनति थइ, अने बेंड विगेरे ठाठ-माठथी सामैयुं करवामां आव्यु. सामैयामां चतुर्विध श्रीसंघ साथे मुंबईनी झवेरी बजार, शराफबजार, विगेरे मुख्य-मुख्य लत्ताओमां फरी, श्री गोडीजी पार्श्वनाथ प्रभु विगेरे प्रतिमाजीओनां दर्शन करी, श्री आदीश्वरजीनी धर्मशालामां पधार्या. अहीं चतुर्मास दरम्यान हमेशां व्याख्यान वांचवानुं शरु कयु. अनेक भाविक श्रावक-श्राविकाओ देशनानो लाभ लेवा लाग्या.
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मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
जन्मभूमिमां जिनमन्दिर.
मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजनी जन्म भूमि, तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजयनी शीतल - छायामां वसेला अने पालीताणाथी पांच गाउ दूर आवेला हाथसणी गाममां छे. अत्रे जग्याना संकोचने लीधे उपाश्रयनी मेडी उपर साधारण स्थितिमां घर - देरासरजी छे, जेमां बारमा तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामीनां चमत्कारी प्रतिमाजी बिराजे छे. मुनिवर्य श्रीभाव विजयजी महाराजने विचार उद्भव्यो के, हाथसणीमां श्रावकोनां घर ठीक-ठीक होवाथी मजबूत बांध - कामवाळु खास अलग जग्यामां देरासरजी कोई पुण्यशाळी तरफथी बंधावाय तो घणा लाभनुं कारण छे. तेथी तेमणे प्रसंगोपात व्याख्यानमां नविन जिन - मन्दिर बंधाववाथी केटलो लाभ थाय ?, ए धन्य अवसर केटला पुण्यनी राशि होय तो मळे ? विगेरे जिन - मंदिर संबंधी विषय दाखला दलीलो अने असरकारक शैलीथी एवो चर्थ्यो, के जेथी व्याख्यानमां आवेला दरेक श्रोता उपर तेनी उंडी असर थई. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे पोतानी जन्म भूमि हाथसणीमां जिनालय बंधाववानी आवश्यकता जणावी, ते सांभळी तुरतज मारवाडमां गाम पादरडीवाळा शा सेसमलजी हंसाजीए पोताने खर्चे हाथसणीमां जिन-मंदिर बंधावी आपवानो पोतानो निर्णय जाहेर कर्यो. तेओ पोते तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजयनी यात्रा करवा
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जन्मभूमिमां जिनमंदिर, मुंबईमां चतुर्मास.
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आवतां, तेमने हाथसणीना श्रीसंघ तरफथी हाथसणी आववा आमन्त्रण थयुं. श्रीसंघना आमन्त्रणने मान आपी तेओ तुरतज पालीताणाथी मोटरमा हाथसणी गया, अने श्री वासुपूज्य स्वामीनां अलौकिक प्रतिमाजी, श्रीसंघ तरफथी थयेलो आदरसत्कार, गाम, तथा देरासरजी बंधाववा माटे पसंद करेली सुंदर जग्या, विगेरे जोई खुशी थया, अने देरासरजीनुं काम विनाविलंवे चालु करी देवा श्रीसंघने विनति करी. श्रीसंघे पूर्ण उत्साह साथै देरासरजी बंधाववानुं काम चालु करी दीधुं.
मुंबईथी लोनावला, नवपद आराधन.
उपर मुजब संवत् १९९० नुं चतुर्मास मुंबईमां कयुं, अने संवत् १९९९ ना पोष शुदि त्रीजना रोज मुनिराज श्री भावविजयजी महाराजे पोताना शिष्य-समुदाय साथै दक्षिण तरफ विहार कर्यो. रस्तामां आवता गामोमां अनेक मनुष्योने प्रतिबोधता मुनिराज श्री पेण विगेरे गामोमां थोडा-थोडा दिवस स्थिरता करी गाम खापोली पधार्या, अने त्यां फागण चोमासुं कर्यु. त्यांथी विचरता विचरता लोनावला पधार्या. लोनावलाना श्रीसंघनी विनतिथी चैत्री ओळी त्यां करी. संयमशील मुनिवर्योनी जोगवाइ मळतां ओळीना दिवसो दरम्यान अनेक श्रावक - भाईओ तथा श्राविका व्हेनोए नवपदनुं आराधन अच्छी रीते कयुं, अने आंयबिलनी तपस्या सारा प्रमाणमां थई.
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७६ मुनिराजश्री भावविजयजी महाराजनुं जीवन चरित्र.
पूना-लश्करमां चतुर्मास. मुनिराज श्री भावविजयजी महाराज लोनावलाथी पोताना शिष्य-समुदाय साथे विचरता-विचरता पूना-लश्कर पधार्या, अने सदर बजारमा आवेला जैन उपाश्रयमां उतर्या, अने श्रीसंघनी विनतिथी अत्रे चतुर्मास रह्या छे. अहीं हमेशां व्याख्यान वंचाय छे. व्याख्यानमां श्री भगवतीसूत्र अने भावनाधिकारे श्री शत्रुजय माहात्म्य वंचाय छे. भाविक श्रावक-भाईओ अने श्राविका-व्हेनो व्याख्याननो लाभ सारा प्रमाणमां लई रह्या छे.
पूना-लश्कर संवत् १९९१, असाड शुदि १५ ।
मंगळवार.
निवेदकगुरु-चरणोपासक, मुनि केसरविजय.
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प्रभात तथा सांझनां पच्चक्खाण.
नमुक्कारसहि मुट्ठिसहिy पच्चक्खाण. उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं, मुट्ठिसहि पच्चक्खाइ, चउबिहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥
पोरिसि साढपोरिसिनु पञ्चक्खाण. — उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं, मुट्ठिस. हियं पच्चक्खाइ, उग्गए सूरे, चउन्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सवसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥
चउविहारतुं पच्चक्खाण. दिवस चरिमं पञ्चक्खाइ, चउविहंपि आहारं, असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥
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पच्चक्खाण सूत्रो. ।
तिविहारनु पञ्चक्खाण. दिवस चरिमं पञ्चक्खाइ, तिविहंपि आहारं, असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥
दुविहारर्नु पञ्चक्खाण. दिवस चरिमं पच्चक्खाइ, दुविहंपि आहारं, असणं खाइम, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥
एकासणा तथा बियासणानुं पञ्चक्खाण. .
उग्गए सूरे, नमुक्कारसहि पोरिसिं मुट्ठिसहि पच्चक्खाइ ॥ उग्गए सूरे, चउविहंपि आहारं, असणं पाणं खाइमं साइमं ॥ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं विगइओ पञ्चक्खाइ ॥ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसट्टेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं, एगासणं वियासणं पच्चक्खाइ, तिविहंपि
१ जो एकासणानुं पञ्चक्खाण लेवु होय तो 'एगासणं' ए पद कहेवू, अने बियासणानुं पञ्चक्खाग लेवु होय तो 'वियासण' ए पद कहेQ.
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पञ्चक्खाण सूत्रो.
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आहारं, असणं खाइमं साइमं ॥ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आउंटणपसारेणं, गुरुअन्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं ॥ पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरे ॥
आयंबिलन पचक्खाण. उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं साढपोरिसिं मुट्ठिसहि पञ्चक्खाइ ॥ उग्गए सूरे, चउव्विहंपि आहारं, असणं पाणं खाइमं साइमं ॥ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरा-- गारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं ॥ आयंबिलं पञ्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसटेणं, उक्खित्तविवेगेणं पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सवसमाहिवत्तियागारेणं ॥ एगासणं पञ्चक्खाइ ॥ तिविहंपि आहारं, असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं, सागारियागारेणं आउंटणपसारेणं गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरे.
. तिविहार उपवास- पञ्चक्खाण. .. सूरे उग्गए अब्भत्तहं पञ्चक्खाइ ॥ तिविहंपि आहारं,
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पच्चक्खाण सूत्रो. .
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असणं खाइमं साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिद्यावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं ॥ पाणहार पोरिसिं, साढपोरिसिं, मुट्ठिसहि पच्चक्खाइ ।। अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं ॥ पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा, वोसिरे. . चउविहार उपवासन पचक्खाण,
सूरे उग्गए अब्भत्तटुं पच्चक्खाइ ॥ चउविहंपि आहारं, असणं पाणं खाइमं साइमं ॥ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सेवसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे.
सांजनां पच्चक्खाण. . प्रथम बियासणुं, एकासगुं, आयंबिल, तिविहार उपवास के तिविहार छह करेल होय तो पाणहारनुं पञ्चक्खाण करवू. ते आवी रीते
पाणहार, पचक्खाण. १ पाणहार दिवसचरिमं पञ्चक्खाइ। अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं,सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे.
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पच्चक्खाण सूत्रो.
जे नियम धारे तेने
देशावगासिकनुं पञ्चक्खाण.
देसावगासियं उवभोगं परिभोगं पच्चक्खाइ, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं वोसिरे.
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पोसहनुं पच्चक्खाण.
करेमि भंते पोसहं, आहारपोसहं देसओ सबओ, सरीरसकारपोसहं सबओ, बंभचेरपोसहं सबओ, अब्बावारपोसहं सबओ, चउव्विहे पोसहे ठामि ॥ जाव दिवस अहोरतं पज्जुवासामि || दुविहं तिविहेणं ॥ मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि.
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इति पच्चक्खाण सूत्राणि.
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श्री जिनेन्द्र नव अंग पूजाना दुहा..
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॥ २ ॥
॥ ३॥
जल भरी संपुट पत्रमां, युगलिक नर पूजंत । ऋषभ चरण अंगुठडो, दायक भवजल अंत ॥ १ ॥ जानु बले काउसग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश । खडां खडां केवल लघुं, पूजो जानु नरेश लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान | कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवि बहुमान मान गयुं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनंत | भुजाबले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत सिद्ध शिला गुण उजली, लोकांते भगवंत । वसीया तिण कारण भवि, शिर शिखा पूजंत तीर्थंकर पद पुण्यथी, तिहुअण जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत || ६ || सोल पहोर प्रभु देशना, कंठ विवर वर्तूल ।
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मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ॥ ७ ॥ हृदयकमल उपशम बले, बाळ्या राग ने रोष । हिम दहे वनखंडने, हृदय तिलक संतोष रत्नत्रयी गुण उजळी, सकल सुगुण विश्राम । नाभि कमलनी पूजना, करतां अविचल धाम उपदेशक नव तत्त्वना, तेणे नव अंग जिणंद । पूजो बहुविध रागथी, कहे शुभवीर मुणींद 11 2011
॥९॥
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