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श्री जिनेन्द्र नव अंग पूजाना दुहा..
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जल भरी संपुट पत्रमां, युगलिक नर पूजंत । ऋषभ चरण अंगुठडो, दायक भवजल अंत ॥ १ ॥ जानु बले काउसग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश । खडां खडां केवल लघुं, पूजो जानु नरेश लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान | कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवि बहुमान मान गयुं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनंत | भुजाबले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत सिद्ध शिला गुण उजली, लोकांते भगवंत । वसीया तिण कारण भवि, शिर शिखा पूजंत तीर्थंकर पद पुण्यथी, तिहुअण जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत || ६ || सोल पहोर प्रभु देशना, कंठ विवर वर्तूल ।
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मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ॥ ७ ॥ हृदयकमल उपशम बले, बाळ्या राग ने रोष । हिम दहे वनखंडने, हृदय तिलक संतोष रत्नत्रयी गुण उजळी, सकल सुगुण विश्राम । नाभि कमलनी पूजना, करतां अविचल धाम उपदेशक नव तत्त्वना, तेणे नव अंग जिणंद । पूजो बहुविध रागथी, कहे शुभवीर मुणींद 11 2011
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